सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है। परंतु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा। कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने ऊपर आ गया हो! अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौवे एक गमले के चारों ओर चोंचों से छूआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुंडि भी विचित्र पक्षी है – एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित। हमारे बेचारे पुरखे न गरूड़ के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए […]
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जाड़े का दिन . अमावस्या की रात – ठंढी और काली . मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भयार्त शिशु की तरह थर-थर कांप रहा था. पुरानी और उजड़ी बांस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य ! अँधेरा और निस्तब्धता ! अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी. निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने ह्रदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी. आकाश में तारे चमक रहे थे. पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं . आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी. अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे. सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी . गाँव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़ , ‘हे राम! हे […]
पुष्पदंतपुर के चौड़े राजपथ के एक किनारे जिस लोहार की दूकान थी , वह अपनी कला में प्रवीण था. किन्तु बहुत ही कम व्यक्ति उसे जानते थे. वह लोहार सिर झुकाए अनवरत परिश्रम करता .उसकी दुकान के सामने से जुलूस जाते. सम्राट की सवारी जाती. फिर भी वह कभी सिर उठाकर किसी ओर नहीं देखता था. भाथी चलाता हुआ वह लोहार अपने काम में तन्मय रहता. उसके भारी घन की चोट से तपे हुए शुद्ध लोहे से चिंगारियों की फुलझड़ियाँ सी छूटा करतीं, जिन्हें वह बहुत ही पुलकित मन से देखा करता था. उसका सारा शरीर धूल और कालिख से भरा होता. काफी रात बीतने पर वह दुकान बंद करता और चुपचाप घर की राह लेता. नागरिक उस लोहार को गूंगा और बहरा कहा करते थे. किन्तु वह था कारीगर और कलाकार. उसके घन के नीचे पहुँचते ही वज्र से भी कठोर लोहा मोम की तरह मृदुल हो जाता. वह […]
मोहन बरसों से ज्वालाप्रसाद का ऋण चुकाने की चेष्टा में था. परन्तु चेष्टा कभी सफल न होती थी. मोहन का ऋण दरिद्र के वंश की तरह दिन पर दिन बढ़ता ही जाता था. इधर कुछ दिनों से ज्वालाप्रसाद भी कुछ अधीर से हो उठे थे. रूपये अदा करने के लिए वह मोहन के यहाँ आदमी पर आदमी भेज रहे थे. समय की खराबी और महाजन की अधीरता के साथ मोहन को एक चिंता और थी. वह थी जवान लड़के शिबू की निश्चिन्तता. उसे घर के कामकाज से सरोकार न था. उस दिन कलेवा करके शिबू बाहर निकल रहा था. मोहन ने पीछे से कहा : ‘लल्लू, आज मुझे एक जगह काम पर जाना है. बैल की सार साफ करके तुम उसे पानी पिला देना.’ शिबू ने बाप की ओर मुड़कर कहा : ‘मुझसे यह बेगार न होगी. मुझे भी एक जगह जाना है. वाहियात काम के लिए मुझे फुरसत नहीं.’ […]
क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तलखी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठना था। यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह किसी बच्चे को पीट कर अपने दिल का गुबार निकालता। गोपी ने आ कर दूर से ही पुकारा – ‘साहब सलाम भाई रहमान। कहो क्या बना रहे हो?’ रहमान के मस्तिष्क का पारा सहसा कई डिग्री नीचे आ गया, यद्यपि क्रोध की मात्रा अभी भी काफी थी, बोला, ‘आओ गोपी काका। साहब सलाम।’ ‘बड़े तेज हो, क्या बात है?’ गोपी बैठ गया। रहमान ने उसके सामने बीड़ी निकाल कर रखी और फिर सुलगा कर बोला – ‘क्या बात होगी काका! आजकल के छोकरों का दिमाग बिगड़ गया है। जाने कैसी हवा चल पड़ी है। माँ-बाप को कुछ समझते ही नहीं।’ गोपी ने बीड़ी का लंबा कश खींचा और मुस्करा कर कहा – ‘रहमान, बात सदा ही ऐसी रही […]
माँ ने कहा, ‘टिल्लू में लाख ऐब हों, मैंने माना, लेकिन एक गुण भी ऐसा है जिससे लाखों ऐब ढँक जाते हैं – वह नमकहराम नहीं है!’ ‘मैंने तो कभी नमकहराम कहा नहीं उसे’ मैंने जवाब दिया – ‘वह काहिल है और नौकर को काहिल ही न होना चाहिए। काम तो रो-गाकर वह सभी करता ही है, मगर रोज ही झकझक उससे करनी पड़ती है। अब आज ही की लो! शाम ही से मेरे सिर में दर्द है! और वह दवा लाने गया है शाम ही से! देखो तो घड़ी अम्मा! रात के 9 बज गए! अच्छा यह तो सिर-दर्द है, अगर कॉलरा होता? तब तो, टिल्लू ने अब तक बारह ही बजा दिए होते!’ ‘भगवान मुद्दई को भी हैजा-कॉलरा का शिकार न बनाए।’ माँ ने सहमकर प्रार्थना और भर्त्सना के स्वर में कहा, ‘तू भी कैसी बातें कहता है। मैं टिल्लू की कद्र करती हूँ, यों कि वह सारे […]
मास्को से लगभग दो सौ मील पश्चिम की ओर वियाज्मा के निकट – जंगल में घने वृक्षों के मध्य एक बड़ी-सी झोंपड़ी बनी थी। इस झोंपड़ी में एक छोटा-सा रूसी परिवार रहता था। इस परिवार में केवल तीन प्राणी थे। एक प्रौढ़ वयस्क पुरुष, जिसकी वयस पैंतालीस वर्ष के लगभग थी। शरीर का हृष्ट-पुष्ट तथा बलिष्ठ, उसकी पत्नी जो लगभग उसकी समवयस्क ही थी और इनकी एक कन्या जिसकी वयस बीस वर्ष के लगभग होगी। ये दोनों स्त्रियाँ भी खूब तंदुरुस्त थीं। पुरुष का नाम पाल लारेंज्की, स्त्री का नाम स्टेला तथा कन्या का नाम पोला था। दिसंबर की संध्या थी। अस्तासन्न सूर्य की सुनहरी किरणें आकाश में फैले हुए कुहरे को भेदन करने का विफल प्रयत्न कर रही थीं। झोंपड़ी में केवल तीन कमरे थे। एक बैठने-उठने के काम आता था। एक स्त्रियों के सोने के लिए, दूसरे में पाल का बिस्तर था। झोंपड़ी के पिछवाड़े एक ‘शेड’ था […]
एक गहन वन में दो शिकारी पहुंचे. वे पुराने शिकारी थे. शिकार की टोह में दूर – दूर घूम रहे थे, लेकिन ऐसा घना जंगल उन्हें नहीं मिला था. देखते ही जी में दहशत होती थी. वहां एक बड़े पेड़ की छांह में उन्होंने वास किया और आपस में बातें करने लगे. एक ने कहा, “आह, कैसा भयानक जंगल है.” दूसरे ने कहा, “और कितना घना!” इसी तरह कुछ देर बात करके और विश्राम करके वे शिकारी आगे बढ़ गए. उनके चले जाने पर पास के शीशम के पेड़ ने बड़ से कहा, “बड़ दादा, अभी तुम्हारी छांह में ये कौन थे? वे गए?” बड़ ने कहा, “हां गए. तुम उन्हें नहीं जानते हो?” शीशम ने कहा, “नहीं, वे बड़े अजब मालूम होते थे. कौन थे, दादा?” दादा ने कहा, “जब छोटा था, तब इन्हें देखा था. इन्हें आदमी कहते हैं. इनमें पत्ते नहीं होते, तना ही तना है. […]
भगवान ही जानता है कि जब मैं किसी को साइकिल की सवारी करते या हारमोनियम बजाते देखता हूँ तब मुझे अपने ऊपर कैसी दया आती है. सोचता हूँ, भगवान ने ये दोनों विद्याएँ भी खूब बनाई है. एक से समय बचता है, दूसरी से समय कटता है. मगर तमाशा देखिए, हमारे प्रारब्ध में कलियुग की ये दोनों विद्याएँ नहीं लिखी गयीं. न साइकिल चला सकते हैं, न बाजा ही बजा सकते हैं. पता नहीं, कब से यह धारणा हमारे मन में बैठ गयी है कि हम सब कुछ कर सकते हैं, मगर ये दोनों काम नहीं कर सकते हैं. शायद 1932 की बात है कि बैठे बैठे ख्याल आया कि चलो साइकिल चलाना सीख लें. और इसकी शुरुआत यों हुई कि हमारे लड़के ने चुपचुपाते में यह विद्या सीख ली और हमारे सामने से सवार होकर निकलने लगा. अब आपसे क्या कहें कि लज्जा और घृणा के कैसे कैसे […]
रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर, शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर, प्रतिपल – परिवर्तित – व्यूह – भेद कौशल समूह राक्षस – विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध – कपि विषम हूह, विच्छुरित वह्नि – राजीवनयन – हतलक्ष्य – बाण, लोहितलोचन – रावण मदमोचन – महीयान, राघव-लाघव – रावण – वारण – गत – युग्म – प्रहर, उद्धत – लंकापति मर्दित – कपि – दल-बल – विस्तर, अनिमेष – राम-विश्वजिद्दिव्य – शर – भंग – भाव, विद्धांग-बद्ध – कोदण्ड – मुष्टि – खर – रुधिर – स्राव, रावण – प्रहार – दुर्वार – विकल वानर – दल – बल, मुर्छित – सुग्रीवांगद – भीषण – गवाक्ष – गय – नल, वारित – सौमित्र – भल्लपति – अगणित – मल्ल – रोध, गर्ज्जित – प्रलयाब्धि – क्षुब्ध हनुमत् – केवल प्रबोध, उद्गीरित – वह्नि – भीम – पर्वत – कपि चतुःप्रहर, जानकी […]
जब तक गाड़ी नहीं चली थी, बलराज जैसे नशे में था। यह शोरगुल से भरी दुनिया उसे एक निरर्थक तमाशे के समान जान पड़ती थी। प्रकृति उस दिन उग्र रूप धारण किए हुए थी। लाहौर का स्टेशन। रात के साढ़े नौ बजे। कराँची एक्सप्रेस जिस प्लेटफार्म पर खड़ा था, वहाँ हजारों मनुष्य जमा थे। ये सब लोग बलराज और उसके साथियों के प्रति, जो जान-बूझ कर जेल जा रहे थे, अपना हार्दिक सम्मान प्रकट करने आए थे। प्लेटफार्म पर छाई हुई टीन की छतों पर वर्षा की बौछारें पड़ रही थीं। धू-धू कर गीली और भारी हवा इतनी तेजी से चल रही थी कि मालूम होता था, वह इन सब संपूर्ण मानवीय निर्माणों को उलट-पुलट कर देगी; तोड़-मोड़ डालेगी। प्रकृति के इस महान उत्पात के साथ-साथ जोश में आए हुए उन हजारों छोटे-छोटे निर्बल-से देहधारियों का जोशीला कंठस्वर, जिन्हें ‘मनुष्य‘ कहा जाता है। बलराज राजनीतिक पुरुष नहीं है। मुल्क […]
बाबू ब्रजनाथ क़ानून पढ़ने में मग्न थे, और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में.श्यामा चिल्लाती, कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता.मुन्नू रोता था कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली. ब्रजनाथ ने क्रुद्ध हो कर भामा से कहा-तुम इन दुष्टों को यहाँ से हटाती हो कि नहीं ? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ. भामा चूल्हे में आग जला रही थी, बोली-अरे तो अब क्या संध्या को भी पढ़ते ही रहोगे ? जरा दम तो ले लो. ब्रज.-उठा तो न जायेगा; बैठी-बैठी वहीं से क़ानून बघारोगी.अभी एक-आध को पटक दूँगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी कि हाय-हाय बच्चे को मार डाला ! भामा-तो मैं कुछ बैठी या सोयी तो नहीं हूँ.जरा एक घड़ी तुम्हीं लड़कों को बहलाओगे, तो क्या होगा ! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं लिखायी ! ब्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा.क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पा कर और भी प्रबल हो जाता […]
ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के बारे में नहीं, लक्ष्मी नाम की एक ऐसी लड़की के बारे में है जो अपनी कैद से छूटना चाहती है. इन दो नामों में ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है जैसाकि कुछ क्षण के लिए गोविन्द को हो गया था. एकदम घबराकर जब गोविन्द की आँखें खुलीं तो वह पसीने से तर था और उसका दिल इतने ज़ोर से धड़क रहा था कि उसे लगा, कहीं अचानक उसका धड़कना बन्द न हो जाये. अँधेरे में उसने पाँच-छ: बार पलकें झपकाई, पहली बार तो उसकी समझ में ही न आया कि वह कहाँ है, कैसा है—एकदम दिशा और स्थान का ज्ञान उसे भूल गया. पास के हॉल की घड़ी ने एक का घंटा बजाया तो उसकी समझ में ही न आया कि वह घड़ी कहाँ है,वह स्वयं कहाँ है और घंटा कहाँ बज रहा है. फिर धीरे-धीरे उसे ध्यान आया, उसने ज़ार […]
मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और बालिका सारे विश्व को भूल, गंगा-तट के बालू और पानी से खिलवाड़ कर रहे थे। बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तट के जल को उछाल रहा था। बालिका अपने पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक भाड़ बना रही थी। बनाते-बनाते बालिका भाड़ से बोली- “देख ठीक नहीं बना, तो मैं तुझे फोड़ दूंगी।” फिर बड़े प्यार से थपका-थपकाकर उसे ठीक करने लगी। सोचती जाती थी- “इसके ऊपर मैं एक कुटी बनाउंगी, वह मेरी कुटी होगी। और मनोहर…? नहीं, वह कुटी में नहीं रहेगा, बाहर खड़ा-खड़ा भाड़ में पत्ते झोंकेगा। जब वह हार जाएगा, बहुत कहेगा, तब मैं उसे अपनी कुटी के भीतर ले लूंगी। मनोहर उधर पानी से हिल-मिलकर खेल रहा था। उसे क्या मालूम कि यहाँ अकारण ही उस पर रोष और अनुग्रह किया जा रहा है। बालिका […]
1. सुखदेव ने जोर से चिल्ला कर पूछा – ‘मेरा साबुन कहाँ है?’ श्यामा दूसरे कमरे में थी. साबुनदानी हाथ में लिए लपकी आई, और देवर के पास खड़ी हो कर हौले से बोली – ‘यह लो.‘ सुखदेव ने एक बार अँगुली से साबुन को छू कर देखा, और भँवें चढ़ा कर पूछा – ‘तुमने लगाया था, क्यों?’ श्यामा हौले से बोली – ‘जरा मुँह पर लगाया था.‘ ‘क्यों तुमने मेरा साबुन लिया? तुमसे हजार बार मना कर चुका हूँ. लेकिन तुम तो बेहया हो न!‘ ‘गाली मत दो! समझे?’ श्यामा ने डिब्बी वहीं जमान पर पटक दी, और तेज कदमों से बाहर जाती-जाती बोली – ‘जरा साबुन छू लिया मैंने, तो मानो गजब हो गया!‘ फिर दूसरे कमरे की चौखट पर मुड़ कर, बोली – ‘मैं क्या चमार हूँ?’ सुखदेव ने वहीं से चिल्ला कर कहा – ‘हो चमार! तुम चमार हो! खबरदार जो अब कभी मेरा साबुन छुआ!‘ […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…