लोहार और तलवार -मोहनलाल महतो वियोगी
पुष्पदंतपुर के चौड़े राजपथ के एक किनारे जिस लोहार की दूकान थी , वह अपनी कला में प्रवीण था. किन्तु बहुत ही कम व्यक्ति उसे जानते थे.
वह लोहार सिर झुकाए अनवरत परिश्रम करता .उसकी दुकान के सामने से जुलूस जाते. सम्राट की सवारी जाती. फिर भी वह कभी सिर उठाकर किसी ओर नहीं देखता था. भाथी चलाता हुआ वह लोहार अपने काम में तन्मय रहता. उसके भारी घन की चोट से तपे हुए शुद्ध लोहे से चिंगारियों की फुलझड़ियाँ सी छूटा करतीं, जिन्हें वह बहुत ही पुलकित मन से देखा करता था. उसका सारा शरीर धूल और कालिख से भरा होता. काफी रात बीतने पर वह दुकान बंद करता और चुपचाप घर की राह लेता.
नागरिक उस लोहार को गूंगा और बहरा कहा करते थे. किन्तु वह था कारीगर और कलाकार. उसके घन के नीचे पहुँचते ही वज्र से भी कठोर लोहा मोम की तरह मृदुल हो जाता. वह उसके तलवार , बाण के फलक आदि बनाया करता. उसके बनाए हुए अस्त्र पक्के होते थे और कभी धोखा नहीं देते थे.
पुष्पदंतपुर का वह लोहार नागरिकों के आदर का पात्र था और स्नेह का भी .
एक दिन जब दिन चढ़ चुका था, उस लोहार की दुकान पर एक सुन्दर पुरुष आया , जिसके कंधे सांड़ के कन्धों की तरह थे और भुजाएं ओज तथा बल से भरी हुई जान पड़ती थीं. आँखों में तेज था और गति बहुत ही गंभीर थी. उसके सुनहरे घुंघराले बाल कंधों पर लहरा रहे थे. कार्यव्यस्त लोहार ने जरा सा सिर उठा कर आगंतुक को देखा और फिर अपने काम में निमग्न हो गया.
आगंतुक ने कोमल स्वर में कहा : ‘कलाकार , तुम राष्ट्र के गौरव हो. क्या तुम्हें ज्ञान है कि तुम्हारे देश पर विदेशियों के अपवित्र आक्रमण होने वाले हैं?’
लोहार की भौंहों में तनाव आ गया. वह बोला : ‘नहीं तो.’
आगंतुक ने फिर कहा : ‘अनार्यों की दुर्बुद्धि ने उन्हें फिर आर्यावर्त की ओर भेजा है. तुम मुझे एक तलवार बना दो. जितनी मुद्रा कहो , मैं दे सकता हूँ.’
लोहार ने सोचकर कहा : ‘बना दूंगा, पर पुरस्कार में तुम मुझे जीत लाकर दो.’
उस वीर ने कहा : ‘तथास्तु’
वह योद्धा चला गया और लोहार तलवार बनाने में तल्लीन हो गया. रात-दिन घन चलाकर और मनों लोहे का तत्व निकालकर लोहार ने जिस जाज्वल्यमान तलवार का निर्माण किया , उसे महान आर्य सेना के वीर विजयी सेनापति ने धारण किया. लोहार की दूकान पर जाने वाला व्यक्ति वही सेनापति था, जिसे उत्तरापथ की ओर अनार्यों को खदेड़ने के लिए जाना था.
तलवार देकर लोहार निश्चिंत नहीं हुआ. उसकी मानसिक शांति और एकाग्रता चली गयी. वह न तो जी लगाकर फिर घन चलाता और न तन्मय होकर अस्त्रों का ही निर्माण करता. उसकी दुकान के सामने से एक दिन आर्यसेना दल गया, हज़ारों रथ गए, घोड़े गए और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से लदे हुए अनगिनत शकट गए. अंत में सेनापति का रथ गया.
रथ सोने का था और उस पर जड़े हुए रत्न जगमगा रहे थे. रथ की उच्च चूड़ा पर गरुड़ध्वज लहरा रहा था. स्नेहभरी आँखों से ध्वज को देखकर लोहार पुलकित हो उठा. आदर से उसका सिर अपने आप झुक गया. कलाकार का अभिवादन किसी भी सम्राट के अभिवादन से अधिक गौरवमय होता है.
लोहार ने देखा, सेनापति की कमर में वही तलवार सुशोभित हो रही है,जिसे उसने अपनी समस्त कला और शुभकामना के वेग से बनाया था.लोहार के होंठों पर हलकी सी मुस्कान खेलकर विलीन हो गई. यह मुस्कान थी कलाकार का वह अजेय अहंकार, जिसके सामने बड़े-बड़े वीरों का मस्तक झुक जाता है. सेना चली गयी और वातावरण शांत हो गया.
आनंदोपभोगी नागरिक फिर नृत्य-संगीत में लीन हो गए. किन्तु लोहार का मन उचट गया. रह रहकर उसका मन युद्ध के फलाफल की ओर खिंच जाता और वह व्यग्र हो उठता. एक ही वस्तु को वह बार-बार तोड़कर बनाता और अपने ऊपर झुंझलाता. कारण उसकी समझ में नहीं आता था.
दिन बीते, मास बीते और एक वर्ष समाप्त हो गया. युद्ध का कोई समाचार उसे नहीं मिला. नागरिकों से वह पूछता पर कोई भी निश्चित समाचार उसे नहीं सुनाता.
एक दिन, जैसे ही नगरतोरण का प्रातःकालीन मंगलवाद्य बजा, वैसे ही राज्य की ओर से घोषणा करनेवालों का दल राजपथ पर निकल आया. घंटानिनाद के साथ आर्यसेना के विजयी होने का शुभ संवाद घोषित किया गया. इसके पूर्व भी आर्यसेना के विजयी होने का संवाद बहुत बार वह सुन चुका था, पर उस दिन के विजयसंवाद ने उस मौन कलाकार को भीतर ही भीतर उन्मत्त कर दिया. उसने अपने चीत्कार करने वाले पागल आनंद को बहुत ही यत्न से अपने भीतर ही छिपा रखा.
वह आर्यसेना के लौटने की प्रतीक्षा में उद्ग्रीव होकर दुकान पर बैठा रहता. एक-एक दिन करके पूरे तीन मास समाप्त हो गए. उसकी आकुल प्रतीक्षा का अंचल इतना लंबा-चौड़ा होगा, इसका ज्ञान उस कलाकार को पहले न था.
लोहार कलाकार था, सिपाही नहीं. वह उत्तम से उत्तम शस्त्र का निर्माण कर सकता था और करता भी था. किन्तु उसकी कला की सार्थकता थी किसी हुतात्मा सिपाही की वीरता. वह कुंठित होता और फिर उत्साहित होकर अपने विजयी सेनानी की राह देखता. फिर राजघोषणा हुई कि विजयिनी आर्यवाहिनी आ रही है. कल दूसरे पहर तक सेना नगर के सिंहपौर पर पहुँच जाएगी. लोहार उल्लसित ह्रदय से इस संवाद को सुनकर चुप लगा गया.
वह अपनी दुकान पर आकर बैठ गया. उसने बहुत प्रयत्न किया कि उसकी मानसिक अशांति मिटे, पर वह बढ़ती ही गयी. एकाएक दुलहिन की तरह आर्य राजधानी सज गई. तोरण और सुंदर वंदनवारों से गली, रास्ते सभी सजाए गए. प्रत्येक द्वार पर मंगलघट सुशोभित होने लगे. पुरललनाएं मंगलगीत गाती हुईं छज्जों पर और खिडकियों पर खड़ी हो गयीं. लोहार ने उड़ती हुई दृष्टि से देखा और फिर अपने को भुलाने के लिए वह घन उठाकर एक लोहे के टुकड़े को अकारण पीटने लगा.
ठीक समय पर नगाड़े की गगनभेदी हुंकार और रणवाद्य के तुमुल नाद से सारी नगरी आकुल हो गई. विकल भाव से नागरिक इधर-उधर दौड़ने लगे और अपने कोमल हाथों में फूल लिए पुरललनाएं उचक-उचक कर छज्जों से उस ओर देखने लगीं जिस ओर से सेना का आना निश्चित था. देखते-देखते अश्वारोहियों की लम्बी कतारें सामने आईं. फिर अरिगर्वगंजन हाथियों का चिंघाड़ता हुआ झुंड आया. अनगिनत रथ दौड़ते हुए आये जिनकी उच्च चूड़ाओं पर दिवाकर की किरणें सोना बरसा रही थीं.
पदातिकों का अंत न था. उनके अस्त्रों की चमक से सारी नगरी भर गई. सबके अंत में गरुडध्वज विभूषित आर्यसेना के महावीर सेनानी का रथ आया. जनता ने तुमुल जयनाद से अपने विजयी वीर का स्वागत किया. फूलों की वर्षा उस रथ पर हुई. सेनापति सबका अभिवादन स्वीकार करते हुए आगे बढ़ गए.
लोहार ने देखा, सेनापति की कमर से वह तलवार लटक रही है, जिसे उसने महीनों रात-दिन एक करके बनाया था.
जब भीड़ समाप्त हो गई और सड़क निर्जनप्राय हो गई , तब लोहार मुस्कराकर अपनी दुकान से चुपचाप उतरा और वह राजपथ पर बरसाए गए तथा शत-शत पदों से रौंदे हुए फूलों की दो पंखुडियां उठाकर दुकान पर फिर आ बैठा. उसने अपनी कला का पुरस्कार पा लिया. उसका विकल मन शांत हो गया.
दिन बीता और रात आई. लोहार फूल की उन पंखुड़ियों को अपनी गोद में रखे तब तक आत्मविस्मृत सा बैठा रहा, जब तक तृतीय पहर का मंगलवाद्य नगरतोरण पर अलसित स्वर में बज न उठा. रात समाप्तप्राय थी, किन्तु उस कलाकार को ऐसा बोध हो रहा था कि अभी संध्या ने झांक कर ही वसुधा को देखा है.
June 7, 2020 @ 1:07 pm
very nice story