अनाज की पैदावार बढ़ी या नहीं, यह तो ईश्वर जाने या महंगाई, मगर हाकिमों की पैदावार का क्या कहना. कोई ए.ओ., बी.ओ., सी.ओ. हैं तो कोई ए.बी.ओ., बी.सी.ओ., सी.डी.ओ. और न जाने कितने ‘ओ’ हैं कि अंग्रेज़ी वर्णमाला के भी होश गुम हैं कि अब ओ के साथ कौन से अक्षर जोड़े जाएँ. उस पर उसे यह भी परेशानी है कि सुनने वाले किस ‘ओ’ परिवार का कौन-सा मतलब निकालेंगे. जैसे एम.ओ. ही को ले लीजिये. इससे मेडिकल ऑफिसर भी हो सकता और म्युनिसिपल ऑफिसर, मलेरिया ऑफिसर और मारकेटिंग ऑफिसर भी और घाते में मनीआर्डर भी समझना चाहें तो मजे में समझ सकते हैं. खैर, समझने वाले जो चाहें, समझा करें. इसकी फ़िक्र मिस्टर सी.एम. गादुर को न थी, जिन्हें लोग आसानी के मारे मिस्टर चिमगादर ही कहते थे. वे थे तो वकील, मगर जिस दिन से वे ‘ओथ ऑफिसर’ (शपथनामा अफसर) बना दिए गए, वे अपने नाम […]
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शेखचिल्ली अपने घर के बरामदे में बैठे-बैठे खुली आँखों से सपने देख रहे थे. उनके सपनों में एक विशालकाय पतंग उड़ी जा रही और शेखचिल्ली उसके ऊपर सवार थे. कितना आनंद आ रहा था आसमान में उड़ते हुए नीचे देखने में. हर चीज़ छोटी नज़र आ रही थी. तभी अम्मी की तेज़ आवाज ने उन्हें ख्यालों की दुनिया से बाहर निकाल दिया- “शेखचिल्ली ! शेखचिल्ली ! कहाँ हो तुम ? ‘आया अम्मी’, ख्यालों की दुनिया से निकल कर शेखचिल्ली घर के आँगन में पहुँचे. “मैं सलमा आपा के घर जा रही हूँ.उनकी बेटी की शादी की तैयारी कराने. शाम में आऊँगी. आऊँगी तो तुम्हारे लिए मिठाइयाँ भी लेकर आऊँगी. तब तक तुम दरांती लेकर जंगल से पड़ोसी की गाय के लिए घास काट लाना. कुछ पैसे मिल जायेंगे.” “जी अम्मी” शेखचिल्ली ने कहा और दरांती उठाकर जंगल जाने के लिए तैयार हो गए. “सावधानी से जाना और दिन में सपने […]
शेखचिल्ली इस समय वही कर रहा था, जिसमें उसमें सबसे ज्यादा मज़ा आता था- पतंगबाज़ी . वो इस समय अपने घर की छत पर खड़ा था और आसमान में लाल-हरी पतंगों के उड़ने का मजा ले रहा था. शेख की कल्पना भी उड़ान भरने लगी. वह सोचने लगा- काश मैं इतना छोटा होता कि पतंग पर बैठकर हवा में उड़ पाता….. “बेटा, तुम कहाँ हो?” उसकी अम्मी ने धूप की चौंध से आँखों को बचाते हुए छत की ओर देखते हुए कहा. “बस अभी आया अम्मी.” शेख ने कहा. काफी दुखी होते हुए उसने अपनी उड़ती पतंग को जमीन पर उतारा और फिर दौड़ता हुआ नीचे गया. शेख अपनी माँ की इकलौती औलाद था. पति की मौत के बाद वही उनका एकमात्र रिश्तेदार था. इसलिए अम्मी शेख को बहुत प्यार करती थी. “बेटा, झट से इसमें आठ आने का सरसों तेल ले आओ,” उन्होंने कहा और अठन्नी के साथ-साथ […]
एक थी बुढ़िया. उसका एक पोता था. पोता रोज़ रात में सोने से पहले दादी से कहानी सुनता. दादी रोज़ उसे तरह-तरह की कहानियाँ सुनाती. एक दिन मूसलाधार बारिश हुई. ऐसी बारिश पहले कभी नहीं हुई थी. सारा गाँव बारिश से परेशान था. बुढ़िया की झोंपड़ी में पानी जगह-जगह से टपक रहा था—- टिपटिप टिपटिप . इस बात से बेखबर पोता दादी की गोद में लेटा कहानी सुनने के लिए मचल रहा था. बुढ़िया खीझकर बोली—“अरे बचवा, का कहानी सुनाएँ? ई टिपटिपवा से जान बचे तब न ! पोता उठकर बैठ गया. उसने पूछा- दादी, ये टिपटिपवा कौन है? टिपटिपवा क्या शेर-बाघ से भी बड़ा होता है? दादी छत से टपकते पानी की तरफ़ देखकर बोली—हाँ बचवा, न शेरवा के डर, न बघवा के डर, डर त डर टिपटिपवा के डर. संयोग से मुसीबत का मारा एक बाघ बारिश से बचने के लिए झोंपड़ी के पीछे बैठा था. बेचारा बाघ […]
हिन्दी व्याकरण लिखने के शुरूआती प्रयास औरंगजेब के शासन काल में हुए, जब मिर्ज़ा खां ने ब्रजभाषा का संक्षिप्त परिचयात्मक इतिहास लिखा. संभवतः 1715 ई. के आसपास हॉलैंड के जोशुआ जॉन केटलर ने हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण लिखा, जिसे सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने ‘हिन्दुस्तानी का सबसे प्राचीन व्याकरण’ कहा है. डॉक्टर जॉन गिलक्राइस्ट ने 1790 में ‘हिन्दुस्तानी ग्रामर’ लिखी, जबकि रोएबक ने 1810 ई. में ‘द इंग्लिश एंड हिन्दुस्तानी डिक्शनरी विद अ ग्रामर प्रीफिक्स्ड’ लिखी. रोएबक की पुस्तक का व्याकरण वाला हिस्सा काफी समय तक फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग में पढ़ाया जाता रहा. 1870 ई. में काशी के एक पादरी ऐरिंगटन ने अंग्रेजी में हिन्दी का व्याकरण लिखा, जो 1871 में ‘भाषा भास्कर’ के नाम से हिन्दी में छपा. 1875 ई. में कैलोग का ‘अ ग्रामर ऑफ़ हिन्दी लैंग्वेज’ प्रकाशित हुआ, जिसमें ब्रज और पूर्वी हिन्दी के अतिरिक्त तथाकथित ‘हाई हिन्दी’ (तत्समप्रधान हिन्दी) का व्याकरण भी शामिल था. […]
जयराज की तीस वर्ष की अवस्था होगी. धुन में बँधा, सदा कामकाज में रहता है. अपने प्रांत की कांग्रेस का वही प्राण है. लोग उसे बहुत मानते हैं. उन्हें छोड़ और वह रहता किसके लिए है? अविवाहित है और उससे विवाह का प्रस्ताव करने की हिम्मत किसी को नहीं होती. सबेरे का वक्त था. नौ का समय होगा. आधी बाँहों का कुर्ता और जाँघिया पहने वह एक परिषद के लिए अपना भाषण लिख रहा था. उसी समय उससे पूछा गया कि एक डेपुटेशन मिलने के लिए आया है, क्या जयराज मिल सकेंगे? क्या डेपुटेशन अंदर आए? ‘अवश्य.’ जयराज ने कागज वहीं छोड़ दिए और वह डेपुटेशन की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया. डेपुटेशन के सज्जन आए और उसने जानना चाहा कि उसके लिए क्या आज्ञा है? प्रतिनिधिगण जयराज को अपने कस्बे में ले जाना चाहते हैं. कस्बे का नाम हरीपुर है. जयराज ने कहा, ‘हरीपुर!’ ‘आप कभी वहाँ नहीं पधारे […]
हर शहर के दो चेहरे (या शायद ज्यादा? ) होते हैं, एक वह जो किसी ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ या ‘गाइड बुक’ में देखा जा सकता है –एक स्टैण्डर्ड चेहरा, जो सबके लिए एक सा है; दूसरा उसका अपना निजी, जो दुलहिन के चेहरे-सा घूंघट के पीछे छिपा रहता है. उसका सुख, उसका अवसाद, उसके अलग-अलग मूड, बदली के दिन अलग और जब धूप हो तो बिलकुल अलग; हर बार जब घूंघट उठता है, लगता है, जैसे चेहरा कुछ बदल गया है, जैसे वह बिलकुल वह नहीं, जो पहले देखा था. क्योंकि दरअसल अजनबी शहरों की यात्रा एक किस्म का बहता पानी है, जिस प्रकार एक यूनानी दार्शनिक के कथनानुसार एक ही दरिया में दो व्यक्ति नहीं नहाते, हालाँकि दरिया वही रहता है, उसी तरह दो अलग-अलग व्यक्ति एक ही शहर में नहीं आते, हालाँकि शहर वही रहता है. इसीलिए कभी-कभी सोचता हूँ, जितने भी ‘पिक्चर-पोस्टकार्ड’ अलग-अलग शहरों से मैंने […]
हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे। हम बहता जल पीनेवाले मर जाएँगे भूखे-प्यासे, कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से, स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं तरू की फुनगी पर के झूले। ऐसे थे अरमान कि उड़ते नील गगन की सीमा पाने, लाल किरण-सी चोंचखोल चुगते तारक-अनार के दाने। होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी, या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती साँसों की डोरी। नीड़ न दो, चाहे टहनी का आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो, लेकिन पंख दिए हैं, तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार सैन्य घेरना, […]
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे मै भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली तुम्हे नहीं कुछ कहता, पर मै चुपके चुपके आता उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता वही बैठ फिर बड़े मजे से मै बांसुरी बजाता अम्मा-अम्मा कह बंसी के स्वर में तुम्हे बुलाता सुन मेरी बंसी माँ, तुम कितना खुश हो जाती मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आती तुमको आती देख, बांसुरी रख मै चुप हो जाता एक बार माँ कह, पत्तो में धीरे से छिप जाता तुम हो चकित देखती, चारो ओर ना मुझको पाती व्याकुल-सी हो तब कदम्ब के नीचे तक आ जाती पत्तो का मरमर स्वर सुन, जब ऊपर आँख उठाती मुझे देख ऊपर डाली पर, कितना घबरा जाती गुस्सा होकर मुझे डांटती, कहती नीचे आ जा पर जब […]
सेन साहब की नई मोटरकार बँगले के सामने बरसाती में खड़ी है—काली चमकती हुई, स्ट्रीमल इंड; जैसे कोयल घोंसले में कि कब उड़ जाए. सेन साहब को इस कार पर नाज है — बिल्कुल नई मॉडल, साढ़े सात हजार में आई है. काला रंग, चमक ऐसी कि अपना मुंह देख लो. कहीं पर एक धब्बा दिख जाए तो क्लीनर और शोफ़र की शामत ही समझो. मेम साहब की सख्त ताकीद है कि खोखा-खोखी गाड़ी के पास फटकने न पाएँ. लडकियाँ तो पाँचों बड़ी सुशील हैं, पाँच-पाँच ठहरी और सो भी लडकियाँ, तहजीब और तमीज की तो जीती-जागती मूरत ही हैं. मिस्टर और मिसेज सेन ने उन्हें क्या करना है, यह सिखाया हो या नहीं, क्या-क्या नहीं करना चाहिए, इसकी उन्हें ऐसी तालीम दी है कि बस. लडकियाँ क्या हैं, कठपुतलियाँ हैं और उनके माता-पिता को इस बात का गर्व है. वे कभी किसी चीज़ को तोड़ती फोड़ती नहीं. वे […]
वाजिदा तबस्सुम उर्दू की मशहूर अफसानानिगार रही हैं. 1975 में लिखी उतरन उनकी सर्वाधिक चर्चित कहानी है. अंग्रेजी में ‘Cast-Offs’ या ‘Hand-Me Downs के नाम से अनूदित इस कहानी का कई भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हुआ. टेलीविजन पर इसी नाम के धारावाहिक के अतिरिक्त मीरा नायर की चर्चित फिल्म ‘Kama Sutra: A Tale of Love’ की मूल प्रेरणा भी यही कहानी है. “निक्को अल्ला, मेरे को बहोत शरम लगती है.” “एओ, इसमें शरम की क्या बात है? मैं नई उतारी क्या अपने कपड़े?” “ऊं…..” चमकी शरमाई ! “अब उतारती है कि बोलूं अन्ना बी को?” शहजादी पाशा, जिसकी रग-रग में हुक्म चलाने की आदत रमी हुई थी, चिल्ला कर बोली. चमकी ने कुछ डरते-डरते, कुछ शरमाते-शरमाते अपने छोटे-छोटे हाथों से पहले तो अपना कुरता उतारा, फिर पायजामा ….फिर शहजादी पाशा के हुक्म पर झाग भरे टब में उसके साथ कूद पड़ी. दोनों नहा चुकीं तो शहजादी पाशा ऐसी मुहब्बत […]
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो बड़े तड़के उठकर टहलने जाते हैं और पौ फटने से पहले ही लौट भी आते हैं. ऐसे लोगों का विशेष प्रशंसक भी नहीं हूँ. ये लोग रोज़ नियमपूर्वक इतनी जल्दी उठ लेते हैं, इससे तो प्रभावित हूँ; और तर्क के लिए यह भी मान लूँगा कि सवेरे की हवा बहुत अच्छी होती है. लेकिन मैं घूमने जाता हूँ तो अँधेरा तो देखने नहीं जाता – कम-से-कम रोज़ केवल अँधकार देखने की बात तो मेरी समझ में नहीं आती. कभी- कभी अवश्य अँधेरा भी सुंदर लगता है. और उसकी यह उपयोगिता भी मैं स्वीकार कर लूँगा कि वह अपने को देखने में सहायक होता है. अपने को देखना भी कभी-कभी तो ठीक है. बाहर निकल कर नयी-नयी धूप देखी तो बढ़ता चला गया और पाया कि सैर को निकल पड़ा हूँ. उन ब्राह्म मुहूर्त वालों की तरह मेरे लिए सैर का अर्थ […]
महीनों से मन बेहद-बेहद उदास है। उदासी की कोई खास वजह नहीं, कुछ तबीयत ढीली, कुछ आसपास के तनाव और कुछ उनसे टूटने का डर, खुले आकाश के नीचे भी खुलकर साँस लेने की जगह की कमी, जिस काम में लगकर मुक्ति पाना चाहता हूँ, उस काम में हज़ार बाधाएँ; कुल ले-देकर उदासी के लिए इतनी बड़ी चीज नहीं बनती। फिर भी रात-रात नींद नहीं आती। दिन ऐसे बीतते हैं, जैसे भूतों के सपनों की एक रील पर दूसरी रील चढ़ा दी गई हो और भूतों की आकृतियाँ और डरावनी हो गई हों। इसलिए कभी-कभी तो बड़ी-से-बड़ी परेशानी करने वाली बात हो जाती है और कुछ भी परेशानी नहीं होती, उल्टे ऐसा लगता है, जो हुआ, एक सहज क्रम में हुआ; न होना ही कुछ अटपटा होता और कभी-कभी बहुत मामूली-सी बात भी भयंकर चिंता का कारण बन जाती है। अभी दो-तीन रात पहले मेरे एक साथी संगीत का कार्यक्रम […]
कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। राग से यहां अभिप्राय प्रवृत्ति और निवृत्ति के मूल में रहनेवाली अंत:करणवृत्ति से है। जिस प्रकार निश्चय के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिए भी कुछ विषयों का वाह्य या मानस प्रत्यक्ष अपेक्षित होता है। यही हमारे रागों या मनोवेगों के-जिन्हें साहित्य में भाव कहते हैं-विषय हैं। कविता उन मूल और आदिम मनोवृत्तियों का व्यवसाय है जो सजीव सृष्टि के बीच सुखदुख की अनुभूति से विरूप परिणाम द्वारा अत्यंत प्राचीन कल्प में प्रकट हुईं और जिनके सूत्र से शेष सृष्टि के साथ तादात्म्य का अनुभव मनुष्य जाति आदि काल से करती चली आई है। वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कद्दार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़, पशु, पक्षी, अनंत आकाश, नक्षत्रा इत्यादि तो मनुष्य के आदिम सहचर हैं ही; पर खेत, ढुर्री, हल, झोंपड़ें, […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…