‘रिक्याविक’ पर निर्मल वर्मा : ‘सफ़ेद रातें और हवा’ से कुछ अंश
हर शहर के दो चेहरे (या शायद ज्यादा? ) होते हैं, एक वह जो किसी ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ या ‘गाइड बुक’ में देखा जा सकता है –एक स्टैण्डर्ड चेहरा, जो सबके लिए एक सा है; दूसरा उसका अपना निजी, जो दुलहिन के चेहरे-सा घूंघट के पीछे छिपा रहता है. उसका सुख, उसका अवसाद, उसके अलग-अलग मूड, बदली के दिन अलग और जब धूप हो तो बिलकुल अलग; हर बार जब घूंघट उठता है, लगता है, जैसे चेहरा कुछ बदल गया है, जैसे वह बिलकुल वह नहीं, जो पहले देखा था.
क्योंकि दरअसल अजनबी शहरों की यात्रा एक किस्म का बहता पानी है, जिस प्रकार एक यूनानी दार्शनिक के कथनानुसार एक ही दरिया में दो व्यक्ति नहीं नहाते, हालाँकि दरिया वही रहता है, उसी तरह दो अलग-अलग व्यक्ति एक ही शहर में नहीं आते, हालाँकि शहर वही रहता है.
इसीलिए कभी-कभी सोचता हूँ, जितने भी ‘पिक्चर-पोस्टकार्ड’ अलग-अलग शहरों से मैंने अपने दोस्तों को भेजे हैं, उन्हें वापस मंगा लूँ, कम से कम वे कार्ड तो अवश्य ही, जिन पर रिक्याविक की मुहर लगी है, क्योंकि यदि आप इस उपमा की अनुमति दें तो रिक्याविक का शहर उस प्रेमिका की मानिंद है, जिसकी सही पहचान चेहरे में न होकर समूची देह, और उसके अलग-अलग अंगों में छिपी रहती है.
उलझन और भी बढ़ जाती है, जब हर कदम पर अंतर्विरोधों का सामना करना पड़े. आइसलैंड की इस राजधानी का नाम है रिक्याविक—‘धुएँ का शहर’. नार्वे से जब पहले पहल ‘वाइकिंग्स’ यहाँ आये थे, तो गरम पानी के झरनों से उठते हुए धुएँ को देखकर उन्होंने इस शहर का नामकरण किया था. लेकिन सच पूछा जाए, तो शहर का धुएँ से दूर का संबंध भी नहीं. यूरोप के किसी भी नगर में मैंने हवा इतनी साफ़, हल्की और सफ़ेद (यदि हवा को सफ़ेद कहा जा सके) नहीं देखी. शायद इसलिए कि यहाँ के निवासी कोयले का प्रयोग बिलकुल नहीं करते, न खाना पकाने के लिए, न कमरों को गर्म रखने के लिए. गरम पानी के झरनों से समूचे शहर को बिजली बैठे-बिठाए मिल जाती है. आप अनुमान लगाएं, ऐसे शहर में एक भारतवासी के सुख का, जो ज़िंदगी-भर धुएँ में ही रह कर अंत में धुएं में ही लीन हो जाता है.
नाम की चर्चा हो रही है, तो आइसलैंड का ही नाम लीजिये. इतना भ्रामक नाम शायद किसी दूसरे देश का नहीं. रिक्याविक के बाहर जाते ही चारों ओर हल्की धूप में उमगती हरियाली को देखकर कभी-कभी मन में भ्रम होने लगता है कि कहीं हम गलत देश में तो नहीं आ गए हैं. मेरे आइसलैंडी मित्रों का कहना है कि जाड़े के दिनों में भी कुछ उत्तरी भागों को छोड़कर बर्फ़ ज्यादा नहीं पड़ती और रिक्याविक तो कभी-कभी बर्फ से बिलकुल अछूता रह जाता है. सुना है, एक बार अंगरेज़ी कवि (अब अमरीकी) ऑडेन ने सुझाव दिया था कि आइसलैंड का नाम ग्रीनलैंड और ग्रीनलैंड का नाम आइसलैंड कर देना चाहिए. ऑडेन के जीवन-दर्शन में मुझे ज्यादा भरोसा नहीं, किन्तु उनके इस सुझाव से मैं पूर्णतया सहमत हूँ. कम-से-कम इससे आइसलैंडी ‘टूरिस्ट ब्यूरो’ को काफी तसल्ली मिलेगी, जो पिछले वर्षों से इस बात को लेकर परेशान है कि आइसलैंड का नाम बेवजह सैलानियों को आतंकित कर देता है.
रिक्याविक का कोई विशेष व्यक्तित्व या स्वभाव है—जैसा हम पेरिस या प्राग के बारे में कह सकते हैं—इसमें मुझे संदेह है. आखिर तक मैं निश्चय नहीं कर सका कि मैं रिक्याविक का कौन-सा ख़ास चेहरा चुनकर वापस लौटूंगा? वह –जिसका हर दिन-रात समुद्र की लहरों में घुलता रहता है, या जहाज़ों, मछली पकड़ने की नौकाओं और बासी-खट्टी गंध से घिरे बंदरगाह, या एक पहाड़ी क़स्बा, जो मध्यरात्रि के जामुनी आलोक में उनींदा-सा पड़ा रहता है अथवा छोटे-छोटे रंग-बिरंगे मकानों का लिलिपुटियन नगर, वॉल्ट डिस्नी का परी-देश ! रिक्याविक शायद यह सब कुछ है, फिर भी जब मैं आँख मूंदकर याद करता हूँ, तो इनमें से कोई भी चीज़ सामने नहीं आती. याद आती है सिर्फ रिक्याविक की हवा .
सच मानिए, आइसलैंड आने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि हवा का असली जादू क्या होता है.
(चीड़ों पर चाँदनी में संकलित सफ़ेद रातें और हवा से )