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हिन्दी व्याकरण का इतिहास

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हिन्दी व्याकरण लिखने के शुरूआती प्रयास औरंगजेब के शासन काल में हुए, जब मिर्ज़ा खां ने ब्रजभाषा का संक्षिप्त परिचयात्मक इतिहास लिखा. संभवतः 1715 ई. के आसपास हॉलैंड के जोशुआ जॉन केटलर ने हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण लिखा, जिसे सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने ‘हिन्दुस्तानी का सबसे प्राचीन व्याकरण’ कहा है. डॉक्टर जॉन गिलक्राइस्ट ने 1790 में ‘हिन्दुस्तानी ग्रामर’ लिखी, जबकि रोएबक ने 1810 ई. में ‘द इंग्लिश एंड हिन्दुस्तानी डिक्शनरी विद अ ग्रामर प्रीफिक्स्ड’ लिखी. रोएबक की पुस्तक का व्याकरण वाला हिस्सा काफी समय तक फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग में पढ़ाया जाता रहा. 1870 ई. में काशी के एक पादरी ऐरिंगटन ने अंग्रेजी में हिन्दी का व्याकरण लिखा, जो 1871 में ‘भाषा भास्कर’ के नाम से हिन्दी में छपा. 1875 ई. में कैलोग का ‘अ ग्रामर ऑफ़ हिन्दी लैंग्वेज’ प्रकाशित हुआ, जिसमें ब्रज और पूर्वी हिन्दी के अतिरिक्त तथाकथित ‘हाई हिन्दी’ (तत्समप्रधान हिन्दी) का व्याकरण भी शामिल था. 1810 ई. में लल्लू जी लाल ने फोर्ट विलियम कॉलेज में विदेशी अधिकारियों को ब्रजभाषा सिखाने के लिए ‘दि ग्रामेटिकल प्रिंसिपल्स ऑफ़ ब्रजभाषा’ लिखा. इन व्याकरणों में ये उल्लेखनीय बात रही कि आमतौर पर इन्होंने साहित्य की बजाय आम बोलचाल को अपने व्याकरण का आधार बनाया.

दूसरा दौर

          हिन्दी व्याकरण निर्माण का दूसरा दौर 1856 ई. से माना जा सकता है, जब बिहार के पंडित श्रीलाल ने पाठशालाओं में विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ाने के लिए ‘भाषा चंद्रोदय’ की रचना की. 1868 ई. में नवीन चंद्र राय ने ‘नवीन चंद्रोदय’ की रचना की. 1875 ई. में राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ ने अपना हिन्दी व्याकरण प्रकाशित कराया, जिसमें उन्होंने हिन्दी व्याकरण और उर्दू कवायद को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयास किया. शिवप्रसाद सिंह हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा मानते थे. उनके अनुसार, लिपि और शब्द-भंडार में भेद पैदा कर इन दोनों के बीच में खाई पैदा करने की कोशिश की गई. उन्होंने गिलक्राइस्ट और फोर्ट विलियम कॉलेज पर आरोप लगाया कि उन्होंने पंडितों और मौलवियों से व्याकरण लिखवा कर एक भाषा को हिन्दी और उर्दू में विभाजित कर दिया- “The absurdity began with the Maulvis and Pundits of Dr Gilchrist’s time, who being commissioned to make a grammar of the common speech of Upper India made two grammars , the one exclusively Persian and Arabic, the other exclusively Sanskrit and Prakrit. The Maulvis knew nothing of Sanskrit and ignored the Aryan basis of the vernacular. The Pundits were equally intolerant in refusing to recognise Semitic aftergrowth.”

              शिवप्रसाद सिंह ने दोनों भाषाओँ के लिए एक ही व्याकरण बनाने का प्रयत्न किया. एक ऐसा व्याकरण जो अलग-अलग लिपियों में लिपिबद्ध होने पर भी दोनों भाषाओं पर लागू हो सके. राजा लक्ष्मण सिंह ने शिवप्रसाद सिंह के विपरीत रुख अख्तियार किया. 1872 ई. में रघुवंश के अनुवाद की भूमिका में उन्होंने लिखा- “हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो न्यारी बोलियाँ हैं.”

       हिन्दी और उर्दू के विवाद के बीच इस दौरान जितने भी व्याकरण ग्रंथ लिखे गए, उनमें दो स्पष्ट धाराएँ दिखाई देती हैं. एक धारा हिन्दी और उर्दू का मिलाजुला व्याकरण बनाने पर जोर दे रही थी, तो दूसरी हिन्दी को उर्दू से पृथक भाषा मान कर उसका अलग व्याकरण विकसित करने की कोशिश कर रही थी. 1877 ई. में बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री का हिन्दी व्याकरण दो खण्डों में प्रकाशित हुआ, जो हिन्दी और उर्दू का मिलाजुला व्याकरण था. इसके विपरीत, 1885 ई. में प्रकाशित बाबू रामचरण सिंह का ‘भाषा प्रभाकर’ विशुद्ध हिन्दी का व्याकरण था. उल्लेखनीय है कि जहाँ हिन्दी और उर्दू का मिलाजुला व्याकरण लिखने वाले अंग्रेज़ी व्याकरण के नियमों का अनुसरण कर रहे थे, वहीँ ‘विशुद्ध हिन्दी’ का व्याकरण लिखने वाले संस्कृत व्याकरण के नियमों को ही आदर्श मान रहे थे.बाबू श्यामसुंदर दास ने 1906 ई. में हिन्दी और उर्दू का प्रारंभिक व्याकरण ‘ऐन एलीमेंट्री ग्रामर ऑफ़ हिन्दी एंड उर्दू’ के नाम से लिखा. श्यामसुंदर दास ने इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा- “In the preparation of this grammar, I have not followed, as already stated, the stereotyped method of writing Hindi grammars after the Sanskrit ones. Hindi, although originally born of Sanskrit, has now assumed so different a form that it is not at all advisable or safe to follow that method blindly. Besides, the education of a boy is not now considered complete, without a sufficiently good knowledge of English. If, therefore, a Hindi-Urdu grammar could be compiled after the model of the grammars of the English language, it would facilitate the study of that language. I have, therefore, rejected the principle on which all grammars of Hindi and Urdu language have so far been written and have accepted the guidance of modern English grammars.”

द्विवेदी युग

              इस प्रकार 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दी व्याकरण के क्षेत्र में अराजकता की स्थिति थी. कोई भी  व्याकरण संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र में स्वीकार्य नहीं था. इसी कारण साहित्य रचना में भी एकरूपता का अभाव दिखाई देता था. 1903 ई. में सरस्वती का संपादक बनने के बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य लेखन में एकरूपता और स्थिरता लाने के उद्देश्य से व्याकरणसम्मत भाषा लिखने पर जोर दिया. नवम्बर 1905 में सरस्वती में प्रकाशित अपने लेख ‘भाषा और व्याकरण’ में उन्होंने हिन्दी लेखन में एकरूपता के अभाव पर चर्चा की और हिन्दी के कई लेखकों की व्याकरण संबंधी भूलों की ओर ध्यान दिलाया. इसके जवाब में भारतमित्र के संपादक बालमुकुंद गुप्त ने भारतमित्र में आत्माराम के नाम से लेख लिखकर द्विवेदी जी की भाषा पर ही सवाल खड़े किये. इसके बाद, गोविंद नारायण मिश्र ने ‘आत्माराम की टें टें’ शीर्षक लेख लिखकर बालमुकुंद गुप्त के आक्षेपों का जवाब दिया.इस वाद विवाद में और कोई लाभ पहुंचाया हो या नहीं, यह स्पष्ट कर दिया कि हिन्दी भाषा में एकरूपता का अभाव है. न सिर्फ शब्दों के, बल्कि व्याकरणिक नियमों के भी अलग-अलग रूप अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित थे. व्याकरणसम्मत भाषा पर जोर देने के द्विवेदी जी के प्रयासों का कई समकालीन लेखकों ने मजाक भी उड़ाया. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘बुद्धू का काँटा’ के प्रारंभिक अंश देखें-

“रघुनाथ प् प् प्रसाद त् त् त्रिवेदी – या रुग्‍नात् पर्शाद तिर्वेदी – यह क्‍या?

क्‍या करें, दुविधा में जान हैं। एक ओर तो हिंदी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के कर्णधारों का अविगत शिष्‍टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, वैसे ही जैसे हिंदी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्‍टाचार भी कैसा? हिंदी साहित्‍य-सम्‍मेलन के सभापति अपने व्‍याकरणकषायति कंठ से कहें ‘पर्षोत्तमदास’ और ‘हर्किसन्लाल’ और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह कि पढ़ा जाए – ‘पुरुषोत्तमदास अ दास अ’ और ‘हरि कृष्‍णलाल अ’! अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?”

स्पष्टतया, यहाँ इशारा महावीर प्रसाद द्विवेदी की ओर है. द्विवेदी जी के लेख के बाद अगस्त 1908 में कामताप्रसाद गुरु ने सरस्वती में एक ‘हिन्दी की हीनता’ शीर्षक से लिखा जिसमें उन्होंने साफ़ कहा कि, ‘इस भाषा (हिन्दी) में न कोई माना हुआ व्याकरण है और न कोई प्रामाणिक कोष’.

कामताप्रसाद गुरु का हिन्दी व्याकरण

इसी समय नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी का सर्वमान्य व्याकरण तैयार करवाने के प्रयत्न शुरू किये. आरंभ में बाबू गंगाप्रसाद एम.ए. और पंडित रामकर्ण शर्मा को यह दायित्व सौंपा गया लेकिन प्रचारिणी उनके कार्य से  संतुष्ट नहीं थी. तब, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और माधवराव सप्रे के अनुरोध पर नागरी प्रचारिणी ने यह दायित्व कामताप्रसाद गुरु को सौंपा. गुरु जी ने पूरी लगन और परिश्रम से इस दायित्व को पूरा किया और इस प्रकार 1920 में श्री कामताप्रसाद गुरु का व्याकरण प्रकाशित हुआ, जिसे हिन्दी का पहला सर्वमान्य व्याकरण माना जाता है. कामताप्रसाद गुरु के हिन्दी व्याकरण ने एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की और भाषा की एकरूपता के आचार्य द्विवेदी के लक्ष्य को पूरा करने में अपना महत्वपूर्ण योग दिया.

किशोरीदास वाजपेयी का ‘हिन्दी शब्दानुशासन’

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गांधीजी तथा अन्य नेताओं ने हिन्दी को जनसंपर्क की भाषा के रूप में स्वीकार कर इसे राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिया. इस क्रम में हिन्दी को अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाने के प्रयत्न प्रारम्भ हुए. दक्षिण प्रचार सभा ने दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार प्रारंभ किया. 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हुई, जिसकी शाखाएँ देश भर में खोली गईं और इनके माध्यम से देशभर में हिन्दी सिखाने की कोशिश शुरू हुई. अहिन्दी भाषियों को हिन्दी सिखाने के क्रम में गुरु व्याकरण को और स्पष्ट करने की ज़रुरत महसूस हुई. स्वतंत्रता के पश्चात संविधान में हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया. तत्पश्चात सरकार ने भी प्रामाणिक व्याकरण निर्माण की दिशा में प्रयत्न प्रारंभ किये तथा इसके लिए एक समिति का निर्माण किया. 1954 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा ने किशोरीदास वाजपेयी को नई आवश्यकताओं के मुताबिक़ नया हिन्दी व्याकरण लिखने का दायित्व सौंपा. वाजपेयी जी का यह व्याकरण 1958 में ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ के नाम से प्रकाशित हुआ. वाजपेयी जी ने इस पुस्तक में हिन्दी की उत्पत्ति और परिष्कार से लेकर इसकी बोलियों तक की गहन चर्चा की है. 1998 में इस पुस्तक का पांचवाँ संस्करण प्रकाशित हुआ और कहना न होगा, अभी भी यह हिन्दी व्याकरण की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है.

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