जब-तब नींद उचट जाती है पर क्या नींद उचट जाने से रात किसी की कट जाती है? देख-देख दु:स्वप्न भयंकर, चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर; पर भीतर के दु:स्वप्नों से अधिक भयावह है तम बाहर! आती नहीं उषा, बस केवल आने की आहट आती है! देख अँधेरा नयन दूखते, दुश्चिंता में प्राण सूखते! सन्नाटा गहरा हो जाता, जब-जब श्वान श्रृगाल भूँकते! भीत भावना, भोर सुनहली नयनों के न निकट लाती है! मन होता है फिर सो जाऊँ, गहरी निद्रा में खो जाऊँ; जब तक रात रहे धरती पर, चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ! उस करवट अकुलाहट थी, पर नींद न इस करवट आती है! करवट नहीं बदलता है तम, मन उतावलेपन में अक्षम! जगते अपलक नयन बावले, थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम! साँस आस में अटकी, मन को आस रात भर भटकाती है! जागृति नहीं अनिद्रा मेंरी, नहीं गई भव-निशा अँधेरी! अंधकार केंद्रित धरती पर, देती रही ज्योति चकफेरी! […]
No Posts Found
बयान – 13 खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुँवर वीरेंद्रसिंह और योगी जी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे। कुमार – ‘पहले यह कहिए चंद्रकांता जीती है या मर गई?’ योगी – ‘राम-राम, चंद्रकांता को कोई मार सकता है? वह बहुत अच्छी तरह से इस दुनिया में मौजूद है।’ कुमार – ‘क्या उससे और मुझसे फिर मुलाकात होगी?’ योगी – ‘जरूर होगी।’ कुमार – ‘कब?’ योगी – (वनकन्या की तरफ इशारा करके) – ‘जब यह चाहेगी।’ इतना सुन कुमार वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त उसकी अजीब हालत थी। बदन में घड़ी-घड़ी कँपकँपी हो रही थी, घबराई-सी नजर पड़ती थी। उसकी ऐसी गति देख कर एक दफा योगी ने अपनी कड़ी और तिरछी निगाह उस पर डाली, जिसे देखते ही वह सँभल गई। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने भी इसे अच्छी तरह से देखा और फिर कहा – कुमार – ‘अगर आपकी […]
जो बीत गई सो बात गई जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुम थे उसपर नित्य निछावर तुम वह सूख गया तो सूख गया मधुवन की छाती को देखो सूखी कितनी इसकी कलियाँ मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली पर बोलो सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में मधु का प्याला था तुमने तन मन दे डाला था वह टूट गया तो टूट गया मदिरालय का आँगन देखो कितने प्याले हिल जाते हैं गिर मिट्टी में मिल जाते हैं जो गिरते हैं कब उठतें हैं पर बोलो टूटे प्यालों […]
बयान – 1 वनकन्या को यकायक जमीन से निकल कर पैर पकड़ते देख वीरेंद्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहाँ वनकन्या क्यों कर आ पहुँची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा – ‘मैं इस वनकन्या को जानता हूँ। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूँ, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकांता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिए इसी खत में, जो आपने दिया है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि मुझसे और कुमारी चंद्रकांता से एक ही दिन शादी हो’ और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकांता ही इस दुनिया से चली गई, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक […]
बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥ तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥ बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥ जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा ?॥ यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥ एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥ यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥ हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ । तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ ?॥5॥ अर्थ: सुखों में खेलता सुआ कैद हो गया. तब बहेलिये ने उसके पंख मरोड़ कर उसे पिटारे में डाल दिया. वहाँ और भी बहुत सारे पक्षी थे, जिनमें खलबली मची थी. सभी अपना-अपना रोना रो रहे थे. ईश्वर ने विष से भरा फल क्यों उत्पन्न किया, […]
बयान – 11 तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया, तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बंद रही। एक रात कुमार अपने पलँग पर सोए हुए थे। आधी रात जा चुकी थी,कुमारी चंद्रकांता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी, कभी जागते कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहाँ तक जमाया कि सुबह क्या, बल्कि दो घड़ी दिन चढ़े तक आँख खुलने न दीं। जब कुमार की नींद खुली अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोए थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था, बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए […]
खड़ा हिमालय बता रहा है डरो न आंधी पानी में। खड़े रहो तुम अविचल हो कर सब संकट तूफानी में। डिगो ना अपने प्राण से, तो तुम सब कुछ पा सकते हो प्यारे, तुम भी ऊँचे उठ सकते हो, छू सकते हो नभ के तारे। अचल रहा जो अपने पथ पर लाख मुसीबत आने में, मिली सफलता जग में उसको, जीने में मर जाने में।
तुम आयी जैसे छीमियों में धीरे- धीरे आता है रस जैसे चलते-चलते एड़ी में कांटा जाए धंस तुम दिखी जैसे कोई बच्चा सुन रहा हो कहानी तुम हंसी जैसे तट पर बजता हो पानी तुम हिली जैसे हिलती है पत्ती जैसे लालटेन के शीशे में कांपती हो बत्ती तुमने छुआ जैसे धूप में धीरे-धीरे उड़ता है भुआ और अंत में जैसे हवा पकाती है गेहूं के खेतों को तुमने मुझे पकाया और इस तरह जैसे दाने अलगाये जाते है भूसे से तुमने मुझे खुद से अलगाया.
पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी ॥ कहेसि चलौं जौ लहि तन पाँखा । जिउ लै उडा ताकि बन ढाँखा ॥ जाइ परा बन खँड जिउ लीन्हें । मिले पँखि, बहु आदर कीन्हें ॥ आनि धरेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि बिधि राखा ॥ पाइ भुगुति सुख तेहि मन भएऊ । दुख जो अहा बिसरि सब गएऊ ॥ ए गुसाइँ तूँ ऐस विधाता । जावत जीव सबन्ह भुकदाता ॥ पाहन महँ नहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा ॥ तौ लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट । पुनि बिसरन भा सुमिरना जनु सपने भै भेंट ॥1॥ अर्थ : उधर पद्मावती मानसरोवर तट पर सखियों के साथ खेल रही थी, इधर महल में तोता अपनी मृत्यु (मजारी- मार्जारी-बिल्ली; सांकेतिक अर्थ :मृत्यु) को सामने देख कर चिंतित था. उसने सोचा, ‘जब तक पंखों में शक्ति है, यहाँ से […]
बयान – 1 वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है, जब तक यह न मालूम हो जाए तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे। धीरे-धीरे चल कर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुँची जिधर आड़ में कुँवर वीरेंद्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली। तस्वीर की तरफ देख लंबी साँस ली, साथ ही आँखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूँद आँसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और […]
चंद्रकांता -देवकीनंदन खत्री-अध्याय -2-भाग-2 यहाँ पढ़ें बयान – 21 कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह सभी ने देखा। ऊपर से चपला पुकार कर कहने लगी – ‘जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खँडहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सँभल कर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फँस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनारगढ़ से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।’ चपला की बात बखूबी सभी ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने […]
बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी! खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा लो यह लतिका भी भर लाई- मधु मुकुल नवल रस गागरी अधरों में राग अमंद पिए अलकों में मलयज बंद किए तू अब तक सोई है आली आँखों में भरे विहाग री!
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
पिछला भाग यहाँ पढ़ें बयान – 11 कुमार का मिजाज बदल गया। वे बातें जो उनमें पहले थीं अब बिल्कुल न रहीं। माँ-बाप की फिक्र, विजयगढ़ का ख्याल, लड़ाई की धुन, तेजसिंह की दोस्ती, चंद्रकांता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं। किले से ये तीनों बाहर आए, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवीसिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेजसिंह चले जाते थे। कुँवर वीरेंद्रसिंह को इसका कुछ भी ख्याल न था कि वे कहाँ जा रहे हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुँचे, जहाँ तेजसिंह के कहने से देवीसिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन पर रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़ कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले। कुमार की ऐसी दशा देख कर तेजसिंह बहुत घबराए। जी में सोचने लगे […]
धरी तीर सब कंचुकि सारी । सरवर महँ पैठीं सब बारी ॥ पाइ नीर जानौं सब बेली । हुलसहिं करहिं काम कै केली ॥ करिल केस बिसहर बिस-हरे । लहरैं लेहिं कवँल मुख धरे ॥ नवल बसंत सँवारी करी । होइ प्रगट जानहु रस-भरी ॥ उठी कोंप जस दारिवँ दाखा । भई उनंत पेम कै साखा ॥ सरवर नहिं समाइ संसारा । चाँद नहाइ पैट लेइ तारा ॥ धनि सो नीर ससि तरई ऊईं । अब कित दीठ कमल औ कूईं ॥ चकई बिछुरि पुकारै , कहाँ मिलौं, हो नाहँ । एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह ॥5॥ अर्थ: पद्मावती और उसकी सखियों ने अपनी साड़ियाँ और अंगियाँ किनारे पर रखी और सरोवर में उतर गयीं. जैसे बेलें जल मिलने से खिल उठती हैं, वैसे ही सारी प्रसन्न होकर सरोवर में काम क्रीड़ा करने लगीं. उनके बिखरे हुए काले बाल सरोवर की लहरों के साथ लहरा रहे […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…