परीक्षा देने के पीछे और उसके फल निकलने के पहले दिन किस बुरी तरह बीतते हैं, यह उन्हीं को मालूम है जिन्हें उन्हें गिनने का अनुभव हुआ है। सुबह उठते ही परीक्षा से आज तक कितने दिन गए, यह गिनते हैं और फिर ‘कहावती आठ हफ्ते’ में कितने दिन घटते हैं, यह गिनते हैं। कभी-कभी उन आठ हफ्तों पर कितने दिन चढ़ गए, यह भी गिनना पड़ता है। खाने बैठे है और डाकिए के पैर की आहट आई – कलेजा मुँह को आया। मुहल्ले में तार का चपरासी आया कि हाथ-पाँव काँपने लगे। न जागते चैन, न सोते-सुपने में भी यह दिखता है कि परीक्षक साहब एक आठ हफ्ते की लंबी छुरी ले कर छाती पर बैठे हुए हैं। मेरा भी बुरा हाल था। एल-एल.बी. का फल अबकी और भी देर से निकलने को था – न मालूम क्या हो गया था, या तो कोई परीक्षक मर गया था, या […]
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तीसरे दिन नियत समय पर हिंदबाद तथा अन्य मित्रगण सिंदबाद के घर आए। दोपहर का भोजन समाप्त होने पर सिंदबाद ने कहा, दोस्तो, अब मेरी तीसरी यात्रा की कहानी सुनो जो पहली दो यात्राओं से कम विचित्र नहीं है। सिंदबाद ने कहा कि घर आकर मैं सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ ही दिनों में जैसे पिछली दो यात्राओं के कष्ट और संकट भूल गया और तीसरी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। मैंने बगदाद से व्यापार की वस्तुएँ लीं और कुछ व्यापारियों के साथ बसरा के बंदरगाह पर जाकर एक जहाज पर सवार हुआ। हमारा जहाज कई द्वीपों में गया जहाँ व्यापार करके हम लोगों ने अच्छा लाभ कमाया। किंतु एक दिन हमारा जहाज तूफान में फँस गया। इसके कारण हम लोग सीधे मार्ग से भटक गए। अंत में एक द्वीप के पास जाकर जहाज ने लंगर डाल दिया और पाल खोल डाले। कप्तान ने ध्यान देकर द्वीप को देखा […]
दोस्तो, अब मैं तुम लोगों को अपनी दूसरी सागर यात्रा की कहानी सुनाता हूँ, यह पहली यात्रा से कम विचित्र नहीं है। सब लोग ध्यान से सुनने लगे और सिंदबाद ने कहना शुरू किया। मित्रो, पहली यात्रा में मुझ पर जो विपत्तियाँ पड़ी थीं उनके कारण मैंने निश्चय कर लिया था कि अब व्यापार यात्रा न करूँगा और अपने नगर में सुख से रहूँगा। किंतु निष्क्रियता मुझे खलने लगी, यहाँ तक कि मैं बेचैन हो गया और फिर इरादा किया कि नई यात्रा करूँ और नए देशों और नदियों, पहाड़ों आदि को देखूँ। अतएव मैंने भाँति-भाँति की व्यापारिक वस्तुएँ मोल लीं और अपने विश्वास के व्यापारियों के साथ व्यापार यात्रा का कार्यक्रम बनाया। हम लोग एक जहाज पर सवार हुए और भगवान का नाम लेकर कप्तान ने जहाज का लंगर उठा लिया और जहाज पर चल पड़ा। हम लोग कई देशों और द्वीपों में गए और हर जगह क्रय-विक्रय किया। […]
खलीफा हारूँ रशीद के शासन काल में एक गरीब मजदूर रहता था जिसका नाम हिंदबाद था। एक दिन जब बहुत गर्मी पड़ रही थी वह एक भारी बोझा उठा कर शहर के एक भाग से दूसरे भाग में जा रहा था। रास्ते में थक कर उसने एक गली में, जिसमें गुलाब जल का छिड़काव किया हुआ था और जहाँ ठंडी हवा आ रही थी,अपना बोझा उतारा और एक बड़े-से घर की दीवार के साए में सुस्ताने के लिए बैठ गया. उस घर से इत्र, फुलेल और नाना प्रकार की अन्य सुगंधियाँ आ रही थीं, इसके साथ ही एक ओर से पक्षियों का मनोहर कलरव सुनाई दे रहा था और दूसरी ओर, जहाँ रसोईघर था, नाना प्रकार के व्यंजनों के पकने की सुगंध आ रही थी। उसने सोचा कि यह तो किसी बहुत बड़े आदमी का मकान मालूम होता है, जानना चाहिए कि किस का है। मकान के दरवाजे से कई […]
अँधेरे डिब्बे में जल्दी-जल्दी सामान ठेल, गोद के आबिद को खिड़की से भीतर सीट पर पटक, बड़ी लड़की जुबैदा को चढ़ाकर सुरैया ने स्वयं भीतर घुसकर गाड़ी के चलने के साथ-साथ लम्बी साँस लेकर पाक परवरदिगार को याद किया ही था कि उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो आकार बैठे हुए थे, वे अपने मुसलमान भाई नहीं – सिख थे! चलती गाड़ी में स्टेशन की बत्तियों से रह-रहकर जो प्रकाश की झलक पड़ती थी, उसमें उसे लगा, उन सिखों की स्थिर अपलक आँखों में अमानुषी कुछ है. उनकी दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उसकी काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है, और तेज धार-सा एक अलगाव उनमें है, जिसे जैसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा! रोशनी इसके लिए काफ़ी नहीं थी, पर सुरैया ने मानो कल्पना की दृष्टि से देखा कि उन आँखों में लाल-लाल डोरे पड़े हैं, […]
किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए। अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे। बारह वर्ष तक जी लगाकर पढ़ने के बाद वे सभी अच्छे विद्वान हो गये। अब उन्होंने सोचा कि हमें जितना पढ़ना था पढ़ लिया। अब अपने गुरु की आज्ञा लेकर हमें वापस अपने नगर लौटना चाहिए। यह निर्णय करने के बाद वे गुरु के पास गये और आज्ञा मिल जाने के बाद पोथे सँभाले अपने नगर की ओर रवाना हुए। अभी वे कुछ ही दूर गये थे कि रास्ते में एक तिराहा पड़ा। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आगे के दो रास्तों में से कौन-सा उनके अपने नगर को जाता है। अक्ल कुछ काम न दे रही थी। वे यह निर्णय करने बैठ गये […]
जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार हँस उठते पल में आर्द्र नयन धुल जाता होठों से विषाद छा जाता जीवन में बसंत लुट जाता चिर संचित विराग आँखें देतीं सर्वस्व वार जो तुम आ जाते एक बार
किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ से जोड़ दिया। कोई मधु-कोष काट लाया था, मैंने निचोड़ लिया। किसी की उक्ति में गरिमा थी, मैंने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया। कोई हुनरमंद था : मैंने देखा और कहा, ‘यों!’ थका भारवाही पाया- घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों?’ किसी की पौध थी, मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली, किसी की लगायी लता थी, मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली किसी की कली थी : मैंने अनदेखे में बीन ली, किसी की बात थी। मैंने मुँह से छीन ली। यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ : काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ? चाहता हूँ आप मुझे एक-एक शब्द सराहते हुए पढ़ें। पर प्रतिमा- अरे वह तो जैसी आपको रुचे आप स्वयं गढ़ें।
जाड़ों की सूनी द्वाभा में झूल रही निशि छाया गहरी, डूब रहे निष्प्रभ विषाद में खेत, बाग़, गृह, तरु, तट, लहरी। बिरहा गाते गाड़ी वाले, भूँक भूँक कर लड़ते कूकर,
1. रज्जब अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था. साथ में स्त्री थी, और गांठ में दो -तीन सौ की बड़ी रकम. मार्ग बीहड़ था, और सुनसान. ललितपुर काफी दूर था. बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा नामक गांव में ठहर जाने का निश्चय किया. उसकी पत्नी को बुखार हो आया था, रकम पास में थी और बैलगाड़ी किराए पर करने में खर्च ज्यादा पड़ता. इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा. परंतु ठहरता कहां? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था. उसकी पत्नी नाक और कानों में चांदी की बालियां डाले थी, और पाजामा पहने थी. इसके सिवा गांव के बहुत से लोग उसको पहचानते भी थे. वह उस गांव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर खरीद कर ले जा चुका था. अपने व्यवहारियों से उसने रात भर के बसेरे के लायक स्थान की याचना की. किसी ने भी मंजूर […]
आज हृदय भर-भर आता है, सारा जीवन रुक-सा जाता; वह आँखों में छाए जाते कुछ भी देख नहीं मैं पाता ! कौन पाप हैं पूर्व-जन्म के, जिनका मुझको फल मिलता है? मैंने नगर जलाए होंगे, जो मेरा सब तन जलता है ! पथ नदियों के मोड़े होंगे, देश-देश तरसाया होगा, विकल सहस्त्र मीन सा तब तो यह पापी मन पाया होगा ! अनगिनती हृदयों की बस्ती, मैंने, आह! उजाड़ी होंगी, तब तो इतनी सूनी मेरे- प्राणों की फुलवाड़ी होगी! अपने लघु जीवन में कैसा छवि का निर्दय स्वप्न बसाया, जो सब कुछ हो स्वप्न गया है, मुझे बनाकर अपनी छाया ! घेर-घेर लेती है मुझको कैसी पतझर की सी आहें? बरसे आंसू का धुँधलापन रोक रहा है उर की राहें ! कितने करुणा के बादल हैं मेरे काल-क्षितिज के बाहर, जिनकी शीतल गति की छाया कभी-कभी पड़ती है मुझपर ! उठता सुख से सिहर मरुस्थल मेरे उर का- दो कण […]
फूलचंद ठेकेदार दोपहर का भोजन करके सोने के बाद उठे, घड़ी की तरफ देखा. साढ़े तीन बजने वाले थे. उन्होंने जल्दी से चेहरा धोया और सुँघनी मंजन करते हुए घर से बाहर चबूतरे पर आए. मंजन करते हुए जब दाईं तरफ नज़र गई तो देखा स्कूटर नहीं था. थोड़ी देर में उनको अपनी निर्माणाधीन साइट पर जाना था . कुल्ला करके मुंह धोते हुए भीतर आए और पत्नी से पूछा राजू स्कूटर ले गया है क्या? पत्नी ने कहा नहीं वो तो ऊपर सो रहा है. चूंकि छोटा बेटा राजू स्कूटर बाइक आदि चलाना सीख ही रहा था इसलिए गाहे बगाहे वो स्कूटर लेकर गायब हो जाता. बेटी रीना टीवी देख रही थी. उन्होंने उससे भी स्कूटर की बाबत भी पूछा कि कोई मांग तो नहीं ले गया , लेकिन कोई सकारात्मक जवाब न देख वे चिंतित हो उठे. नीचे आकर कुर्ता पाजामा पहन बाहर निकले थे […]
वंचना है चाँदनी सित, झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार- शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार! दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता, वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार- इधर-केवल झलमलाते चेतहर, दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़! पास फिर, दो भग्न गुम्बद, निविडता को भेदती चीत्कार-सी मीनार, बाँस की टूटी हुई टट्टी, लटकती एक खम्भे से फटी-सी ओढऩी की चिन्दियाँ दो-चार! निकटतर-धँसती हुई छत, आड़ में निर्वेद, मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में तीन टाँगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा। निकटतम-रीढ़ बंकिम किये, निश्चल किन्तु लोलुप खड़ा वन्य बिलार- पीछे, गोयठों के गन्धमय अम्बार! गा गया सब राजकवि, फिर राजपथ पर खो गया। गा गया चारण, शरण फिर शूर की आ कर, निरापद सो गया। गा गया फिर भक्त ढुलमुल चाटुता से वासना को झलमला कर, गा गया अन्तिम प्रहर में वेदना-प्रिय, अलस, तन्द्रिल, कल्पना का लाड़ला कवि, निपट भावावेश से […]
नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर! वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा, धूलि धूसर बादलों ने भूमि को इस भाँति घेरा, रात-सा दिन हो गया, फिर रात आई और काली, लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा, रात के उत्पात-भय से भीत जन-जन, भीत कण-कण किंतु प्राची से उषा की मोहिनी मुस्कान फिर-फिर! नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर! वह चले झोंके कि काँपे भीम कायावान भूधर, जड़ समेत उखड़-पुखड़कर गिर पड़े, टूटे विटप वर, हाय, तिनकों से विनिर्मित घोंसलो पर क्या न बीती, डगमगाए जबकि कंकड़, ईंट, पत्थर के महल-घर; बोल आशा के विहंगम, किस जगह पर तू छिपा था, जो गगन पर चढ़ उठाता गर्व से निज तान फिर-फिर! नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर! क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों में उषा है मुसकराती, घोर गर्जनमय गगन के कंठ में खग पंक्ति गाती; एक […]
बनारस शहर के दक्षिणी हिस्से में लंका से सामनेघाट होते हुए गंगा नदी के ऊपर बने पीपे के पुल वाले रास्ते में ही शिवधनी सरदार का घर था। खाते पीते परिवार के स्वामी थे । स्वयं विश्वविद्यालय में तृतीय श्रेणी कर्मचारी थे । एक बांस बल्ली की दुकान थी, जहां निर्माणाधीन मकानों के लिए किराए पर बल्ली पटरे उपलब्ध थे। इसके साथ ही दो-तीन जगह पुश्तैनी जमीन थी । अधिकतर को उन्होंने कई साल पहले बंटाई पर दे रखा था। बंटाईदार भी सालों से फसल कटने के महीने दो महीने के भीतर शिवधनी का हिस्सा पहुंचा देते थे। यद्यपि शिवधनी जानते थे कि बंटाईदार हिस्से में बेईमानी कर रहे हैं, लेकिन वो उसको परमात्मा की कृपा मान हील हुज्जत नहीं करते थे। पत्नी फसल के दिनों में ही बार-बार कहती कि जाकर देख आओ कि कितना अनाज हुआ है। कहीं बेईमानी से कम तो नहीं दे रहे हैं सब? शिवधनी […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…