एक रीडर के तौर पर आपने किसी भी पुस्तक को स्टार्ट करने के बाद महसूस किया होगा कि किसी पुस्तक का पहला चैप्टर ही रीडर के मन मे उस पुस्तक को खत्म करने का बीज बो देता है। एक लेखक के तौर पर भी अमूमन यही सलाह वरिष्ठ लेखकों से मिलती है कि वे पहले अध्याय को इस तरह प्रेजेंट करें कि रीडर उसे पढ़ते ही उस पुस्तक को पूरा खत्म करने का मन में ठान ले। वहीं, पहले अध्याय का, इतना शानदार होना इसलिए भी जरूरी हो जाता है ताकि जब आपकी कहानी का ड्राफ्ट एडिटर के पास पहुंचे तो उसे पहला चैप्टर पढ़ने से आपकी कहानी पर विश्वास हो जाये। जहां इस देश में, एडिटर हर नए लेखक के ड्राफ्ट को, उसकी कहानी को, अपनी कुर्सी के पीछे रखे गुप्त डस्टबिन में रख देता हो, वहां यह बहुत महत्वपूर्ण है कि पहला चैप्टर ही आपकी कहानी के लिए […]
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“तू झूठ बोलता है, साले!” – सब इंस्पेक्टर दिनेश राठी के होठों से निकलता यह शब्द गौरव प्रधान के लिए किसी रिवाल्वर से निकली गोली के समान था। “तूने ही अपने पिता का क़त्ल किया है। बता क्यूँ किया अपने बाप का खून, किसलिये किया, कैसे किया, बता।” – दिनेश राठी फिर चिल्लाया। उसकी आँखें गुस्से में लाल हो, गौरव प्रधान को देख रही थीं। दिनेश राठी उस वक़्त, महरौली थाने में, पुलिस लॉक-अप में मौजूद था। इसे पुलिस लॉक-अप के स्थान पर एक अँधेरी कोठरी कहेंगे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उस कोठरी में, १८ वाट का एक सी.एफ.एल., सीलिंग से आती हुई एक होल्डर के साथ लटका हुआ, जल रहा था लेकिन उसकी रोशनी इतनी काफी नहीं थी कि वह पूरी कोठरी में पर्याप्त प्रकाश कर सके। उस कोठरी का दरवाजा अन्दर से बंद था और ऐसा लग रहा था कि उस कोठरी के बाहर मौत का बसेरा […]
रात के ग्यारह बजे टैक्सी शहर की खामोश सड़कों पर से गुजरती हुई एक पुराने किस्म के फाटक के सामने जाकर रुकी. ड्राईवर ने दरवाजा खोल कर बड़ी बेरुखी के साथ मेरा सूटकेस उतार कर फुटपाथ पर रखा और पैसों के लिए हाथ फैलाए तो मुझे जरा अजीब सा लगा. “यही जगह है?” मैंने जरा संदेह से पूछा . “जी हाँ” उसने सहजता से उत्तर दिया. मैं नीचे उतरी. टैक्सी गली के अँधेरे में विलीन हो गई और मैं सुनसान फुटपाथ पर खडी रह गई. मैंने फाटक खोलने की कोशिश की, मगर वह अंदर से बंद था. तब मैंने बड़े दरवाजे में जो खिड़की थी, उसे खटखटाया. कुछ देर बाद खिड़की खुली. मैंने चोरों की तरह अंदर झाँका. अंदर नीम-अँधेरा आँगन था, जिसके एक कोने में दो लड़कियाँ रात के कपडे पहने धीरे-धीरे बातें कर रही थीं. आँगन के सिरे पर एक छोटी सी टूटी-फूटी इमारत खड़ी थी. […]
ख़ुर्शीद में जल्वा चाँद में भी । हर गुल में तेरे रुख़सार की बू । घूँघट जो खुला सखियों ने कहा । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी । दिलदार ग्वालों, बालों का । और सारे दुनियादारों का । सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी । इस हुस्ने अमल के सालिक ने । इस दस्तो जबलए के मालिक ने । कोहसार लिया उँगली पे उठा । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी । मन मोहिनी सूरत वाला था । न गोरा था न काला था । जिस रंग में चाहा देख लिया । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी । तालिब है तेरी रहमत का । बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा । तू बहरे करम है नंद लला । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
काली इटैलियन का बारीक लाल गोटेवाला चूड़ीदार पायजामा और हरे फूलोंवाला गुलाबी लंबा कुर्ता वह पहने हुई थी। गोटलगी कुसुंभी (लाल) रंग की ओढ़नी के दोनों छोर बड़ी लापरवाही से कंधे के पीछे पड़े थे, जिससे कुर्ते के ढीलेपन में उसकी चौड़ी छाती और उभरे हुए उरोजों की पुष्ट गोलाई झलक रही थी। अपनी लंबी मजबूत मांसल कलाई से मूसली उठाए वह दबादब हल्दी कूट रही थी। कलाई में फँसी मोटी हरी चूड़ियाँ और चाँदी के कड़े और पछेलियाँ बार-बार झनक रही थीं। उन्हीं की ताल पर वह गा रही थी – ‘हुलर-हुलर दूध गेरे मेरी गाय… आज मेरा मुन्नीलाल जीवेगा कि नाय।’ बड़ा लोच था उसके स्वर में। इस गवाँरू गीत की वह पंक्ति उस तीखी दुपहरी में भी कानों में मिश्री की बूँदों के समान पड़ रही थी। कुछ देर मैं छज्जे की आड़ में खड़ी सुनती रही। न उसने कूटना बंद किया और न वह गीत की […]
वो कहानी मैंने अपनी आंखों के सामने घटित होते देखी थी, सन १९४५ में जब लाहौर में एक शादी वाले घर से निमंत्रण आया था, और मैं उस दिन वहां शामिल थी, जब घर में शादी ब्याह के गीतों वाला दिन बैठाया जाता है. उस दिन घर की मालकिन भी उस समागम में थी, और लाहौर की वो मशहूर नाजनीना भी, जिसे मल्लिकाये तरन्नुम कहा जाता था. और सब जानते थे कि वह घर के मालिक की रखैल थी. उस नाज़नीना के पास सब कुछ था, हुस्न भी, नाज़ नखरा भी, बेहद खूबसूरत आवाज भी, लेकिन समाज का दिया हुआ वहा आदरणीय स्थान नहीं था, जो एक पत्नी के पास होता है. और जो पत्नी थी उसके पास ना जवानी थी, न कोई हुनर, लेकिन उसके पास पत्नी होने का आदरणिय स्थान था. पत्नी होने का भी और मां होने का भी. दोनों औरतों के पास अपनी अपनी जगह थी, […]
अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिलकुल नयी बीवी है। एक तो नयी इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ। जू का मतलब अगर ‘जून’ हो तो इसका मतलब निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नयी हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नयी है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे। पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी की ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरियावाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था। किसी भी मर्द का यह अँगोछा […]
अमृता प्रीतम के जन्मदिन पर… अचानक मेरे सामने कई लोग आकर खडे हो गए हैं, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं पहना हुआ है. पता नहीं मैंने कहाँ पढा था कि खानाबदोश औरतें अपनी कमर से अपनी घघरी कभी नहीं उतारती हैं. मैली घघरी बदलनी होतो सिर की ओर से नई घघरी पहनकर, अंदर से मैली घघरी उतार देती हैं और जब किसी खानाबदोश औरत की मृत्यु हो जाती है तो उसके शरीर को स्नान कराते समय भी उसकी नीचे की घघरी सलामत रखी जाती है. कहते हैं, उन्होंने अपनी कमर पर पडी नेफे की लकीर में अपनी मुहब्बत का राज खुदा की मखलूक से छिपाकर रखा होता है. वहाँ वे अपनी पसंद के मर्द का नाम गुदवाकर रखती हैं, जिसे खुदा की ऑंख के सिवा कोई नहीं देख सकता. और शायद यही रिवाज मर्दों के तहमदों के बारे में भी होता होगा. लेकिन ऐसे नाम गोदने वाला जरूर […]
लक्ष्मण मेघनाद की शक्ति से घायल पड़े थे। हनुमान उनकी प्राण-रक्षा के लिए हिमाचल प्रदेश से “संजीवनी” नाम की दवा ले कर लौट रहे थे कि अयोध्या के नाके पर पकड़ लिए गए। पकड़ने वाले नाकेदार को पीटकर हनुमान ने लेटा दिया। राजधानी में हल्ला हो गया कि बड़ा “बलशाली” स्मगलर आया हुआ है। पूरा फ़ोर्स भी उसका मुकाबला नहीं कर पा रहा है। आखिर भरत और शत्रुघ्न आए। अपने आराध्य रामचन्द्र के भाइयों को देखकर हनुमान दब गए। शत्रुघ्न ने कहा – इन स्मगलरों के मारे हमारी नाक में दम है, भैया। आप तो सन्यास ले कर बैठ गए। मुझे भुगतना पड़ता है। भरत ने हनुमान से कहा – कहाँ से आ रहे हो? हनुमान – हिमाचल प्रदेश से। -क्या है तुम्हारे पास? सोने के बिस्किट, गांजा, अफीम? -दवा है। शत्रुघ्न ने कहा – अच्छा, दवाइयों की स्मगलिंग चल रही है। निकालो कहाँ है? हनुमान ने संजीवनी निकालकर रख दी। कहा – मुझे आपके बड़े भाई रामचंद्र ने इस दवा को लेने भेजा है। शत्रुघ्न ने भरत की तरफ देखा। बोले – […]
बरात में जाना कई कारणों से टालता हूँ. मंगल कार्यों में हम जैसे चढ़ी उम्र के कुँवारों का जाना अपशकुन है. महेश बाबू का कहना है, हमें मंगल कार्यों से विधवाओं की तरह ही दूर रहना चाहिए. किसी का अमंगल अपने कारण क्यों हो ! उन्हें पछतावा है कि तीन साल पहले जिनकी शादी में वह गए थे, उनकी तलाक की स्थिति पैदा हो गयी है. उनका यह शोध है कि महाभारत युद्ध न होता, अगर भीष्म की शादी हो गयी होती. और अगर कृष्ण मेनन की शादी हो गयी होती, तो चीन हमला न करता. सारे युद्ध प्रौढ़ कुँवारों के अहं की तुष्टि के लिए होते हैं. 1948 में तेलंगाना में किसानो का सशस्त्र विद्रोह देश के वरिष्ठ कुँवारे विनोबा भावे के अहं की तुष्टि के लिए हुआ था. उनका अहं भूदान के रूप में तुष्ट हुआ. अपने पुत्र की सफल बारात से प्रसन्न मायाराम के मन […]
इस्मत चुगताई जी का जन्म बदायूं के एक उच्च वर्गीय परिवार में हुआ . वंश परंपरा से वे मुग़ल खानदान से जुड़ी थीं. पिता जज थे सो आपा को कई शहरों में रहने का अनुभव मिला. छह भाइयों की बहन होने की वजह से इस्मत आपा का बचपन में ‘टाम ब्वाय ‘ व्यक्तित्व रहा. वही अक्खड़पन और स्पष्टवादिता जीवन भर उनके पर्सोना के अंग रहे .बड़े भाई मशहूर अफसानानिगार थे,लेकिन आपा ने उनसे अलग अपनी एक पहचान बनाई. समलैंगिक स्त्री संबंधों पर आधारित कहानी ‘लिहाफ’ लिखने पर इस्मत आपा को 1944 में मुकदमे का सामना करना पड़ा था. लेखक-निर्देशक शाहिद लतीफ से उनकी शादी हुई . आपा की लिखी लंबी कहानी पर ‘गरम हवा ‘ फिल्म बनी है. चौबीस अक्टूबर उन्नीस सौ पचानबे को आपा का देहान्त हुआ. उनकी वसीयत के मुताबिक उनका दाहसंस्कार हुआ. आज की दस तथाकथित आधुनिक और सेकुलर लेखिकाओं (और लेखकों) से कहीं ज्यादा आधुनिक और सेकुलर […]
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे, थोड़े में निर्वाह यहाँ है, ऐसी सुविधा और कहाँ है ? यहाँ शहर की बात नहीं है, अपनी-अपनी घात नहीं है, आडम्बर का नाम नहीं है, अनाचार का नाम नहीं है। यहाँ गटकटे चोर नहीं है, तरह-तरह के शोर नहीं है, सीधे-साधे भोले-भाले, हैं ग्रामीण मनुष्य निराले । एक-दूसरे की ममता हैं, सबमें प्रेममयी समता है, अपना या ईश्वर का बल है, अंत:करण अतीव सरल है । छोटे-से मिट्टी के घर हैं, लिपे-पुते हैं, स्वच्छ-सुघर हैं गोपद-चिह्नित आँगन-तट हैं, रक्खे एक और जल-घट हैं । खपरैलों पर बेंले छाई, फूली-फली हरी मन भाईं, अतिथि कहीं जब आ जाता है, वह आतिथ्य यहाँ पाता है । ठहराया जाता है ऐसे, कोई संबंधी हो जैसे, जगती कहीं ज्ञान की ज्योति, शिक्षा की यदि कमी न होती तो ये ग्राम स्वर्ग बन जाते पूर्ण शांति रस में सन जाते।
मुझे देवीपुर गये पाँच दिन हो चुके थे, पर ऐसा एक दिन भी न होगा कि बौड़म की चर्चा न हुई हो। मेरे पास सुबह से शाम तक गाँव के लोग बैठे रहते थे। मुझे अपनी बहुज्ञता को प्रदर्शित करने का न कभी ऐसा अवसर ही मिला था और न प्रलोभन ही। मैं बैठा-बैठा इधर-उधर की गप्पें उड़ाया करता। बड़े लाट ने गाँधी बाबा से यह कहा और गाँधी बाबा ने यह जवाब दिया। अभी आप लोग क्या देखते हैं, आगे देखिएगा क्या-क्या गुल खिलते हैं। पूरे 50 हजार जवान जेल जाने को तैयार बैठे हुए हैं। गाँधी जी ने आज्ञा दी है कि हिन्दुओं में छूत-छात का भेद न रहे, नहीं तो देश को और भी अदिन देखने पड़ेंगे। अस्तु! लोग मेरी बातों को तन्मय हो कर सुनते। उनके मुख फूल की तरह खिल जाते। आत्माभिमान की आभा मुख पर दिखायी देती। गद्गद कंठ से कहते, अब तो महात्मा […]
तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर, अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर! सुबह औ’ शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर, तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर, तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर! अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर! ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन, ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन, कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र! अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर! हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है, यह आंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है, जिधर पड़ेंगे ये क़दम बनेगी एक नई डगर अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर! हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार […]
हिमाद्रि तुंग श्रृंगिनी त्रिरंग-रंग रंगिनी नमामि मातु भारती सहस्त्र दीप आरती ! समुद्र पाद पल्लवे विराट-विश्व वल्लभे प्रबुद्ध बुद्ध की धरा प्रणम्य है वसुंधरा ! स्वराज्य स्वावलम्बिनी सदैव सत्य-संगिनी अजेय, श्रेय-मंडिता समाज-शास्त्र पंडिता ! अशोक चक्र-संयुते समुज्जवले, समुन्नते मनोज्ञ मुक्ति-मंत्रिणी विशाल लोक-तंत्रिणी ! अपार शस्य-सम्पदे अजस्त्र श्री पदे-पदे शुभंकरे प्रियम्वदे दया-क्षमा वंशवदे ! मनस्विनी तपस्विनी रणस्थली यशस्विनी कराल काल-कालिका प्रचंड मुंड-मालिका ! अमोघ शक्ति-धारिणी कराल कष्ट-वारिणी अदैन्य मंत्र दायिका नमामि राष्ट्र नायिका !
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…