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4 Comments

  1. मंजीत चतुर्वेदी
    June 17, 2020 @ 5:09 pm

    मैथिली शरण गुप्त जी की रचनाओं का पुनः मूल्यांकन अनिवार्य है। इसी कविता को लीजिये। यदि शिक्षा का प्रसार होता तो इस कोविड 19 में विपरीत प्रवास के थपेड़े झेलते किसान, मजदूर, कामगर की संख्या करोड़ों नहीं होती। शिक्षित व्यक्ति मध्यम श्रेणी रोजगार में होता है या कृधि करता है।

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  2. Raj Bhainya
    November 7, 2020 @ 9:24 pm

    और जाती व्यबश्था गाओ में जो होती है उसे कैसे भूल गए कविजी

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  3. R D Anand
    May 28, 2021 @ 5:08 pm

    कवि मैथली शरण गुप्त ने जिस ग्राम जीवन की तारीफ की है, दरअसल, अब वह ग्राम जीवन खोजे से भी नहीं मिलता है। गाँव की न राखी मिलती है न वह मोहरा-दुआरा जहाँ बच्चे खेलते-लौटते7 थे। गाँव में कई ग्रुप हो गए हैं। किसी का किसी ने जीवन क्या, मरनी-करनी में भी नहीं जाते हैं। गाँव में एक सिरे न तमाम चीजें लुप्त हो चुकी हैं। आपसी सहृदयता और सहष्णुता लुप्त हो चुकी है। अब भाईचारा और बहनापा बिल्कुल नहीं है। ईर्ष्या-वैमनस्य कूट-कूट कर भरा है। अब बारह बजे तक सब की टीबी सब की मोबाइल चलती है। अब चौपाल व उसकी नसीहतें नहीं होती हैं। अब कहने को गाँव है। लड़कियाँ शहर की किसी दीपिका पादुकोण से कम नहीं हैं। दुपट्टा गाँव से भी गायब है। सलवार और दुपट्टा नीच और गरीब लड़कियों की निशानी है। अब दीदी कहना बेज्जती समझा जाता है। शहर की राजनीति से बदतर राजनीति गाँव की राजनीति है। हर घर कुटिनीति का अखाड़ा है। अब गाँव में रहना नरक से काम नहीं है। इस समय मैथली शरण गुप्त पुनः पैदा हो जाते और कविता लिखते तो जरूर लिखते है कि आओ, भाग चलो शहर की ओर।

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