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बाघ से भिड़ंत-श्रीराम शर्मा

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सायंकाल के चार बजे थे। मैं स्कूल से लौटकर घर में गरम-गरम चाय पी रहा था। किसी ने बाहर से पुकारा: “मास्टर साहब, मास्टर साहब, जरा बाहर आइए। एक आदमी आया है। बाघ की खबर लाया है।” बाघ का नाम सुनकर मैं उछल पड़ा। चाय का प्याला वहीं रखकर झट से बाहर आया।

      देखा, तो बाहर पश्मीने की चादर ओढ़े मेरे शिकारी मित्र पं लक्ष्मीदत्त थपलियाल खड़े हैं और उनकी बगल में एक हाड़ का कंकाल बूढ़ा खड़ा है। बातचीत से मालूम हुआ कि बाघ ने टिहरी से कुछ दूर एक ही साथ दो गायों का वध किया है।

      बंदूक उठाई, कारतूस जेब में डाले। लक्ष्मीदत्त जी तथा बूढ़े किसान को साथ लेकर जंगल की ओर चला। थोड़ी दूर चलकर बूढ़े ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा: “मालिक, ऊपर देखो। ठीक उस डाँड़े पर मेरी बड़ी गए मरी पड़ी है। वहाँ से चार फर्लांग पर पहाड़ की दूसरी ओर दूसरी गाय पड़ी है।”

      बाघ ने दो गाय मारी थी। संभव है, दोनों गाय एक ही बाघ ने मारी हो। और यह भी संभव था कि दूसरी गाय को किसी दूसरे बाघ ने मारा हो।

      दो बाघों की आशंका से हम लोगों ने अपने दल को दो भागों में बाँट दिया। लक्ष्मीदत्त जी तो दूसरी गाय की लाश की ओर चले। मैं डाँड़े की ओर चला और यह निश्चय हुआ कि समय अधिक हो जाने पर लाश पर आज बैठना ठीक नहीं। कारण यह कि बैठने के लिए स्थान दिन में चार बजे तक बन जाना चाहिए था, जिससे बाघ को किसी बात का शक न हो। कहते हैं कि पलक की आवाज तक से बाघ अपने शत्रु को समझ लेता है और फिर लाश पर नहीं आता। इसलिए बाघ को मारने के लिए झाड़ी और काँटों से जो स्थान बनाते हैं, वह दिन में चार बजे तक बना लेते हैं और बनाते समय कुछ आदमी इधर-उधर बैठे रहते हैं कि जिससे बाघ यह समझे कि किसान घास काट रहे हैं। जब शिकारी छिपकर बैठ जाते हैं, तब और लोग बातें करते चले जाते हैं, जिससे बाघ समझे कि घास काटने वाले गए और उसका भोजन बेखटके पड़ा है। ऐसा होने पर भी बाघ एकदम शिकार पर नहीं आता। छिप छिपकर और रुक रुककर चारों ओर देख देखकर एक-एक गज आगे बढ़ता है।

      लक्ष्मीदत्त जी बूढ़े के साथ छोटी गाय की लाश की ओर चले। हम दोनों को गाँव में मिलना था।

      मुझे एक मील के लगभग पहाड़ की चोटी पर पहुँचना था और समय तंग हो रहा था। जंगल में बाघ अपने शिकार पर चार-पाँच बजे ही आ जाता है, इसलिए मैं बड़ा चौकन्ना होकर चल रहा था। चिड़ियाँ झाड़ियों में चहचहा रही थी। किसान थके-मांदे घर को लौट रहे थे। मैं चढ़ाई पर एक-एक पैर संभाल-संभाल कर रख रहा था। कहीं चुपचाप बाघ दिखाई पड़ जाये और बाघ मुझे न देख पाये, तो फिर एक बार जीवन की बाजी लगाकर फायर कर दिया जाये। बाघ और शिकारी जब घात लगाकर चलते हैं, तब उनकी आकृति देखने योग्य होती है। एक झाड़ी के आसपास चिड़ियाँ कुछ विचित्र रूप से चिचिया रही थी। उधर जो देखा, तो हृदय की धड़कन एकदम बढ़ गयी। सामने तीन सौ गज पर झाड़ी के सहारे बाघ खड़ा हुआ दिग्दर्शन कर रहा था। चिड़ियाँ अपनी शक्तिभर उस पर विरोध का प्रदर्शन कर रही थीं।

      बाघ थोड़ी देर बाद अपने शिकार की ओर शाही चाल से चला। मैंने अपना मार्ग छोड़, कुछ चक्कर काटकर, पहाड़ की चोटी पर पहुँचने की ठानी, जिससे कि बाघ पर बगल से, छिपकर फायर किया जा सके। बाघ मुझसे तीन सौ गज ऊपर था। वह पहाड़ के ऊपर से ही अपने शिकार की ओर जा रहा था। मैंने आगे बढ़कर उसके रास्ते में जाना चाहा।

       दोनों को एक ही स्थान पर पहुँचना था। मैं मोड़ की ओर चला कि कहीं पीछे से पचास-साठ गज पर बाघ दिखाई पड़ा और मौका हुआ, तो उसे मारने की चेष्टा करूँगा। यह केवल अंदाज ही अंदाज था। यह स्वप्न में भी न विचारा था कि अंदाजा इतना ठीक निकलेगा। जूते उतारकर मैं ऊपर को लपका। जूते इसलिए उतार दिए कि तनिक बही आहट न हो। जब पहाड़ की चोटी का मोड़ पचास-साठ गज रह गया तो मैं धीरे-धीरे एक-एक पैर गिनकर बंदूक को बगल में दबाए और हाथ बंदूक के घोड़े पर रखे हुए आगे बढ़ा। खयाल था कि इतनी देर में बाघ मोड़ को पार कर गया होगा, और मैं मोड़ पर पहुँचकर उसके मार्ग को काटकर छिपकर बैठ जाऊँगा। लेकिन ज्योंही मैं मोड़ पर शिकारी आसन से पहुँचा, त्यों ही दूसरी ओर से बाघ आ गया। मैंने पहले बाघ को देखा। जंगल में स्वतंत्र रूप से, अभिमान के साथ, मस्त चाल से चलते हुए मैंने बाघ को इतने समीप से पहले कभी न देखा था।

        ज्योंही बाघ की दृष्टि मुझ पर पड़ी, त्यों ही वह गरजकर पिछले पाँवों पर खड़ा हो गया। अगले पंजों के नाखून निकालकर, पूँछ को इस प्रकार हिलाने लगा, जिस प्रकार बिल्ली चिड़िया की घात में बैठी हुई अपनी पूँछ हिलाती रहती है। वह मेरे सामने मुँह फाड़कर खड़ा हो गया। बाघ मेरे इतने समीप था कि मैं बंदूक की नाल से उसे छू सकता था। मैंने समझ लिया था कि मैं फायर करूँ या न करूँ—बाघ मुझे मार ही देगा।

        इधर बाघ ने भी समझा कि यह दो पैर का प्राणी काली-काली लोहे की वस्तु लिए उसकी जान की खातिर आया है, उसके खून का प्यासा है। उसके मुँह से ग्रास छीने तो छीने, पर उसकी जान का ग्राहक—यह दो पैर का जीव—इस प्रकार का अपमान करके उसे मारने आया है! यह नहीं हो सकता।

        इधर मैंने खयाल किया कि यदि फायर किया तो बाघ गिरते हुए भी एक चोट करेगा, और यदि वह मेरे खून को न भी पी सकेगा, तो नीचे खड्ड में तो गिरा ही देगा। खड्ड में एक मील नीचे गिरने पर मेरे अंत का पता भी कोई न देगा, इसलिए घोड़ा चढ़ाये खड़ा था कि पहले मैं आक्रमण न करूँगा। यदि बाघ मुझ पर झपटा, तो फायर करूँगा और आत्मरक्षा के लिए जो कुछ बन पड़ेगा, करूँगा।

        एक मिनट तक हम दोनों डटे रहे। बाघ गुर्रा रहा था। उसकी आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। मैंने फायर न किया; और न उसने आक्रमण—यह एक मिनट, युग के समान था। अंत में बाघ एकदम मुड़कर भागा। ज्योंही वह मुड़ा, मैंने समझा कि बस मेरे ऊपर आया। बंदूक दाग ही तो दी। जंगल गूँज गया। गोली बाघ के पेट में लगी। मैंने बाघ को गिरते देखा। बंदूक छोड़कर मैं नीचे को दौड़ा, पर गिरकर लुढ़कने लगा। जिस बात का डर था, वही हुआ। खड्ड की ओर मैं फुटबॉल की भाँति ढरकने लगा। चालीस-पचास गज लुढ़का होऊँगा, कि हृदय दहलाने वाली बाघ की गर्जन कानों में आई।

        मौत के अनेक बहाने होते हैं और जीवन रक्षा के अनेक सहारे। यदि जीवन होता है, तो मनुष्य पहाड़ की चोटी से गिरकर भी बच जाता है, और मरने के लिए सीढ़ियों से गिरना ही काफी है। मुझे बचना था। भगवान को यह मंजूर था कि मैं बचा रहूँ। सामने खड्ड की ओर तेजी के साथ लुढ़कने के मार्ग में एक चीड़ का वृक्ष था। इतना होश-हवास तो था ही। आठ-दस गज ऊपर से पेड़ देख लिया। उसी ओर को जाने के लिए हाथ-पैर पीटे और उस पेड़ से आकर टकराया। पीछे से बाघ के घिसटने की सरसराहट हो रही थी। पेड़ से ठोकर खाकर रुका, झटपट ऊपर चढ़ा। इतने में ही विद्युत गति से बाघ भी आ गया और उसने उचककर मुझ पर पंजा मारा। उसके पंजे में मेरा नेकर आया। नेकर फट गया, और मैं ऊपर निकल गया। बाघ की कमर टूट गयी थी, इसलिए वह पेड़ पर न चढ़ सका। पेड़ पर ऊपर बैठकर मैंने दम लिया और तब चोट-खून की ओर ध्यान गया। पेड़ के नीचे बाघ पड़ा हुआ अंतिम साँस ले रहा था।

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गिरीश कुमार तिवारी

बहुत शानदार कहानी। 1984 में बचपन में कक्षा 6 में पढी थी । पुनः पढ़कर आनंद आ गया।