अजगर करे न चाकरी

शिवनाथ जम्हाई लेते हुए कुर्सी पर ही सोते सोते एकतरफा लटक जा रहे थे।
यद्यपि अपना संतुलन बनाए हुए थे।
उनके बगल मे आटे के बोरे जैसे कसे देह लिए रमाशंकर चैतन्य थे।
वह पतीली में बाज़ार से से लाये मटन को तलने में मगन थे। वो तलते कम थे, वकोध्यानम भाव से कलछुल ज्यादा हिला रहे थे।
सूखी, चर्राई हुयी लकड़ियाँ पूरे आवेग से धधक रही थीं। ट्यूबवेल के पास वाली जीर्ण-शीर्ण मड़ई रसोईघर में तब्दील हो चुकी थी। बंटू,मंटू,पिंटू,सिधारी,खरपत्तू और जोखन लाल सहित कई लोग लहसुन-प्याज छिलने के काम में कूद-कूद कर भिड़े हुए थे।
मंडली पूरे मनोयोग से लगी हुयी थी!
आज किसी बड़े दावत की तैयारी थी!
कल फिर बकरभोज का आयोजन था और आज पांच- छह दिनों से, केवल मंगलवार छोड़कर , दावतों का दौर परवान पर था।
रमाशंकर ने शिवनाथ काका के खर्राटे पर खिसिया कर कहा-
‘ए काका! कुर्सीय प मत सोया, ढमिला जइबाऽ.. ।
….चला, तनी अहरा दगावऽ, बाटी सेंकाई।’
शिवनाथ काका ने ऊंघते हुए कहा –
”ए रमाशंकर! मौसमो क कवनो भरोसा ना हौ …कब बरसात हो जाई… आ भउरी गरिष्ठ होले।काहे न घरवा से भात- रोटी बनवा लेतऽ।”
“काका! अहरा लगावै खातिर केहू मेहरारू तैयार ना हौ । सत्रह जाने क भात रोटी बनावे खातिर के खलिहर बइठल बा!”
शिवनाथ खिस्स से हंस दिए….।
रमाशंकर चिढ़ कर बोले-
“पिछवाड़े में त हरदी लगल ना।
तोहके का बुझाई।”
शिवनाथ ने सुनकर दांत चियार दिया।
वास्तव मे इस मुद्दे पर रमाशंकर की अपनी पत्नी से बहुत झिक- झिक हो चुकी थी।रोज कलिया-मछरी के इस आसक्त मंडली के समक्ष समस्या बहुत बिकट हो चली थी । घर की औरतों ने इस मुद्दे पर असहयोग का रवैया अपना लिया था। पिछले बीस पच्चीस वर्षों से रोज रोज की कलिया- मछरी की पार्टी से घर की औरतें आजिज़ आ चुकी थीं।
लंबी और हृष्ट-पुष्ट काया के मालिक रमाशंकर एक जमाने में गुजरात कमाने गए लेकिन ज्यादा दिनों तक उनका मन नहीं लगा और नब्बे के दशक के शुरूआत में गांव लौट आए।
तंबाकू के तीनों रूपों -ठोस,द्रव और गैस के साथ-साथ देशी ठर्रा और गांजा के सुरूर में प्रायःवे मस्त रहते।
इस दौर में गांव में गोल-गोलइती नया रूप ग्रहण कर रही थी ।
शुरूआत में रमाशंकर ने हमेशा नवरंगिया गांजे के धुएं में गर्क रहने वाले बदरी मास्टर की गोल ज्वाइन की।बदरी को मास्टरी की नौकरी मृतक आश्रित कोटे से मिली थी। स्वभावत: वह अध्यापक से अधिक गोलंदाज थे। बदरी गांव के धन- जन से मजबूत बलभद्र बाबा के खिलाफ नए- नए गोलबंद हो रहे थे।रमाशंकर भी उनके दम- मारो -दम अनुष्ठान के साझीदार बने।
एक दिन बेलघाट चौराहे पर अपनी जीप को तिरछे खड़ी कर बदरी मास्टर –
हिरना ..हिरना.. हि..र..ना.. समझऽ बूझऽ बन चरना..
कुमार गंधर्व का गायन सुनते हुए मस्त थे।थोड़ी देर बाद चौराहे पर स्थित चट्टी पर अपनी कलफदार झक सफेद खादी के गमछे को लहराते हुए बदरी ने बलभद्र पांडे के खिलाफ कसीदे पढ़ना शुरू ही किया था तभी बलभद्र के भतीजों ने ‘आन मिलो सजना’ स्टाइल में उनकी खातिरदारी शुरू कर दी।
बदरी चिल्लाए !!
“रमा भाई !… रमा भाई!
अरे भाई रमाशंकर..!!रमाशंकर ….!!”
रमाशंकर डेढ़ फुटिया कट्टे को बार बार अपने कमर से बाहर निकालते और फिर खोंस लेते।
अंततःमौके की नज़ाकत को भांपते हुए दुकान के पिछले दरवाजे से रमाशंकर नदारत हो लिए !
रात में फूटा हुआ मुंह और सूजे हुए गाल लेकर बदरी रमाशंकर के घर के दलान में प्रकट हुए-
“काव..ए..रमा भाई.. भाई रमाशंकर..
तू हमें छोड़ के भाग अइला…?”
“भाऽग सारे यहाँ से।
हम लतखोरन के साथ ना रहींला।
आज से गोल चेंज।”
रमाशंकर सुरूर में थे।
इस घटना के बाद रमाशंकर ने बचपन में अपनी दादी की सीख कि –
“बड़ संग रहब त खइबऽ बीड़ा पान।
छोट संगे रहब त कटइब दुनो कान..”
से प्रेरणा ग्रहण करते हुए मजबूत गोल के मुखिया बलभद्र बाबा की सरपरस्ती स्वीकार कर ली। बलभद्र बाबा गांव ही नहीं, इलाके के सम्पन्न आदमियों में गिने जाते थे। लंबी मूंछे, बोलता हुआ रौबदार चेहरा और दुनाली बंदूक के साये में रहने वाले बलभद्र बाबा के साथ रमाशंकर भी साये की तरह लग गए।उनके साथ रमाशंकर रोज ईंट भट्ठे होते हुए जिला मुख्यालय तक घूमते-फिरते रहते।भट्ठे पर ही उन्हें मीट-मछली का चस्का लग गया। दारू की लत पहले से ही थी।फिर भी रमाशंकर दुनियावी मामले में चतुर सुजान थे।
सुबह- सबेरे तहसील पहुंच कर गरम जलेबी और कचौरी के नाश्ते के बाद रजिस्ट्री आफिस में ‘फटकचंद गिरधारी’ की श्रेणी में अपनी दावेदारी मजबूत करने का रिवाज गांव मे चलायमान था। अपने पूर्वजों की अर्जित जमीन का बैनामा करने का यह रिवाज पियक्कड़ों में अपनी जड़ जमा चुका था।रमाशंकर किसी चतुर सुजान की तरह इस रिवाज़ से दूरी बनाए हुए थे।
बलभद्र बाबा की धाक और अपनी दौड़ भाग से रमाशंकर ने अपनी पत्नी को मिडवाइफी की नौकरी दिलवा दी थी।
दो बेटों के पिता रमाशंकर दिखने में तो गऊ जैसे थे पर मूलतः काइयां थे।
भोजन,निद्रा,सुरापान और नित्यकर्म की इतनी गहन निरंतरता इनके जीवन में थी कि श्रम करने का अवसर शायद ही निकाल पाते! आमिष भोजन भंडारी के रूप में दत्तचित्त होकर भिड़े रहने के अलावा शायद ही कोई अन्य कार्य हाथ में लेते।
गांव में पंचायत चुनाव करीब था।शुरूआत में अदम गोंडवी के शब्दों में अगली कतार में जो हरामखोर पहले से शामिल थे उनको पीछे छोड़कर गांव के बहुसंख्यक युवा भी अगली कतार में शामिल होने के लिए जोर आजमाइश कर रहे थे।
झमाझम दावतों की श्रृंखला शुरू हो चुकी थी और पंचायत के भावी प्रत्याशी मेजबानों की भूमिका में आ चुके थे।
कहते हैं कि दावतों का चलन इस देश मे सदियों से है। राजे- महाराजे संधियों और दुरभिसंधियों हेतु इसका आयोजन करते थे। जबसे गांव में पंचायत चुनावों का जोर बढ़ा था तब से इस प्रकार के दावतों हेतु आसक्त मंडलियों का अनौपचारिक गठन भी लगभग गांव गांव हो चला था। बकरभोज के बिना किसी भी आयोजन या उत्सव का अपने अंजाम तक पहुचना संभव ही नहीं था।असल में गांव का सारा सौहार्द और सहजीवन का अस्तित्व इन्हीं दावतों में सिमट चुका था।
सरकारी धन का सोता जबसे विभिन्न योजनाओं के रूप में गांवों की ओर बहना शुरू हुआ मक्कारी,चोर बाज़ारी और भ्रष्टाचार के साथ साथ चकरोड़,नाला और खड़ंजा आदि का विवाद गांव-गांव में और अधिक गहराई से पैबस्त हो रहा था।
शुरुआती दौर में नीति नियंताओं के समक्ष गांव तक सरकारी योजनाओं के सोलह आने पहुंचाने की चुनौती थी।तब भी चवन्नी ही गांव को नसीब हो पाता था। आज जब ऑनलाइन की सवारी करते हुए पूरे के पूरे सोलह आने गांव को पहुंच रहे हैं तो भी पंचायतीराज का नया सिस्टम आठ आने से लेकर बारह आने तक योजनाओं के जमीन पर उतरने से पहले ही निपटाए दे रहा था।
सुविधानुसार वर्तमान प्रधान और प्रधान पद के भावी प्रत्याशीगण पक्ष-विपक्ष का चुनाव कर लेते। पंच परमेश्वर का अस्तित्व विलीन हो चुका था और दावतों में पंचायत तोड़ने और समर्थन जुटाने का दौर आरम्भ हो गया।
बलभद्र बाबा के गुजरे हुए एक दशक से अधिक का समय बीत चुका था।ब्राह्मण टोला,यादव टोला और दक्खिन टोला के अलावा इस गांव में छिटपुट कुछ अन्य बिरादरी के लोग भी शामिल थे।
प्रायः सभी घरों में एक पियक्कड़ और हर दूसरे-तीसरे घर से एक नेतानुमा व्यक्ति तैयार हो गया था।
इस समय भोजन भंडारी के साथ साथ गोलंदाज के रूप में रमाशंकर की भी मांग बढ़ गयी थी।
गनीमत थी कि दारू अभी लुके छिपे ही मडई- टाटी के पीछे चलायमान थी।
बलभद्र बाबा के गुजर जाने के बाद स्थितियां थोड़ी बदल गयी थीं। रमाशंकर की चतुर चोर फितरत से चिढ़कर बलभद्र के बेटे जगन्नाथ ने उनसे दूरी बना ली थी।
हरिहर बलभद्र के थोड़े दूर के पट्टीदार थे।उत्तर भारतीय गांवों में पट्टीदारी या दयादी का जो भाव है, वह दुर्लभ है। ईर्ष्या- द्वेष और स्पर्धा के मिश्रण से जो भाव बनता है वही भाव इसका मूल है। प्राय: जब आदमी जन और धन से थोड़ा टांठ होता है तो उससे उपजे मद का प्रयोग वह सबसे पहले पट्टीदारों या दयादों पर करता है।दयाद यदि झंड़े तले आ गया तो ठीक, नहीं तो ‘अथश्री महाभारत कथा’ का श्रीगणेश जाता जो प्राय: थाने- कचहरी पर जाकर समाप्त होता। शहरी और क़स्बाई जीवन इस दुर्लभ भाव से लगभग वंचित होता है। जीवन- मरण और शादी-विवाह में आना- जाना, खाना -खिलाना दयादी का आलंबन है ।
हरिहर और उनके भाई राधेलाल का अपने सगे चाचा जटाशंकर से विवाद था।हरिहर के पिता बचपन में चल बसे थे। चकबंदी में चचा ने कम मालियत वाले सड़क के किनारे वाले खेत राधे और हरिहर के नाम करा दिया था । राधे और हरिहर तब छोटे थे। बाद में युवा होने पर चाचा के साथ आम और महुआ के बाग को लेकर पंचायत हुयी। पंचायत में बलभद्र बाबा ने जटाशंकर का पलड़ा भारी कर दिया । हरिहर ने यह बात मन में गांठ ली थी । अबकी चुनाव में उस रंजिश के हिसाब का वक्त आन पहुंचा। रमाशंकर भी मौका ताड़ कर हरिहर के साथ हो लिए।
अधिसूचना जारी हो चुकी थी।चौतरफा बिसात सजने लगी थी ।
रमाशंकर प्रधान पद के भावी उम्मीदवार हरिहर प्रसाद से पैसा लेकर सुबह ही बेलघाट बाजार पहुच चुके थे।
देवीचंद की चाय की दुकान पर बैठे-बैठे समय काट रहे थे । कब दो बजे और चिकवा से तर माल लेकर दावत की तैयारी करें । देवीचंद ने हालांकि अपनी दुकान के काउंटर पर नींबू मिर्ची टांगकर ”उधार मांग कर शर्मिंदा न करें ” और ”नकद वाले डिस्को, उधार वाले खिसको”आदि फैंसी स्लोगन चिपका रखे थे । किन्तु लिखा- पढ़ी से दूर अन्य देहाती ग्राहकों की ही भांति रमाशंकर चार रसगुल्ले और तीन समोसे खाकर पैसा उधारी खाते में लिखने को कहकर खिसक लिये। देवीचंद खिसिया कर रह गए पर करें क्या ? ग्राहक किसी और दुकान की राह न धर ले ,इसका डर व्याप्त था। इस लाईन में भी तगड़ा कम्पीटिशन होने लगा था।
रमाशंकर ने सीना,गर्दन, पुट्ठा, चाप आदि चुन-चुन कर बकरे का माल तौलाया और घर की राह ली।चिकवा कसमसा कर रह गया पर रोजमर्रा के ग्राहक रमाशंकर की डिमांड पूरी करना उसकी मजबूरी थी।
गांव पहुॅचकर पंचायती बगीचे में अहरा लगा कर चौकी पर खाद्य सामग्री फैलाकर रमाशंकर ने अपनी मंडली को हांक लगायी।मजमा जुटा ,सभी अपने अपने कार्य में जुट गए।रात आठ बजे भोजन तैयार हुआ। नवांगतुकों के बीच दुआ सलाम और पैलग्गी की औपचारिकता के बाद पंगत सजी ।पैंतीस-चालीस लोगों ने छक कर भोजन किया। प्याज के सलाद,गरम मसाले और लाल मिर्च के तड़के ने स्वाद को बढ़ा दिया था।
भोजनोपरांत अब मूल मुद्दे पर सभा बैठी।हरिहर प्रसाद भोजन से ज्यादा इसी पल के इन्तजार में व्यग्र बैठे थे। कुल बारह -पन्द्रह हजार के खर्चे का मूल कारण प्रधान पद के लिए मंडली का समर्थन हासिल करना था।मंडली के बीच उनकी उम्मीदवारी के संबंध में चर्चा महीनों पहले से शुरू हो चुकी थी।रमाशंकर के साथ उनकी मंडली का समर्थन इस दिशा में उठाये गये कदम की शुरुआत थी।रमाशंकर ने अपनी भोजपुरी मिश्रित खड़ी बोली में कहा-
“पंचों! पिछले लगभग बीस वर्षों से बलभद्र बाबा और उनके परिवार के लोग परधान रहल हौ।अब्बों उनके भतीजा जगन्नाथ बाबा परधान हवैं।लेकिन यह चुनाव में हरिहर भाई क समर्थन क संकलप लेवे के बाऽ।एक्कै परिवार के पास परधानी कबले रही?”
यह सुनते ही शिवनाथ काका की तंद्रा अचानक भंग हुयी और उनके कान खड़े हो गए ।
चुनावों में साम-दाम-जाम -भेद का गहरा प्रभाव था।दंड का प्रयोग छद्म हो चला था।भेदी का इस चुनाव में गहरा योगदान था। कौन परिवार किसके पाले में जाएगा या जा सकता है, इसके सटीक आकलन के बिना इलेक्शन नहीं जीता जा सकता था। और बिना भेदिया मंडली के सहारे यह संभव नहीं था।खलिहर और परिवार से छुट्टा व्यक्ति का यह प्रिय व्यसन था। इसमें भी शिवनाथ काका सिद्धहस्त थे।
शिवनाथ काका दक्खिन टोला से लेकर ब्राह्मण टोला तक ‘जे बिनु काज दाहिने बाएं’ होते रहते। वे कर्ज, मर्ज और फर्ज तीनों से मुक्त थे।जिससे कर्ज लेते ऐसा भूलते कि देने वाले को ही याद दिलाना पड़ता।मर्ज उन्हें कोई था नहीं और फर्ज अदा करने के चक्कर में वह कभी पड़ने की सोचे ही नहीं।
कस्बेनुमा सरजूपुर गांव क्षेत्र-जवार में अपेक्षाकृत सम्पन्न गांवों में गिना जाता था। गांव में प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक के अध्यापक और प्रोफ़ेसर थे लेकिन सहज और निर्विकार भाव से गांववासी सभी के लिए नाम के साथ मास्टर साहब या मास्साब संबोधन प्रयोग करते ।
इस दावत- सभा में हैरान करने वाली बात यह थी कि इस समय हरिहर प्रसाद के आग्रह पर सेवानिवृत्ति चतुरानन मास्टर भी मौके पर मौजूद थे। हालांकि दावत आदि में उनकी कोई रूचि नहीं थी।पिछले बीस वर्षों से वे पंचायत चुनावों के समय में खासा सक्रिय रहते। मास्टर साहब ने भाषण वाले अंदाज में कहना शुरू किया-
“देखो भाई!
आप लोग यह जान लो कि नानी क धन,शैतानी क धन,बेईमानी क धन और जजमानी क धन कै श्रेणी में ही परधानी क धन भी हौ और हरिहर भाई के पास भगवान के दया से धन क कमी ना हौ और चाल चरित्तर क भी एक नम्बर हवें।
इनके खातिर ‘सो परनारि लिलार गोसाईं तजहु चउथ कि चंद की नाईं।”
जोखन को बेलघाट के मेला में बेचई द्वारा गाए बिरहा तर्ज की याद आ गयी-
“लिलरवा मारे हो जाऽन…कहवां कऽऽ टि..कू..ली” !!
मास्साब थे तो गणित के अध्यापक किन्तु बिना तुकबंदी के शायद ही अपना कोई वाक्य पूरा करते।
दूसरे, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के नीचे कोई बात नहीं करते।
मास्सा’ब ने बात आगे बढ़ाई –
“जगन्नाथ पांडे आवास से लेकर शौचालय ,वृद्धावस्था,विधवा पेंशन में केतना धांधली कइले हवं,इ केहू से छुपल नाहीं बा।”
मास्सा’ब की इस बात पर सहमति में राजदेव ने बहुत तेज गर्दन हिलायी जबकि जोखन सोच रहे थे “एह गांव में केहू हीरा चोर तऽ केहू खीरा चोर- दूनो हवैं”।
हरिहर टाइट होकर खड़े हुए । गमछे को सर से हटाकर गर्दन में लपेट लिये ।उनको रामनाथ की बात याद आने लगी-
‘माहौल के बिना चुनाव ना लड़ल जा सकेला।………. वाह रे मास्टर साहब !माहौल बना देहलऽ।’
फिर मंडली के साथ राय-मशविरा का जो दौर शुरू हुआ वह धीरे-धीरे खुसर-फुसर में तब्दील होता चला गया ।लोग बाग दांत खोदते हुए अपने-अपने घर को चले।
वातावरण में ठिठुरन के साथ कुहासा भी बढ़ रहा था । इस साल ठंड पिछ्ले साल से ज्यादा थी।अहरा की आग बहुत जल्द ही ठंडी पड़ चुकी थी।कुछ कुत्ते आकर उसे खुड़ेरने तो कुछ गुलाटी मारते हुए लोटने लगे। कुछ बिखरी हुयी हड्डियों पर जोर आज़माइश करने लगे । फिर कुछ देर में ही कुकुर झौं- झौं शुरू हो गयी । वातावरण में ठंड के साथ अशांति भी पसरने लगी…..।
हरिहर के भैया राधेलाल ने दस दिन पहले कलकत्ते से फोन कर आने के लिए कह दिया था और पच्चीस हजार रूपए भी भेज दिए थे।
आज की दावत पार्टी के बाद हरिहर हिसाब लगा रहे थे- मामला हजारों में नहीं लाखों में जाएगा!
“रर… रिश्तेदार से भी कर्जा लेवे के पडी।”
हरिहर बुदबुदाए।
रूपचंद कहत रहलें- ”परधानी एक बार मिलि गइल तऽ एक झटके में लाखों में खेले लगबाऽ।”
दावत से फारिग होकर जोखन और रामनाथ एक साथ घर पहुंचे ।
जोखन शिवनाथ के कान में फुसफुसाया-
” ए काका! परियार साल तू बेचई के परधानी लड़े खातिर उचकावत रहला।तनी बेचई से भी बतियावा।ई त अब्बे से चतुरानन मास्टर क गोल पकड़ लिहले बाडऽ । फिर तऽ खोराकी गुल्लै समझा।”
बेचन उर्फ बेचई मिडिल स्कूल में पढ़ते समय ही बिरहा,कजली आदि गायन में रमने लगे थे। स्कूल जाते समय एकतरफा राग में पडोसी गांव की एक लड़की का पीछा करते हुए टेरी भरकर गा दिए थे…
“हम हइं ..तुहार रानी.. अड़हुल के फुलवा
तू हऊ.. हमार.. फूल गेनवा होऽऽऽ।”
लड़की के भाइयों ने धर लिया और लात-घूसों से हजामत बना दी।गांव में बात फैल गयी।बेचई अपने मामा के यहाँ भाग गए ।
अब शादी- विवाह में बैंड बाजा और डीजे का सट्टा लेते थे।इस समय लगन में बिजी थे।यह बेचन का शौक भी था और आजीविका का साधन भी।अपने साथी रामसरूप बरई के साथ गांव गांव, बाजार बाज़ार बेचन देशाटन पर रहते ऊब से गए थे।
बेचन भी परधानी लड़ने का मंसूबा बहुत दिन से संजोए हुए थे।लगभग साल भर से जोर जतन करके कुछ रूपये भी इकट्ठा कर लिए थे लेकिन दिल्ली अभी दूर थी।तभी एक दिन शिवनाथ, खुरुचुन साव की दुकान पर बेचन को खुसफुसाते हुए ललकार दिए। परिणामस्वरुप बेचन भी कमर कस लिए।
इस तरह दावतों और बैठकों से गुजरते हुए माहौल चुनावी हो चला।चुनाव में अब दो महीने ही शेष रह गए।
बहुत जोड़ तोड़ के बाद कुल जमा तीन प्रत्याशी मैदान में -जगन्नाथ, हरिहर और बेचन।
यद्यपि दक्खिन टोला से रामबुझारत भी चुनाव लड़ने की तैयारी कर चुके थे किन्तु प्रमुख जी ने आरक्षित सीट होने पर ही लड़ने के लिए कहा था।अन्यथा उसे जगन्नाथ का सामर्थन करने की हिदायत दे दी थी। ब्लाक प्रमुख बाहुबली और हिस्ट्रीशीटर थे। सो सामान्य सीट होने के कारण वह मन मसोसकर रह गए ।
वैसे भी दक्खिन टोला आज़ादी के लगभग सत्तर सालों के बाद भी बहिष्कृत भारत था।यह टोला अभी भी बहुत सारी नाली खड़ंजा योजना के बावजूद बजबजाती नालियों और सघन फूस और कच्चे-पक्के मकानों से घिरा हुआ था । इस टोले के मंगरू, जगरोपन और रामबुझारत भी सुविधानुसार जगन्नाथ,हरिहर और बेचन के साथ हो लिए थे।
[ 2. ]
शिवनाथ खबर लाए कि “दक्खिन टोला अउर खदेरू और माखन कहारे के घरे के तरफ जगन्नाथ क भतिजवा और मुनीब आधी रात में साड़ी, कपड़ा और पइसा बांटत रहलंऽ।”
“ई त चुनाव एकतरफा हो जाई!!”
बेचइ त लथरायल लुंगी में दुआरे- दुआरे हाथ- गोड़ जोर कै आपन नेह नाता जोड़ के प्रचार करत हवं लेकिन जगन्नाथ क गोल रूपिया, पैसा, मान- मनौती के साथ भिड़ल बाऽ!”
रमाशंकर की पेशानी पर बल पड़ गए ।भाग के हरिहर के बैठके में पहुंचे।
हरिहर अभी सोए हुए थे।कल रात भर बिरादरी के लोगों का मान मनउल किए थे।सो उसकी थकान अभी तारी थी।
रमाशंकर जेब से चुनौटी निकाल कर तम्बाकू लटियाने लगे।
‘ए हरिहर! अब उठा । कबले सुतबाऽ ए भाई।
यह तरे सुतबा त मामला बिगड़ जाई।’
तब तक बैठक में लौटन भी पहुंच गया, सूचना दी
‘ परकसवा भी काल ब्लाके से पर्चा खरीद लेहले बाऽ।’
“सब सरऊ परधनिय लड़िहैं ।
ई पगलेटवो लड़ी!
बाप घूम्में गली- गली ,बेटा बने बजरंगबली ।हुंअ”
हरिहर ने पूछा-
“ई परकसवा के?
मंगरू क बेटा?”
लौटन नें सहमति मे सिर हिलाया –
” इ परकसवा-फरकसवा सार लड़े खातिर ना उठत हवं ।इनहन के कुछ चिंता चपेट हो जाई त बैठ जहिहं सारे” रमाशंकर बोले
माहौल कुछ ऐसा बन गया कि.. मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त!
हरिहर डगराते हुए ताखे पर रखा दातून उठाकर चबा ही रहे थे कि हरिहर बो न जाने कहां से प्रकट होकर बडबड़ाईं- ” मूरखे कऽ धन होला त चलाक खइले बिना ना मरेलन।”
हरिहर गरमाए-“चल..जो भित्तर , भिनहियं उपदेश मत दे।”
हरिहर थोड़े परेशान से दिख रहे थे। भैया ने रात में फोन करके बता दिया था कि व्यस्तता के चलते वह शायद चुनाव में आ न पाएं।उनकी बात से लगा कि शायद भौजाई ने रगेद दिया होगा।
“खैर, अब चाहे नब्बे पड़ी या गब्बे ताल त ठोंकाई गयल हौ।”
हरिहर को चुप देखकर रमाशंकर ने बात आगे बढ़ाई- “देशी के साथे अंग्रेजी कऽ व्यवस्था भी करे के पड़ी। जवन सारे जिनगी भर कचिया पीयत रहलें अब चुनाव देख के अंग्रेजी चर्रात हवं।
-सेतिहा के सेनुर ,भर गांव बियाह।”
लैला,बसंती ,सौंफी और लालपरी आदि भाँति भाँति के देशी ब्रांड की फ़रमाइश होने लगी थी।
कुछ गुरूगंभीर किस्म के पियक्कड़ मैकडावेल नम्बर वन,रायल स्टैग ,सिग्नेचर और ब्लिंडर्सप्राइड आदि अलग अलग अंग्रेजी ब्रांड के तलबगार हो रहे थे। नवधा लुक्कड़ गोल को भी बीयर के सुरूर की आस थी।
गंगा जल मिलाकर पीने वाले भी अब अवसर की तलाश में थे!
हरिहर से पैसा लेकर रमाशंकर ने दर-दारू की व्यवस्था छोटका पिंकुआ के जिम्मे सौंप दी।इस गांव में पिंकू उपनाम के बहुत सारे लड़के थे ।असली नाम माॅ- बाप और दर-दयाद के अलावा शायद ही कोई जानता हो। गांव वालों ने बुढ़वा पट्टी, नयकी पट्टी, चवन्निया पट्टी आदि के नाम के साथ इन पिंकुओं के नाम भी टांक दिए थे।अगर एक ही पट्टी में एक नाम के दो हुए तो मोटका, छोटका और लमका आदि विशेषण जोड़ कर उनकी नई पहचान बना दी जाती थी ।
यह नवधा गोल भी गोल गोलइती या सुविधा अनुसार विभिन्न प्रत्याशियों के साथ जुड़ गयी थी।
युवाओं की इस पीढ़ी में से ज्यादातर सपुस्तकीय परीक्षा प्रणाली के उत्पाद थे। कुछ अध्यापकी और सिपाही भर्ती के सफेद कालर जाॅब का लक्ष्य बनाकर बढ़े थे पर बेरोजगारी के दबाव में पथभ्रष्ट होते चले गये।कई कट्टा और कचिया दारू के कारोबार में भी गर्क हो चुके थे।दो-चार ‘अहरा दगाओ टोली’ के सदस्य बनकर रमाशंकर की शागिर्दी स्वीकार कर ली थी।
गांव के ही सूर्यकांत पांडे उर्फ जिज्ञासु जी इस युवा मंडली से बहुत कुपित रहते।वह सूचना विभाग में उपसंपादक के पद पर थे।नेतागिरी के झोंक में इस्तीफा देकर विधानसभा का चुनाव लड़े । जमानत भी नहीं बची। समतावादी समाज की स्थापना के चक्कर में खुद विषमता के शिकार हो गए।दोनों भाइयों ने मिलकर उन्हें ज्यादातर संपत्ति से बेदखल कर दिया था।मर-मुकदमा के चक्कर में हर दूसरे- तीसरे दिन कचहरी की परिक्रमा करनी पड़ती।
यद्यपि जिज्ञासु जी चर-चुनाव से विरक्त हो चुके थे और दुनियावी मामलों में असफल रहने के कारण गांव वालों के बीच पगला घोषित हो चुके थे किन्तु गांव में घट रही हर एक घटना पर अपनी पैनी दृष्टि बनाए हुए थे।
हरिहर भी दावत और दारू पर रुपया बहाना शुरू कर दिए ।बेलघाट से लेकर गांव तक और ढाबे से लेकर पंचायती बाग तक अहरा दगदगा रहा था। पैसा कम पड़ने लगा। रमाशंकर ने सेठ मथुरा प्रसाद से हरिहर को पचास हजार कर्जा दिलवा दिया । फिर कुछ राहत हुयी।
उधर जगन्नाथ मुंशी के साथ हिसाब किताब कर रहे थे तभी दक्खिन टोले का दिनेश महुआ के सुरूर में उनके दरवाज़े पर पहुंचा।
“मालिक तोहरे भरोसे हमन के हईं।आज हमरे छोटके क बरथ डे ह।”
“बरथ डे ? ई का होला ?”
जगन्नाथ अंजान बनते हुए बोले।
“का मालिक! अब एतना अंजान मत बना”।
मुंशी कान में फुसफुसाए- “मालिक कुल आठ वोट ह एकरे घरे। “
हूँ ..।”
जगन्नाथ हिसाब लगाए,एक वोट दो सौ रुपए का ख़र्चा।
“ठीक हौ।
केतना मे निपट जाई ?”
“मालिक पांच हजार में काम चला लेब”
“पांच हजार !!
भाक्।”
“अरे मालिक! एसे कम में कइसे मनी बरथ डे।”
“पिछले साल तऽ ना मनउले रहले?”
मुंशी ने तिरछी मुस्कान के साथ कहा- “मालिक! दिनेश अपने लइकन कऽ बर्थ डे पांच- पांच साल प मनावे लं।”
“अच्छा चल, सांझ कऽ तीन हजार ले लिहे।” चंट मुस्कान के साथ आश्वासन पा वह विदा हुआ।
मुंशी को लेकर जगन्नाथ बैठका के भीतर चले गए ।नयी वाली वोटर लिस्ट, जिसे आज ही तहसील के खेलावन बाबू से नजराना पहुंचवाकर मंगाई थी,को अलमारी से निकालकर एक एक घर के वोटरों के नाम को पेंसिल से गोल करने लगे।चौदह सौ वोटरों की लिस्ट उन्हें लगभग कंठस्थ थी।लगभग तीन चार घंटे की मशक्कत के बाद कुल एक सौ चार नाम को पेंसिल से गोल किया।हिसाब लगाकर मुंशी को पचास हजार हाथ में देकर तहसील के गनेश बाबू के पास इस ताकीद के साथ भेजा कि “एक वोट उड़ाने का पांच सौ रेट है लेकिन उसे इतने में ही पटाना है ।” मुंशी ने पूछा- “और जोड़ने का ?”
“तीन सौ “
जगन्नाथ ने उसकी जिज्ञासा शांत की।!
पर्चा दाखिला के दिन मानो युद्ध की दुंदुभी बज गयी हो।
बीस पच्चीस मोटर साईकिल, पांच-छह बोलेरो और स्कार्पियो पर जगन्नाथ के साथ कार्यकर्तागण भी सवार हुए।डीह बाबा ,बरम बाबा के स्थान से लेकर कालिका माई की परिक्रमा करते हुए जगन्नाथ ब्लाक की ओर निकल गए। फूल माला,साफा और टीका-चंदन के साथ खुली जीप में जगन्नाथ जलवा कायम किए हुए थे। जुलूस की लंबाई और जलवा देखकर हरिहर की पार्टी में चिंता का प्रसार होने लगा।
रमाशंकर, शिवनाथ, जोखन और हरिहर के बीच शाम को मंत्रणा शुरू हुयी।गरिष्ठ भोजन की बारंबारता और पाचन संबंधी बीमारी की चपेट के कारण आज मछली भोज की तैयारी हो रही थी।
मंत्रणा का मुद्दा था कि अब आगे का ख़र्चा पानी कैसे चले ?
“बाजार के पास वाले ढाई बीघा के चक में से दस बिस्वा निकाले के पड़ी ……”
रमाशंकर ने हरिहर को सुझाव दिया। हरिहर भकुआए मुंह शिवनाथ की ओर देखने लगे।
शिवनाथ ने जोड़ा- “देखऽ ए हरिहर! अब लड़ाई चुनाव से अधिक मान-सम्मान कऽ बा ।रूपिया,जमीन आवत जात रही लेकिन सम्मान चल जायी ….तऽ फिर सब चल जायी..।खाली रोटी अउर बोटी से मामिला ना बनी।दर- दारू और नगद नरायन कऽ भी जम के बेवस्था करे के पड़ी।जवन बहरूआ वोट हवं….. गर- गाड़ी भेज के मंगावे के पड़ी।”
हरिहर गहरी सोच में पड़ गए-
‘टिंकुआ की माई से कैसे कहूॅ ।सुनेगी तो बिफर जाएगी।…हार गए तो जिन्दगी भर ताना मारेगी।अधिया पर खेती से वैसे ही करकराए रहती है।’
करें का !
अब ससुर खेतवै ही तो बचलऽ ह ,खेती तो कब का बिलाय गयी। आर कोन करत रहो ससुर सारी जिनगी एही में खप जाई।”
अगले दिन हरिहर ने छुप-छुपा के दस बिस्वा सेठ मथुरा प्रसाद को बैनामा कर दिया!
बेचई के पास बतरस की कला थी।बतबनाव का जो सामर्थ्य बेचई के पास था वह विशिष्ट था।देशाटन करते सामने वाले की हां में हां मिलाते हुए अपनी हाँ मे हाँ मिलवा लेने की कला के उस्ताद हो चुके थे।बेचन ने अंदर ही अंदर अपने पक्ष में माहौल बना लिया था।
पर्चा दाखिला के बाद चुनावी सरगर्मी तेज हो गई थी ।
मतदान की पूर्व संध्या पर फिजा में तनाव था। पोलिंग पार्टी की बस गांव के प्राइमरी स्कूल पर पहुंच चुकी थी । उधर दक्खिन टोला से लेकर रियाया वर्ग के घरों पर जगन्नाथ और हरिहर दोनों ओर से पहरा बैठा दिया गया था। कयामत की रात किसी तरह गुजर गयी । मतदान में कुछ महिलाओं के घूँघट में वोट डालने को लेकर खींचतान शुरू हुयी किन्तु सेक्टर मजिस्ट्रेट के पहुंच जाने से बात आगे नहीं बढ़ने पायी। जैसे तैसे मतदान सम्पन्न हुआ ।
दस दिन बाद मतगणना का दिन नियत था। तीनों पक्ष अपनी जीत को लेकर निश्चिंत थे ।
मतगणना के दिन तीन राउंड जगन्नाथ आगे थे । बेचन भी पीछा किए हुए थे । अंततः तीन वोटों से बेचन चुनाव जीत गए !!
हरिहर दावत मंडली के सपोर्ट के बावजूद तीसरे स्थान पर रहे । हालांकि जगन्नाथ ने पुनर्मतगणना करायी पर परिणाम में कोई अंतर नहीं आया । निर्वाचन अधिकारी को दबाव में लेने का भी जगन्नाथ का प्रयास विफल रहा।
निर्वाचन अधिकारी का फोन स्विच आफ था ।जिले से दबाव होने पर बी डी ओ साहब मोबाइल लेकर हाँफते हुए पहुंचे पर मामला नहीं बना ।
बेचन प्रमाण पत्र लेकर निकल लिए । शाम को बेचन ने चुनाव जीतने की खुशी में भोज दिया । बेचई ने पहले साल बोलेरो खरीदने का लक्ष्य निर्धारित करते हुए सोचा-
“एतना तो दुइयै चकरोड में हो जाई। फिर अगले बरिश दुतल्ली कोठी भी पिटा जाइ।”
अजगर कुछ दिनों के लिए सुप्तावस्था में चले गए। अगले चुनाव तक फिर से सक्रिय होने के लिए!!