अमीर खुसरो
अमीर खुसरो को खड़ी बोली हिन्दी का पहला कवि माना जाता है. इस भाषा का हिन्दवी नाम से उल्लेख सबसे पहले उन्हीं की रचनाओं में मिलता है. हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्दी रचनाएं ही हैं. अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद का उपनाम खुसरो था, जिसे दिल्ली के सुलतान ज़लालुद्दीन खिलज़ी ने अमीर की उपाधि दी. उन्होंने स्वयं कहा है- ‘’मैं तूती-ए-हिन्द हूं. अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो. मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा.’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘’तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं.)’’
अमीर खुसरो को दिल्ली सल्तनत का राज्याश्रय हासिल था. अपनी दीर्घ जीवन-अवधि में उन्होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश से लेकर तुगलक वंश तक 11 सुल्तानों का सत्ता-संघर्ष देखा था,लेकिन राजनीति का हिस्सा बनने के बजाए वे निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन व सूफी संगीत साधना में लीन रहे. अक्सर कव्वाली व गजल की परंपरा की शुरुआत अमीर खुसरो से ही मानी जाती है. उनकी रचना ‘जब यार देखा नैन भर।।’ को अनेक विद्वान हिन्दी की पहली गजल मानते हैं. उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की खयाल गायकी के ईजाद का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है. कहा जाता है कि उन्होंने ध्रुपद गायन में फारसी लय व ताल को जोड़कर खयाल पैदा किया था. लोकमान्यता है कि उन्होंने पखावज (मृदंग) को दो हिस्सों में बांटकर ‘तबला’ नाम के एक नए साज का ईजाद किया.
माना जाता है कि अमीर खुसरो का जन्म ईस्वी सन् 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पटियाली नामक गांव में गंगा किनारे हुआ था. खुसरो की मां दौलत नाज़ एक भारतीय मुलसलमान महिला थीं. वे बलबन के युद्धमंत्री अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो राजनीतिक दवाब के कारण हिन्दू से नए-नए मुसलमान बने थे. इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे. इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर बालक खुसरो पर पड़ा. आठ वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया. किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और बीस वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए.
जब खुसरो केवल सात वर्ष के थे,उनके पिता उन्हें लेकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया की सेवा में उपस्थित हुए. इसी समय से आजीवन खुसरो औलिया के अनुयायी बने रहे.
अमीर खुसरो बहुभाषा विद् थे. वे फ़ारसी, तुर्की और अरबी भाषा के प्रकांड पंडित थे. खड़ी बोली उन्हें विरासत में मिली थी. संस्कृत पर भी उन्हें पूरा अधिकार था. बंगाल, पंजाब, अवध, मुलतान, देवगिरी आदि स्थानों पर रहकर उन्होंने भारत की अनेक भाषाओं की जानकारी प्राप्त की थी. अमीर खुसरो भारत के पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने समस्त भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण अपनी मसनवी नूह सिपहर में किया है जिसका ऐतिहासिक महत्व है. सर जार्ज ग्रियर्सन के लगभग छ: सौ वर्ष पूर्व भाषाओं की जो स्थिति खुसरो द्वारा बताई गई थी, वह आज भी विद्यमान है. खुसरो ने स्वंय अपने ग्रंथ में लिखा है कि उन्होंने स्वंय कई भाषाओं के संबंध में जानकारी प्राप्त की है और उनमें से कई वे बोलते व समझते हैं.
ख़ुसरो में भाषा संबंधी पूर्वाग्रह नाम भर का भी न था. यही कारण है कि उन्होंने अनेक रचनाओं में फ़ारसी के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग किया. अमीर खुसरो द्वारा रचित एक चर्चित ग़ज़ल है –
“जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ.
किताबे हिज्राँ, न दारम ऐ जाँ, न लेहु काहे लगाय छतियाँ।।
शबाने हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ बरोजे वसलत चूँ उम्र कोताह.
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ.
यकायक अज़दिल दू चश्मे जादू बसद फरेबम बवुर्द तस्कीं.
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ
चूँ शम्आ सोजाँ, चूँ जर्रा हैराँ, हमेशा गिरियाँ ब इश्के आँ माह.
न नींद नैंना, न अंग चैना, न आप आये न भेजे पतियाँ।।
बहक्के रोजे विसाले दिलबर के दाद मारा फरेब खुसरो.
सपीत मन के दराये राखूँ जो जाय पाऊँ पिया की खतियाँ।।
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैं. हिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक ‘खालिकबारी’ ही उपलब्ध है, जो कविता के रूप में हिन्दवी-फारसी शब्दकोश है. इसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित हैं, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें, अनमेलियां आदि हैं.
अमीर खुसरो की पहेलियाँ
अमीर खुसरो ने हिन्दी साहित्य को पहेलियाँ दी है. पहेलियाँ मूलत: आम जनता की चीज है. खुसरो ने भी कदाचित लोक के प्रभाव से ही पहेलियों की रचना की. अमीर खुसरो ने दो प्रकार की पहेलियाँ लिखी :
(1) बूझ पहेली (अंतर्लापिका)
यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों. जैसे –
(क) गोल मटोल और छोटा-मोटा, हर दम वह तो जमीं पर लोटा.
खुसरो कहे नहीं है झूठा, जो न बूझे अकिल का खोटा।।
उत्तर – लोटा.
(ख) श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसे नारी.
दोनों हाथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री।।
उत्तर – आरी
(ग) हाड़ की देही उज्ला रंग, लिपटा रहे नारी के संग.
चोरी की ना खून किया वाका सर क्यों काट लिया.
उत्तर – नाखून.
(घ) बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया.
खुसरो कह दिया उसका नाव, अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।
उत्तर – दिया.
(2) बिन बूझ पहेली या बहिर्लापिका, जिसका उत्तर पहेली से बाहर होता है-
(क) एक जानवर रंग रंगीला, बिना मारे वह रोवे.
उस के सिर पर तीन तिलाके, बिन बताए सोवे।।
उत्तर – मोर.
(ख) चाम मांस वाके नहीं नेक, हाड़ मास में वाके छेद.
मोहि अचंभो आवत ऐसे, वामे जीव बसत है कैसे।।
उत्तर – पिंजड़ा.
(ग) स्याम बरन की है एक नारी, माथे ऊपर लागै प्यारी.
जो मानुस इस अरथ को खोले, कुत्ते की वह बोली बोले।।
उत्तर – भौं (भौंए आँख के ऊपर होती हैं.)
(घ) एक गुनी ने यह गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना.
देखा जादूगर का हाल, डाले हरा निकाले लाल.
उत्तर – पान.
दो सखुने
सखुन फारसी भाषा का शब्द है,जिसका अर्थ कथन या उक्ति है. अमीर खुसरो के दोसखुनों में दो कथनों या उक्तियों का एक ही उत्तर होता है. इसका मूल आधार शब्द के एक से अधिक अर्थ हैं.
(क) दीवार क्यों टूटी? राह क्यों लूटी ? उत्तर – राज न था.
दीवार बनाने वाला राजगीर नहीं था,अत: दीवार टूटी रह गई. राज्य (राज) व्यवस्था नहीं थी अत: राह लुट गई.
(ख) जोगी क्यों भागा? ढोलकी क्यों न बजी? उत्तर – मढ़ी न थी. रहने के लिए झोंपड़ी (मढ़ी) या कुटी न थी और ढोलकी चमड़े से मढ़ी हुई नहीं थी.
(ग) पथिक प्यासा क्यों? गधा उदास क्यों? उत्तर – लोटा न था. पथिक (यात्री) के पास पानी पीने के लिए कोई लोटा (बर्तन) न था. अत: वह प्यासा रह गया. गधा मिट्टी में लोटा नहीं था अत: वह उदास था.
(घ) रोटी जली क्यो? घोड़ा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यो? उत्तर – फेरा न था. रोटी को फेरा (पलटा) नहीं गया था. अत: वह जल गई. घोड़े की पैदाइशी आदत होती है, एक जगह खड़े होकर फेरा लगाना. न लगा सकने की स्थिति में वह चलता नहीं और एक जगह पर ही अड़ जाता है. पानी में पड़े पान के पत्तों को पनवाड़ी बार-बार फेरता रहता है. इससे पान का पत्ता सड़ता नहीं. न फेरो तो सड़ जाता है.
कहमुकरियाँ या मुकरियाँ
कहमुकरियों का अर्थ है कि किसी उक्ति को कह भी दिया और मानने से भी मुकर गए. यह चार पंक्तियों में होती है. तीन या उससे अधिक में पहेली होती है और चौथी या आखिरी पंक्ति में पहले तो खुसरो ‘ए सखी साजन‘ के रुप में पहेली का उत्तर देते हैं. इनमें से अधिकांश पहेलीनुमा गीतों का जवाब साजन है यानि प्रियतम और साथ में एक दूसरा जवाब भी है – जो इस उक्ति का आखिरी शब्द है-
(क) बरस-बरस वह देस में आवे, मुँह से मुँह लाग रस प्यावे.
वा खातिर मैं खरचे दाम, ऐ सखी साजन न सखी आम।।
(ख) सगरी रैन मोरे संग जागा, भोर भई तब बिछुड़न लागा.
वाके बिछुड़त फाटे हिया, ऐ सखी साजन न सखी दिया।।
(ग) नित मेरे घर आवत है, रात गए फिर जावत है.
फँसत अमावस गोरी के फंदा, ऐ सखी साजन न सखी चंदा।।
(घ) आठ प्रहर मेरे संग रहे, मीठी प्यारी बातें करे.
श्याम बरन और राती नैंना, ऐ सखी साजन न सखी मैंना।।