चंद्रकांता संतति-भाग-2 (बयान-11 से 14)
बयान – 11
हम ऊपर के बयान में सुबह का दृश्य लिखकर कह आये हैं कि राजा वीरेंद्रसिंह, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह सेना सहित किसी तरफ को जा रहे हैं। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इन्होंने जरूर किसी तरफ चढ़ाई की है और बेशक ऐसा ही है भी। राजा वीरेंद्रसिंह ने यकायक माधवी के गयाजी पर धावा कर दिया जिसका लेना इस समय उन्होंने बहुत ही सहज समझ रखा था, क्योंकि माधवी के चाल-चलन की खबर बखूबी लग गई थी। वे जानते थे कि राजकाज पर ध्यान न दे दिन-रात ऐश में डूबे रहने वाले राजा का राज्य कितना कमजोर हो जाता है। रैयत को ऐसे राजा से कितनी नफरत हो जाती है और किसी दूसरे नेक धर्मात्मा के आ पहुंचने के लिए वे लोग कितनी मन्नतें मानते रहते हैं।
वीरेंद्रसिंह का खयाल बहुत ही ठीक था। गया पर दखल करने में उनको जरा भी तकलीफ न हुई, किसी ने उनका मुकाबला न किया। एक तो उनका चढ़ा-बढ़ा प्रताप ही ऐसा था कि कोई मुकाबला करने का साहस भी नहीं कर सकता था, दूसरे बेदिल रियाया और फौज तो चाहती ही थी कि वीरेंद्रसिंह के ऐसा कोई यहां का भी राजा हो। चाहे दिन-रात ऐश में डूबे और शराब के नशे में चूर रहने वाले मालिकों को कुछ भी खबर न हो पर बड़े जमींदारों और राजकर्मचारियों को माधवी और कुंअर इंद्रजीतसिंह के खिंचाखिंची की खबर लग चुकी थी और उन्हें मालूम हो चुका था कि आजकल वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग राजगृह ही में विराज रहे हैं।
राजा वीरेंद्रसिंह ने बेरोक-टोक शहर में पहुंचकर अपना दखल जमा लिया और अपने नाम की मुनादी करवा दी। वहां के दो-एक कर्मचारी जो दीवान अग्निदत्त के दोस्त और खैरख्वाह थे रंग-कुरंग देखकर भाग गये, बाकी फौजी अफसरों और रैयतों ने उनकी अमलदारी खुशी से कबूल कर ली, जिसका हाल राजा वीरेंद्रसिंह को इसी से मालूम हो गया कि उन लोगों ने दरबार में बेखौफ और हंसते हुए पहुंचकर मुबारकबाद के साथ नजरें गुजारीं।
विजयदशमी के एक दिन पहले गया का राज्य राजा वीरेंद्रसिंह के कब्जे में आ गया और विजयदशमी को अर्थात दूसरे दिन प्रातःकाल उनके लड़के आनंदसिंह को यहां की गद्दी पर बैठे हुए लोगों ने देखा तथा नजरें दीं। अपने छोटे लड़के कुंअर आनंदसिंह को गया की गद्दी दे दूसरे ही दिन राजा वीरेंद्रसिंह चुनार लौट आने वाले थे मगर उनके रवाना होने के पहले ही ऐयार लोग जख्मी और बेहोश कुंअर इंद्रजीतसिंह को लिए हुए गयाजी पहुंच गये जिन्हें देख राजा वीरेंद्रसिंह को अपना इरादा छोड़ देना पड़ा और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए प्यारे लड़के को आज इस अवस्था में पाकर अपने तन-बदन की सुध भुला देनी पड़ी।
राजा वीरेंद्रसिंह के मौजूद होने पर भी गयाजी का बड़ा भारी राजभवन सूना हो रहा था क्योंकि उसमें रहने वाले माधवी और दीवान अग्निदत्त के रिश्तेदार लोग भाग गये थे और हुक्म के मुताबिक किसी ने भी उनको भागते समय नहीं रोका था। इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों लड़कों और ऐयारों के सिवाय सिर्फ थोड़े से ही फौजी अफसरों का डेरा इस महल में पड़ा हुआ है। ऐयारों में सिर्फ भैरोसिंह और तारासिंह यहां मौजूद हैं, बाकी के कुल ऐयार चुनार लौटा दिये गये थे। शहर के इंतजाम में सबके पहले यह किया गया कि चीठी या अरजी डालने के लिए एक बगल छेद करके दो बड़े-बड़े संदूक राजभवन के फाटक के दोनों तरफ लटका दिये गये और मुनादी करवा दी गई कि जिसको अपना सुख-दुख अर्ज करना हो दरबार में हाजिर होकर अर्ज किया करें और जो किसी कारण से हाजिर न हो सके वह अर्जी लिखकर इन्हीं संदूकों में डाल दिया करें। हुक्म था कि बारी-बारी से ये संदूक दिन-रात में छह मर्तबे कुंअर आनंदसिंह के सामने खोले जाया करें। इस इंतजाम से गयाजी की रियाया बहुत प्रसन्न थी।
रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। एक सजे हुए कमरे में, जिसमें रोशनी अच्छी तरह हो रही है, छोटी-सी खूबसूरत मसहरी पर जख्मी कुंअर इंद्रजीतसिंह लेटे हुए हलकी दुलाई गर्दन तक ओढ़े हैं। आज कई दिनों पर उन्हें होश आया है, इससे अचंभे में आकर इस नये कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाकर अच्छी तरह देख रहे हैं। बगल में बायें हाथ का ढासना पलंगड़ी पर दिए हुए उनके पिता राजा वीरेंद्रसिंह बैठे उनका मुंह देख रहे हैं और कुछ पायताने की तरफ हटकर पाटी पकड़े कुंअर आनंदसिंह बैठे बड़े भाई की तरफ देख रहे हैं। पायताने की तरफ पलंगड़ी के नीचे भैरोसिंह और तारासिंह धीरे-धीरे तलवा झंस रहे हैं। कुंअर आनंदसिंह के बगल में देवीसिंह बैठे हैं। उनके अलावा वैद्य, जर्राह और बहुत से सिपाही नंगी तलवार लिए पहरा दे रहे हैं।
थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रहा, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह ने अपने पिता की तरफ देखकर पूछा –
इंद्र – यह कौन-सी जगह है यह किसका मकान है
वीरेंद्र – यह चंद्रदत्त की राजधानी गयाजी है। ईश्वर की कृपा से आज यह हमारे कब्जे में आ गयी है। मकान भी चंद्रदत्त ही के रहने का है। हम लोग इस शहर में अपना दखल जमा चुके थे जब तुम यहां पहुंचाये गये।
यह सुन इंद्रजीतसिंह चुप हो रहे और कुछ सोचने लगे, साथ ही इसके राजगृह में दीवान अग्निदत्त के साथ होने वाली लड़ाई का समां उनकी आंखों के आगे घूम गया और किशोरी को याद कर अफसोस करने लगे। इनके बेहोश होने के बाद क्या हुआ और किशोरी पर क्या बीती इसको जानने के लिए दिल बेचैन था मगर पिता का लिहाज कर भैरोसिंह से कुछ पूछ न सके सिर्फ ऊंची सांस लेकर रह गये मगर देवीसिंह उनके जी का भाव समझ गये और बिना पूछे ही कुछ कहने का मौका समझकर बोले, ‘‘राजगृह में लड़ाई के समय जितने आदमी आपके साथ थे ईश्वर की कृपा से सब बच गये और अपने ठिकाने पर हैं, केवल आप ही को इतना कष्ट भोगना पड़ा।’’
देवीसिंह के इतना कहने से इंद्रजीतसिंह की बेचैनी बिल्कुल ही जाती तो नहीं रही मगर कुछ कम जरूर हो गयी। इतने में दिल बहलाने का कुछ ठिकाना समझकर देवीसिंह पुनः बोल उठे –
देवी – अर्जियों वाला संदूक हाजिर है, उसके देखने का समय भी हो गया है।
इंद्र – कैसा संदूक?
आनंद – यहां महल के फाटक पर दो संदूक इसलिये रख दिए गए हैं कि जो लोग दरबार में हाजिर होकर अपना दुख-सुख न कह सकें वे लोग अर्जी लिखकर इस संदूक में डाल दिया करें।
इंद्र – बहुत मुनासिब है, इससे रैयतों के दिल का हाल अच्छी तरह मालूम हो सकता है। इस तरह के कई संदूक शहर में इधर-उधर भी रखवा देना चाहिए क्योंकि बहुत से आदमी खौफ से फाटक तक आते भी हिचकेंगे।
आनंद – बहुत खूब, कल इसका इंतजाम हो जायगा।
वीरेंद्र – हमने यहां की गद्दी पर आनंदसिंह को बैठा दिया है।
इंद्र – बड़ी खुशी की बात है, यहां का इंतजाम ये बहुत ही अच्छी तरह कर सकेंगे क्योंकि यह तीर्थ का मुकाम है और इनका पुराणों से बड़ा प्रेम है और उन्हें अच्छी तरह समझते भी हैं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) हां साहब, वह संदूक मंगवाइये जरा दिल तो बहले।
हाथ भर का चौखूटा संदूक हाजिर किया गया और उसे खोलकर बिल्कुल अर्जियां जिनसे वह संदूक भरा था बाहर निकाली गयीं। पढ़ने से मालूम हुआ कि यहां की रियाया नये राजा की अमलदारी से बहुत प्रसन्न है और मुबारकबाद दे रही है, हां एक अर्जी उसमें ऐसी भी निकली जिसके पढ़ने से सभों को तरद्दुद ने आ घेरा और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। पाठकों की दिलचस्पी के लिए हम उस अर्जी की नकल नीचे लिखे देते हैं – ‘‘हम लोग मुद्दत से मनाते थे कि यहां की गद्दी पर हुजूर को या हुजूर के खानदान में से किसी को बैठा देखें। ईश्वर ने आज हम लोगों की आरजू पूरी की और कम्बख्त माधवी और अग्निदत्त का बुरा साया हम लोगों के सिर से हटाया। चाहे उन दोनों दुष्टों का खौफ अभी हम लोगों को बना हो, मगर फिर भी हुजूर के भरोसे पर हम लोग बिना मुबारकबाद दिए और खुशी मनाये नहीं रह सकते। वह डर इस बात का नहीं है कि यहां फिर उन दुष्टों की अमलदारी होगी तो कष्ट भोगना पड़ेगा। राम-राम, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता, हम लोगों को यह गुमान तो स्वप्न में भी नहीं हो सकता। वह डर बिल्कुल दूसरा ही है, जो हम लोग नीचे अर्ज करते हैं। आशा है कि बहुत जल्द उससे हम लोगों की रिहाई होगी, नहीं तो महीने भर में यहां की चौथाई रियाया यमलोक में पहुंच जायगी। मगर नहीं, हुजूर के नामी और अपनी आप नजीर रखने वाले ऐयारों के हाथ से वे बेईमान हरामजादे कब बच सकते हैं जिनके डर से हम लोगों को पूरी नींद सोना नसीब नहीं होता।
कुछ दिनों से दीवान अग्निदत्त की तरफ से थोड़े बदमाश इस काम के लिए मुकर्रर कर दिए हैं कि अगर कोई आदमी अग्निदत्त के खिलाफ नजर आवे तो बेधड़क उसका सिर चोरी से रात के समय काट डालें, या दीवान साहब को जब रुपये की जरूरत हो तो जिस अमीर या जमींदार के घर में चाहे डाका डाल दें या चोरी करके कंगाल बना दें। इसकी फरियाद कहीं सुनी नहीं जाती, इसी वजह से और भी बाहरी चोरों को अपना घर भरने और हम लोगों को सताने का मौका मिलता है। हम लोगों ने अभी उन दुष्टों की सूरत नहीं देखी और नहीं जानते कि वे लोग कौन हैं, या कहां रहते हैं जिनके खौफ से दिन-रात हम लोग कांपा करते हैं।’’
इस अर्जी के नीचे कई मशहूर और नामी रईसों और जमींदारों के दस्तखत थे। यह अर्जी उसी समय देवीसिंह के हवाले कर दी गई और देवीसिंह ने वादा किया कि एक महीने के अंदर इन दुष्टों को जिंदा या मरे हुए हुजूर में हाजिर करेंगे।
इसके बाद जर्राहों ने कुंअर इंद्रजीतसिंह के जख्मों को खोला और दूसरी पट्टी बदली, कविराज ने दवा खिलाई और हुक्म पाकर सब अपने-अपने ठिकाने चले गए। देवीसिंह उसी समय विदा हो न मालूम कहां चले गए और राजा वीरेंद्रसिंह भी वहां से हटकर अपने कमरे में चले गए।
इस कमरे के दोनों तरफ छोटी-छोटी दो कोठरियां थीं। एक में संध्या-पूजा का सामान दुरुस्त था। और दूसरी में खाली फर्श पर एक मसहरी बिछी हुई थी जो उस मसहरी से कुछ छोटी थी जिस पर कुंअर इंद्रजीतसिंह आराम कर रहे थे। कोठरी से वह मसहरी बाहर निकाली गई और कुंअर आनंदसिंह के सोने के लिए कुंअर इंद्रजीतसिंह की मसहरी के पास बिछाई गई। भैरोसिंह और तारासिंह ने भी दोनों मसहरियों के नीचे अपना बिस्तर जमाया। सिवाय इन चारों के उस कमरे में और कोई न रहा। इन लोगों ने रात-भर आराम से काटी और सबेरा होने पर आंख खुलते ही विचित्र तमाशा देखा।
सुबह के पहले ही दोनों ऐयारों की आंखें खुलीं और हैरतभरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह भी जागे और फूलों की खुशबू जो इस कमरे में बहुत देर पहले से ही भर रही थी लेने तथा दोनों ऐयारों की तरह ताज्जुब से चारों तरफ देखने लगे।
आनंद – खुशबूदार फूलों के गजरे और गुलदस्ते इस कमरे में किसने सजाए हैं
इंद्र – ताज्जुब है, हमारे आदमी बिना हुक्म पाए ऐसा कब कर सकते हैं
भैरो – हम दोनों आदमी घंटे भर के पहले से उठकर इस पर गौर कर रहे हैं मगर कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है।
आनंद – गुलदस्ते भी बहुत खूबसूरत और बेशकीमती मालूम पड़ते हैं।
तारा – (एक गुलदस्ता उठाकर ओैर पास लाकर) देखिए इस सोने के गुलदस्ते पर क्या उम्दा मीने का काम किया हुआ है! बेशक किसी बहुत बड़े शौकीन का बनवाया हुआ है, इसी ढंग के सब गुलदस्ते हैं।
भेरो – हां एक बात ताज्जुब की और भी है जो मैंने अभी तक आपसे नहीं कही।
इंद्र – वह क्या?
भैरो – (हाथ का इशारा करके) ये दोनों दरवाजे सिर्फ घुमाकर मैंने खुले छोड़ दिए थे मगर सुबह को और दरवाजों की तरह इन्हें भी बंद पाया।
तारा – (आनंदसिंह की तरफ देखकर) शायद रात को आप उठे हों
आनंद – नहीं।
इसी तरह देर तक ये लोग ताज्जुब भरी बातें करते रहे मगर अकल ने कुछ गवाही न दी कि क्या मामला है। राजा वीरेंद्रसिंह भी आ पहुंचे, उनके साथ और भी कई मुसाहिब लोग आ जमे। सभी इस आश्चर्य की बात को सुनकर सोचने और गौर करने लगे। कई बुजदिलों को भूत-प्रेत और पिशाच का ध्यान आया मगर महाराज और दोनों कुमारों के खौफ से कुछ बोल न सके, क्योंकि ये लोग ऐसे डरपोक और इस खयाल के आदमी न थे और न ऐसे आदमियों को अपने साथ रखना ही पसंद करते थे।
इन फूलों के गजरों और गुलदस्तों को किसी ने न छेड़ा और वे ज्यों-के-त्यों जहां के तहां लगे रह गये। रईसों की हाजिरी और शहर के इंतजाम में दिन बीत गया और रात को फिर कल ही की तरह दोनों भाई मसहरी पर सो रहे, दोनों ऐयार भी मसहरी के बगल में जमीन पर लेट गये, मगर आपस में मिल-जुलकर बारी-बारी से जागते रहने का विचार दोनों ने ही कर लिया था और अपने बीच में एक लंबी छड़ी इसलिए रख ली थी कि अगर रात को किसी समय कोई ऐयार कुछ देखे तो बिना मुंह से बोले लकड़ी के इशारे से दूसरे को जगा दे। इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने भी कह रखा था कि अगर घर में किसी को देखना तो चुपके से हमें जगा देना जिससे हम लोग भी देख लें कि कौन है और कहां से आता है।
आधी रात से कुछ ज्यादे जा चुकी है। कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह गहरी नींद में बेसुध पड़े हैं। पहरे के मुताबिक लेटे-लेटे तारासिंह दरवाजे की तरफ देख रहे हैं। यकायक पूरब तरफ वाली कोठरी में कुछ खटका हुआ। तारासिंह जरा-सा घूम गए और पड़े-पड़े ही उस कोठरी की तरफ देखने लगे। बारीक चादर पहले ही से दोनों ऐयारों के मुंह पर पड़ी हुई थी और रोशनी अच्छी तरह हो रही थी।
कोठरी का दरवाजा धीरे-धीरे खुलने लगा। तारासिंह ने लकड़ी के इशारे से भैरोसिंह को उठा दिया जो बड़ी होशियारी से घूमकर कोठरी की तरफ देखने लगे। कोठरी के दरवाजे का एक पल्ला अब अच्छी तरह खुल गया और एक निहायत हसीन और कमसिन औरत किवाड़ पर हाथ रखे खड़ी दोनों मसहरियों की तरफ देखती नजर पड़ी। भैरोसिंह और तारासिंह ने मसहरी के पांव पर हाथ का इशारा देकर दोनों भाइयों को भी जगा दिया।
इंद्रजीतसिंह का रुख तो पहले ही उस कोठरी की तरफ था मगर आनंदसिंह उस तरफ पीठ किए सो रहे थे। जब उनकी आंखें खुलीं तो अपने सामने की तरफ जहां तक देख सकते थे कुछ भी न देखा, लाचार धीरे से उनको करवट बदलनी पड़ी और तब मालूम हुआ कि इस कमरे में क्या आश्चर्य की बात दिखाई दे रही है।
अब कोठरी का दूसरा पल्ला भी खुल गया और वह हसीन औरत सिर से पैर तक अच्छी तरह इन चारों को दिखाई देने लगी क्योंकि उसके तमाम बदन पर बखूबी रोशनी पड़ रही थी। वह औरत नखशिख से ऐसी दुरुस्त थी कि उसकी तरफ चारों की टकटकी बंध गई। बेशकीमती सफेद साड़ी और जड़ाऊ जेवरों से वह बहुत ही भली मालूम हो रही थी। जेवरों में सिर्फ खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था जिसकी सुर्खी उसके गोरे रंग पर पड़कर उसके हुस्न को हद्द से ज्यादा रौनक दे रही थी। उसकी पेशानी (माथे) पर एक दाग था जिसके देखने से विश्वास होता था कि बेशक इसने कभी तलवार या किसी हरबे की चोट खाई है। यह दो अंगुल का दाग भी उसकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए जेवर ही हो रहा था। उसे देख ये चारों आदमी यही सोचते होंगे कि इससे बढ़कर खूबसूरत रंभा और उर्वशी अप्सरा भी न होंगी। कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर मोहित हो रहे थे, उसकी तस्वीर इनके दिल में खिंच रही थी, उन पर चाहे उसके हुस्न ने ज्यादा असर न किया हो मगर आनंदसिंह की क्या हालत हो गई यह वे ही जानते होंगे। बहुत बचाते रहने पर भी ठंडी सांसें उनसे न रुक सकीं जिससे हम भी कह सकते हैं कि उनके दिल ने उनकी ठंडी सांसों के साथ ही बाहर निकलकर कह दिया कि अब तुम्हारे कब्जे में नहीं है।
कुंअर आनंदसिंह अपने को संभाल न सके, उठ बैठे और उधर ही देखने लगे जिधर वह औरत किवाड़ का पल्ला थामे खड़ी थी। उनकी यह हालत देख तीनों आदमियों को विश्वास हो गया कि वह भाग जायगी, मगर नहीं, वह इनको उठकर बैठते देख जरा भी न हिचकी, ज्यों-की-त्यों खड़ी रही, बल्कि इनकी तरफ देख उसने जरा-सा हंस दिया, जिससे ये और भी बेचैन हो गए।
कुंअर आनंदसिंह यह सोचकर कि उस कोठरी में किसी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए दूसरा दरवाजा नहीं है मसहरी पर से उठ खड़े हुए और उस औरत की तरफ चले। इनको अपनी तरफ आते देख वह औरत कोठरी में चली गई और फुर्ती से उसका दरवाजा भीतर से बंद कर लिया।
कुंअर इंद्रजीतसिंह की तबीयत चाहे दुरुस्त हो गई हो मगर कमजोरी अभी तक मौजूद है, बल्कि सब जख्म भी अभी तक कुछ गीले हैं, इसलिए अभी घूमने-फिरने लायक नहीं हुए। उस परीजमाल को भीतर से किवाड़ बंद कर लेते देख सब उठ खड़े हुए, कुंअर इंद्रजीतसिंह भी तकिए का सहारा लेकर बैठ गए और बोले, ‘‘इस कोठरी में किसी तरफ निकल जाने का रास्ता तो नहीं है।’’
भैरो – जी नहीं।
आनंद – (किवाड़ में धक्का देकर) इसे खोलना चाहिए।
तारा – मुश्किल तो कुछ नहीं, (इंद्रजीतसिंह की तरफ देखकर) क्या हुक्म होता है
इंद्र – जब इस कोठरी में दूसरी तरफ निकल जाने का रास्ता ही नहीं तो जल्दी क्यों करते हो
इंद्रजीतसिंह के इतना कहते ही आनंदसिंह वहां से हटे और अपने भाई के पास जाकर बैठ गए। भैरोसिंह और तारासिंह भी पास आकर बैठ गए और यों बातचीत होने लगी –
इंद्र – (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) तुममें से कोई जागता भी रहा या दोनों सो गए थे
भैरो – नहीं, सो क्या जाएंगे हम लोग बारी-बारी से बराबर जागते और महीन चादर से मुंह ढांके दरवाजे की तरफ देखते रहे।
इंद्र – तो क्या इसी दरवाजे में से इस औरत को आते देखा था?
आनंद – बेशक इसी तरफ से आई होगी।
तारा – जी नहीं, यही तो ताज्जुब है कि कमरे के दरवाजे ज्यों-के-त्यों भिड़के रह गये और यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और वह नजर आई।
इंद्र – यह तो अच्छी तरह मालूम है न कि उस कोठरी में और कोई दरवाजा नहीं है।
भेरो – जी हां, अच्छी तरह जानते हैं, और कोई दरवाजा नहीं है।
तारा – क्या कहें, कोई सुने तो यही कहे कि चुड़ैल थी!
आनंद – राम, राम! यह भी कोई बात है!
इंद्र – खैर जो हो, मेरी राय यही है कि पिताजी के आने तक कोठरी का दरवाजा न खोला जाय।
आनंद – जो हुक्म, मगर मैं तो यह चाहता था कि पिताजी के आने तक दरवाजा खोलकर सब कुछ दरियाफ्त कर लिया जाता।
इंद्र – खैर खोलो।
हुक्म पाते ही कुंअर आनंदसिंह उठ खड़े हुए, खूंटी से लटकती हुई एक भुजाली उतार ली और उस दरवाजे के पास जा एक-एक हाथ दोनों कुलाबों पर मारा जिससे कुलाबे कट गए। तारासिंह ने दोनों पल्ले उतार अलग रख दिए। भैरोसिंह ने एक बलता हुआ शमादान उठा लिया और चारों आदमी उस कोठरी के अंदर गए मगर वहां एक चूहे का बच्चा भी नजर न आया।
इस कोठरी में तीन तरफ मजबूत दीवारें थीं और एक तरफ वही दरवाजा था जिसका कुलाबा काट के ये लोग अंदर आए थे, हां, सामने की तरफ वाली अर्थात बिचली दीवार में काठ की एक अलमारी जड़ी हुई थी। इन लोगों का ध्यान उस अलमारी पर गया और सोचने लगे कि शायद यह अलमारी इस ढंग की हो जो दरवाजे का काम देती हो और इसी राह से वह औरत आई हो, मगर उन लोगों का यह खयाल भी तुरंत जाता रहा और विश्वास हो गया कि अलमारी किसी तरह दरवाजा नहीं हो सकती और न इस राह से वह औरत आई ही होगी, क्योंकि उस अलमारी में भैरोसिंह ने अपने हाथ से कुछ जरूरी असबाब रखकर ताला लगा दिया था जो अभी तक ज्यों का त्यों बंद था। यह कब हो सकता है कि कोई ताला खोलकर इस अलमारी के अंदर घुस गया हो और बाहर का ताला जैसा-का-तैसा दुरुस्त कर दिया हो! लेकिन तब फिर क्या हुआ यह औरत क्योंकर आई और किस राह से चली गई उन लोगों ने लाख सिर धुना और गौर किया मगर कुछ समझ में न आया।
ताज्जुब भरी बातों ही में रात बीत गई। सुबह को जब राजा वीरेंद्रसिंह अपने लड़के को देखने के लिए उस कमरे में आए तो जर्राह-वैद्य तथा और मुसाहिब लोग भी उनके साथ थे। वीरेंद्रसिंह ने इंद्रजीतसिंह से तबीयत का हाल पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘अब तबीयत अच्छी है मगर एक जरूरी बात अर्ज किया चाहता हूं जिसके लिए तखलिया (एकांत) हो जाना बेहतर होगा।’’
वीरेंद्रसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा। उसने तखलिया हो जाने में महाराज की रजामंदी जानकर सभी को हट जाने का इशारा किया। बात की बात में सन्नाटा हो गया और सिर्फ वही पांच आदमी उस कमरे में रह गए।
वीरेंद्र – कहो क्या बात है
इंद्र – आज रात एक अजीब बात देखने में आई।
वीरेंद्र – वह क्या?
इंद्र – (तारासिंह की तरफ देखकर) तारासिंह, तुम्हीं सब हाल कह जाओ क्योंकि उस समय तुम्हीं जागते थे, हम लोग तो पीछे जगाए गए थे।
तारा – बहुत खूब।
तारासिंह ने रात का पूरा-पूरा हाल राजा वीरेंद्रसिंह से कह सुनाया जिसे सुनकर उन्होंने बहुत ताज्जुब किया और घंटों तक गौर में डूबे रहने के बाद बोले, ‘‘खैर यह बात किसी और को न मालूम हो नहीं तो मुसाहिबों और अहलकारों में खलबली पैदा हो जायगी और सैकड़ों तरह की गप्पें उड़ने लगेंगी। देखो तो क्या होता है और कब तक पता नहीं लगता, आज हम भी इसी कमरे में सोएंगे।’’
एक दिन क्या कई दिनों तक राजा वीरेंद्रसिंह उस कमरे में सोए मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर कोई बात ही देखने में आई, आखिर उन्होंने हुक्म दिया कि उस कोठरी का दरवाजा नया कुलाबा लगाकर फिर उसी तरह बंद कर दिया जाय।
बयान – 12
आज पांच दिन के बाद देवीसिंह लौटकर आये हैं। जिस कमरे का हाल हम ऊपर लिख आए हैं उसी में राजा वीरेंद्रसिंह, उनके दोनों लड़के, भैरोसिंह, तारासिंह और कई सरदार लोग बैठे हैं। इंद्रजीतसिंह की तबीयत अब बहुत अच्छी है और वे चलने-फिरने लायक हो गये हैं। देवीसिंह को बहुत जल्द लौट आते देखकर सभों को विश्वास हो गया कि जिस काम पर मुस्तैद किए गए थे उसे कर चुके मगर ताज्जुब इस बात का था कि वे अकेले क्यों आये!
वीरेंद्र – कहो देवीसिंह, खुश तो हो
देवी – खुशी तो मेरी खरीदी हुई है! (और लोगों की तरफ देखकर) अच्छा अब आप लोग जाइये बहुत विलंब हो गया।
दरबारियों और खुशामदियों के चले जाने के बाद वीरेंद्रसिंह ने देवीसिंह से पूछा –
वीरेंद्र – कहो उस अर्जी में जो कुछ लिखा था सच था या झूठ?
देवी – उसमें जो कुछ लिखा था बहुत ठीक था। ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही उन दुष्टों का पता लग गया, मगर क्या कहें ऐसी ताज्जुब की बातें देखने में आईं कि अभी तक बुद्धि चकरा रही है।
वीरेंद्र – (हंसकर) उधर तुम ताज्जुब की बातें देखो इधर हम लोग अद्भुत बातें देखें।
देवी – सो क्या?
वीरेंद्र – पहले तुम अपना हाल कह लो तो यहां का सुनो!
देवी – बहुत अच्छा, फिर सुनिए! रामशिला पहाड़ी के नीचे मैंने एक कागज अपने हाथ से लिखकर चिपका दिया जिसमें यह लिखा था –
‘‘हम खूब जानते हैं कि जो अग्निदत्त के विरुद्ध होता है उसका तुम लोग सिर काट लेते हो, जिसका घर चाहते हो लूट लेते हो। मैं डंके की चोट से कहता हूं कि अग्निदत्त का दुश्मन मुझसे बढ़कर कोई न होगा और गयाजी में मुझसे बढ़कर मालदार भी कोई नहीं है, तिस पर मजा यह है कि मैं अकेला हूं, अब देखना चाहिए तुम लोग क्या कर लेते हो’
आनंद – अच्छा तब क्या हुआ?
देवी – उन दुष्टों का पता लगाने के उपाय तो मैंने और भी कई किए थे मगर काम इसी से चला। उस राह से आने-जाने वाले सभी उस कागज को पढ़ते थे और चले जाते थे। मैं उस पहाड़ी के कुछ ऊपर जाकर पत्थर की चट्टान की आड़ में छिपा हुआ हरदम उसकी तरफ देखा करता था। एक दफे दो आदमी एक साथ वहां आये और उसे पढ़ मूंछों पर ताव देते शहर की तरफ चले गये। शाम को वे दोनों लौटे और फिर उस कागज को पढ़ सिर हिलाते बराबर की पहाड़ी की ओर चले गये। मैंने सोचा कि इनका पीछा जरूर करना चाहिए क्योंकि कागज के पढ़ने का असर सबसे ज्यादा इन्हीं दोनों पर हुआ। आखिर मैंने उनका पीछा किया और जो सोचा था वही ठीक निकला। वे लोग पंद्रह-बीस आदमी हैं और हट्टे-कट्टे और मुसण्डे हैं। उसी झुंड में मैंने एक औरत को भी देखा। अहा, ऐसी खूबसूरत औरत तो मैंने आज तक नहीं देखी। पहले मैंने सोचा कि वह इन लोगों में से किसी की लड़की होगी क्योंकि उसकी अवस्था बहुत कम थी, मगर नहीं, उनके हाव-भाव और उसकी हुकूमत भरी बातचीत से मालूम हुआ कि वह उन सभों की मालिक है, पर सच तो यह है कि मेरा जी इस बात पर भी नहीं जमता। उसकी चाल-ढाल, उसकी पोशाक और उसके जड़ाऊ कीमती गहनों पर जिसमें सिर्फ खुशरंग मानिक ही जड़े हुए थे ध्यान देने से दिल की कुछ विचित्र हालत हो जाती है।
मानिक के जड़ाऊ जेवरों का नाम सुनते ही कुंअर आनंदसिंह चौंक पड़े, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह का भी चेहरा बदल गया और उस औरत का विशेष हाल जानने के लिए घबड़ाने लगे, क्योंकि उस रात को इन चारों ने इस कमरे में या यों कहिए कोठरी में जिस औरत की झलक देखी थी वह भी मानिक के जड़ाऊ जेवरों से ही अपने को सजाये हुए थी। आखिर आनंदसिंह से न रहा गया, देवीसिंह को बात कहते-कहते रोककर पूछा –
आनंद – उस औरत का नखशिख जरा अच्छी तरह कह जाइए।
देवी – सो क्या?
वीरेंद्र – (लड़कों की तरफ देखकर) तुम लोगों को ताज्जुब किस बात का है, तुम लोगों के चेहरे पर हैरानी क्यों छा गई है?
भैरो – जी, वह औरत भी जिसे हम लोगों ने देखा था ऐसे ही गहने पहने हुए थी जैसा चाचाजी कह रहे हैं।
वीरेंद्र – हैं
भैरो – जी हां।
देवी – तुम लोगों ने कैसी औरत देखी थी
वीरेंद्र – सो पीछे सुनना, पहले जो ये पूछते हैं उसका जवाब दे लो।
देवी – नखशिख सुन के क्या कीजियेगा, सबसे ज्यादा पक्का निशान तो यह है कि उसके ललाट में दो-ढाई अंगुल का एक आड़ा दाग है, मालूम होता है शायद उसने कभी तलवार की चोट खाई है!
आनंद – बस बस बस!
इंद्र – बेशक वही औरत है।
तारा – कोई शक नहीं कि वही है।
भैरो – अवश्य वही है!
वीरेंद्र – मगर आश्चर्य है, कहां उन दुष्टों का संग और कहां हम लोगों के साथ आपस का बर्ताव।
भैरो – हम लोग तो उसे दुश्मन नहीं समझते।
देवी – अब हम न बोलेंगे जब तक यहां का खुलासा हाल न सुन लेंगे, न मालूम आप लोग क्या कह रहे हैं
वीरेंद्र – खैर यही सही, अपने लड़के से पूछिए कि यहां क्या हुआ।
तारा – जी हां सुनिए मैं अर्ज करता हूं।
तारासिंह ने यहां का बिल्कुल हाल अच्छी तरह कहा। फूल तो फेंक दिए गए थे मगर गुलदस्ते अभी तक मौजूद थे, वे भी दिखाये। देवीसिंह हैरान थे कि यह क्या मामला है, देर तक सोचने के बाद बोले, ‘‘मुझे तो विश्वास नहीं होता कि यहां वही औरत आई होगी जिसे मैंने वहां देखा है!’’
वीरेंद्र – यह शक भी मिटा ही डालना चाहिए।
देवी – उन लोगों का जमाव वहां रोज ही होता है जहां मैं देख आया हूं, आज तारा या भैरो को अपने साथ ले चलूंगा, ये खुद ही देख लें कि वही औरत है या दूसरी।
वीरेंद्र – ठीक है, आज ऐसा ही करना, हां अब तुम अपना हाल और आगे कहो।
देवी – मुझे यह भी मालूम हुआ कि उन दुष्टों ने हमेशे के लिए अपना डेरा उसी पहाड़ी में कायम किया है और बातचीत से यह भी जान गया कि लूट और चोरी का माल भी वे लोग उसी ठिकाने कहीं रखते हैं। मैंने अभी बहुत खोज उन लोगों की नहीं की, जो कुछ मालूम हुआ था आपसे कहने के लिए चला आया। अब उन लोगों को गिरफ्तार करना कुछ मुश्किल नहीं है, हुक्म हो तो थोड़े से आदमी अपने साथ ले जाऊं और आज ही उन लोगों को उस औरत के सहित गिरफ्तार कर लाऊं।
वीरेंद्र – आज तो तुम भैरो या तारा को अपने साथ ले जाओ, फिर कल उन लोगों की गिरफ्तारी की फिक्र की जायगी।
आखिर भैरोसिंह को अपने साथ लेकर देवीसिंह बराबर के पहाड़ पर गए जो गयाजी से तीन-चार कोस की दूरी पर होगा। घूमघुमौवा और पेचीली पगडंडियों को तै करते हुए पहर रात जाते-जाते ये दोनों उस खोह के पास पहुंचे जिसमें बदमाश डाकू लोग रहते थे। उस खोह के पास ही एक और छोटी-सी गुफा थी जिसमें मुश्किल से दो आदमी बैठ सकते थे। इस गुफा में एक बारीक दरार ऐसी पड़ी हुई थी जिससे ये दोनों ऐयार उस लंबी-चौड़ी गुफा का हाल बखूबी देख सकते थे जिसमें वे डाकू लोग रहते थे। इस समय वे सब के सब वहां मौजूद भी थे, बल्कि वह औरत भी सरदारी के तौर पर छोटी-सी गद्दी लगाए वहां मौजूद थी। ये दोनों ऐयार उस दरार से उन लोगों की बातचीत तो नहीं सुन सकते थे मगर सूरत-शक्ल, भाव और इशारे अच्छी तरह देख सकते थे।
इन लोगों ने इस समय वहां पंद्रह डाकुओं को बैठे हुए पाया और उस औरत को देखकर भैरोसिंह ने पहचान लिया कि वह वही औरत है जो कुंअर इंद्रजीतसिंह के कमरे में आई थी। आज वह वैसी पोशाक या जेवरों को पहिरे हुए न थी, तो भी सूरत-शक्ल में किसी तरह का फर्क न था।
इन दोनों ऐयारों के पहुंचने के बाद दो घंटे तक वे डाकू आपस में कुछ बातचीत करते रहे, इस बीच में कई डाकुओं ने दो-तीन दफे हाथ जोड़कर उस औरत से कुछ कहा जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया जिससे मालूम हुआ कि मंजूर नहीं किया। इतने ही में एक दूसरी हसीन कमसिन और फुर्तीली औरत लपकती हुई वहां आ मौजूद हुई। उसके हांफने और दम फूलने से मालूम होता था कि वह बहुत दूर से दौड़ती हुई आ रही है।
उस नई आई औरत ने न मालूम उस सरदार औरत के कान में झुककर क्या कहा जिसके सुनते ही उसकी हालत बदल गई। बड़ी-बड़ी आंखें सुर्ख हो गईं, खूबसूरत चेहरा तमतमा उठा और तुरंत उस नई औरत को साथ ले उस खोह के बाहर चली गई। वे डाकू उन दोनों औरतों का मुंह देखते ही रह गये मगर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।
जब दो घंटे तक दोनों औरतों में से कोई न लौटी तो डाकू लोग भी उठ खड़े हुए और खोह के बाहर निकल गये। उन लोगों के इशारे और आकृति से मालूम होता था कि वे दोनों औरतों के यकायक इस तरह चले जाने से ताज्जुब कर रहे हैं। यह हालत देखकर देवीसिंह भी वहां से चल पड़े और सुबह होते-होते राजमहल में आ पहुंचे।
बयान – 13
कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर जी-जान से आशिक हो चुके थे। इस बीमारी की हालत में भी उसकी याद इन्हें सता रह थी और यह जानने के लिए बेचैन हो रहे थे कि उस पर क्या बीती, वह किस अवस्था में कहां है और अब उसकी सूरत कब किस तरह देखनी नसीब होगी। जब तक वे अच्छी तरह दुरुस्त नहीं हो जाते, न तो खुद कहीं जाने के लिए हुक्म ले सकते थे और न किसी बहाने से अपने प्रेमी साथी ऐयार भैरोसिंह को ही कहीं भेज सकते थे। इस बीमारी की हालत में समय पाकर उन्होंने भैरोसिंह से सब हाल मालूम कर लिया था। यह सुनकर कि किशोरी को दीवान अग्निदत्त उठा ले गया बहुत ही परेशान थे मगर यह खबर उन्हें कुछ-कुछ ढाढ़स देती थी कि चपला, चंपा और पंडित बद्रीनाथ उसके छुड़ाने की फिक्र में लगे हुए हैं और राजा वीरेंद्रसिंह को भी यह धुन जी से लगी हुई है कि जिस तरह बने शिवदत्त की लड़की किशोरी की शादी अपने लड़के के साथ करके शिवदत्त को नीचा दिखावें और शर्मिन्दा करें।
कुंअर आनंदसिंह ने भी अब इश्क के मैदान में पैर रखा, मगर इनकी हालत अजब गोमगो में पड़ी हुई है। जब उस औरत का ध्यान आता जी बेचैन हो जाता था मगर जब देवीसिंह की बात को याद करते कि वह डाकुओं के एक गिरोह की सरदार है तो कलेजे में अजीब तरह का दर्द पैदा होता था और थोड़ी देर के लिए चित्त का भाव बदल जाता था, लेकिन साथ ही इसके सोचने लगते थे कि नहीं, अगर वह हम लोगों की दुश्मन होती तो मेरी तरफ देखकर प्रेम भाव से कभी न हंसती और फूलों के गुलदस्ते और गजरे सजाने के लिए जब उस कमरे में आई थी तो हम लोगों को नींद में गाफिल पाकर जरूर मार डालती। पर फिर हम लोगों की दुश्मन अगर नहीं है तो उन डाकुओं का साथ कैसा!
ऐसे-ऐसे सोच-विचार ने उनकी अवस्था खराब कर रखी थी। कुंअर इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह को उनके जी का पता कुछ-कुछ लग चुका था मगर जब तक उसकी इज्जत-आबरू और जात-पांत की खबर के साथ-साथ यह भी मालूम न हो जाय कि वह दोस्त है या दुश्मन, तब तक कुछ कहना-सुनना या समझाना मुनासिब नहीं समझते थे।
राजा वीरेंद्रसिंह को अब यह चिंता हुई कि जिस तरह वह औरत इस घर में आ पहुंची कहीं डाकू लोग भी आकर लड़कों को दुख न दें और फसाद न मचावें। उन्होंने पहरे वगैरह का अच्छी तरह इंतजाम किया और यह सोच कि कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तंदुरुस्त नहीं हुए हैं कमजोरी बनी हुई है और किसी तरह लड़भिड़ नहीं सकते, इनको अकेले छोड़ना मुनासिब नहीं, अपने सोने का इंतजाम भी उसी कमरे में किया और साथ ही एक नया तथा विचित्र तमाशा देखा।
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस कमरे के दोनों तरफ दो कोठरियां हैं, एक में संध्या-पूजा का सामान है और दूसरी वही विचित्र कोठरी है जिसमें से वह औरत पैदा हुई थी। संध्या-पूजा वाली कोठरी में बाहर से ताला बंद कर दिया गया और दूसरी कोठरी का कुलाबा वगैरह दुरुस्त करके बिना बाहर ताला लगाये उसी तरह छोड़ दिया गया जैसे पहले था, बल्कि राजा वीरेंद्रसिंह ने उसी दरवाजे पर अपना पलंग बिछवाया और सारी रात जागते रह गए।
आधी रात बीत गई मगर कुछ देखने में न आया, तब वीरेंद्रसिंह अपने बिस्तरे पर से उठे और कमरे में इधर-उधर घूमने लगे। घंटे भर बाद उस कोठरी में से कुछ खटके की आवाज आई, वीरेंद्रसिंह ने फौरन तलवार उठा ली और तारासिंह को उठाने के लिए चले मगर खटके की आवाज पर तारासिंह पहले ही से सचेत हो गये थे, अब हाथ में खंजर ले वीरेंद्रसिंह के साथ टहलने लगे।
आधी घड़ी के बाद जंजीर खटकने की आवाज इस तरह पर हुई जिससे साफ मालूम हो गया कि किसी ने इस कोठरी का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। थोड़ी ही देर के बाद पैर की धमाधमी की आवाज भीतर से आने लगी, मानो चार-पांच आदमी भीतर उछल-कूद रहे हैं। वीरेंद्रसिंह कोठरी के दरवाजे के पास गये और हाथ का धक्का देकर किवाड़ खोलना चाहा मगर भीतर से बंद रहने के कारण दरवाजा न खुला, लाचार उसी जगह खड़े हो भीतर की आहट पर गौर करने लगे।
अब पैरों की धमाधमी की आवाज बढ़ने लगी और धीरे-धीरे इतनी ज्यादा हुई कि कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह भी उठे और कोठरी के पास जाकर खड़े हो गये। फिर दरवाजा खोलने की कोशिश की गई पर न खुला। भीतर जल्द-जल्द पैर उठाने और पटकने की आवाज से सभों को निश्चय हो गया कि अंदर लड़ाई हो रही है। थोड़ी ही देर के बाद तलवारों की झनझनाहट भी सुनाई देने लगी। अब भीतर लड़ाई होने से किसी तरह का शक न रहा। आनंदसिंह ने चाहा कि दरवाजे का कुलाबा तोड़ा जाय मगर वीरेंद्रसिंह की मर्जी न पाकर सब चुपचाप खड़े आहट सुनते रहे।
यकायक धमधमाहट की आवाज बढ़ी और तब सन्नाटा हो गया। घड़ी भर तक ये लोग बाहर खड़े रहे मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर किसी तरह की आहट या आवाज ही सुनाई दी। रात सिर्फ दो घंटे बल्कि इससे भी कम बाकी रह गई थी। पहरे वाले टहलकर अच्छी तरह से पहरा दे रहे हैं या नहीं यह देखने के लिए तारासिंह बाहर गए और सभों को अपने काम पर मुस्तैद पाकर लौट आए। इतने ही में कमरे का दरवाजा खुला और भैरोसिंह को साथ लिए देवीसिंह आते दिखाई पड़े।
ये दोनों ऐयार सलाम करने के बाद वीरेंद्रसिंह के पास बैठ गये मगर यह देखकर कि यहां अभी तक ये लोग जाग रहे हैं ताज्जुब करने लगे।
देवी – आप लोग इस समय तक जाग रहे हैं।
वीरेंद्र – हां, यहां कुछ ऐसा ही मामला हुआ जिससे निश्चिंत हो सो न सके।
देवी – सो क्या?
वीरेंद्र – खैर तुम्हें यह भी मालूम हो जायगा, पहले अपना हाल तो कहो। (भैरोसिंह की तरफ देखकर) तुमने उस औरत को पहचाना?
भैरो – जी हां, बेशक वही औरत है जो यहां आई थी, बल्कि वहां एक और औरत दिखाई दी।
वीरेंद्र – यहां से जाकर तुमने क्या किया और क्या-क्या देखा सो खुलासा कह जाओ।
भैरोसिंह ने जो कुछ देखा था कहने के बाद यहां का हाल पूछा। वीरेंद्रसिंह ने भी यहां की कुल कैफियत कह सुनाई और बोले, ‘‘हम यही राह देख रहे थे कि सबेरा हो जाये और तुम लोग भी आ जाओ तो इस कोठरी को खोलें और देखें कि क्या है, कहीं से किसी के आने-जाने का पता लगता है या नहीं।’’
कोठरी खोली गई। एक हाथ में रोशनी दूसरे में नंगी तलवार लेकर पहले देवीसिंह कोठरी के अंदर घुसे और तुरंत ही बोल उठे – ‘‘वाह-वाह, यहां तो खून-खराबा मच चुका है!’’ अब राजा वीरेंद्रसिंह, दोनों कुमार और उनके दोनों ऐयार भी कोठरी के अंदर गये और ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे।
इस कोठरी में जो फर्श बिछा हुआ था वह इस तरह से सिमट गया था जैसे कई आदमियों के बेअख्तियार उछल-कूद करने या लड़ने से इकट्ठा हो गया हो, ऊपर से वह खून से तर भी हो रहा था। चारों तरफ दीवारों पर भी खून के छींटे और लड़ती समय हाथ बहककर बैठ जाने वाली तलवारों के निशान दिखाई दे रहे थे। बीच में एक लाश पड़ी हुई थी मगर बेसिर की, कुछ समझ में नहीं आता था कि यह लाश किसकी है। कपड़ों में सिर्फ एक लंगोटा उसकी कमर में था। तमाम बदन नंगा जिसमें अंदाज से ज्यादा तेल लगा हुआ था। दाहिने हाथ में तलवार थी मगर वह हाथ भी कटा हुआ सिर्फ जरा-सा चमड़ा लगा हुआ था, वह भी इतना कम कि अगर कोई खेंचे तो अलग हो जाय। सबसे ज्यादा परेशान और बेचैन करने वाली एक चीज और दिखाई दी।
दाहिने हाथ की कटी हुई एक कलाई जिसमें फौलादी कटार अभी तक मौजूद थी, दिखाई पड़ी। आनंदसिंह ने फौररन उस हाथ को उठा लिया और सभों की निगाह भी गौर के साथ उस पर पड़ने लगी। यह कलाई किसी नाजुक, हसीन और कमसिन औरत की थी। हाथ में हीरे का जड़ाऊ कड़ा और जमीन पर मानिक की दो-तीन बारीक जड़ाऊ चूड़ियां भी मौजदू थीं, शायद कलाई कटकर गिरते समय ये चूड़ियां हाथ से अलग हो जमीन पर फैल गई हों।
इस कलाई के देखने से सभों को रंज हुआ और झट उस औरत की तरफ खयाल दौड़ गया जिसे इस कोठरी में से निकलते सभों ने देखा था। चाहे उस औरत के सबब से ये कैसे ही हैरान क्यों न हों, मगर उसकी सूरत ने सभों को अपने ऊपर मेहरबान बना लिया था, खास करके कुंअर आनंदसिंह के दिल में तो वह उनके जान और माल की मालिक ही होकर बैठ गई थी, इसलिए सबसे ज्यादे दुख छोटे कुंअर साहब को हुआ। यह सोचकर कि बेशक यह उसी औरत की कलाई है कुंअर आनंदसिंह की आंखों में जल भर आया और कलेजे में एक किस्म का दर्द पैदा हुआ, मगर इस समय कुछ कहने या अपने दिल का हाल जाहिर करने का मौका न समझ उन्होंने बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाला और चुपचाप सभों का मुंह देखने लगे।
पाठक, अभी इस औरत के बारे में बहुत कुछ लिखना है इसलिए जब तक यह मालूम न हो जाय कि यह औरत कौन है तब तक अपने और आपके सुबीते के लिए हम इसका नाम ‘किन्नरी’ रख देते हैं।
राजा वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों ने इन सब अद्भुत बातों को जो इधर कई दिनों में हो चुकी थीं छिपाने के लिए बहुत कोशिश की मगर हो न सका। कई तरह पर रंग बदलकर यह बात तमाम शहर में फैल गई। कोई कहता था ‘महाराज के मकान में देव और परियों ने डेरा डाला है!’ कोई कहता था ‘गयाजी के भूत-प्रेत इन्हें सता रहे हैं!’ कोई कहता था ‘दीवान अग्निदत्त के तरफदार बदमाश और डाकुओं ने यह फसाद मचाया है!’ इत्यादि बहुत तरह की बातें शहर वाले आपस में कहने लगे मगर उस समय बातों का ढंग ही बिल्कुल बदल गया जब राजा वीरेंद्रसिंह के हुक्म से देवीसिंह ने उस सिर कटी लाश को जो कोठरी में से निकली थी उठवाकर सदर चौक में रखवा दिया और उसके पास एक मुनादी वाले को यह कहकर पुकारने के लिए बैठा दिया कि – ‘‘अग्निदत्त के तरफदार डाकू लोग जो शहर के रईसों और अमीरों को सताया करते थे ऐयारों के हाथ गिरफ्तार होकर मारे जाने लगे, आज एक डाकू मारा गया है जिसकी लाश यह है।’’
बयान – 14
सूर्य भगवान के अस्त होने में अभी घंटे भर की देर है, फिर भी मौसम के मुताबिक बाग में टहलने वाले हमारे कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह को ठंडी हवा सिहरावनदार मालूम हो रही है। रंग-बिरंगे खूबसूरत फूल खिले हुए हैं जिनको देखने में हर एक की तबीयत उमंग पर आ सकती है मगर इन दोनों के दिल की कली किसी तरह भी खिलने में नहीं आती। बाग में जितनी चीजें दिल खुश करने वाली हैं वे सभी इस समय इन दोनों को बुरी मालूम होती हैं। बहुत देर से ये दोनों भाई बाग में टहल रहे हैं मगर ऐसी नौबत न आई कि एक दूसरे से बात करे या हंसे क्योंकि दोनों के दिल चुटीले हो रहे हैं, दोनों ही अपनी-अपनी धुन में डूबे हुए हें, दोनों ही को अपने-अपने माशूक की खोज है, दोनों ही सोच रहे हैं कि ‘हाय क्या ही आनंद होता अगर इस समय वह मौजूद होता जिसे जी प्यार करता है या जिसके बिना दुनिया की संपत्ति तुच्छ मालूम होती है!’ दिल बहलाने का बहुत कुछ उद्योग किया मगर न हो सका, लाचार दोनों भाई उस बारहदरी में पहुंचे जो बाग के दक्खिन तरफ महल के साथ सटी हुई है और जहां इस समय राजा वीरेंद्रसिंह अपने मुसाहिबों के साथ जी बहलाने की बातें कर रहे थे। देवीसिंह भी उनके पास बैठे हुए थे जो कभी-न-कभी लड़कपन की बातें याद दिलाने के साथ ही गुप्त दिल्लगी भी करते जाते थे और जवाब भी पाते थे। दोनों लड़के भी वहां जा पहुंचे मगर इनके बैठते ही मजलिस का रंग बदल गया और बातों ने पलटा खाकर दूसरा ही ढंग पकड़ा जैसा कि अक्सर हंसी-दिल्लगी करते हुए बड़ों के बीच में समझदार लड़कों के आ बैठने से हो जाता है।
वीरेंद्र – अब तो चुनार जाने को जी चाहता है मगर…
देवी – यहां आपकी जरूरत भी अब क्या है?
वीरेंद्र – ठीक है, यहां मेरी जरूरत नहीं, लेकिन यहां की अद्भुत बातें देखकर विचार होता है कि मेरे चले जाने से कोई बखेड़ा न मचे और लड़कों को तकलीफ न हो।
इंद्र – (हाथ जोड़कर) इसकी चिंता आप न करें, हम लोग जब इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने को सम्हाल न सकेंगे तो आगे क्या करेंगे!
वीरेंद्र – तो क्या तुम्हारा इरादा भी यहां रहने का है?
इंद्र – यदि आज्ञा हो!
वीरेंद्र – (कुछ सोचकर) क्यों देवीसिंह!
देवी – क्या हर्ज है, रहने दीजिए।
वीरेंद्र – और तुम।
देवी – मैं आपके साथ चलूंगा, यहां भैरो और तारा रहेंगे, वे दोनों होशियार हैं, कुछ हर्ज नहीं है!
भैरो – (हाथ जोड़कर) यहां की अद्भुत बातें हम लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं।
तारा – (हाथ जोड़कर) सरकार की मर्जी नहीं पाई, नहीं तो ऐसी-ऐसी लीलाओं की तो मैं एक ही दिन में काया पलट कर देने की हिम्मत रखता हूं।
भैरो – अगर मर्जी हो तो इन अद्भुत बातों का आज ही निपटारा कर दिया जाय।
वीरेंद्र – (मुस्कुराकर) नहीं ऐसी कोई जरूरत नहीं, हमें तुम लोगों के हौसले पर पूरा भरोसा है। (देवीसिंह की तरफ देखकर) खैर तो आज दिन भी अच्छा है।
देवी – बहुत खूब! (एक मुसाहिब की तरफ देखकर) आप जरा तकलीफ करें।
मुसा – बहुत अच्छा, मैं जाता हूं।
कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह यही चाहते थे किसी तरह वीरेंद्रसिंह चुनार जायं क्योंकि उनके रहते ये दोनों अपने मतलब की कार्रवाई नहीं कर सकते थे। इस बात को वीरेंद्रसिंह भी समझते थे मगर इसके सिवाय भी न मालूम क्या सोचकर वे इस समय चुनार जा रहे हैं या गयाजी की सरहद छोड़कर क्या मतलब निकाला चाहते हैं।
राजा वीरेंद्रसिंह का विचार कोई जान नहीं सकता था। वे किसी से यह नहीं कह सकते कि हम दो घंटे के बाद क्या करेंगे। कोई यह नहीं कह सकता था कि महाराज आज यहां तो हैं मगर कल कहां रहेंगे, या महाराज फलाना काम क्यों और किस इरादे से कर रहे हैं। पहले दिल ही दिल में अपना इरादा मजबूत कर लेते थे, जिसे कोई बदल नहीं सकता था, मगर अपने बाप की इज्जत बहुत करते थे और उनके मुकाबले में अपने दृढ़ विचार को भी हुक्म के मुताबिक बदल देने में बुरा नहीं समझते थे, बल्कि उसे कर्तव्य और धर्म मानते थे।
दो घड़ी रात जाते-जाते वीरेंद्रसिंह ने चुनार की तरफ कूच कर दिया और देवीसिंह को साथ लेते गए। अब कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह खुदमुख्तार हो गये, मगर साथ ही इसके राजा हो गए तो क्या अपनी खुदमुख्तारी के सामने आनंदसिंह अपने बड़े भाई के हुक्म की नाकदरी नहीं कर सकते थे और यहां तो दोनों ही के इरादे दूसरे हैं जिसमें एक दूसरे का बाधक नहीं हो सकता था।
कुंअर इंद्रजीतसिंह बीमार थे इसलिए दोनों भाई एक ही कमरे में रहा करते थे, मगर अब दोनों ने अपने-अपने लिए अलग-अलग दो कमरे मुकर्रर किए। जिस कमरे में वह विचित्र कोठरी थी और जिसका हाल ऊपर लिखा गया है आनंदसिंह ने अपने लिए रखा। उससे कुछ दूर पर इंद्रजीतसिंह का दूसरा कमरा था।