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इरफान-ऐसा कलाकार जिसका दिल भी सोना था

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आँखें..ऐसा लगता था मानों उबल कर बाहर आ जायेंगी..भूरी आभा लिए वही आँखें कभी क्रूरता की मिसाल तो कभी करुणा और याचना का उदाहरण पेश करती थीं। मामूली शक्लो-सूरत और हाथों में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की डिग्री लिए बेहद साधारण परिवार से निकल कर सफलता की चोटियों को छूने वाले इरफान खान महज एक मंजे हुए शानदार कलाकार नहीं थे। वह एक सोच रखते थे। भीड़ से हट कर, अंजाम की परवाह किये बगैर, अपनी बात को सामने रखने की ताकत रखने वाले इरफान खान समानांतर सिनेमा और मुख्य धारा की सिनेमा की बीच खिंची तथाकथित रेखा को धूमिल करने में सफल रहे। अपने 1988 में सलाम बांबे से फिल्मी कैरियर की शुरूआत करने वाले इरफान के सशक्त अभिनय ने फिल्मकारों को इतना प्रभावित किया कि भीड़ में खो जाने वाले चेहरे को फिल्म के नायक के तौर पर पेश किया गया। फिल्मी गाने और धूम-धड़ाका नहीं केवल खालिस, कंपा देने वाले अभिनय की बदौलत ही फिल्मों को चलाने में इरफान समर्थ थे। युवावस्था में मिथुन चक्रवर्ती को अपना आदर्श मानने वाले इरफान शुरूआत में अपने बालों को भी मिथुन की तरह ही रखते थे। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, चार फिल्मफेयर पुरस्कार और पद्मश्री से सम्मानित इरफान खान 2003 में आई हासिल और उसके अगले वर्ष आई मकबूल से सुर्खियों में आ गये। हासिल में बेहद सहजता से कॉलेज की हिंसक राजनीति में सराबोर युवक का किरदार निभाने वाले इरफान उतनी ही सहजता से मकबूल में एक माफिया डॉन के राइट हैंड मैन के देशी संस्करण में नजर आते हैं। शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ पर आधारित इस फिल्म में इरफान एक्टिंग के सर्वोच्च शिखर को स्पर्श करते नजर आते हैं। अपने ही बॉस का खून करने के बाद थर्राये इरफान हैलुसिनेशन का शिकार नजर आते हैं। बेशक विशाल भारद्वाज का निर्देशन कमाल का था, लेकिन इरफान ने अपने किरदार में रच-बस कर जो अमिट छाप छोड़ी, वैसी पुनरावृत्ति कम ही देखने को मिलती है। हासिल और मकबूल ने इरफान को फ्रंटलाइन में ला खड़ा किया था।

इरफान शायद इकलौते भारतीय कलाकार हैं जो हॉलीवुड में भी समान रूप से अरसे तक सफल रहे। एक्टिंग, भाषा या सामाजिक पृष्टभूमि की सीमा में सीमित नहीं होता, उन्होंने यह ‘अमेजिंग स्पाईडरमैन’, ‘लाइफ ऑफ पाई’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’ और ‘इनफर्नो’ जैसी फिल्मों से साबित किया। बेहद आसानी से वह हॉलीवुड की चमचमाती स्क्रीन पर भी विश्व भर के दर्शकों के सामने सफल रहे।

उनकी किसी फिल्म को भी उठा कर देख लिया जाये…उनके जीवंत अनुभव की खुशबू उसमें सदैव आती रहती है। अभिनय को मापने का पैमाना आज भी विकसित नहीं हुआ है। इरफान के अभिनय को शब्दों में ढालना बेहद मुश्किल है। कहते हैं कि उनकी सादगी ही उनके अभिनय की जान थी। इरफान अभिनय नहीं करते थे, वह किरदार में ढल जाते थे। फिर इरफान पर्दे पर नहीं आते थे..वो किरदार हमें दिखता था। एक आम दर्शक को इरफान में अपना अक्स दिखता था..एक ऐसा किरदार जो हमें अपने आसपास दिखता है, जिससे हम रोज मिलते हैं..बातें  करते हैं..छू सकते हैं।

फिर जब वह किरदार अपने मन की बात सामने रखता था तो तूफान भी मच जाता था। राष्ट्रीय चैनल पर अपने कट्टरपंथियों के खिलाफ अपना बेबाक रुख रख कर वह  विवादों में भी घिर गये थे। उन्होंने कट्टरपंथियों के खिलाफ लोहा लेते हुए इंसानियत की बात कही थी। तब लोगों को इरफान में एक सच्चा कलाकार दिखा था। एक ऐसा कलाकार जिसका दिल भी सोना है। पर्दे पर पसंद आने वाला कलाकार हकीकत की जिंदगी में भी दिल को भाने वाला है।

वर्ष 2012 में इरफान ने अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग में ‘आर’ को डबल रख दिया। उनका कहना था कि नाम में ‘र’ का उच्चारण उन्हें अच्छा लगता है। लेकिन हकीकत यही है कि उनका नाम कुछ भी रहता, दर्शक उन्हें उसी शिद्दत से पसंद करते। वह 29 अप्रैल को सुपुर्दे खाक हो गये। उनके जनाजे में भले ही महज 20 लोग शामिल हुए हों, लेकिन अपने पीछे उन्होंने अपने काम और अपनी सोच के कायल ऐसे करोड़ों प्रशंसकों को पीछे छोड़ा है जो उन्हें हमेशा याद करेंगे।

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Vikas Dawer

बहुत बढ़िया लिखा आनंद भाई

आनंद कुमार सिंह

धन्यवाद

राशिद शेख

शानदार आलेख आनंद भैया, पत्रकारिता की छाप नज़र आती है । इरफान खान साहब का जाना जैसे एक युग का समाप्त होना है, इरफान खान हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे । आपका शुक्रिया ऐसा बेहतरीन आलेख लिखने के लिए ।

Sweetvickky Vickky

बहुत सुंदर भैया ❤❤❤

हितेष रोहिल्ला

बेहतरीन

Alok verma

बहुत बढ़िया लिखा आंनद भाई।वाकई ऐसा कलाकार जिसकी आंखे बोलती थी।बहुत याद आओगे इरफान भाई।