गँड़ासा गुरु की शपथ- कुंदन यादव की कहानी
संत रविदास की जन्मस्थली सीर गोवर्धन से दक्षिण की तरफ रमना और बनपुरवा जाने वाली कच्ची सड़क के रास्ते में मदरवाँ गाँव था. बनारस शहर और गाँव का संधि स्थल. गजाधर तिवारी उर्फ़ गँड़ासा गुरु इस गाँव के अनमोल रतन थे. गँड़ासा गुरु जैसा नामकरण उन्हें गाँव में ही मिला था. एक बार गाय के लिए गँड़ासे से चारा काटते हुए चारे के पौधे में छुपे साँप नें इनकी कानी उंगली पर काट लिया. गजाधर तिवारी ने पहले तो उस साँप को सजा देते हुए एक झटके में गँड़ासे से उसकी गरदन उड़ा दी और इसके साथ ही विष को शरीर में जाने से रोकने के लिए बिना देर किए जय बजरंग बली का उद्घोष करते हुए अपनी कानी उंगली को भी एक झटके में उड़ा दिया. ढेर सारा खून बह जाने से गजाधर बेहोश होने लगे. गाँव वाले आनन फानन में उनको मृत समझ कर उन्हें तथा साँप, दोनों को लेकर अस्पताल भागे. डॉक्टर ने गजाधर को एक इंजेक्शन दिया. बोला, ‘चिंता न करें, अभी होश आ जाएगा.‘ साँप को वहाँ बैठे कुछ लोगों ने तुरंत ही पहचान लिया, कि ये पानी वाला डोड़हा साँप है, जो विषहीन होता है. डॉक्टर ने भी साँप के विषहीन होने की पुष्टि कर दी. यद्यपि डॉक्टर को यह निहायत बेवकूफी भरी करतूत लगी, लेकिन गजाधर की हिम्मत की चर्चा आसपास के गाँवों में फैल गई और लोग उनको गँड़ासा गुरु कहने लगे.
खेती बाड़ी और जमीन की दलाली के अलावा जजमानी और इन सबके साथ लगभग बीस पच्चीस सालों से गाँव में होने वाले जुए के संचालक. खुद बाजी नहीं लगाते, लेकिन जुआ खिलाने के बेताज बादशाह. कोई पूछता भी कि आप काहे नहीं खेलते? उनका वही उत्तर होता, ‘बेटा हलवाई मीठा खाता है भला?’ दो बार प्रधानी का चुनाव भी लड़े, लेकिन जातीय समीकरण पक्ष में नहीं था, सो हार गए. फिर भी हर चुनाव में खड़े होते थे और किसी न किसी पक्ष से कुछ ले देकर या उसके पक्ष में अपने चेलों के वोटों की गारंटी देकर फिर नामांकन वापस ले लेते. जुए के संचालन को लेकर गाँव से कई लोगों ने उनकी शिकायत की, लेकिन पुलिस कभी नहीं आई. जब आई भी, तो इतना होहल्ला मचाते हुए आई कि जुआरी समुदाय पहले ही सचेत हो गया और पुलिस दल गँड़ासा गुरु के यहाँ जलपान करके लौट गया. नए जुआरियों से वे कहते, “अबे बेधड़क खेल, हम हई न. हमरे होते हुए पुलिस क्या मलेटरी भी एहर नहीं आएगी. सब सेटिंग फिट करके रखते हैं. तुम साले पत्ते पर ध्यान दो. कहीं बतियाने के चक्कर में मरा न जाए.“ पत्नी ने कई बार मना किया, “कहो, तोहें तनिको चिंता ना हव? लड़की लड़का कुल बड़ा होत हउवन. स्कूली में कुल कहलन कि शिवम क पापा जुआरी हउअन. एतना दुश्मन हउअन कुल, मान ल कभी थाना पुलिस क चक्कर पड़ गयल तब हम का मुंह देखाइब?”
उन्होने मुंह में पान दबाए हुए पत्नी को मुसकुराते हुए देखा और पीक थूकने के बाद इधर उधर देखते हुए शायद सिर्फ उनको ही बताया, “देखा हमार गणित एकदम सीधा हव. गंगा जी के कछार क गाँव हव. एकरे बाद या त बाढ़ आ नाही दूर दूर तक रेता. लड़ाई झगड़ा कुल एहीं पंचाइत में निपट जाला. नाहीं त गड़वाघाट आश्रम क महाराज जी सलटा दे लन. अब पुलिस इहाँ काहे आई? भाँटा कबारे कि कटहर छीले? रहल बात जुआ क त हम न खेलाइब त कुल रमना या मलहियाँ जा के खेलिहें. आउर जहां तक बात पुलिस क हव, त हम जइसे मोबाइल क प्रीपेड होला वइसे ही पुलिस क खर्चा महीना पहिले ही पहुंचा देइला. अब तोही बताओ कि पुलिस के कुक्कुर कटले हव जउन आपन बिना खोपड़ीभिड़ऊव्वल के अपने आप आवे वाली आमदनी का नुकसान करी.“
पत्नी कुछ नहीं बोल सकी. बस इतना ही कहा, “तब्बो त कुल ओरहना भेजलन थाने पे तोहरे खिलाफ.“
गुरु बोले, “अब टिटिहरी के सुखावे से समुंदर त सूखी न? अरे छोटकी पियरी वाले केदार भैया हउवन न, ओनके साले क छोटका बेटउवा डीएलडबल्यू रेल कारख़ाना में जूनियर इंजीनियर हो गयल हव. थाने वाली जीप के ड्राईवर मिसरा जी के लड़की बदे ओसे हम बात चलउले हई. याद हव परसाल गोधना के वदे जीप भर के पुलिसवाले आयल रहलन. मिसरा जी चले से पहिले ही थाने के सामने लंका स्वीट वाले के इहाँ से फोन करके बतउलन, कि देखा तिवारी जी हम लोग अइसे तो नहीं आते लेकिन कौनों इसकी बेटी की तुम्हारा दुश्मन है जो सौ नंबर पे फोन किया है. मतलब कप्तान साहब के दफ्तर में. लेकिन तुम सावधान रहना. हम सब चाय पानी करके लौट आएंगे. अगल बगल दू चार जने से लिखा लेब कि यहाँ जुआ नहीं होता. कोई बदमासी करके पुलिस बल को परेसान कर रहा है. बड़के दारोगा जी भी अइहें, बस तू थोड़ा बढ़िया क्वालटी के मर मीठा माँगा लिहा और हाँ एक ठो पेन और दू चार जस्ता कागज बिना रूल वाला रखले रहिया.“
“अब तोही बोल भयल कौनों दिक्कत. अइलन सब जने अ दुआर करके चल गइलन. डराइवर साहब के हम जीप का टंकी फुल करे बदे डीजल क पइसा धीरे से पकड़ा देली दारोगा जी के देखा के. उ त लेत नाहीं रहलन, लेकिन हम गाड़ी में बइठत बखत जबरी हाथ में पकड़ा दिहे तब दरोगा जी से कहलन, देखिए साहब खानदानी लोग हैं. जब भी हाकिम लोग इधर से गुजरते हैं, तिवारी जी का खानदान खरचा खोराक में कोई कमी नहीं करता. कभी फुरसत से आइये तब देखिए तिवारी जी का खातिर भी. समझ ले उल्टे उ लोग के आवे से हम लोग क शान बढ़ गयल. अब एतना गोटी फिट करे के बाद भी पुलिस आई तब समझ लेब कि सनीच्चर लगल हव.“ पत्नी भी भीतर ही भीतर खुश हो गईं.
कई साल बीत गए. गँड़ासा गुरु पुलिस और जुए के बीच गोटियाँ फिट करते रहे. लेकिन पिछली दिवाली के दो दिन पहले जुए के दौरान ही गिरफ्तार हुए थे. पुलिस के हवलदार से उनका सामना जैसे ही हुआ, सरकारी मुलाजिमों को एक रैंक बढ़ाकर सम्बोधित करने की उनकी रणनीति के तहत उन्होने बोला “नायब साहब, जयराम जी की.” हवलदार ने नायब दारोगा का सम्बोधन पाते ही कुछ अचकचाते हुए अपने क्रोध और गालियों पर नियंत्रण कर लिया. पूछा, “तुम कौन हो बे?” गुरु बोले, “आपका सेवक. बल्कि पुलिस प्रशासन का भी सेवक.” अब हवलदार ने थोड़ा कडा रुख अख्तियार किया, “अबे मक्खन बाज़ी बंद कर और ठीक से बोल नहीं तो साले पिछाड़ा लाल कर दूंगा.” बाकी जुआरियों ने सोचा कि अब गँड़ासा गुरु चुप हो जाएंगे, लेकिन गुरु फिर बोल पड़े, “दरोगा जी आप चाहे कुछ भी लाल-पीला करें हम तो जनम जनम से बल्कि लंका थाना के पहले इंचार्ज लालजी सिंह कोतवाल साहब के जमाने से आप सब के सेवक है. कह दे कोई इसकी माँ की, कि कभी सेवा पानी में कोई कमी हुई हो?” हवलदार ने इशारा भांप लिया, लेकिन कड़ाई से बोला, “आज से जुआ बंद और तुम लोग अब जाओगे जेल. चलो थाने”, कहते हुए उसने एक जीप बुलाई और सभी जुआरियों को बैठाने लगा. सामने तब तक काफी लोग जमा हो चुके थे. गँड़ासा गुरु ने एक बार फिर मनुहार की, “नायब साहब यह तो महाभारत काल से चला आ रहा है. वैसे कानून भले बुरा कहे लेकिन है राजाओ का खेल. देखिए सब नए लौंडें हैं, एक बार पुलिस केस हो गया तो बिगड़ते ही जाएंगे और एक बार तो भगवान भी माफ करते हैं.” लेकिन हवलदार ने उनकी तरफ देखा तक नही.
थाने पहुँच कर सभी जुआरियों को हवालात में डाला ही जा रहा था कि गुरु ने थाने में बने मंदिर की ओर देखते हुए आाँख बंद कर संस्कृत में कुछ मंत्र बुदबुदाने शुरू कर दिए. इसका लाभ यह हुआ कि सभी जुआरियों को ले जाने वाले सिपाही ने गुरु को हवालात की तरफ आने का आदेश दिया और बाकी को लेकर बढ़ गया. अकेलेपन का फायदा उठाते हुए गँड़ासा गुरु लपक कर हेड मुहर्रिर के पास पहुंचे और नेम प्लेट देखते ही बोले, ‘’ अरे यादव जी, हर हर महादेव! एक बात करनी थी बस दो मिनट दीजिये. आप अवश्य खुश होंगे और यदि आप मना करते हैं तो कोई और खुश हो जाएगा. बस लिखापढ़ी से पहले एक बार मेरी बात सुन लीजिये, फिर चाहे जो सज़ा दीजिये. हवालात तो आप भेज ही रहे हैं.“
दीवान जी ने सीधे-सीधे बोल दिया, “बताओ, क्या बात है?” गुरु ने कहा, “मालिक जो आप कहैं , हम हर लेन देन के लिए….. “ वह वाक्य भी न पूरा कर सके थे कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ उनकी गाल पर पड़ा और धकियाते हुए उनको हवालात में डाल दिया गया. हवालात में भीषण गर्मी और मच्छरों के लगातार हमलों से डेंगू हो सकने की आशंका के बीच आधी रात में गुरु ने अपने सह जुआरियों के बीच चाणक्य मुद्रा में शपथ ली – “मित्रो, इस बेजती और थप्पड़ की कसम, आज गजाधर तिवारी वल्द मुरलीधर तिवारी, साकिन मदरवाँ मौज़ा सीर गोबरधन जिला बनारस कसम खाता हूँ कि जुआ तो मदरवाँ में होकर रहेगा, और कोई पुलिसवाला कुछ कर भी न सकेगा, जय बिजुरियाबीर बाबा की. जय मुड़कट्टा बाबा की.” अगले दिन न्यायालय में पेशी हुई न्यायाधीश ने जुर्माना लगाकर चेतावनी देते हुए छोड़ दिया.
मदरवाँ बाज़ार में गुरु की साख गिर गई थी. लोगों ने मदरवाँ में जुआ खेलना बंद कर दिया था. कुछ पेशेवर जुआरी अब रामनगर की तरफ जाने लगे थे. गँड़ासा गुरु से गाहे-बगाहे लोग मजाक करते, “क्या गुरु, अरे जुआ ना सही तो कभी-कभी तीन पत्ती खेल लिया करो.” गँड़ासा गुरु कुढ़ कर रह जाते, किसी को कुछ कहते नहीं; लेकिन उनके मन में एक ऐसी योजना चल रही थी, जिसके फेल होने का सवाल ही नहीं पैदा होता था. शाम को सब्जी लेने के बाद घर लौटते वक्त नहर के किनारे कब्जा करके बनाए गए धार्मिक स्थानों से प्रेरणा लेते हुए उन्होंने यह योजना तैयार की थी. इसका खुलासा उन्होंने सबसे पहले अपने सबसे करीबी दोस्तों राधेश्याम और गंगाप्रसाद से किया था.
योजना यह थी कि मुख्य सड़क से गाँव को होकर गुजरने वाली नहर के समानान्तर सड़क की त्रिमुहानी की बांसवाड़ी के पीछे की ग्रामसभा की जमीन पर एक शिवजी के मंदिर का निर्माण किया जाए. प्रभु के विग्रह के अलावा सामने चारदीवारी और गेट बनाया जाए. दक्षिण के नीम के पेड़ को मंदिर के अहाते में लिया जाए और फिर खेल शुरू. मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष गँड़ासा गुरु होंगे. महामंत्री राधेश्याम शुक्ल और कोषाध्यक्ष गंगाप्रसाद यादव. योजना दोनों ही मित्रों को पसंद आ गई. अगले ही दिन तड़बन्नी में एक बैठक हुई. गँड़ासा गुरु ने पहले ही पांच लबनी ताड़ी अलग रखने का आर्डर दे रखा था. अपने घनिष्ठ मित्रों के अलावा जो भी उधर से गुजरता, उसको आवाज लगाकर बुलाते और शिव मंदिर की जरूरत एवं महात्म्य पर चर्चा करते. फागुन की धूप में ताड़ी की चुस्कियां लेते हुए हर व्यक्ति उनको ही पुरोधा बनाने के लिए अपनी सहमति देता. जगन्नाथ प्रसाद थोड़ा बहुत विरोध करना चाहते थे, लेकिन पांच लबनी ताड़ी के मालिक और मृदुभाषी गुरु के सामने उनकी एक न चली. इस बीच सबसे अंत में गाँव के प्रधान जी वहाँ पहुंचे. उन के स्वागत में ताड़ी पेश की गई. तड़बन्नी के शीतल मलय समीर और ताड़ी के सुरूर में प्रधान जी ने भी मंदिर निर्माण में हर सहयोग का आश्वासन दे डाला. बस फिर क्या था, मंदिर निर्माण के निमित्त चंदे की रसीद छपवा ली गई और चंदा लेना शुरू हो गया.
गाँव में अधिकतर निम्नवर्गीय परिवार थे. इसलिए चंदे की रकम बहुत ज्यादा न थी. जितनी रकम इकठठा हुई, उतने में मुख्य गर्भगृह की दीवार भी न खड़ी होती. सबसे पहले चारदीवारी के लिए बांस की बल्लियाँ लगाकर उनपर घनी लता वाले पौधे रोप दिए गए, जिससे कि भीतर की निजता बनी रहे. नहर पर लगभग एक किलोमीटर आगे एक पुलिया निर्माणाधीन थी. गाँववालों में यह तय हुआ कि जो भी उधर से आएगा, वो यथा सामर्थ्ध कुछ ईंटें या दो-चार अंजुरी गिट्टी आदि लेते हुए आएगा और मंदिर के अहाते में डाल देगा. लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत धीमे काम बढ़ रहा था. गँड़ासा गुरु को भी कोई जल्दी न थी. पंद्रह दिनों में ही गर्भगृह का चबूतरा और कच्ची दीवारें बन गई और चारो तरफ की चारदीवारी पर लताओं के चढ़ जाने से एक हरियाली दीवार भी खड़ी हो गई. गँड़ासा गुरु जब नहर से निर्माणाधीन मंदिर को देखते उनका मुख उत्साह से भर जाता. उन्होने मंदिर में मूर्ति स्थापना की योजना बनाई और सर्वसम्मति से दो हफ्ते बाद मंगलवार के दिन अयोध्या के रामलला की तरह दीवारों पर तिरपाल डाल कर एक शिवलिंग की स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई. मंदिर निर्माण कोष खाली हो चुका था लेकिन अधबने मंदिर पर भी सुबह शाम आरती होने लगी. दो-चार दिन बाद गँड़ासा गुरु ने राधेश्याम से कहा कि अब देर काहे की, संगत के सब लोगों से कह दो कि आज शाम एक बैठक है.
शाम को मंदिर पर कोई नहीं आया. उन्होने कुछ शातिर जुआरियों के घर संदेशा भी भेजा लेकिन वो लोग घर पर नहीं मिले. रात नौ बजे तक गँड़ासा गुरु मंदिर में गंगाप्रसाद और एक दो नवयुवकों के साथ बाकी जुआरियों का इंतजार करते रहे, लेकिन कोई नहीं आया. अपनी योजना पर पानी फिरने की आशंका से उन्हें रात भर नीद नहीं आई.
अगली सुबह वो गाँव में कहीं जा रहे थे कि एक फेरी वाले को पुराने कपड़ों के बदले में नए बर्तन की फेरी लगाते देखा. उसे आवाज देकर बुलाया, बोले, यार पसेरी भर का एक गगरा चाहिए. उसके पेंदे में छेद करके शिवजी के ऊपर लटकाना है, जिससे भोलेनाथ पे हमेशा गंगा की धार गिरती रहे. फेरीवाले ने एक स्टील की गागर दिखाई. गँड़ासा गुरु ने लगभग 15 मिनट के मोलभाव और धर्म के काम का हवाला देकर बहुत ही सस्ते में गगरा पा लिया और दो चार लोगों के साथ सीधे प्रधान जी के यहाँ पहुंचे.
अरे प्रधान जी, परसों सोमवार को अमावस्या का योग है. सोमवती अमावस्या को भोलेनाथ का दर्शन जनम जनम के पाप नाश करने वाला है. इसीलिए सोमवार को सुबह बाबा का शृंगार करने के साथ आपको शिवलिंग के ऊपर इस गगरे को लटकाना है, जिससे माँ गंगा चारो पहर प्रभु को शीतलता प्रदान करती रहें. आप के कर कमलों से यह शुभ काम हो, तो गाँव का भी भला होगा. इतने सम्मान से प्रधान जी खुशी से फूले न समाए. लेकिन जैसे ही पंजीरी और बताशे के प्रसाद के इंतजाम का जिम्मा उनको मिला, उनके चेहरे की चमक कुछ मद्धिम पड़ गई . वे थोड़े शांत से होते हुए तनाव में आ गए. प्रधान जी को प्रसाद का जिम्मा देकर गुरु बोले, अच्छा हम चलते हैं, गगरे में छेद भी कराना है. फिर गँड़ासा गुरु सबको सूचना देने निकल पड़े.
सोमवार को अच्छी ख़ासी संख्या में लोग मंदिर पे इकट्ठा हुए. रुद्राष्टकम, महामृत्युंजय जाप आदि के बाद गँड़ासा गुरु ने जब शिव तांडवस्त्रोत का बुलंद आवाज में पाठ किया, तो सभी स्तब्ध रह गए और उनको सम्मान से देखने लगे . गुरु ने प्रसाद वितरण के दौरान एक कथा भी सुनाई.
“आप लोग शायद न जानते हो, लेकिन भारत में एक मंदिर ऐसा भी है, जहां रावण की पूजा होती है. यही नहीं, उसका पूजन भगवान भोलेनाथ से पहले होता है. यह सुनने में अजीब लग सकता है, परंतु यह सत्य है. यह मंदिर राजस्थान के उदयपुर जिले में है. यहां अवारगढ़ की पहाड़ियों में भगवान कमलनाथ महादेव मंदिर है. इस मंदिर की स्थापना राक्षस राज रावण ने की थी. भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण ने अपना सिर काटकर यहां एक अग्निकुंड को समर्पित कर दिया था. भगवान शिव रावण के घोर तप से अत्यंत प्रसन्न हुए. उन्होंने उसकी नाभि में अमृतकुंड का निर्माण कर दिया. इससे रावण अजर अमर हो गया.”
इसके बाद वो बोले, “इस कथा को कहने का मतलब, प्रभु के आगे जो जितना अर्पित करेगा, प्रभु उससे अधिक देंगे. देखला तू लोग, रावणा आपन मूड़ी काट के चढ़इलस त भोलेनाथ ओके अमर कय देलन. जेतना देबा ओतना पाइबा, बल्कि ओसे अधिकय.”
इस कथा का असर यह हुआ कि पर्याप्त चढ़ावा तो आया ही, प्रधान जी ने पोता होने की मनौती के साथ मंदिर के शिखर का बाकी काम कराने की घोषणा कर दी. प्रसाद वितरण के बाद लोग वापस लौटने लगे थे. इस बीच गँड़ासा गुरु अपने दल के कुछ पुराने जुआरियों को रुकने का इशारा कर चुके थे.
भीड़ के चले जाने के बाद उन्होंने मंदिर में बैठे लोगों से कहा: “साले, तुम लोगों के लिए मंदिर बनाए कि आराम से भोलेनाथ की शरण में उनको हाजिर नाजिर मानकर खेलो, फिर भी रमना, अखरी, डाफ़ी और रामनगर जाते हो. सियाराम और बिहारी जब रमना में पुलिस छापे में पकड़े गए, तो कोई झााँकने गया जेल? हम पचीस साल में एक बार पकड़ाए तो तुम लोग ठिकाना बदल दिए. फिर से खेलने के लिए बोलने पे कन्नी काटते हो. कौनों मान मर्यादा है कि नहीं बे, कि सब घोर घार के पी गए हो?”
श्यामनाथ ने बात शुरू की: “गुरु बुरा मत मनिहा, लेकिन जब से तोहार सेटिंग फेल भइल हव, तब से भरोसा नहीं हो पा रहा है. हमने के त सपने में भी अंदाजा नाही रहल कि पुलिस के साथ तोहार प्रीपेड सिस्टम गड़बड़ा जाई. पुलिसवालन पे भरोसा और कीरा के बिल में हाथ नायल एक बराबर हव.”
गुरु अभी विचारमग्न ही थे कि गंगाप्रसाद लगभग चीख पड़े, “अबे इ बताओ उस दिन लंका थाना का कोई आदमी था? बल्कि पूरी कहानी कई लोगों को मालूम नहीं है. पता नहीं कौन हरामीपना कर गया. साले ने मोबाइल में रिकॉर्डिंग करके किसी पत्रकार को दे दिया और वो पत्रकार एसपी को दे आया. देखो, थाने पे भी कोई परिचित स्टाफ मिला? मिसरा जी डराइवर साहब खुद बदली होने पे उदास थे. जमानत का भी इंतजाम वो लोग किए थे, नहीं अभी बड़के जेल में ही रहते सब जने. रुको हमपर विश्वास नहीं है, तो शाम को मिश्रा जी डराइवर साहब और राजनारायन सिपाही को कल शाम को बुलाता हूँ. दोनों लोग पुलिस लाइन में ही हैं. शाम को यहीं बाटी चोखा लगेगा. तुम सब लोग अपने कान से सुन लेना कि असली बात क्या थी. का गुरु! हाथ कंगन के आरसी क्या?”
गुरु ने बस इतना कहा, “अवश्य! सााँच को आंच नहीं! सत्य परेशान हो सकता है, किन्तु पराजित नहीं और हाँ, शाम को जरा जल्दी ही आ जाना सब जने काहे कि ऊ लोग खाके तुरंत निकलेंगे. पुलिस लाइन में रात को गिनती होती है आठ बजे. तब तक उनका पहुंचना जरूरी है.”
अगले दिन सााँझ ढलते ही लगभग दस बारह लोग मंदिर पे इकट्ठा हुए. गोहरी का अंबार सुलग रहा था और आलू बैंगन आदि भुना जा रहा था. एक तरह हंडे में खीर भी पक रही थी जिसे गंगा प्रसाद यादव पूरी तन्मयता से बना रहे थे. थोड़ी ही देर में मिश्रा जी डराइवर साहब और सिपाही राजनारायन सादे में बुलेट से वहाँ पहुंचे. गँड़ासा गुरु ने बाकायदा उनको शिवलिंग के पास ले जाकर माथा टेकने को कहा और तुलसी जल देते हुए मंदिर में चढ़ी हुई माला पहना कर दोनों का स्वागत किया. बाकी लोग यह देख हतप्रभ रह गए जब दोनों पुलिसकर्मियों ने टीका लगवाने के बाद थाली में कुछ रुपए डाले और गुरु के चरण छू कर आशीर्वाद लिया.
अहरा की मंद-मंद आंच पर बाटियों के सिंकने की सोंधी खुशबू फैल रही थी, तभी मौका देख कर राधेश्याम शुक्ल ने बात शुरू की. “अब ये समझ लीजिये दीवान जी, जब से आप लोग इहाँ से बदली हो गए, जुआ भी बंद और मेल-मिलाप, छनन-मनन सब खतम हो गया. सब अपने अपने जिंदगी में व्यस्त हैं. पहले जुए के दौरान लोग आपस में सुख दुख साझा करते थे, एक दूसरे की मदद भी करते थे; लेकिन अब एक दूसरे की खोज खबर ही नहीं मिलती. मिलना-जुलना तभी होता है जब कोई पंचायत हो या कीर्तन वगैरह. हम तो गँड़ासा गुरु से कई बार बोले कि धीरे-धीरे छह महीना बीत गया है. दूसरे गाँवों में बेधड़क जुआ हो रहा है, अब अपने यहाँ भी शुरू हो. लेकिन लोग डर से आगे आते ही नहीं है.”
मिसरा जी ने तपाक से कहा, “इसमें डरना क्या? कोई मडर कतल किए हो या किडनैप, रेप आदि कर रहे हो, जो डरने की बात है. आईपीसी की धारा तेरह में जुए पर अधिकतम एक साल जेल और एक हज़ार रु जुर्माना है. इससे कई गुना अधिक तो घूस लेने-देने पे है. अब बताओ तुम लोग बिना नगद नारायण के किसी भी जगह काम बनता है? मेरी अपनी राय में जिस देश में द्यूत क्रीडा का जनम हुआ हो, वहाँ इस पर सज़ा का सिस्टम गलत है. अरे बहुत है तो ये नियम बना दो, कि नए लौंडे नहीं खेलेंगे, जब तक अपने पैरों पे खड़े न हो जाएँ. या कुछ ऐसा कि आदमी अपनी कमाई के दसवें हिस्से से ही खेल सकता है आदि आदि. अरे वेद पुराण में द्यूत क्रीडा यानि जुआ खेलने का पूरा इतिहास है. शंकर जी और पार्वती जी को यह खेल वास्तव में बहुत प्रिय है.”
गंगा प्रसाद ने बीच में टोकते हुए कहा, “क्या कह रहे हैं डराइवर साहब!! सच में ऐसा है!!”
“त और क्या यार, हम भौकाल बना रहे हैं कि हमको बड़का जानकारी है. अरे जब से लाइन हाजिर हुए हैं, तब से रोज शाम को महावीर जी के मंदिर जाते हैं. बातों-बातों में वहीँ बड़े महंत जी से ये सब पता चला. हम भी ऐसे ही चौंक उठे थे. तब महंत जी ने खुद एक शास्त्री से ग्रंथ मंगाकर दिखाया. पुराणो में माता पार्वती और शिवजी के बीच जुए का विधान है, जिसमे शिव जी पार्वती से हार गए थे. स्कन्द पुराण में इसका बड़ा ही सुंदर विधान है. अध्याय याद नहीं आ रहा. पार्वती जी ने तो यहाँ तक कहा है कि जो दिवाली के दिन रात भर जुआ खेलेगा उसपर साल भर लक्ष्मी जी कृपा करेंगी. इसीलिए दिवाली के अगले दिन कार्तिक के शुक्ल पक्ष की प्रथमा को द्यूत प्रतिपदा भी कहा जाता है.”
खीर बनाते हुए गंगा यादव ने कहा, “देखा मिसरा जी ई सब पंडितन क चाल हव, भगवान के नाम पे आपन गणित बैठावे का.”
मिसरा जी को थोड़ा बुरा तो लगा, लेकिन तुरंत बोल पड़े, “नहीं सरदार ऐसा नहीं है. अब देखा गीता में विभूतियोग नामक अध्याय में भगवान कृष्ण जी खुद कहे हैं – द्यूतम छलयतामास्मि, मतलब छल संबंधी समस्त कृत्यों में मैं जुआ हूँ. एकर मतलब हुआ, जुआ भी कृष्णमय है. न बिस्वास हो त कल संकट मोचन आ जा, वहीँ गीता खोल के देखा देब.” गंगा कुछ सकुचा गए. बोले, “अरे नाही अइसन बात ना हव. आप का हम बहुत इज्ज़त करीला.”
मिसरा जी फिर बोलते रहे- “मज़े की बात यह है कि फलित ज्योतिष में ज्योतिष का धंधेबाज और जुआड़ी दोनों बराबर हैं. जुआ राजा और धनी नागरिकों का सर्वप्रिय मनोरंजन बना रहा. सामान्य लोग भी इस खेल के रोमांच का आनन्द उठाने में पीछे नहीं रहे. शराब व्यापार की भांति यह राजस्व का भी स्रोत था. अब ई तो लोकतन्त्र का दोगलापन है न कि छोटे स्तर का जुआ बंद कराया जा रहा है, सरकार खेलावे त सब ठीक. खुद कोई खेले तो अपराध. अब लाटरी फाटरी ई सब का है? जुए न है. अभी दिल्ली, बंबई, गोवा चले जाओ, तो वहाँ एक से बढ़कर एक कसीनों लगे हैं. एक रात में लाखों करोड़ों का खेल होता है. इहाँ साला सौ पचास के पीछे पुलिस छापा मार रही है.”
गँड़ासा गुरु ने बीच में कहा, “बताव, हम त फालतू में जेल गइली. इ कुल पहले पता रहत त वहीं अदालत में बोलित कि हजूर पहिले कसीनों बंद कराइए, फिर मुझे सज़ा दीजिये. अवधेश वकीलवा के भी इ कुल नाही पता. नाहीं त बोलत जरूर. एकरी मााँ की इ कुल बतावे के बजाए हमसे कहलेस, चुपचाप हाथ जोड़के खड़ा रहा और घिघियात रहल कि हुज़ूर मेरे मुवक्किल की पहली गलती है, माफी दे दें. आइंदा ऐसा नहीं होगा. सरवा हलफनामा भी दिया देलेस.”
इस बार सिपाही राजनारायन ने अपनी चुप्पी तोड़ी. “अरे इसी बात का ग़म है तिवारी जी. आप बताइए, जब तक हम इस हलके में तैनात थे, कोई पुलिस त क्या एक होमगार्ड या पीआरडी का जवान भी इधर आया. जो भी दरखास लेकर आया कि दीवान जी मदरवाँ में जुआ हो रहा है, हम तुरंत उसको बोले, साले जुआ ही न हो रहा है कि कोई तुम्हारी बहिन बेटी लेकर भाग रहा है. चल भाग इहाँ से. कुछ और तो कर नहीं पाए जिंदगी में, अब साले समाज सुधारक बने हैं. मिसरा जी की तरफ मुखातिब होते हुए राजनारायन ने कहा, पूछ लीजिये ओस्ताद से, जब भी कोई नया दरोगा आया, सबसे पहले गुरु जी का प्रीपेड हमने थमाया कि साहब लाख शिकायत मिले उधर नहीं जाना है. कभी कदा महीने के बीच में बदली हो गई और नए चौकी इंचार्ज या बड़े साहब आए, तब भी अपने खचे से काट कर लिफाफा हाजिर. आखिर जबान की इज्ज़त भी कोई चीज होती है. एक बार नगद नारायण से नमस्ते हो गई फिर चाहे लाइन हाजिर हो या मुअत्तल, आसामी पे आंच नहीं आने देना है. लेकिन अब महकमे में बहुत बदलाव आ गया है. एक तो जल्दी जल्दी तबादले और नए अफसर भी साले गंड़फट टाइप आ रहे हैं. जरा सी शिकायत हुई नहीं कि हालत खराब. जिन दो कौड़ी के पत्रकारों को हमलोग सामने बैठने नहीं देते थे, उनको आजकल के मोछ-मुंडा टाइप पीपीएस, आईपीएस अपने पास बैठा के चाय नाश्ता कराते हैं. इसीलिए महकमे का इकबाल गिर रहा है. ज्यादा नहीं पााँच साल पहले की बात है, हम अकेले दालमंडी से गुल्लू शेख के गिरोह के तीन लोगों को उठा के ले आए; और आज एक प्लाटून की हिम्मत नहीं है दालमंडी में घुसने की.”
मिसरा जी ने समर्थन किया, “सही कह रहे हो यार. सब जगह दोगलापन भर गया है. ऐसा नहीं कि नए अधिकारियों को लेन देन से कोई परहेज है. महीना होते ही हाजिरी लगाइए. हफ्ता भर भी देर हुआ तो क्राइम मीटिंग. लेकिन थोड़ी सी शिकायत हुई नहीं कि फट के हाथ में आ जाती है. अब जड़ जमने नहीं दोगे तो फूलपत्ती तक घंटा पानी पहुंचेगा. एक तो हर बढ़िया थाने के कारखास हटा दिए हैं और बंगले से फोन आ जाएगा कि मेम साहब सापिंग करेंगी. खैर छोड़िए, चलिए अब भोजन किया जाए. निकलना भी है.”
भोजन के बाद मिसरा जी ने गँड़ासा गुरु को अलग ले जाकर कान में कुछ कहा. इसके बाद दोनों मेहमानों ने विदा ली. लोगों ने इस कानाफूसी की बाबत पूछा, तो उन्होने इतना ही कहा, “कुछ खास नहीं, बस अपने बिटिया के छेकइया में चले के क़हत रहलन. और कहलन ह कि आराम से खेलो, लेकिन थोड़ी समझदारी से, बेफिक्र होकर नहीं.” राधेश्याम ने कहा, “बस इतनी सी बात के लिए 10 मिनट लग गयल?”
गुरु बोले- “अरे घबड़ा मत कुछ मंत्र देले हउवन, ओकरे बाद सीना ठोंक के जुआ होई. बस भोलेनाथ क कृपा बनल रहे. अब काफी चन्दा हो गयल हव, त गंगा तू अब शिखर पे पलस्तर और बाकी कुल काम खतम करवा दा. कल से काम शुरू.”
निर्माण कार्य के बाद रंगाई का काम आरंभ हुआ. अगले शुक्ल पक्ष के प्रदोष के दिन उन्होने पूर्ण सज्जित मंदिर में भंडारे का आयोजन रखा और बिना किसी को खबर किए क्षेत्रीय विधायक, जिले के डीएम और एसपी को एक पत्र लिखा,
महोदय,
हमारे ग्राम के प्राचीन मंदिर के जीर्णोद्धार पूर्ण होने के अवसर पर रुद्राभिषेक, रुद्राष्टकम पाठ और बाबा तथा मााँ पार्वती के शृंगार तथा भंडारे का आयोजन है. इसमें शिवलीला के विभिन्न पहलुओं के माध्यम से महादेव जी की अर्चना की जाएगी. आप से अनुरोध है कि इस पवित्र अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में पधार कर शिव वंदना में भाग लें और महाप्रसाद ग्रहण करें.
विनीत
शिवसेवक समिति मदरवाँ
अगले दिन इसे टाइप कराकर वे सभी लोगों के दफ्तर जाकर मिल आए और पत्र भी दे दिया. गँड़ासा गुरु अच्छे से जानते थे कि डीएम और एसपी का तो पता नहीं, लेकिन विधायक जी के बाप की हिम्मत नहीं, जो इस कार्यक्रम में न आएँ. मदरवाँ आखिर दो हज़ार के आसपास वोट वाला गाँव था.
गाँव आकर सभी को अपने पत्र की पावती दिखाई और भंडारे की तैयारी में जुट जाने को कहा. सुनील टेंट हाउस को उन्होने टेंट बर्तन आदि का ठेका दे दिया. बयाने के तौर पर दस प्रतिशत के हिसाब से मुसकुराते हुए 1700 रु भी दिए. लगभग 4 हज़ार लोगों के हिसाब से पूड़ी, दो सब्जी और खीर का सामान हलवाई से लिखवा कर प्रधान जी को पकड़ा दिया. इस बार प्रधान जी ने कोई उदासी चेहरे पे न आने दी. आखिर इतने गणमान्यों से उनको मुखातिब होना था.
भंडारे के दिन एसपी साहब न आ सके. किसी हत्या के मामले में उन्हें कहीं जाना पड़ गया. डीएम साहब और विधायक जी पहुंचे. प्रधान जी ने उनका माला पहना कर स्वागत किया. दोनो अतिथियों से रुद्राभिषेक कराया गया. सुरक्षा और प्रोटोकॉल में लगे दरोगा और तहसीलदार को भी फूल चढ़ाने को दिए गए. पार्श्व में कीर्तन चल रहा था. कीर्तन खत्म होते ही एक गाना शुरू हुआ, जिसमें शिव जी पार्वती जी से सारे मिष्ठान्न भोग छोड़ कर भांग पीस कर लाने को कहते हैं. पार्वती जी कलाई में दर्द की बात कहती हैं, लेकिन फिर पीस देती हैं. इस गाने पर स्थानीय स्कूल के बच्चो ने शिव पार्वती के वेश में नृत्य किया. स्टेज पर सांकेतिक रूप से सिल-बट्टे पर रखी पिसी हुई भांग को गाना खत्म होते ही भंगेड़ियों ने अपने कब्जे में ले लिया. गाना खत्म के बाद शिवलीला के रूप में शिव पार्वती के बीच द्यूतक्रीड़ा का कार्यक्रम था.
गँड़ासा गुरु ने घोषणा की- “अब माननीय डीएम साहब और माननीय विधायक जी महादेव जी और माता पार्वती के रूप में द्यूतक्रीड़ा में भाग लेंगे.” इसके साथ ही उन्होने वेद पुराण आदि में द्यूतक्रीड़ा का इतिहास भी बढ़ा चढ़ा कर बता दिया. “आप दोनों से आग्रह है कि गर्भगृह के नंदीजी के समीप पधारें.” डीएम इस प्रक्रिया पर कुछ अचकचाते कि विधायक जी उनको लेकर वहाँ आ गए. उन्होने ताश के पत्ते देख कहा भी कि “ये क्या”, तब विधायक जी ने कहा, “अब द्यूतक्रीडा के पासे और वैदिक नियम थोड़े किसी को पता. ये तो प्रभु का भाव है. जैसे सोमरस की जगह मदिरा चढ़ती है भैरोंनाथजी को, वैसे ही समझिए.” डीएम अभी भी खड़े थे. गँड़ासा गुरु ने उनकी हिचक भांप ली. वे तुरंत वहाँ पहुंचे और बोले, “साहब हम जानते हैं, आप लोगों का पल-पल कीमती है, इसलिए आप लोग को खाली पत्ते बांटने हैं, बाकी क्रीडा ये लोग सम्पन्न कर लेंगे. हाँ, एक टॉस होगा कि कौन शिवजी की टीम से और कौन माता पार्वती की तरफ से खेलेगा.“ टॉस हुआ. विधायकजी जीते और शिवजी की तरफ हो गए. गुरु ने डीएम को यह कहते हुए भरपूर मक्खन दिया- “नेता जी भले टॉस आप जीते, लेकिन अंत में साहब ही जीतेंगे. आखिर माई की टीम में हैं.“ इस वाक्य पर चाटुकारों के दल ने समवेत ठहाका लगाया. फिर वहाँ पहले से जमे जुआरियों को पत्ते बााँट कर दोनों लोग वापस मंदिर के चबूतरे से नीचे आ गए. प्रसाद ग्रहण किया और जाने को हुए. उनके जाने के दौरान गँड़ासा गुरु ने साफा बाँध कर दोनों का सम्मान किया और फोटो भी खिंचवाई. प्रधान जी थोड़ा उदास हो ही रहे थे कि माला की बजाए साफा उनको बांधना था कि गुरु ने आवाज दी, “अरे, कहाँ गए प्रधान जी. आइये अतिथिगण को टीका चन्दन लगाइए. “ डीएम ने जैसे ही कहा- अरे ठीक है, गुरु ने प्रतिवाद किया, “नहीं सरकार, परंपरा है ये और हमारी मर्यादा भी; और आज तो आप साक्षात भोलेनाथ के प्रतिनिधि हैं.“ डीएम को टीका लगाने के बाद प्रधान जी जब विधायक जी को टीका लगा रहे थे, गुरु ने आवाज दी, “अरे प्रधान जी ई टिपकारी से काम न चली. विधायक जी के पूरे ललाट पर भोलेनाथ का त्रिपुंड लगाइए. आखिर क्षेत्र में पता लगना चाहिए कि विधायक जी कहाँ से आ रहे हैं?” विधायक जी भी बोल पड़े, “हाँ हाँ. आउर का? लगे के चाही कि मदरवां से आवत हइ. इसके बाद दोनों अतिथि चले गए. इसके बाद देर शाम तक भंडारा चला. प्रधान जी और गँड़ासा गुरु ने भी एक दूसरे को और कई और रसूखदारों को साफा बाँधा. सुनील टेंट वाले को बहुत कम पैसे और गैर हिन्दू लोगों को किराए पर टेंट बर्तन आदि देने तथा उसमें गोमांस पकने की अफवाह फैलाने की धमकी देकर निबटा दिया गया.
भंडारा समाप्त होते होते रात के नौ बज गए. सबको विदा करके गुरु वापस चबूतरे पर आए. अपने जुआरी मण्डल को बुलाया. कुछ लोग दोपहर की नृत्य नाटिका में बची भंग का गोला चढ़ा चुके थे और चबूतरे पर लुढ़के हुए थे. गँड़ासा गुरु ने शुरू किया- “भाइयो, आज बड़ी खुशी का दिन है.“ भंग के सुरूर में डूबे रग्घू चच्चा ने टोका- “मरदे, इहाँ रात हो गइल तोहें दिन देखात हव. “गुरु ने तुरंत कहा, “सही कहला चच्चा, खुशी की रात है.“ फिर आगे कहा, “सुनत जा सब जने. आज भोलेनाथ के आशीर्वाद से द्यूतक्रीडा शुरू हुई है और जिसका आरंभ महादेव के चरणों से हो, उसको भला कउन एकरी महतारी की रोकेगा? लेकिन हाँ, जमाना बदल रहा है. विरोधी शक्तियाँ भी मजबूत हो रही हैं. तो अब जुए को सात्विक रूप में खेला जाएगा. कसीनों सिस्टम लागू किया जाएगा. धतूरा माने एक हज़ार, बेलपत्र यानि पााँच सौ, सुपाड़ी सौ, पान का पत्ता पचास रुपया, बड़ी इलायची बीस और लौंग का मूल्य दस रुपया. अब रुपया पैसा के बजाय खेल ई सब से होगा. विजयी व्यक्ति को इसी दर से भुगतान होगा, पाँच परसेंट झरी काट कर. समझ गइला सब लोग. और अब थाना पर कोई प्रीपेड नहीं. देखीं कौन पुलिसवाले के पिछवाड़े में एतना दम हव, जउन इहाँ छापा मारी. कभी कोई चौकी थाने से आके पूछताछ करे त बता दीहा कि तोहार दादा और परदादा माने कलेक्टर अउर विधायक जी इहाँ का पहिला खेलाड़ी रहलन. बताव सब लोग, कोई शक या सवाल?”
सब शांत थे. गुरु ने फिर पूछा, “कोई शक या सवाल?” गंगाप्रसाद ने हँसते हुए कहा, “कौनों गुंजाइश छोड़ले हउव शक करे बदे? हो गयल न तोहार कसम पूरा, बस अब कल से महफिल शुरू कि कोई सवाल करी. “सब हंसने लगे. भग्गू ने गुनगुनाना शुरू किया- “जेकर नाथ भोलेनाथ, उ अनाथ कइसे होई.“ सबने उद्घोष किया- “हर हर महादेव!”
October 21, 2018 @ 10:06 pm
Very good bhaiya ji.
I. Am proud of you
I am brother of RJ Yadav
October 21, 2018 @ 10:30 pm
कहानी पढ़ कर महसूस होता है कि काश हम भी मदद नवागांव के उस घटनाक्रम में किरदार होते। शुद्ध बनारसी पन दिखाई पड़ता है। बेजोड़ लेखन।
October 21, 2018 @ 10:32 pm
कहानी पढ़ कर महसूस होता है कि काश हम भी मदरवां गांव के उस घटनाक्रम में किरदार होते। शुद्ध बनारसी पन दिखाई पड़ता है। बेजोड़ लेखन।
October 22, 2018 @ 11:56 am
मुक्तिबोध ने मठ और गढ़ के दमंचकरा का इशारा किया था अपनी कविता “”अंधेरे में ” में एक फ़ाइंटेसी के रूप में। वैसे ही सामाजिक अंधेरे को बड़े ही सरल तरीके से कुन्दन जी ने इस कहानी में उतारा है। जुआ, पुलिस, नेता, अधिकारी, सरकारी जमीन पे कब्जा, निर्माणाधीन पुलिया से थोड़ा थोड़ा बालू गिट्टी मंदिर के नाम पर जुटाना और दिन दहाड़े शिवलीला के नाम पर जुए का आयोजन यानी समाज के सब कुछ की विद्रूपता के हमारे जीवन में सहज और निर्विरोध प्रवेश की तरफ इशारा करने वाली कहानी है। बहुत बहुत साधुवाद।
October 22, 2018 @ 12:00 pm
‘गंडासा गुरु की शपथ’ कहानी आंचलिकता के ढर्रे में आने वाले युगीन बदलावों की कहानी है। ये बदलाव मनुष्य की आदिम वृतियों के कुंठित दायरों का स्फोट बनकर सामने आते हैं। मदरवां गांव को एक रूपक में लिया जा सकता है, एक ऐसा रूपक जो संवेदनाओं के दोहन की हर चेष्टा का सापेक्षिक प्रमाण है। गजाधर तिवारी हों या गंगाप्रसाद या मिश्रा जी मेरी समझ में इनमें से सारे चरित्र मानवीय हैं लेकिन वे केंद्रीय चरित्र नहीं हैं,केंद्रीय चरित्र और कथानक तो मदरवां का रुपक है क्योंकि यह रूपक रमना,बनपुरवा,डाफी आदि का प्रतिरूप है..कहानी का अर्थ भी इन्हीं रूपकों के बीच ही खुलता है.। सामाजिक विडंबनाओं और उनसे जुड़ी भावुक संवेदनाओं के दुरुपयोग पर यह कहानी मारक व्यंग्य करती है…शिल्प का भदेसपन इसे भीड़ से अलग पहचान देता है, जिससे रचनाकार की सुलझी हुई समझ के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए..।
October 22, 2018 @ 12:02 pm
कहानी भारतीय सामाजिक संरचना का बहुत सघन यथार्थ प्रस्तुत करती है । खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार की सामाजिक संरचना का। लेकिन जिस तरह से आपने लिखा है वह संवेदनात्मक स्तर पर बहुत ही कमज़ोर है। यानी विषय वस्तु अधिक है रचनाशीलता कमज़ोर है। असल में यह उपन्यास का विषय है और चरित्रों का सही विस्तार भी तभी हो सकता है। गंडासा गुरु जितना शातिर और बदमाश है वह पहली ही घटना के विवरण से प्रकट होना कम होने लगता है और कहानी एकांगी होती चली जाती है। लगता है जैसे बाकी चीजें स्वाभाविक रूप से वह सब आकार ग्रहण कर रही हैं जो कहानी में दिख रहा है जबकि वास्तव में आप वहां तक उतर नहीं पाए हैं जहां तक उनका विस्तार है। गंडासा तिवारी जैसा टिपिकल चरित्र उत्तर भारत के बाभन युवाओं का एक प्रतिनिधि चरित्र हो सकता है बशर्ते सीर गोवर्धनपुर , मदरवा और लंका थाने के चरित्र भी अपने लालच और दुरभिसंधियों के साथ खुल सकें। कुल मिलाकर आपमें कथाकार की संभावना है लेकिन परिश्रम की घोर जरूरत भी है
October 22, 2018 @ 12:05 pm
Kya bat hai!!! Shreelal shukl ki yad dila di aapne. Wahi shaili.. wahi kuredati aur gudgudati shaili. Shandaar. bahut badhai. Kisi patrika mein chhapawaiye.
October 22, 2018 @ 3:18 pm
एक और बेजोड़ रचना…कुंदन जी की ठेठ देहाती भाषा शैली उनकी खासियत है उनकी कहानियों में आंचलिक खुसबू साफ साफ महसूस होती है…भाषा और ग्रामीण रहन सहन पर उनकी विशिष्ट पकड़ है जो उन्हें बाकी लेखकों से अलग करती है, समकालीन लेखकों में मुझे इनकी कहानियां सर्वाधिक प्रिय है….इनकी रचनाये जल्द ही हार्ड कॉपी में पढ़ने को मिले यही कामना है
October 23, 2018 @ 12:51 pm
कुन्दन जी की कहानिया शुरू से ही कहानी लेखन के आजकल के दौर में किस्सागोई और सरलता के माध्यम से प्रेमचंद और श्रीलाल शुक्ल की मिलीजुली परंपरा की तरफ ले जाती हैं। गंडासा गुरु भारत के हिन्दी प्रदेश के गाँव गाँव में पाए जाते है किसी न किसी रूप में। कुन्दन साहब आप ऐसे ही लिखते रहें।
October 26, 2018 @ 9:19 am
Kundan yadav Ji is truly blessed by Goddess of wisdom and his crude but most meaningful creations, seamlessly framed and articulated ,speaks of same DNA style which our respectable Orem Chand ji other superlative Hindi poets must have possessed . Ur nectar and musk of such writings will spread far and wide and time is not too far when u will become apostle and epitome. Of Hindi literature
Regards MahendraGoel 09810808800
October 29, 2019 @ 12:50 pm
बहुत सुंदर कथा!आंचलिक तत्वों और मुहाबरेदानी से भरपूर।कुंदन जी!आपके भीतर एक बड़ा किस्सागो बैठा है।उसे बाहर होने की राह दीजिए।बहुत बहुत बधाई!भाषा भंगिमा भी अद्भुत और संप्रेषण की कला से युक्त है!अद्भुत वर्णन शैली!