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#द_एक्सीडेंटल_कॉन्सपिरेटर #1

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“10 रुपये में भर पेट भोजन”
दरोगा नाम के उस 26 वर्षीय व्यक्ति ने मोती विहार स्थित एक एन. जी. ओ. द्वारा चलाये जा रहे गरीबों के लिए कम दामों पर भोजन के प्रबंध जैसे सामाजिक कार्य को चिन्हित करता बोर्ड देखा। उसने, अपनी मैली-कुचेली जीन्स के पिछले जेब में हाथ डाला तो चिल्लर के सिवा कुछ बाहर न निकला। दरोगा ने उन चिल्लरों को काउंट किया तो गिनती 16 तक पहुंची। वह सुबह से भूखा था और इसके लिए वह खुद को नहीं बल्कि अपने जोड़ीदार पटवारी को जिम्मेदार मानता था जो सुबह एक बार शक्ल दिखाने के बाद अपनी नई-नई बंदी से मिलने निकल गया था।
न तो दरोगा उसका असली नाम था न ही उसके दोस्त का नाम पटवारी था। इससे भी बड़ा ताज्जुब यह था कि दोनों के ये नाम सरकारी महकमे के पदों के नाम हैं जबकि इन दोनों का इन पदों से दूर दूर तक का रिश्ता नहीं था। दोनों को ही 10 कक्षा का मुंह देखना भी नसीब नहीं हुआ तो क्या खाक दोनों पदों तक पहुंच पाते। दोनों के असली नाम क्या थे यह न उनके जानने वाले कभी जानते थे और न ही वे कभी अपना असली नाम बताते थे। लेकिन इनके पास अनुभव था, 10 वर्षों का, वो भी झपट्टामारी का। वोट देने की उम्र आने से पहले ही दोनों अपराध की दलदल में घुस चुके थे लेकिन इनके अपराध का स्तर उस लेवल का नहीं होता था कि इन्हें कानून उम्र भर के लिए जेल में सड़ा दे। इनकी महत्वकांक्षा इतनी बड़ी नहीं थी कि कोई बड़ा अपराध करते। 10 वर्षों के अंतराल में पुलिस द्वारा कई बार पकड़े गए और सजा काटकर निकले तो फिर से किसी नए एरिया में अपना पुराना काम शुरू कर दिया। पॉकेटमारी से शुरू हुआ इनका अपराध आजकल मोबाइल फ़ोन्स की झपट्टामारी तक पहुंचा था। इस काम में इन्हें मजा भी आ रहा था और दाम भी अच्छे मिल रहे थे। आज प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में स्मार्टफोन है, जैसे कि पॉकेट में पर्स लेकिन पर्स काटने पर उतनी कमाई इनकी न होती थी जितनी इनकी एक मोबाइल फ़ोन को बेच देने से हो रही थी। लेकिन इधर काम मंदा था और पटवारी अपनी नई बंदी के चक्कर में धंधे की वाट लगा रहा था।
दोपहर के 1 बजे रहे थे, जब दरोगा ने सड़क के दूसरी तरफ से, फिर उस बोर्ड को पढ़ा और अपने जेब में मौजूद चिल्लर को बजाया। वह बस अंदर ही घुसने को हो रहा था कि दूर से उसे पल्सर बाइक पर पटवारी आता नज़र आया। इस झपट्टामारी के धंधे में, वह पल्सर बाइक ही ऐसी चीज थी जो उन्हें पुलिसवालों से बचाती थी।
पटवारी ने उसके सामने बाइक रोकी और अपने चेहरे पर से हेलमेट हटाये बगैर ही उसने अपने विंड-चीटर के जेब से एक मोबाइल फ़ोन उसके हाथ में दे दिया। उसके बाद उसने अपने चेहरे पर से हेलमेट उतारा।
पटवारी के लंबे बाल थे, जो बायीं तरफ लटक के आ रहे थे, न जाने किस प्रकार के फैशन की हेयर कटिंग का नतीजा था, चेहरे पर भरी हुई सेव जो बेतरतीब होती जा रही थी और उसे किसी नाई से सेट करवाने की जरूरत थी, कानों में इयरफोन बदन पर नीले रंग का चिलर।
“किधर से उठाया बे?”
“नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से।” – उसके गले से घरघराती हुई आवाज़ आयी, जैसे कि उसका गला बैठ गया हो – “मक्खन की तरह उसके हाथ से मेरे हाथ में और मेरी बसंती यूँ जा वो जा।”
“अबे चूतिये, वहां तो बहुत ट्रैफिक रहता है, पकड़ा जाता तो?”
“अबे, पता है, मुझे भी लेकिन पकड़ा तो नहीं गया न” – उसने पुनः घरघराती हुई आवाज़ में कहा।
बचपन में उसके गले में गोली लगी थी लेकिन डॉक्टर्स ने उसे बचा लिया था पर जिसके कारण उसके गले के नलकी में कुछ ऐसी समस्या पैदा हो गयी कि उसकी आवाज़ ही बदल गयी। वह उस घटना के बाद से घरघराती हुई आवाज़ में ही बात करता था।
“फ़ोन तो नया नया सा लग रहा है?”
“हां, हॉनर का है।”
पटवारी पल्सर से उतरा। जहां पटवारी 6 फुट की कद की लंबाई लिए हुए था वहीं दरोगा साढ़े चार फुट में ही समाया हुआ था। पटवारी जहां छरहरे बदन का था वहीं दरोगा भारी बदन लिए हुए था लेकिन बाइक चलाने में इतना माहिर था कि पल्सर को हवा की स्पीड से सड़कों पर चलाता था। जबकि पटवारी के पास हाथ का हुनर या कहें हाथ की सफाई शानदार थी। घुंघराले बालों में दरोगा की पर्सनालिटी उभर रही थी लेकिन उसकी काली टीशर्ट जिस पर अरमानी लिखा हुआ वो ज्यादा इम्पैक्ट पैदा कर रहा था। जहां पटवारी ने ऐड़ी से ऊपर तक पहुंचने वाला पैजामा पहना हुआ था वहीँ दरोगा ने घिसी हुई डेनिम रंग के जीन्स पहनी हुई थीं।
“कितना भाव होगा इसका मार्किट में?” – दरोगा ने मोबाइल को उलट-पलट कर देखा।
“जितना भी होगा, ब्लैक मार्किट में उतना तो न होगा जितना वाइट मार्किट में मिलता है।” – पटवारी ने दरोगा के चेहरे पर खुशी के भाव पढ़ते हुए बोला।
“अब्दुल भाई तो उसमें भी हमें बहुत कम भाव देते हैं।”
“कम देते हैं, लेकिन जब से उनसे डील करना शुरू किया है तब से तो अपन लोगों को पुलिस का मुंह नहीं देखना पड़ा है।”
“हाँ, उनका काम परफेक्ट होता है।”
“चलें अब्दुल भाई के पास।”
दरोगा ने पहले मोबाइल को देखा, फिर पटवारी को देखा फिर सामने लगे बोर्ड को और फिर अपने पेट पर हाथ फेरा।
“यार, भूख लगी है” – दरोगा बोला -“चल न पहले कुछ खाते हैं?”
पटवारी ने मुंह बिसूरकर उसे देखा – “मैं खा के आया कंचन के साथ। तू खा कर आ।”
“चलेगा तो सही मेरे साथ।” – दरोगा ने आग्रहपूर्ण दृष्टि से उसे देखा।
“चल।” – इतना कहकर पटवारी ने पल्सर का स्टैंड लगाया और बाइक से उतरकर दरोगा के साथ रोड क्रॉस करने लगा।
अभी भी दरोगा के हाथ में फ़ोन था। फ़ोन को हाथ में घुमाते-घुमाते उसने उसे ऑन कर दिया और अपनी उंगलियां उस पर घुमाने लगा। पटवारी मस्त चाल से बिना किसी टेंशन के उस सामाजिक संस्था के बेसमेंट रूपी कैंटीन में घुस गया। दरोगा भी मोबाइल में घुसा-घुसा अंदर घुसा।
दरोगा और पटवारी एक टेबल के इर्द गिर्द बैठ गए। दोनों के सामने एक प्लेट लगी, इससे पहले की पटवारी उन्हें प्लेट लगा कर भोजन सर्व करने से मना करता उनका थाल सज गया था। पटवारी के पर्सनल मोबाइल पर एक घंटी बजी जिसे देखकर वह बोला -“तेरी भाभी का फ़ोन आ रहा है।”
वह इतना बोलते ही अपना मोबाइल उठा कर उस कैंटीन से बाहर निकल गया। वहीं दरोगा ने भोजन के साथ साथ मोबाइल में अपना ध्यान लगाएं रखा। मोबाइल की चोरी में इस बात का ध्यान रखा जाना जरूरी होता है कि जब तक मोबाइल टेक्नीशियन के पास न पहुंचे वह स्विच ऑफ रहना चाहिए लेकिन दरोगा इतना शांत रहने वाला बंदा नहीं था। 5 मिनट, 10 मिनट, 15 मिनट बीते लेकिन पटवारी वापिस अपनी सीट पर नहीं आया। दरोगा ने अपना भोजन समाप्त किया लेकिन पटवारी की थाली यूँ ही पड़ी हुई थी।
दरोगा ने 10 रुपये काउंटर पर चुकाए और बाहर निकला लेकिन बाहर एक चुप्प सन्नाटा था।
उसने अपने हाथ में मौजूद मोबाइल को स्विच ऑफ किया और रोड क्रॉस करके वहां खड़ा हो गया जहां पटवारी ने बाइक खड़ी की थी। पटवारी की बाइक अभी भी वहीं खड़ी थी। तभी उसे उस समाज कल्याणार्थ कैंटीन के सामने 2 काली इंनोवा ब्रेको की चरमराहट के साथ आ खड़ी हुई दिखाई दी। दोनो ही कारों से करीब 10-15 लोग बाहर निकले और अंदर की तरफ बढ़े। न जाने किस सूचना के तहत दरोगा ने वहां से निकल जाना ही खुद के लिए बेहतर समझा।
वह वहां से निकल कर सराय रोहिल्ला स्टेशन की ओर बढ़ा। 5 मिनट बाद ही उसे भीड़ दिखाई दी। उत्सुकतावश वह भी उस भीड़ का हिस्सा बन गया। पता चला कि किसी नौजवान लड़के की गोली मारकर हत्या कर दी गयी है और पुलिस कभी भी वहां पहुंचने वाली थी। वह रेलवे कॉलोनी के ऐसा हिस्सा था जहां स्टाफ क्वार्टर के नाम पर रेलवे के स्टाफ नहीं वरन उनके किरायेदार रहते थे। भीड़ में घुसते ही दरोगा को वहां कि फ़िज़ा भारी नज़र आने लगी। उसने किसी तरह से जब उस लाश का चेहरा देखा तो वह अपने पेट पर काबू नहीं कर पाया और भीड़ से निकलते हुए, मुंह को अपने हाथों से दबाए वह बाहर निकला और पेट को दबा कर फुटपाथ पर बैठकर उल्टियां करने लगा। उसका चेहरा कुछ यूं हो गया था जैसे उसने भूत देख लिया हो।
#द_एक्सीडेंटल_कॉन्सपिरेटर
#1
#swccf
©राजीव_रोशन

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Shobhit Gupta

बहुत शानदार शुरुआत