खूनी औरत का सात खून – पंद्रहवाँ परिच्छेद
खून की रात !
“समागते भये धीरो धैर्येणैवात्मना नरः।
आत्मानं सततं रक्षेदुपायैर्बुद्धिकल्पितैः॥”
(व्यासः)
वे सब तो उधर गए और इधर मैं उस कोठरी की देख-भाल करने लगी। मैंने क्या देखा कि, “उस बड़ी सी छप्परदार कोठरी में आठ खाट बराबर-बराबर बिछ रही हैं, डोरी की ‘अरगनी’ पर कपड़े-लत्ते टंग रहे हैं, कोठरी के बीचोबीच आग जल रही है, एक कोने में बहुत से बड़े-बड़े लट्ठ सरिआए हुए हैं, दूसरे कोने में भरी हुई एक तोड़ेदार बंदूक रक्खी हुई है, तीसरे कोने में आठ गँड़ासे धरे हुए हैं और चौथे कोने में चार तलवारें खड़ी की हुई हैं !!! यह ठाठ देख कर मैंने एक तलवार स्थान से खींच ली और वह भरी हुई बन्दूक भी उठा ली।
फिर उस कोठरी की उस जंगलेदार खिड़की के पास आ कर मैं खड़ी हो गई और उन चौकीदारों का आसरा देखने लगी, जो अब्दुल्ला की कोठरी की ओर गए थे। मैंने उस तलवार और बन्दूक को अपने अगल-बगल दीवार के सहारे खड़ी कर लिया था।
बस, इतने ही में वे सब के सब शोर-गुल मचाते हुए मेरी कोठरी के आगे आकर ठहर गए और सभी पारी-पारी से चिल्ला-चिल्ला और उस कोठरी के किवाड़ में धक्के दे-दे कर यों कहने लगे,-“ओ खूनी औरत! तू जल्द कुण्डी खोल और बेड़ी-हथकड़ी पहिर कर उसी कोठरी में चल, जिसमें दिन को बन्द थी।”
उन सभों का ऐसा हो-हल्ला सुनकर मैने भी फिर खूब जोर से चिल्लाकर यों कहा,-“बस, खबरदार! तुम लोग जादे शोर-गुल न मचाओ और चुपचाप इस कोठरी के बाहर ही रहकर मेरी चौकसी करो। सुनो, मैं न तो खूनी औरत हूँ और न कोई खून ही मैंने किया है। देखो, जो मुझे भागना ही होता तो मैं आप ही आप यहाँ क्यों आती? फिर अब्दुल्ला और हींगन के मरते ही मैं अपना रास्ता लेती, तुम सभों के पास क्यों आती? इसलिए भाइयों, मैं यहाँ से कहीं भागकर इस खून के अपराध को अपने ऊपर नहीं लिया चाहती। तुमलोग बेफिक्र रहो, क्योंकि मैं कहीं भागने वाली नहीं हूँ। हाँ, यह तुम कर सकते कि बाहर से ही मेरा पहरा दो और अपनी नौकरी बजाओ। सुनो, अब रातभर इस कोठरी की कुण्डी मैं कभी न खोलूँगी। हाँ, सवेरा होने पर जैसा मुनासिब समझूँगी, वैसा करूँगी।
बस, इस तरह मैंने उन सभों को बहुत कुछ समझाया, पर ये न माने और बार-बार किवाड़ में धक्का देने और सांकल खोल देने के लिए कहने लगे।
आखिर, जब वे सब बहुत ही उपद्रव मचाने लगे, तब मैंने उस भरी हुई बन्दूक को उठा और उसकी नली खिड़की के जंगले के बाहर करके यों कहा,–“बस, बहुत हुआ। अब या तो तुम सब इस दरवाजे के पास से हट जाओ, या मरो। देखो, इस भरी हुई बन्दूक की ओर जरा देखो और इस बात को सही जानो कि अब जो कोई इस कोठरी के दरवाजे के पास आवेगा, उस पर जरूर मैं बन्दूक दाग दूँगी। इसमें पीछे चाहे जो हो, पर इस समय तो मैं अवश्य ही गोली मार दूँगी।”
मेरा ऐसा रंग-ढंग देखकर वे छओं चौकीदार उस कोठरी के दरवाजे से हटकर उस जंगलेदार खिड़की के सामने, पर जरा दूर आकर खड़े हो गए और रामदयाल मिश्र ने उन सभों के आगे आकर मुझसे यों कहा,–“क्यों, दुलारी, तुम क्या इस समय अपने होशोहवास में मुतलक नहीं हो?”
मैं बोली,–“क्यों? ऐसा प्रश्न आप क्यों करते हैं? बताइए, मैंने बदहोशी की कौन सी बात की?”
वे बोले,–“और क्या करोगी? इस समय के तुम्हारे रंग-ढंग को देखकर तो हमलोगों के देवता कूच कर गए हैं! अरे, पाँच खून तो तुम्हारे मकान पर हुए और दो यहाँ! अब तुम्हीं बताओ कि यह सब देख सुनकर हमलोग क्या समझें?”
मैंने पूछा,–“इसमें समझने की कौन सी बात है?”
वे बोले,–“यही कि जैसी लीला मैं देख रहा हूँ, उससे तो यही जी में आता है कि घर पर भी वे पाँच खून तुम्हीं ने किए और यहाँ पर भी ये दो हत्याएँ सिवा तुम्हारे और किसी ने नहीं की!”
मैं बोली,–“यह आपको अधिकार है कि आपके जो जी में आवे, सो आप समझें; पर सुनिए तो सही,–मैं तो भागी नहीं हूँ, यहीं मौजूद हूँ; इसलिए आपलोग बाहर से ही मेरा पहरा दीजिए और ऐसा उपाय कीजिए कि जिसमें पच्छी की तरह उड़कर मैं कहीं भाग न जाऊँ।”
वे बोले,–“इसीलिए तो चाहता हूँ कि अब तुम होश में आकर सीधी तरह इस कोठरी का दरवाजा खोलो।”
मैं बोली,–“क्यों?”
वे बोले,–“यों कि अब इस समय हमलोग तुम्हें उसी कोठरी में बंद करना चाहते हैं, जिसमें कि तुम दिन के समय बंद थी।”
मैं बोली,–“और जो मैं इसी कोठरी में रातभर बंद रक्खी जाऊँ, तो क्या हर्ज है?”
वे बोले,–“देखो, और इस बात पर तुम आप ही खूब गौर करो कि यह कोठरी हमलोगों के रहने की है। इसमें हमारे खाट-बिछौने, कपड़े-लत्ते और खाने-पीने के सारे सामान धरे हुए हैं। अब तुम्हीं सोचो कि इस हाड़तोड़ जाड़े में बिना ओढ़ने के हमलोग ओस में कैसे रह सकेंगे?”
मैं बोली,–“यह तो आप ठीक कह रहे हैं, और अवश्य इस जाड़े-पाले में खुले मैदान में रहने से आपलोगों को बड़ा कष्ट होगा। पर क्या करूँ, मैं लाचार हूँ। क्योंकि दरोगा और हींगन की करतूत देखकर अब मुझे किसी पर जरा भी भरोसा नहीं होता। इसलिए अब, तबतक मैं इस कोठरी का दरवाजा कभी न खोलूँगी, जब तक कि कोई अंग्रेज अफसर यहाँ पर न आ जाएगा।”
मेरी बात सुनकर दियानत हुसैन और रामदयाल मिश्र ने पारी-पारी से यों कहा कि,–“नहीं दुलारी, तुम कोई अंदेशा न करो और हमलोगों पर भरोसा रक्खो, क्योंकि हमलोग पराई औरतों को माँ, बहिन और बेटी के बराबर समझते हैं।”
यह सुनकर बाकी के चारों चौकीदारों ने भी ऐसा ही कहा, पर उन सभों की बातों पर विश्वास न करके यों कहा,–“आपलोगों ने जो कुछ कहा, वह ठीक है; पर यह कहावत भी आपलोगों ने जरूर ही सुनी होगी कि ‘गरम दूध से जिसकी जीभ जल जाती है, वह मनुष्य ठंढे मट्ठे को भी फूँक-फूँक कर पीता है।‘ इसलिए मुझ निगोड़ी के कारण आपलोग एक रात का कष्ट भोग लें और इस दरवाजे को खुलवाने के लिए जादे हठ न करें। आप यह निश्चय जानें कि अब यह दरवाजा तभी खुलेगा, जब कोई अंग्रेज अफसर यहाँ आवेगा। देखिए, सामने उस पेड़ के नीचे दो तख्त पड़े हुए हैं, उन पर आपलोग आज की रात आराम कीजिए और लकड़ियों को जला कर जाड़े का कष्ट दूर करिए। हाँ, इतना आप कर सकते हैं कि इस दरवाजे की सांकल बाहर से बंद करके उसमें ताला लगा दें।”
मेरा ऐसा हठ देखकर वे सब फिर आप ही आप भुनभुना कर चुप हो गए और एक चौकीदार ने बाहर से ताला लगा कर अपने साथियों से यों कहा,–“ऐसी जबरदस्त औरत तो देखने ही में नहीं आई!!!”
इस पर दूसरे ने यों कहा,–“तब तो इस अकेली ने सात-सात मरदों के खून कर डाले!!!”
इन सब बातों पर मैंने कान न दिया और अपनी बन्दूक को भीतर खैंच कर बगल में खड़ी कर दिया। फिर एक मूढ़ा में खैंच लाई और उसी पर खिड़की के सामने बैठ गई।”
बाद इसके, मैने क्या देखा कि, वे सब चौकीदार उसी सामने वाले पेड़ के नीचे पड़े हुए तख्त पर बैठ कर आपस में इस बात की सलाह करने लगे कि, ‘अब क्या करना चाहिए!’ योंही देर तक आपस में खूब ‘घोलमट्ठा’ करके उन सबों ने यह निश्चय किया कि, ‘रामदयाल मिश्र तो एक चौकीदार के साथ इस वारदात की रिपोर्ट करने कानपुर जायें, और बाकी के चारों आदमी मेरी चौकसी करें।’
जब यह सलाह आपस में पक्की हो गयी, तब रामदयाल मिश्र मेरी खिड़की के पास आए और यों कहने लगे,–“दुलारी, तुम्हारे भाग्य में क्या लिखा है, इसे तो विधाता ही जाने; क्योंकि बात बड़ी बेढब हुई है! खैर, जो कुछ भी तुम्हारे करम में बदा होगा, वह होगा। अब यह सुनो कि मैं कानपुर जाता हूँ और जहाँ तक मुझसे हो सकेगा, वहाँ तक इस बात की मैं कोशिश करूँगा कि जिसमें कोई अंग्रेज अफसर यहाँ आवे। किन्तु यदि कोई अंग्रेज अफसर न भी आवेंगे तो कानपुर के कोतवाल साहब तो अवश्य ही आवेंगे। यदि कोतवाल साहब आ गए, तो भी तुम उनसे किसी वैसी बात की शंका न करना, क्योंकि वे बहुत ही सज्जन और दियानतदार मुसलमान हैं।”
यह सुनकर मैंने कहा,–“भाई साहब, आपका कहना ठीक है, पर जहाँ तक हो सके, आप किसी अंग्रेज अफसर के लाने की जरूर कोशिश करिएगा; क्योंकि यहाँ का रंग-ढंग देखकर हिंदुस्तानियों के ऊपर से मेरा विश्वास अब एकदम उठ गया है। यह बात आप भली-भांति समझ लें कि चाहे मैं बिना अन्न-जल के इस कोठरी में मर ही क्यों न जाऊँ, पर बिना किसी अंग्रेज अफसर के आए, मैं इस कोठरी का किवाड़ कभी भी न खोलूँगी। आप कानपुर जाते हैं, तो जाइए, पर अपने जोड़ीदारों से यह बात अच्छी तरह समझाते जाइए कि, ‘इस कोठरी के द्वार खुलवाने के लिए कोई हठ न करे।’ यदि आपके पीछे मुझे किसी ने छेड़ा, तो आप निश्चय जानिए कि या तो मैं अपने छेड़नेवाले पर बन्दूक चलाऊँगी, या आप ही अपने कलेजे में गोली मार लूँगी।”
मैंने ये बातें इतनी जोर से कही थी कि उन्हें वहाँ पर के सभी चौकीदारों ने सुना था, पर मेरी बात का किसी ने कोई जवाब नहीं दिया था। हाँ, रामदयाल ने उन सब चौकीदारों की ओर् देख कर यह जरूर कहा था कि,–“देखना भाइयों, इस ‘वीरनारी’ को तुमलोग जरा न छेड़ना।”
जब इस बात को उन सभों ने मान लिया, तब रामदयाल ने मियाँ दियानत हुसैन से यों कहा,–“दियानत हुसैन! तुम इस कैदी औरत की खूब चौकसी करना। मैं अब कादिरबख्श चौकीदार के साथ कानपुर जाता हूँ। यदि हो सका तो कल किसी अंग्रेज अफ़सर को भी जरूर साथ लेता आऊँगा।”
यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा,–“तुम वहाँ जाओ और यहाँ की फिक्र जरा भी न करो।”
बस, फिर बाहर सन्नाटा छा गया और दो चौकीदार कंधे पर गँडासा रखकर मेरी कोठरी के आगे टहलने लगे। उन दोनों में दियानत हुसैन भी थे।
बस, फिर तो मैं उसी खिड़की के आगे बैठी रही और पगली की तरह रह-रह कर बाहर की तरफ झाँकने लगी। उस समय सचमुच मैं अपने आपे में नहीं थी और यह नहीं जानती थी कि मैं क्या कर रही हूँ! बस, केवल यही धुन मेरे सिर पर सवार थी कि ‘अपने प्रान देकर भी अपने अमूल्य सतीत्व धर्म की रक्षा करनी चाहिए।’ बस, इसी ख्याल में रात भर मैं डूबी रही और इस बात का मुझे जरा भी ध्यान न रहा कि अब आगे क्या होगा!
मैं सारी रात अपने ध्यान में डूबी रही, क्योंकि फिर किसी चौकीदार ने मुझे नहीं टोका। सो, सारी रात मैं मूढ़े पर बैठी हुई जागती थी, या सोती थी, इस बात की तो अब मुझे तनिक भी सुध नहीं है, पर हाँ, इतना अवश्य स्मरण है कि जब सुबह की सफेदी आसमान पर फैल रही थी, तब उस जंगले के पास आकर दियानत हुसैन ने मुझे कई आवाजें दी थीं; और जब मैं उनके पुकारने से मूढ़े पर से उठ खड़ी हुई थी, तब उन्होंने यह कहा था कि,–“वाह री औरत! इस हाड़तोड़ जाड़े में भी तू बिना कुछ ओढ़े-पहिरे खिड़की के पास बैठी हुई है और ऐसी सनसनाती हुई हवा के झोंके का कुछ भी ख्याल नहीं करती!”
सचमुच, उस रात को मेरी अजीब हालत रही; अर्थात् मुझे कैदवाली कोठरी से निकालने के समय हींगन ने जो कुछ मुझसे कहा था, उससे मेरा सारा शरीर क्रोध के मारे लहक उठा था और ज्ञानलोप हो गया था! सो, जब दियानत हुसैन ने मुझे चैतन्य करके सरदी और हवा की बात कही, तब मैं अपने आपे में आई और मैंने क्या देखा कि मेरा ओढ़ना धरती में गिर गया है, सारा शरीर बरफ की तरह ठंढा हो गया है और माथा खूब जल रहा है और चक्कर कहा रहा है! इसके बाद मुझे यह ख्याल हुआ कि, “उस कोठरी में रात को कैसा भयंकर काण्ड हो गया है!’ इस ख्याल के होते ही मैं काँप उठी।
अस्तु, फिर भी मैं उसी खिड़की के आगे मूढ़े पर बैठी रही और तरह-तरह के सोच-विचारों में डूबती-उतराती रही। हाँ, अपने ओढ़ने को मैंने उस समय जरूर मैंने ओढ़ लिया था। यह हालत कब तक रही, यह तो मुझे अब याद नहीं है, पर जब रामदयाल ने जंगले के पास आकार मुझे कई आवाजें दीं, तब मैं फिर चैतन्य हुई।