1892 में प्रकाशित काबुलीवाला रविंद्रनाथ टैगोर की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है . 1957 में तपन सिन्हा ने इस कहानी को आधार बना कर इसी नाम से एक बांग्ला फिल्म का निर्देशन किया . बाद में बिमल राय ने हिंदी में काबुलीवाला का निर्माण किया , जिसे हेमेन गुप्ता ने निर्देशित किया. हिंदी फिल्म में रहमत का केन्द्रीय चरित्र प्रख्यात अभिनेता बलराज साहनी ने निभाया था. मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, “बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।” मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। “देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?” और फिर वह खेल में लग गई। […]
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बाजार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियां आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं। पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा-देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है। हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी, हम पाजेब पहनेंगे। बोलिए भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाजेब पहनेगी। मैंने कहा, कैसी पाजेब? बोली, वही जैसी रुकमन पहनती है, जैसी शीला पहनती है। मैंने कहा, अच्छा-अच्छा। बोली, मैं तो आज ही मंगा लूंगी। मैंने कहा, अच्छा भाई आज सही। उस वक्त तो खैर मुन्नी किसी काम में बहल गई। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ, तब […]
दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था… मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक-सी मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ।’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया। भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘‘वे यहाँ नहीं हैं?’’ ‘‘अभी आए नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’ ‘‘कब से गये हुए हैं?’’ ‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’ मैं ‘हूँ’ कहकर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर […]
मुल्के जन्नतनिशॉँ के इतिहास में वह अँधेरा वक्त था जब शाह किशवर की फतहों की बाढ़ बड़े जोर-शोर के साथ उस पर आयी। सारा देश तबाह हो गया। आजादी की इमारतें ढह गयीं और जानोमाल के लाले पड़ गए। शाह बामुराद खूब जी तोड़कर लड़ा, खूब बहादुरी का सबूत दिया और अपने खानदान के तीन लाख सूरमाओं को अपने देश पर चढ़ा दिया मगर विजेता की पत्थर काट देनेवाली तलवार के मुकाबले में उसकी यह मर्दाना जॉँबाजियॉँ बेअसर साबित हुईं। मुल्क पर शाह किशवरकुशा की हुकूमत का सिक्का जम गया और शाह बामुराद अकेला तनहा बेयारो मददगार अपना सब कुछ आजादी के नाम पर कुर्बान करके एक झोंपड़ें में जिन्दगी बसर करने लगा। यह झोंपड़ा पहाड़ी इलाके में था। आस-पास जंगली कौमें आबाद थीं और दूर-दूर तक पहाड़ों के सिलसिले नजर आते थे। इस सुनसान जगह में शाह बामुराद मुसीबत के दिन काटने लगा। दुनिया में अब उसका कोई दोस्त […]
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके […]
वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था। बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा। कल फिर दिखा। मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था। मैंने पूछा, ” कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रखी है? ” उसने जवाब दिया, ” बाहर गया था। ” दाढीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढी पर हाथ फेरने लगा। मैंने कहा, ” आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो? ” उसने कहा, ” वह काम बंद कर दिया। अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है। ये ‘ सूरजछाप ‘ टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं। ” मैंने कहा, ” तुम शायद संन्यास ले रहे हो । जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है । किससे दीक्षा ले आए? ” मेरी बात से उसे पीडा हुई । उसने कहा, […]
हिंदी में युद्ध कथाएँ काफी कम लिखी गई हैं, बावजूद इसके कि हिंदी कहानी की शुरुआत में ही गुलेरी जी ने ‘उसने कहा था’ जैसी सशक्त कहानी के माध्यम से युद्ध कथा का सूत्रपात् किया था. ऐसे में, जगदीशचन्द्र की ‘आधा पुल’ हिंदी में युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई एक महत्वपूर्ण रचना के रूप में सामने आती है. युद्ध और प्रेम के ताने – बाने से बुनी इस कथा के केन्द्र में है कैप्टन इलावत, जिसके चरित्र में शौर्य, प्रेम और खिलंदड़ेपन का मणि-कांचन संयोग है. अपने मित्रों, सैनिकों और अधिकारियों के परिवारों तक में लोकप्रिय कैप्टन इलावत के दो ही शौक हैं.. बढ़िया खाना और शर्त लगाना… उसकी शर्त भी एकदम फिक्स.. दो किलो बर्फ़ी… ऐसे खुशमिजाज और यारबाश इलावत का दिल आ जाता है ब्रिगेडियर की साली सेमी पर….. सेमी जिसकी शादी पहले ही किसी और से तय हो चुकी है. 1971 के युद्ध की घोषणा हो […]
स्त्री – मैं वास्तव में अभागिन हूँ, नहीं तो क्या मुझे नित्य ऐसे-ऐसे घृणित दृश्य देखने पड़ते ! शोक की बात यह है कि वे मुझे केवल देखने ही नहीं पड़ते, वरन् दुर्भाग्य ने उन्हें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना दिया है। मैं उस सुपात्र ब्राह्मण की कन्या हूँ, जिसकी व्यवस्था बड़े-बड़े गहन धार्मिक विषयों पर सर्वमान्य समझी जाती है। मुझे याद नहीं, घर पर कभी बिना स्नान और देवोपासना किये पानी की एक बूँद भी मुँह में डाली हो। मुझे एक बार कठिन ज्वर में स्नानादि के बिना दवा पीनी पड़ी थी; उसका मुझे महीनों खेद रहा। हमारे घर में धोबी कदम नहीं रखने पाता ! चमारिन दालान में भी नहीं बैठ सकती थी। किंतु यहाँ आ कर मैं मानो भ्रष्टलोक में पहुँच गयी हूँ। मेरे स्वामी बड़े दयालु, बड़े चरित्रवान और बड़े सुयोग्य पुरुष हैं ! उनके यह सद्गुण देख कर मेरे पिताजी उन पर मुग्ध हो गये […]
“बंदी!” ”क्या है? सोने दो।” ”मुक्त होना चाहते हो?” ”अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।” ”फिर अवसर न मिलेगा।” ”बडा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।” ”आंधी की संभावना है। यही एक अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।” ”तो क्या तुम भी बंदी हो?” ”हां, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी है।” ”शस्त्र मिलेगा?” ”मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?” ”हां।” समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का असंभावित आलिंगन। दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी ने कहा-”यह क्या? तुम स्त्री हो?” ”क्या स्त्री होना कोई पाप […]
वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था। ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही […]
आज कवि त्रिलोचन का जन्मदिन है. हिंदी प्रगतिशील काव्यधारा को स्थापित करने वाले कवियों में त्रिलोचन का नाम महत्वपूर्ण है . यूं ही कुछ मुस्काकर तुमनेपरिचय की वो गांठ लगा दी! था पथ पर मैं भूला भूला फूल उपेक्षित कोई फूला जाने कौन लहर ती उस दिन तुमने अपनी याद जगा दी। कभी कभी यूं हो जाता है गीत कहीं कोई गाता है गूंज किसी उर में उठती है तुमने वही धार उमगा दी। जड़ता है जीवन की पीड़ा निस्-तरंग पाषाणी क्रीड़ातुमने अन्जाने वह पीड़ा छवि के शर से दूर भगा दी।
प्रेमचंद की कहानी फ़ातिहा पहली बार 1929 ई में ‘पांच फूल’ कहानी संकलन में प्रकाशित हुई . सरकारी अनाथालय से निकलकर मैं सीधा फौज में भरती किया गया। मेरा शरीर हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ था। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा मेरे हाथ-पैर कहीं लम्बे और स्नायुयुक्त थे। मेरी लम्बाई पूरी छह फुट नौ इंच थी। पलटन में ‘देव‘ के नाम से विख्यात था। जब से मैं फौज में भरती हुआ, तब से मेरी किस्मत ने भी पलटा खाना शुरू किया और मेरे हाथ से कई ऐसे काम हुए, जिनसे प्रतिष्ठा के साथ-साथ मेरी आय भी बढ़ती गई। पलटन का हर एक जवान मुझे जानता था। मेजर सरदार हिम्मतसिंह की कृपा मेरे ऊपर बहुत थी; क्योंकि मैंने एक बार उनकी प्राण-रक्षा की थी। इसके अतिरिक्त न जाने क्यों उनको देख कर मेरे हृदय में भक्ति और श्रद्धा का संचार होता। मैं यही समझता कि यह मेरे पूज्य हैं और सरदार साहब का […]
आत्माराम उर्दू पत्रिका ‘ज़माना’ में 1920 में पहली बार प्रकाशित हुई . 1921 में ‘प्रेम पचीसी’ में इसका हिंदी रूप प्रकाशित हुआ. वेदी-ग्राम में महादेव सोनार एक सुविख्यात आदमी था। वह अपने सायबान में प्रातः से संध्या तक अँगीठी के सामने बैठा हुआ खटखट किया करता था। यह लगातार ध्वनि सुनने के लोग इतने अभ्यस्त हो गये थे कि जब किसी कारण से वह बंद हो जाती, तो जान पड़ता था, कोई चीज़ गायब हो गयी। वह नित्य-प्रति एक बार प्रातःकाल अपने तोते का पिंजड़ा लिए कोई भजन गाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धुँधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर देख कर किसी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्यों ही लोगों के कानों में आवाज़ आती-‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’, लोग समझ जाते कि भोर हो गयी। महादेव का पारिवारिक जीवन सुखमय न था। उसके तीन पुत्र […]
‘नमक का दारोगा’ प्रेमचंद की चर्चित कहानियों में से एक है . सर्वप्रथम यह कहानी अक्टूबर 1913 के ‘हमदर्द’ में उर्दू में प्रकाशित हुई थी . हिंदी में पहली बार यह 1917 में प्रेमचंद के कहानी संकलन ‘सप्त सरोज’ में प्रकाशित हुई .सच्चाई और ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्यों को स्थापित करती यह कहानी मन पर गहरा प्रभाव डालती है . प्रसिद्ध गीतकार ,कवि और फिल्म निर्देशक गुलज़ार ने इस कहानी पर एक टेलीफिल्म भी बनाई थी . जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था जब अंगरेजी […]
कुकुरमुत्ता निराला की श्रेष्ठ और सर्वाधिक विवादित रचनाओं में से एक है। प्रकाशन के तुरन्त बाद बाद से ही कुकुरमुत्ता को लेकर आलोचकों में मतभेद सामने आने लगे। कुकुरमुत्ता एक व्यग्यं रचना है। इस बात पर तो मतैक्य था परन्तु विवाद इस बात पर था कि यह व्यंग्य किस पर है। शुरूआती दौर में आमतौर पर यह माना गया कि कविता में गुलाब शोषक बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में सामने आता है और कुकुरमुत्ता सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। इन प्रतीकों को ग्रहण करके आलोचकों ने यह घोषणा की कि वहाँ व्यंग्य गुलाब …….शोषक वर्ग पर है वस्तुतः अगर व्यंग्य को गुलाब पर माने तो यह व्यंग्य ही नहीं रह जायेगा क्योंकि कविता के प्रथम खण्ड में प्रत्यक्षतः कुकुरमुत्ते के द्वारा गुलाबको हेय और स्वयं को श्रेष्ठ ठहराया गया है। इस अर्थ में यह कविता व्यंग्य की बजाय अभिधात की कविता बन जायेगी। व्यंग्य को नहीं समझ पाने […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…