विजन-वन-वल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी–स्नेह-स्वप्न-मग्न– अमल-कोमल-तनु तरुणी–जूही की कली, दृग बन्द किये, शिथिल–पत्रांक में, वासन्ती निशा थी; विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़ किसी दूर देश में था पवन जिसे कहते हैं मलयानिल। आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात, आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात, आयी याद कान्ता की कमनीय गात, फिर क्या? पवन उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पार कर पहुँचा जहाँ उसने की केलि कली खिली साथ। सोती थी, जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह? नायक ने चूमे कपोल, डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल। इस पर भी जागी नहीं, चूक-क्षमा माँगी नहीं, निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही– किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये, कौन कहे? निर्दय उस नायक ने निपट निठुराई की कि झोंकों की झड़ियों से सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली, मसल दिये गोरे कपोल गोल; चौंक पड़ी युवती– चकित चितवन निज चारों ओर फेर, हेर प्यारे को सेज-पास, नम्र मुख हँसी-खिली, […]
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आखिर को लैला की माँ ने मंजूर कर लिया, कहा – “अब लैला को मजनू के हाथ ही सौंप दूँगी!” सुननेवाले इस समाचार से खुश हो गए। लोगों ने लैला की माँ को बधाइयाँ दीं। मजनू बेचारा कितनी मुद्दत से लैला के पीछे तड़प रहा था। आशिकी के कारण इस दुनिया और उस दुनिया दोनों जगह बदनाम हो गया था। मिट्टी भारी हो गई थी और प्राणों में केवल आह भर ही बच रही थी। चलो, लैला की माँ का फैसला बड़ा अच्छा हुआ। आशिक-माशूक की जोड़ी मिल जाएगी। दोनों का भला होगा। और उधर लैला की माँ शादी का बजट बना रही थी – सत्तर गज कीम-खाब, एक सौ सत्तर गज तंजेब, सत्रह बोरे गेहूँ, बीस बोरे चावल; पन्द्रह कनस्तर घी… ! बजट तो बन गया, पास-पड़ोसवालों ने उसे पास भी कर दिया, लेकिन सौदा कैसे मिले? लैला की माँ ने बाजार में पहुँच कर देखा कि किराना वालों […]
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है) बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से कि धुल गयी हो स्लेट पर या लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने नील जल में या किसी की गौर झिलमिल देह जैसे हिल रही हो। और… जादू टूटता है इस उषा का अब सूर्योदय हो रहा है।
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें – नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं… तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ – नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं… वन डालियों के बीच से चौंकी अनपहचानी कभी झाँकती हैं वे आँखें, मेरे देश की आँखें, खेतों के पार मेड़ की लीक धारे क्षिति-रेखा को खोजती सूनी कभी ताकती हैं वे आँखें… उसने झुकी कमर सीधी की माथे से पसीना पोछा डलिया हाथ से छोड़ी और उड़ी धूल के बादल के बीच में से झलमलाते जाड़ों की अमावस में से मैले चाँद-चेहरे सुकचाते में टँकी थकी पलकें उठायीं – और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं मेरे देश की आँखें…
एक दिवस पून्यो तिथि आई । मानसरोदक चली नहाई ॥ पदमावति सब सखी बुलाई । जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥ कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली । कोइ सु केत, करना, रस बेली ॥ कोइ सु गुलाल सुदरसन राती । कोइ सो बकावरि-बकुचन भाँती ॥ कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती । कोइ जाही जूही सेवती ॥ कोई सोनजरद कोइ केसर । कोइ सिंगार-हार नागेसर ॥ कोइ कूजा सदबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस-बेली ॥ चलीं सबै मालति सँग फूलीं कवँल कुमोद । बेधि रहे गन गँधरब बास-परमदामोद ॥1॥ अर्थ: एक दिन पूर्णिमा की तिथि को पद्मावती मानसरोदक (मानसरोवर) में स्नान के लिए गई. उसने अपनी सभी सखियों को भी आमंत्रित किया और वे सारी विभिन्न फूलों की वाटिका के समान चली आईं. कोई सखी चंपा के फूल के समान है तो कोई कुंद की तरह. कोई केतकी, कोई करना तो कोई रसबेलि के समान है. कोई लाल गुलाल के […]
पिछला अध्याय पढ़ें बयान – 1 इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा – ‘आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं।’ तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया। सभी ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुँह की तरफ देखने लगे। महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं – ‘बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है। तुम कैसे कहते हो कि चंद्रकांता जीती है? यह कौन था जो यकायक महल में घुस आया?’ तेजसिंह ने कहा – ‘यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था मगर इतना पता लग गया कि चंद्रकांता और चपला को शिवदत्तसिंह के ऐयार चुरा ले गए हैं […]
दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में, तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में ! उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है, जहाँ पथिक जल की झांकी में एक बूँद के लिए विकल है। घर-घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व में आग लगी है, ‘जल ही जल’ जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है। सूख गया रस श्याम गगन का एक घुन विष जग का पीकर, ऊपर ही ऊपर जल जाते सृष्टि-ताप से पावस सीकर ! मनुज-वंश के अश्रु-योग से जिस दिन हुआ सिन्धु-जल खारा, गिरी ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पड़ा लख जल की धारा। पर विस्मित रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सुधी खोकर, कहती- ‘गिरी को फाड़ चली हूँ मैं भी बड़ी विपासित होकर’। यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बढ़ी धन्य उन कवि की, जिनके हित कविते […]
पिछला भाग यहाँ पढ़ें इक्कीसवां बयान दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे। गठरी तो दरबार के बीच में रख दी और झुक कर महाराज को सलाम किया। महाराज जयसिंह तेजसिंह को देख कर खुश हुए और बैठने के लिए इशारा किया। जब तेजसिंह बैठ गए तो महाराज ने पूछा – ‘क्यों जी, इतने दिन कहाँ रहे और क्या लाए हो? तुम्हारे लिए हम लोगों को बड़ी भारी परेशानी रही, दीवान जीतसिंह भी बहुत घबराए होंगे क्योंकि हमने वहाँ भी तलाश करवाया था।’ तेजसिंह ने अर्ज किया – ‘महाराज, ताबेदार दुश्मन के हाथ में फँस गया था, अब हुजूर के एकबाल से छूट आया है बल्कि आती दफा चुनारगढ़ के दो ऐयारों को जो वहाँ से, लेता आया है।’ […]
भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥ जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥ बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥ भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥ नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥ मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥ केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥ जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास । जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥ अर्थ: बालिका पद्मावती धीरे-धीरे यौवन के बोझ से झुकने लगी. विधि ने उसे सभी कलाओं में श्रेष्ठ बनाया. संपूर्ण जगत उसके यौवन की सुगंध से सुरभित हो उठा और उसके सौन्दर्य से आकर्षित होकर भँवरे आसपास मंडराने लगे. उसकी वेणी (जूड़ा) नागिन के समान है, जो मलय पर्वत रुपी उसकी पीठ पर […]
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी, हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी, अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या, पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी, यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे, है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे, किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित, है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा, आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में, देखते सब हैं इन्हें […]
शेखचिल्ली एक दिन अपने घर के सामने अहाते में बैठे भुने हुए चने खा रहे थे और साथ ही जल्दी-से-जल्दी अमीर बनने के सपने देख रहे थे. खुली आँखों से सपने देखते हुए कुछ चने खा रहे थे और कुछ नीचे गिरा रहे थे. संयोग से जमीन पर गिरे चने के दानों में एक दाना कच्चा था. कुछ ही दिनों में वहाँ चने का एक छोटा पौधा निकल आया. शेखचिल्ली अपनी इस अनजाने में की गयी खेती को देखकर खूब खुश हुए और जी जान से फसल की रखवाली में लग गए. उन्हें बड़ी चिंता थी कि उनके इकलौते चने के पौधे को कोई गाय-भैंस ना चर जाए, इसलिए अम्मी के सो जाने के बाद रात में भी फसल की निगरानी किया करते थे. एक रात जब वो हाथ में डंडा लिए चने के पौधे की रखवाली कर रहे थे, तभी तीन-चार लोग खामोशी से छिपते-छिपाते कहीं जाते दिखाई […]
पिछला भाग यहाँ पढ़ें ग्यारहवां बयान क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनारगढ़ पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर ले कर हाल पूछा। क्रूरसिंह ने कहा – ‘महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकांत में कहूँगा।’ दरबार बर्खास्त हुआ, शाम को तखलिए (एकांत) में महाराज ने क्रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि – ‘लश्कर का इंतजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। चंद्रकांता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, […]
चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥ भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥ सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥ प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥ पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥ जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥ जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥ सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप । दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥ अर्थ : चंपावती के सुंदर रूप वाले शरीर में पद्मावती ने अवतार लेना चाहा. इस प्रकार इस सुंदर कथा का जन्म हुआ. यह विधि का विधान है, अर्थात जैसा होना लिखा है, उसे मिटाया नहीं जा सकता. पद्मावती जैसे दीपक से प्रकाशित होने के कारण सिंहल द्वीप का नाम संपूर्ण जगत […]
बयान -1 शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं। वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बाँधे, बगल में बटुआ लटकाए, हाथ में एक कमंद लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने एक घोड़ा कसा-कसाया दुरुस्त पेड़ से बँधा हुआ है। कुँवर वीरेंद्रसिंह कह रहे हैं – ‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफा तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चंद्रकांता की चिट्ठी मेरे पास लाए और मेरी चिट्ठी […]
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। तान रसीली थी कानों में चंचल […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…