चंद्रकांता संतति-भाग-3 (बयान 11 से 14)
बयान 11
इसके बाद लाली ने दबी जुबान से किशोरी को कुछ समझाया और दो घंटे में फिर मिलने का वादा करके वहां से चली गयी।
हम ऊपर कई दफे लिख आये हैं कि उस बाग में जिसमें किशोरी रहती थी एक तरफ ऐसी इमारत है जिसके दरवाजे पर बराबर ताला बंद रहता है और नंगी तलवार का पहरा पड़ा करता है।
आधी रात का समय है। चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। तेज हवा चलने के कारण बड़े-बड़े पेड़ों के पत्ते लड़खड़ाकर सन्नाटे को तोड़ रहे हैं। इसी समय हाथ में कमंद लिए हुए लाली अपने को हर तरफ से बचाती और चारों तरफ गौर से देखती हुई उसी मकान के पिछवाड़े की तरफ जा रही है। जब दीवार के पास पहुंची कमंद लगाकर छत के ऊपर चढ़ गई। छत के ऊपर चारों तरफ तीन-तीन हाथ ऊंची दीवार थी। लाली ने बड़ी होशियारी से छत फोड़कर एक इतना बड़ा सूराख किया जिसमें आदमी बखूबी उतर जा सके और खुद कमंद के सहारे उसके अंदर उतर गई।
दो घंटे के बाद एक छोटी-सी संदूकड़ी लिए हुए लाली निकली और कमंद के सहारे छत के नीचे उतर एक तरफ को रवाना हुई। पूरब तरफ वाली बारहदरी में आई जहां से महल में जाने का रास्ता था, फाटक के अंदर घुसकर महल में पहुंची। यह महल बहुत बड़ा और आलीशान था। दो सौ लौंडियों और सखियों के साथ महारानी साहिबा इसी में रहा करती थीं। कई दालानों और दरवाजों को पार करती हुई लाली ने एक कोठरी के दरवाजे पर पहुंचकर धीरे से कुंडा खटखटाया।
एक बुढ़िया ने उठकर किवाड़ खोला और लाली को अंदर करके फिर बंद कर दिया। उस बुढ़िया की उम्र लगभग अस्सी वर्ष की होगी, नेकी और रहमदिली उसके चेहरे पर झलक रही थी। सिर्फ छोटी-सी कोठरी, थोड़ा-सा जरूरी सामान और मामूली चारपाई पर ध्यान देने से मालूम होता था कि बुढ़िया लाचारी से अपनी जिंदगी बिता रही है। लाली ने दोनों पैर छूकर प्रणाम किया ओैर उस बुढ़िया ने पीठ पर हाथ फेरकर बैठने के लिए कहा।
लाली – (संदूक आगे रखकर) यही है
बुढ़िया – क्या ले आईं हां ठीक है, बेशक यही है, अब आगे जो कुछ कीजियो बहुत सम्हलकर! ऐसा न हो कि आखिर समय में मुझे कलंक लगे।
लाली – जहां तक हो सकेगा बड़ी होशियारी से काम करूंगी, आप आशीर्वाद दीजिए कि मेरा उद्योग सफल हो।
बुढ़िया – ईश्वर तुझे इस नेकी का बदला दे, वहां कुछ डर तो नहीं मालूम हुआ?
लाली – दिल कड़ा करके इसे ले आई, नहीं तो मैंने जो कुछ देखा, जीते जी भूलने योग्य नहीं, अभी तो फिर एक दफे देखना नसीब होगा। ओफ! अभी तक कलेजा कांपता है।
बुढ़िया – (मुस्कराकर) बेशक वहां ताज्जुब के सामान इकट्ठे हैं मगर डरने की कोई बात नहीं, जा ईश्वर तेरी मदद करे।
लाली ने उस संदूकड़ी को उठा लिया और अपने खास घर में आकर संदूकड़ी को हिफाजत से रख पलंग पर जा लेट रही। सबेरे उठकर किशोरी के कमरे में गई।
किशोरी – मुझे रात भर तुम्हारा खयाल बना रहा और घड़ी-घड़ी उठकर बाहर जाती थी कि कहीं से गुल-शोर की आवाज तो नहीं आती।
लाली – ईश्वर की दया से मेरे काम में किसी तरह का विघ्न नहीं पड़ा।
किशोरी – आओ मेरे पास बैठो, अब तो तुम्हें उम्मीद हो गई होगी कि मेरी जान बच जायगी और यहां से जा सकूंगी।
लाली – बेशक अब मुझे पूरी उम्मीद हो गई।
किशोरी – संदूकड़ी मिली?
लाली – हां, यह सोचकर कि दिन को किसी तरह मौका न मिलेगा उसी समय मैं बूढ़ी दादी को भी दिखा आई, उन्होंने पहचानकर कहा कि बेशक यही संदूकड़ी है। उसी रंग की वहां कई संदूकड़ियां थीं मगर वह खास निशान जो बूढ़ी दादी ने बताया था देखकर मैं उसी एक को ले आई!
किशोरी – मैं भी उस संदूकड़ी को देखना चाहती हूं।
लाली – बेशक मैं तुम्हें अपने यहां ले चलकर वह संदूकड़ी दिखा सकती हूं मगर उसके देखने से तुम्हें किसी तरह का फायदा नहीं होगा। बल्कि तुम्हारे वहां चलने से कुंदन को खुटका हो जायगा और यह सोचेगी कि किशोरी लाली के यहां क्यों गई। उस संदूकड़ी में भी कोई ऐसी बात नहीं है जो देखने लायक हो, उसे मामूली एक छोटा-सा डिब्बा समझना चाहिए जिसमें कहीं ताली लगाने की जगह नहीं है और मजबूत भी इतनी है कि किसी तरह टूट नहीं सकती।
किशोरी – फिर वह क्योंकर खुल सकेगी और उसके अंदर से वह चाभी क्योंकर निकलेगी जिसकी हम लोगों को जरूरत है?
लाली – रेती से रेतकर उसमें सुराख किया जायगा।
किशोरी – देर लगेगी!
लाली – हां, दो दिन में यह काम होगा क्योंकि सिवाय रात के दिन को मौका नहीं मिल सकता।
किशोरी – मुझे तो एक घड़ी सौ-सौ वर्ष के समान बीतती है।
लाली – खैर जहां इतने दिन बीते वहां दो दिन और सही।
थोड़ी देर तक बातचीत होती रही। इसके बाद लाली उठकर अपने मकान में चली गई और मामूली कामों की फिक्र में लगी।
इसके तीसरे दिन आधी रात के समय लाली अपने मकान से बाहर निकली और किशोरी के मकान में आई। वे लौंडियां जो किशोरी के यहां पहरे पर मुकर्रर थीं गहरी नींद में पड़ी खुर्राटे ले रही थीं मगर किशोरी की आंखों में नींद का नाम-निशान नहीं, वह पलंग पर लेटी दरवाजे की तरफ देख रही थी। उसी समय हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिए लाली ने कमरे के अंदर पैर रखा जिसे देखते ही किशोरी उठ खड़ी हुई, बड़ी मुहब्बत के साथ हाथ पकड़ लाली को अपने पास बैठाया।
किशोरी – ओफ! ये दो दिन बड़ी कठिनता से बीते, दिन-रात डर लगा ही रहता था।
लाली – क्यों?
किशोरी – इसलिए कि कोई उस छत पर जाकर देख न ले कि किसी ने सेंध लगाई है।
लाली – ऊंह, कौन उस पर जाता है और कौन देखता है! लो अब देर करना मुनासिब नहीं।
किशोरी – मैं तैयार हूं, कुछ लेने की जरूरत तो नहीं है?
लाली – जरूरत की सब चीजें मेरे पास हैं, तुम बस चली चलो।
लाली और किशोरी वहां से रवाना हुईं और पेड़ों की आड़ में छिपती हुई उस मकान के पिछवाड़े पहुंचीं जिसकी छत में लाली ने सेंध लगाई थी। कमंद लगाकर दोनों ऊपर चढ़ीं, कमंद खींच लिया और उसी कमंद के सहारे सेंध की राह दोनों मकान के अंदर उतर गईं। वहां की अजीब बातों को देख किशोरी की अजब हालत हो गई मगर तुरंत ही उसका ध्यान दूसरी तरफ जा पड़ा। किशोरी और लाली जैसे ही उस मकान के अंदर उतरीं वैसे ही बाहर से किसी के ललकारने की आवाज आई, साथ ही फुर्ती से कई कमंद लगा दस-पंद्रह आदमी छत पर चढ़ आये और “धरो-धरो, जाने न पावे, जाने न पावे!” की आवाज लगी।
बयान 12
कुंअर इंद्रजीतसिंह तालाब के किनारे खड़े उस विचित्र इमारत और हसीन औरत की तरफ देख रहे हैं। उनका इरादा हुआ कि तैरकर उस मकान में चले जायं जो इस तालाब के बीचोंबीच में बना हुआ है, मगर उस नौजवान औरत ने इन्हें हाथ के इशारे से मना किया बल्कि वहां से भाग जाने के लिए कहा, उसका इशारा समझ ये रुके मगर जी न माना, फिर तालाब में उतरे।
उस नाजनीन को विश्वास हो गया कि कुमार बिना यहां आये न मानेंगे, तब उसने इशारे से ठहरने के लिए कहा और यह भी कहा कि किश्ती लेकर मैं आती हूं। उस औरत ने किश्ती खोली और उस पर सवार हो अजीब तरह से घुमाती-फिराती तालाब के पिछले कोने की तरफ ले गई और कुमार को भी उसी तरफ आने का इशारा किया। कुमार उस तरफ गये और खुशी-खुशी उस औरत के साथ किश्ती पर सवार हुए। वह किश्ती को उसी तरह घुमाती-फिराती मकान के पास ले गई। दोनों आदमी उतरकर अंदर गये।
उस छोटे से मकान की सजावट कुमार ने बहुत पसंद की। वहां सभी चीजें जरूरत की मौजूद थीं। बीच का बड़ा कमरा अच्छी तरह से सजा हुआ था, बेशकीमती शीशे लगे हुए थे, काश्मीरी गलीचे जिसमें तरह-तरह के फूल-बूटे बने हुए थे, छोटी-छोटी मगर ऊंची संगमर्मर की चौकियों पर सजावट के सामान और गुलदस्ते लगाये हुए थे, गाने-बजाने का सामान भी मौजूद था, दीवारों पर की तस्वीरों को बनाने में मुसव्वरों ने अच्छी कारीगरी खर्च की थी। उस कमरे के बगल में एक और छोटा-सा कमरा सजा हुआ था जिसमें सोने के लिए एक मसहरी बिछी हुई थी, उसके बगल में एक कोठरी नहाने की थी जिसकी जमीन सफेद और स्याह पत्थरों से बनी हुई थी। बीच में एक छोटा-सा हौज बना हुआ था, जिसमें एक तरफ से तालाब का जल आता था ओर दूसरी तरफ से निकल जाता था, इसके अलावे और भी तीन-चार कोठरियां जरूरी कामों के लिए मौजूद थीं, मगर उस मकान में सिवाय उस औरत के और कोई दूसरी औरत न थी, न कोई नौकर या मजदूरनी ही नजर आती थी।
उस मकान को देख और उसमें सिवाय उस नौजवान नाजनीन के और किसी को न पा कुमार को बड़ा ताज्जुब हुआ। वह मकान इस योग्य था कि बिना पांच-चार आदमियों के उसकी सफाई या वहां के सामान की दुरुस्ती हो नहीं सकती थी।
थके-मांदे और धूप खाये हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह को वह जगह बहुत ही भली मालूम हुई और उस हसीन औरत के अलौकिक रूप की छटा में ऐसे मोहित हुए कि पीछे की सुध बिल्कुल ही जाती रही। बड़े नाज और अंदाज से उस औरत ने कुमार को कमरे में ले जाकर गद्दी पर बैठाया और आप उनके सामने बैठ गई।
कुमार – तुमने जो कुछ एहसान मुझ पर किया है मैं किसी तरह उसका बदला नहीं चुका सकता।
औरत – ठीक है, मगर उम्मीद करती हूं कि आप कोई काम ऐसा भी न करेंगे जो मेरी बदनामी का सबब हो।
कुमार – नहीं-नहीं, मुझसे ऐसी उम्मीद न करना, लेकिन क्या सबब है जो तुमने ऐसा कहा?
औरत – इस मकान में जहां मैं अकेली रहती हूं आपका इस तरह आना और देर तक रहना बेशक मेरी बदनामी का सबब होगा।
कुमार – (कुछ सोचकर) तुम इतनी खूबसूरत क्यों हुईं अफसोस! तुम्हारी एक-एक अदा मुझे अपनी तरफ खींचती है। (कुछ अटककर) जो हो मुझे अब यहां से चला ही जाना चाहिए। अगर ऐसा ही था तो मुझे किश्ती पर चढ़ाकर यहां क्यों लाईं?
औरत – मैंने तो पहले ही आपको चले जाने का इशारा किया मगर जब आप जल में तैरकर यहां आने लगे तो लाचार मुझे ऐसा करना पड़ा। मैं जान-बूझकर उस आदमी को किसी तरह आफत में फंसा नहीं सकती हूं जिसकी जान खुद एक जालिम ऐयार के हाथ से बचाई हो। आप यह न समझें कि कोई आदमी इस तालाब में तैरकर यहां तक आ सकता है, क्योंकि इस तालाब में चारों तरफ जाल फेंके हुए हैं, अगर कोई आदमी यहां तैरकर आने का इरादा करेगा तो बेशक जाल में फंसकर अपनी जान बर्बाद करेगा। यही सबब था कि मुझे आपके लिए किश्ती ले जानी पड़ी।
कुमार – बेशक, तब इसके लिए भी मैं धन्यवाद दूंगा। माफ करना मैं यह नहीं जानता था कि मेरे यहां आने से तुम्हारा नुकसान होगा, अब मैं जाता हूं मगर कृपा करके अपना नाम तो बता दो जिससे मुझे याद रहे कि फलानी औरत ने बड़े वक्त पर मेरी मदद की थी।
औरत – (हंसकर) मैं अपना नाम नहीं किया चाहती और न इस धूप में आपको यहां से जाने के लिए कहती हूं बल्कि मैं उम्मीद करती हूं कि आप मेरी मेहमानी कबूल करेंगे।
कुमार – वाह-वाह! कभी तो आप मुझे मेहमान बनाती हैं और कभी यहां से निकल जाने के लिए हुक्म लगाती हैं, आप लोग जो चाहे करें।
औरत – (हंसकर) खैर ये सब बातें पीछे होती रहेंगी, अब आप यहां से उठें और कुछ भोजन करें क्योंकि मैं जानती हूं कि आपने अभी तक कुछ भोजन नहीं किया।
कुमार – अभी तो स्नान-संध्या भी नहीं किया। लेकिन मुझे ताज्जुब है कि यहां तुम्हारे पास कोई लौंडी दिखाई नहीं देती।
औरत – आप इसके लिए चिंता न करें, आपकी लौंडी मैं मौजूद हूं। आप जरा बैठें, मैं सब सामान ठीक करके अभी आती हूं।
इतना कह बिना कुमार की मर्जी पाये वह औरत वहां से उठी और बगल के एक कमरे में चली गई। उसके जाने के बाद कुमार कमरे में टहलने और एक-एक चीज को गौर से देखने लगे। यकायक एक गुलदस्ते के नीचे दबे हुए कागज के टुकड़े पर उनकी नजर पड़ी। मुनासिब न था कि उस पुर्जे को उठाकर पढ़ते मगर लाचार थे, उस पुर्जे के कई अक्षर जो गुलदस्ते के नीचे दबने से रह गये थे साफ दिखाई पड़ते थे और उन्हीं अक्षरों ने कुमार को पुर्जा निकालकर पढ़ने के लिए मजबूर किया। वे अक्षर ये थे – “किशोरी”
लाचार कुमार ने उस पुर्जे को निकालकर पढ़ा, यह लिखा था –
“आपके कहे मुताबिक कुल कार्रवाई अच्छी तरह हो रही है। लाली और कुंदन में खूब घातें चल रही हैं। किशोरी ने भी पूरा धोखा खाया। किशोरी का आशिक भी यहां मौजूद है और उसे किशोरी से बहुत कुछ उम्मीद है। मैंने भी इनाम पाने लायक काम किया है। इस समय लाली कुछ अजब ही रंग लाया चाहती है, खैर दो-तीन दिन में खुलासा हाल लिखूंगी।
आपकी लौंडी – तारा।”
कुमार ने उस पुर्जे को झटपट पढ़कर उसी तरह रख दिया और गद्दी पर आकर बैठ गये। सोच और तरद्दुत ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। इस पुर्जे ने तो उनके दिल का भाव ही बदल दिया। इस समय उनकी सूरत देखकर उनका हाल कोई सच्चा दोस्त भी नहीं मालूम कर सकता था, हां कुछ देर सोचने के बाद इतना तो कुमार ने लंबी सांस के साथ खुलकर कहा, “खैर कहां जाती है कम्बख्त! मैं बिना कुछ काम किये टलने वाला नहीं।”
इतने ही में वह औरत भी आ गई और बोली, “उठिये, सब सामान दुरुस्त है।” कुमार उसके साथ नहाने वाली कोठरी में गए जिसमें हौज बना हुआ था।
धोती, गमछा और पूजा का सब सामान वहां मौजूद था, कुमार ने स्नान और संध्या किया। वह औरत एक चांदी की रिकाबी में कुछ मेवा और खोए की चीजें इनके सामने रखकर चली गई और दूसरी दफे पीने के लिए जल भी लाकर रख गई। उसी समय कुमार ने सुना कि बगल के कमरे में दो औरतें बातें कर रही हैं। उन्हें ताज्जुब हुआ कि ये दूसरी औरतें कहां से आईं! कुमार भोजन करके उठे, हाथ-मुंह धोकर कोठरी से बाहर निकलना चाहते थे कि सामने का दरवाजा खुला और दो औरतें नजर पड़ीं जिन्हें देखते ही कुमार चौंक पड़े और बोले – “हैं! ये दोनों यहां कहां से आ गईं!!”
बयान 13
आधी रात के समय सुनसान मैदान में दो कमसिन औरतें आपस में कुछ बातें करती चली जा रही हैं। राह में छोटे-छोटे टीले पड़ते हैं जिन्हें तकलीफ के साथ लांघने और दम फूलने पर कभी ठहरकर फिर चलने से मालूम होता है कि इन दोनों को इसी समय किसी खास जगह पर पहुंचने या किसी से मिलने की ज्यादे जरूरत है। हमारे पाठक इन दोनों औरतों को बखूबी पहचानते हैं इसलिए इनकी सूरत-शक्ल के बारे में कुछ लिखने की जरूरत नहीं, क्योंकि इन दोनों में से एक तो किन्नरी है और दूसरी कमला।
किन्नरी – कमला, देखो किस्मत का हेर-फेर इसे कहते हैं। एक हिसाब से गयाजी में हम लोग अपना काम पूरा कर चुके थे मगर अफसोस!
कमला – जहां तक हो सका तुमने किशोरी की मदद जी-जान से की, बेशक किशोरी जन्म-भर याद रखेगी और तुम्हें तो अपनी बहन मानेगी। खैर कोई चिंता नहीं, हम लोगों को हिम्मत न हारनी चाहिए और न किसी समय ईश्वर को भूलना चाहिए। मुझे घड़ी-घड़ी बेचारे आनंदसिंह की याद आती है। तुम पर उनकी सच्ची मुहब्बत है मगर तुम्हारा कुछ हाल न जानने से न मालूम उनके दिल में क्या-क्या बातें होंगी, हां अगर वे जानते कि जिसको उनका दिल प्यार करता है वह फलानी है तो बेशक वे खुश होते।
किन्नरी – (ऊंची सांस लेकर) जो ईश्वर की मर्जी!!
कमला – देखो वह उस पुराने मकान की दीवार दिखाई देने लगी।
किन्नरी – हां ठीक है, अब आ पहुंचे।
इतने ही में वे दोनों एक ऐसे टूटे-फूटे मकान के पास पहुंचीं जिसकी चौड़ी-चौड़ी दीवारें और बड़े-बड़े फाटक कहे देते थे कि किसी जमाने में यह इज्जत रखता होगा। चाहे इस समय यह इमारत कैसी ही खराब हालत में क्यों न हो तो भी इसमें छोटी-छोटी कोठरियों के अलावे कई बड़े दालान और कमरे अभी तक मौजूद हैं।
ये दोनों उस मकान के अंदर चली गईं। बीच में चूने-मिट्टी-ईंटों का ढेर लगा हुआ था जिसके बगल में घूमती हुई दोनों एक दालान में पहुंचीं। इस दालान में एक तरफ एक कोठरी थी जिसमें जाकर कमला ने मोमबत्ती जलाई और चारों तरफ देखने लगी। बगल में एक अलमारी दीवार के साथ जुड़ी हुई थी जिसमें पल्ला खींचने के लिए दो मुट्ठे लगे थे। कमला ने बत्ती किन्नरी के हाथ में देकर दोनों हाथों से दोनों मुट्ठों को तीन-चार दफे घुमाया, तुरंत पल्ला खुल गया और भीतर एक छोटी-सी कोठरी नजर आई। दोनों उस कोठरी के अंदर चली गईं और उन पल्लों को फिर बंद कर लिया। उन पल्लों में भीतर की तरफ भी उसी तरह खोलने और बंद करने के लिए दो मुट्ठे लगे हुए थे।
इस कोठरी में तहखाना था जिसमें उतर जाने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियां बनी हुई थीं। वे दोनों नीचे उतर गईं और वहां एक आदमी को बैठे देखा जिसके सामने मोमबत्ती जल रही थी और वह कुछ लिख रहा था।
इस आदमी की उम्र लगभग साठ वर्ष के होगी। सिर और मूंछों के बाल आधे से ज्यादे सफेद हो रहे थे, तो भी उसके बदन में किसी तरह की कमजोरी नहीं मालूम होती थी। उसके हाथ-पैर गठीले और मजबूत थे तथा चौड़ी छाती उसकी बहादुरी को जाहिर कर रही थी। चाहे उसका रंग सांवला क्यों न हो मगर चेहरा खूबसूरत और रोबीला था। बड़ी-बड़ी आंखों में जवानी की चमक मौजूद थी, चुस्त मिर्जई उसके बदन पर बहुत भली मालूम होती थी, सिर नंगा था मगर पास ही जमीन पर एक सफेद मुंड़ासा रखा हुआ था जिसके देखने से मालूम होता था कि गरमी मालूम होने पर उसने उतारकर रख दिया है। उसके बायें हाथ में पंखा था जिसके जरिये वह गरमी दूर कर रहा था मगर अभी तक पसीने की नमी बदन में मालूम होती थी।
एक तरफ ठीकरे में थोड़ी-सी आग थी जिसमें कोई खुशबहार चीज जल रही थी जिससे वह तहखाना अच्छी तरह सुगंधित हो रहा था। कमला और किन्नरी के पैर की आहट पा वह पहले ही से सीढ़ियों की तरफ ध्यान लगाये था, और इन दोनों को देखते ही उसने कहा, “तुम दोनों आ गईं’
कमला – जी हां।
आदमी – (किन्नरी की तरफ इशारा करके) इन्हीं का नाम कामिनी है
कमला – जी हां।
आदमी – कामिनी! आओ बेटी, तुम मेरे पास बैठो। मैं जिस तरह कमला को समझता हूं उसी तरह तुम्हें भी मानता हूं।
कामिनी – बेशक कमला की तरह मैं भी आपको अपना सगा चाचा मानती हूं।
आदमी – तुम किसी तरह की चिंता मत करो। जहां तक होगा मैं तुम्हारी मदद करूंगा। (कमला की तरफ देखकर ) तुझे कुछ रोहतासगढ़ की खबर भी मालूम है?
कमला – कल मैं वहां गई थी मगर अच्छी तरह मालूम न कर सकी। आपसे यहां मिलने का वादा किया था इसलिए जल्दी लौट आई।
आदमी – अभी पहर भर हुआ मैं खुद रोहतासगढ़ से चला आता हूं।
कमला – तो बेशक आपको बहुत कुछ हाल वहां का मिला होगा।
आदमी – मुझसे ज्यादे वहां का हाल कोई नहीं मालूम कर सकता। पच्चीस वर्ष तक ईमानदारी और नेकनामी के साथ वहां के राजा की नौकरी कर चुका हूं। चाहे आज दिग्विजयसिंह हमारे दुश्मन हो गये हैं। फिर भी मैं कोई काम ऐसा न करूंगा जिससे उस राज्य का नुकसान हो, हां तुम्हारे सबब से किशोरी की मदद जरूर करूंगा।
कमला – दिग्विजयसिंह नाहक ही आपसे रंज हो गये।
आदमी – नहीं, नहीं, उन्होंने अनर्थ नहीं किया। जब वे किशोरी को जबर्दस्ती अपने यहां रखा चाहते हैं और जानते हैं कि शेरसिंह ऐयार की भतीजी कमला किशोरी के यहां नौकर है और ऐयारी के फन में तेज है, वह किशोरी के छुड़ाने के लिए दाव-घात करेगी, तो उन्हें मुझसे परहेज करना बहुत मुनासिब था चाहे मैं कैसा ही खैरख्वाह और नेक क्यों न समझा जाऊं। उन्होंने कैद करने का इरादा बेजा नहीं किया। हाय! एक वह जमाना था कि रणधीरसिंह (किशोरी का नाना) और दिग्विजयसिंह में दोस्ती थी, मैं दिग्विजय के यहां नौकर था और मेरा छोटा भाई तुम्हारा बाप (ईश्वर उसे बैकुण्ठ दे) रणधीरसिंह के यहां रहता था। आज देखा कितना उलट-फेर हो गया है। मैं बेकसूर कैद होने के डर से भाग तो आया मगर लोग जरूर कहेंगे कि शेरसिंह ने धोखा दिया।
कमला – जब आप दिल से रोहतासगढ़ की बुराई नहीं करते तो लोगों के कहने से क्या होता है, वे लोग आपकी बुराई क्योंकर दिखा सकते हैं।
शेर – हां ठीक है खैर इन बातों को जाने दो, हां कुंदन बेचारी को लाली ने खूब ही छकाया, अगर मैं लाली का एक भेद न जानता होता और कुंदन को न कह देता तो लाली कुंदन को जरूर बर्बाद कर देती। कुंदन ने भी भूल की, अगर वह अपना सच्चा हाल लाली को कह देती तो बेशक दोनों में दोस्ती हो जाती।
कमला – कुछ कुंअर इंद्रजीतसिंह का भी हाल मालूम हुआ?
शेर – हां मालूम है, उन्हें उसी चुड़ैल ने फंसा रखा है जो अजायबघर में रहती है।
कमला – कौन-सा अजायबघर?
शेर – वही जो तालाब के बीच में बना है और जिसे जड़बुनियाद से खोदकर फेंक देने का मैंने इरादा किया है, यहां से थोड़ी ही दूर तो है।
कमला – जी हां मालूम हुआ, उसके बारे में बड़ी-बड़ी विचित्र बातें सुनने में आती हैं।
शेर – बेशक वहां की सभी बातें ताज्जुब से भरी हैं। अफसोस, न मालूम कितने खूबसूरत नौजवान बेचारे बेदर्दी के साथ मारे गये होंगे!
इतने ही में छत के ऊपर किसी के पैर की आहट मालूम हुई। तीनों का ध्यान सीढ़ियों पर गया।
कमला – कोई आता है।
शेर – हमें तो यहां किसी के आने की उम्मीद न थी, जरा होशियार हो जाओ।
कमला – मैं होशियार हूं, देखिए वह आया!
एक लंबे कद का आदमी सीढ़ी से नीचे उतरा और शेरसिंह के सामने आकर खड़ा हो गया। उसकी उम्र चाहे जो भी हो मगर बदन की कमजोरी, दुबलेपन और चेहरे की उदासी ने उसे पचास वर्षों से भी ज्यादे उम्र का बना रखा था। उसके खूबसूरत चेहरे पर उदासी और रंज के निशान पाये जाते थे, बड़ी-बड़ी आंखों में आंसुओं की तरी साफ मालूम होती थी, उसकी हसरत भरी निगाहें उसके दिल की हालत दिखा रही थीं कि रंज, गम, फिक्र, तरद्दुद और नाउम्मीदी ने उसके बदन में खून और मांस का नाम नहीं छोड़ा केवल हड्डी ही बच गई हैं। उसके कपड़े भी बहुत पुराने और फटे हुए थे।
इस आदमी की सूरत से भलमनसी और सूधापन झलकता था मगर शेरसिंह उसकी सूरत देखते ही कांप गया। खौफ और ताज्जुब ने उसका गला दबा दिया। वह एकदम ऐसा घबड़ा गया जैसे कोई खूनी जल्लाद की सूरत देखकर घबड़ा जाता है। शेरसिंह ने उसकी तरफ देखकर कहा, “अहा हा…आप…हैं! आइ…ए…!” मगर ये शब्द घबराहट के मारे बिल्कुल ही उखड़े-पुखड़े शेरसिंह के मुंह से निकले।
उस आदमी ने कमला की तरफ इशारा करते हुए कहा, “क्या यही लड़की?”
शेर – हां… आप… (कमला और कामिनी की तरफ देखकर) तुम दोनों जरा ऊपर चली जाओ, ये बड़े नेक आदमी हैं, मुझसे मिलने आये हैं, मैं इनसे कुछ बातें किया चाहता हूं।
कमला और कामिनी दोनों तहखाने से निकलकर ऊपर चली आईं। उस आदमी के आने और अपने चाचा को विचित्र अवस्था में देखने से कमला घबड़ा गई। उसके जी में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। ऐसे कमजोर, लाचार और गरीब आदमी को देखकर उसका ऐयारी के फन में बड़ा ही तेज और शेरदिल चाचा इस तरह क्यों घबड़ा गया और इतना क्यों डरा, वह इसी सोच में परेशान थी। बेचारी कामिनी भी हैरान और डरी हुई थी यहां तक कि घंटे भर बीत जाने पर भी उन दोनों में कोई बातचीत न हुई। घंटे भर बाद वह आदमी तहखाने से निकलकर ऊपर चला आया और कामिनी की तरफ देखकर बोला, “अब तुम लोग नीचे जाओ, मैं जाता हूं।” इतना कहता हुआ उसी तरह किवाड़ खोलकर चला गया जिस तरह कामिनी को साथ लिये हुए कमला इस मकान में आई थी।
कमला और कामिनी तहखाने के नीचे जा शेरसिंह के सामने बैठ गईं। शेरसिंह के चेहरे से अभी तक घबड़ाहट और परेशानी गई नहीं थी। बड़ी मुश्किल से थोड़ी देर में उसने होश-हवास दुरुस्त किये और कमला की तरफ देखकर कहा –
शेर – अच्छा अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?
कमला – जो हुक्म हो सो किया जाय। यह आदमी कौन था जिसे देख आप…?
शेर – था एक आदमी, उसका हाल जानने का उद्योग न करो और न उसका खयाल ही करो बल्कि उसे बिल्कुल भूल जाओ।
उस आदमी के बारे में कमला बहुत कुछ जानना चाहती थी मगर अपने चाचा के मुंह से साफ जवाब पाकर दम न मार सकी और दिल की दिल में रखने पर लाचार हुई।
शेर – कमला, तू रोहतासगढ़ जा और दो-तीन दिन में लौटकर वहां का जो कुछ हाल हो मुझसे कह। किशोरी से मिलकर उसे ढाढ़स दीजियो और कहियो कि घबड़ाये नहीं। उसी रास्ते से किले के अंदर बल्कि उस बाग में जिसमें किशोरी रहती है चली जाइयो जिस राह का हाल मैंने तुमसे कहा था, उस राह से आना-जाना कभी किसी को मालूम न होगा।
कमला – बहुत अच्छा, मगर कामिनी के लिए क्या हुक्म होता है
शेर – मैं इसे ले जाता हूं, अपने एक दोस्त के सुपुर्द कर दूंगा। वहां यह बड़े आराम से रहेगी। जब सब तरफ से फसाद मिट जायगा मैं इसे ले आऊंगा, तब यह भी अपनी मुराद को पहुंच जायगी।
कमला – जो मर्जी!
तीनों आदमी तहखाने के बाहर निकले और जैसा ऊपर लिखा जा चुका है उसी तरह कोठरियों और दालानों में से होते हुए इस मकान के बाहर निकल आये।
शेर – कमला, ले अब तू जा और कामिनी की तरफ से बेफिक्र रह। मुझसे मिलने के लिए यह ठिकाना मुनासिब है।
कमला – अच्छा मैं जाती हूं मगर यह तो कह दीजिये कि उस आदमी से मुझे कहां तक होशियार रहना चाहिए जो आपसे मिलने आया था
शेर – (कड़ी आवाज में) एक दफे तो कह दिया कि उसका ध्यान भुला दे, उससे होशियार रहने की जरूरत नहीं और न वह तुझे कभी दिखाई देगा।
बयान 14
रोहतासगढ़ किले के चारों तरफ घना जंगल है जिसमें साखू, शीशम, तेंदू, आसन और सलई इत्यादि के बड़े-बड़े पेड़ों की घनी छाया से एक तरह को अंधकार-सा हो रहा है। रात की तो बात ही दूसरी है वहां दिन को भी रास्ते या पगडंडी का पता लगाना मुश्किल था क्योंकि सूर्य की सुनहरी किरणों को पत्तों में से छनकर जमीन तक पहुंचने का बहुत कम मौका मिलता था। कहीं-कहीं छोटे-छोटे पेड़ों की बदौलत जंगल इतना घना हो रहा था कि उसमें भूले आदमियों को मुश्किल से छुटकारा मिलता था। ऐसे मौके पर उसमें हजारों आदमी इस तरह छिप सकते थे कि हजार सिर पटकने और खोजने पर भी उनका पता लगाना असंभव था। दिन को तो इस जंगल में अंधकार रहता ही था मगर हम रात का हाल लिखते हैं जिस समय उसकी अंधेरी और वहां के सन्नाटे का आलम भूले-भटके मुसाफिरों को मौत का समाचार देता था और वहां की जमीन के लिए अमावस्या और पूर्णिमा की रात एक समान थी।
किले के दाहिने तरफ वाले जंगल में आधी रात के समय हम तीन आदमियों को जो स्याह चौगे और नकाबों से अपने को छिपाये हुए थे घूमते देख रहे हैं। न मालूम ये किसकी खोज और किस जमीन की तलाश में हैरान हो रहे हैं! इनमें से एक कुंअर आनंदसिंह, दूसरे भैरोसिंह और तीसरे तारासिंह हैं। ये तीनों आदमी देर तक घूमने के बाद छोटी-सी चारदीवारी के पास पहुंचे जिसके चारों तरफ की दीवार पांच हाथ से ज्यादे ऊंची न थी और वहां के पेड़ भी कम घने और गुंजान थे, कहीं-कहीं चंद्रमा की रोशनी भी जमीन पर पड़ती थी।
आनंद – शायद यही चारदीवारी है!
भैरो – बेशक यही है, देखिए फाटक पर हड्डियों का ढेर लगा हुआ है।
तारा – खैर भीतर चलिए, देखा जायगा।
भैरो – जरा ठहरिये, पत्तों की खड़खड़ाहट से मालूम होता है कि कोई आदमी इसी तरफ आ रहा है!
आनंद – (कान लगाकर) हां ठीक तो है, हम लोगों को जरा छिपकर देखना चाहिए कि वह कौन है और इधर क्यों आता है।
उस आने वाले की तरफ ध्यान लगाये हुए तीनों आदमी पेड़ों की आड़ में छिप रहे और थोड़ी ही देर में सफेद कपड़े पहिरे एक औरत को आते हुए उन लोगों ने देखा। वह औरत पहले तो फाटक पर रुकी, तब कान लगाकर चारों तरफ की आहट लेने के बाद फाटक के अंदर घुस गई। भैरोसिंह ने आनंदसिंह से कहा, “आप दोनों इसी जगह ठहरिये, मैं उस औरत के पीछे जाकर देखता हूं कि वह कहां जाती है।” इस बात को दोनों ने मंजूर किया और भैरोसिंह छिपते हुए उस औरत के पीछे रवाना हुए।
ऐसे घने जंगल में भी उस चारदीवारी के अंदर पेड़, झाड़ी या जंगल का न होना ताज्जुब की बात थी। भैरोसिंह ने वहां की जमीन बहुत साफ-सुथरी पाई, हां छोटे जंगली बेर के दस-बीस पेड़ वहां जरूर थे जो किसी तरह का नुकसान न पहुंचा सकते थे और न उनकी आड़ में कोई आदमी छिप ही सकता था, मगर मरे हुए जानवरों और हड्डियों की बहुतायत से वह जगह बड़ी ही भयानक हो रही थी। उस चारदीवारी के अंदर बहुत-सी कब्रें बनी हुई थीं जिनमें कई कच्ची तथा कई ईंट-चूने और पत्थर की भी थीं और बीच में एक सबसे बड़ी कब्र संगमर्मर की बनी हुई थी।
भैरोसिंह ने फाटक के अंदर पैर रखते ही उस औरत को जिसके पीछे गए थे बीच वाली संगमर्मर की बड़ी कब्र पर खड़े और चारों तरफ देखते पाया, मगर थोड़ी देर में वह देखते-देखते कहीं गायब हो गई। भैरोसिंह ने उस कब्र के पास जाकर उसे ढूंढ़ा मगर पता नहीं लगा, दूसरी कब्रों के चारों तरफ और इधर-उधर भी खोजा मगर कोई निशान न मिला। लाचार वे आनंदसिंह और तारासिंह के पास लौट आये और बोले –
भैरो – वह औरत वहां ही चली गई जहां हम लोग जाया चाहते हैं।
आनंद – हां!
भैरो – जी हां।
आनंद – फिर अब क्या राय है
भैरो – उसे जाने दीजिये, चलिये हम लोग भी चलें। अगर वह रास्ते में मिल ही जायगी तो क्या हर्ज है एक औरत हम लोगों का कुछ नुकसान नहीं कर सकती।
ये तीनों आदमी उस चारदीवारी के अंदर गए और बीच वाली संगमर्मर की बड़ी कब्र पर पहुंचकर खड़े हो गए। भैरोसिंह ने उस कब्र की जमीन को अच्छी तरह टटोलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में एक खटके की आवाज आई और एक छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा जो शायद कमानी के जोर पर लगा हुआ था दरवाजे की तरह खुलकर अलग हो गया। ये तीनों आदमी उसके अंदर घुसे और उस पत्थर के टुकड़े को उसी तरह बंद कर आगे बढ़े। अब ये तीनों आदमी एक सुरंग में थे जो बहुत ही तंग और लंबी थी। भैरोसिंह ने अपने बटुए में से एक मोमबत्ती निकालकर जलाई और चारों तरफ अच्छी तरह निगाह करने के बाद आगे बढ़े। थोड़ी ही देर में यह सुरंग खत्म हो गई और ये तीनों एक भारी दालान में पहुंचे। इस दालान की छत बहुत ऊंची थी और इसमें कड़ियों के सहारे कई जंजीरें लटक रही थीं। इस दालान के दूसरी तरफ एक और दरवाजा था जिसमें से होकर ये तीनों एक कोठरी में पहुंचे। इस कोठरी के नीचे एक तहखाना था जिसमें उतरने के लिए संगमर्मर की सीढ़ियां बनी हुई थीं। ये तीनों नीचे उतर गये। अब एक बड़े भारी घंटे के बजने की आवाज इन तीनों के कान में पड़ी जिसे सुन ये कुछ देर के लिए रुक गये। मालूम हुआ कि इस तहखाने वाली कोठरी के बगल में कोई और मकान है जिसमें घंटा बज रहा है। इन तीनों को वहां और भी कई आदमियों के मौजूद होने का गुमान हुआ।
इस तहखाने में भी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए एक दरवाजा था जिसके पास पहुंचकर भैरोसिंह ने मोमबत्ती बुझा दी और धीरे से दरवाजा खोल उस तरफ झांका। एक बड़ी संगीन बारहदरी नजर पड़ी जिसके खंभे संगमर्मर के थे। इस बारहदरी में दो मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी से वहां की हर एक चीज साफ मालूम होती थी और इसी से वहां दस-पंद्रह आदमी भी दिखाई पड़े जिनमें रस्सियों से मुश्कें बंधी हुई तीन औरतें भी थीं। भैरोसिंह ने पहचाना कि इन तीनों औरतों में एक किशोरी है जिसके दोनों हाथ पीठ की तरफ कसकर बंधे हुए हैं और वह नीचे सिर किए रो रही है। उसके पास वाली दोनों औरतों की भी वही दशा थी मगर उन्हें भैरोसिंह, आनंदसिंह या तारासिंह नहीं पहचानते थे। उन तीनों के पीछे नंगी तलवार लिए तीन आदमी भी खड़े थे जिनकी सूरत और पोशाक से मालूम होता था कि वे जल्लाद हैं।
उस बारहदरी के बीचोंबीच चांदी के सिंहासान पर स्याह पत्थर की एक मूरत इतनी बड़ी बैठी हुई थी कि आदमी पास में खड़ा होकर भी उस बैठी हुई मूरत के सिर पर हाथ नहीं रख सकता था। उस मूरत की सूरत-शक्ल के बारे में इतना ही लिखना काफी है कि उसे आप कोई राक्षस समझें जिसकी तरफ आंख उठाकर देखने से डर मालूम होता था।
भैरोसिंह, तारासिंह और आनंदसिंह उसी जगह खड़े होकर देखने लगे कि उस दालान में क्या हो रहा है। अब घंटे की आवाज बड़े जोर से आ रही थी मगर यह नहीं मालूम होता था कि वह कहां बज रहा है।
उन तीनों औरतों को जिनमें किशोरी भी थी छः आदमियों ने अच्छी तरह मजबूती से पकड़ा और बारी-बारी से उस स्याह मूरत के पास ले गए जहां उसके पैरों पर जबर्दस्ती सिर रखवाकर पीछे हटे और फिर उसी के सामने खड़ा कर दिया।
इसके बाद दो आदमी एक औरत को लेकर आगे बढ़े जिसे हमारे तीनों आदमियों में से कोई भी नहीं पहचानता था, उस औरत के पीछे जो जल्लाद नंगी तलवार लिए खड़ा था वह भी आगे बढ़ा। दोनों आदमियों ने उस औरत को स्याह मूरत के ऊपर इस जोर से ढकेल दिया कि बेचारी बेतहाशा गिर पड़ी, साथ ही जल्लाद ने एक हाथ तलवार का ऐसा मारा कि सिर कटकर दूर जा पड़ा और धड़ तड़पने लगा। इस हाल को देख वे दोनों औरतें जिनमें बेचारी किशोरी भी थी, बड़े जोर से चिल्लाईं और बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ीं।
इस कैफियत को देखकर हमारे दोनों ऐयारों और कुंअर आनंदसिंह की अजब हालत हो गई। गुस्से के मारे थर-थर कांपने लगे। थोड़ी देर बाद उन लोगों ने किशोरी को उठाया और उस मूरत के पास ले चले। उसके साथ ही दूसरा जल्लाद भी आगे बढ़ा। अब ये तीनों किसी तरह बर्दाश्त न कर सके। कुंअर आनंदसिंह ने दोनों ऐयारों को ललकारा – “मारो इन जालिमों को! ये थोड़े से आदमी हैं क्या चीज!”
तीनों आदमी खंजर निकाल आगे बढ़ना ही चाहते थे कि पीछे से कई आदमियों ने आकर इन लोगों को भी पकड़ लिया और “यही हैं, यही हैं, पहले इन्हीं की बलि देनी चाहिए!” कहकर चिल्लाने लगे।