गांव जाने पर जो सबसे पहला चेहरा सामने आता है वो है हमारे “शिवबचन ठाकुर” का पौढ़ अवस्था की ओर अग्रसर शिबच्चन कांपते हाथ भी हमारे हर मांगलिक कार्यक्रम में इस ठसक से शामिल होते हैं कि क्या बताएं अम्मा कहीं लोकाचार भूल भी जाएं तो चट से अम्मा को टोकते हैं “ह नु! रवा हियां अइसे न अइसे होला”।बचपन से ठाकुर (पेशेगत जाति हज़्ज़ाम) के रूप में उन्हें ही जाना।
ग्रेजुएशन के दिन थे,दिल्ली प्रवास में रहते।घर (भोजपुर) और भाषा भोजपुरी के भावनात्मक लगाव में कुछ पढ़ने का मन किया।एकमात्र सहारा गूगल में सर्च किया तब जाकर पहला साक्षात्कार हुआ,दूसरे ठाकुर! जिन्हें कोई भोजपुरी का शेक्सपियर कहता है तो कोई भोजपुरी का तुलसीदास,कहीं भरतमुनि के विधा के कलाकार कहे गए तो खुद महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनगढ़ हीरा कहाये जाने वाले “भिखारी ठाकुर” से।
18 दिसम्बर 1887 को कुतुबपुर में माता शिवकली देवी और पिता दलसिंग ठाकुर के घर जन्मे भिखारी ठाकुर का जन्म और बचपन एक सामान्य हज़्ज़ाम जाति में हुआ, जिनका मुख्य पेशा जजमानी ही था।उनके एक गीत के माध्यम से ही उनका बचपन देखें-
“नौ बरस के जब हम भइनी, विद्या पढ़न पाट पर गइनी।
बरस एक तक जबदल मति,लिखे न आइल राम गति।
मन मे विद्या तनिक न भावत,कुछ दिन फिरली गाय चरावत।”
यानी नौंवे साल में विद्यारम्भ के बाद भी वो अगले एक साल में अक्षर ज्ञान भी न सिख पाये तो उन्होंने गाय चराने का टहलुआ काम पकड़ लिया।फिर कुछ दिनों बाद अपने जातिगत पेशे को अपना लिया,जैसे कि हज़्ज़ामत बनाना,चिट्ठी पत्री पहुंचना,नेवता पैठाना,शादी,व्याह धार्मिक अनुष्ठानों,जियनि मरनी में संस्कार कार्य करना इत्यादि।
हजमाई करते करते उन्हें फिर एक बार अक्षर ज्ञान की तलब लगी जिसे आकार दिया उन्ही के गांव के भगवान साह ने।इसी बीच शादी व्याह भी हुआ,हज़्ज़ामत वाले व्यवसाय को ही रोजी रोजगार बनाने के लिए वो तबके विदेश कहलाने वाले बंगाल चले गए।पहले कुछ समय के लिए खड़गपुर फिर मेदनीपुर।मेदनीपुर में ही उन्होंने रामलीला का मंचन दिखा जो उनकी आत्मा को छू गया।बंगाली समाज के गीत कविताई का असर ही उनके तुकबंदी दोहा छंद के रूप में आने लगा।
वापिस आने पर उन्होंने एक टोली बनाई और रामायण का मंचन किया,परंतु भोजपुरिया समाज के कृषि बहुल होने के कारण सालों भर रामायण का मंचन सम्भव नही था।श्रमिक समाज दिन भर की थकान के बाद थोड़ी मनोरंजन के साथ ही भक्ति और समाजिक बातें चाहता है और इसके साथ ही गठन हुआ 30 वर्ष की आयु में भिखारी ठाकुर के नाच मंडली का।
“तीस बरिस के उमर भइल,बेधलस खूब कालिकल के मइल।
नाच मंडली के धरि साथ,लेक्चर दिहिं जय कहि रघुनाथ।”
शायद ये उनके बंगाल प्रवास का ही असर था जो उनकी लेखनी में तरह तरह की कुरीतियों पर वार हुआ जैसे कि बहु चर्चित नाटक विदेशिया में,नायक का विदेश प्रवास,नायिका का विरह और पतुरिया प्रेम।ठीक वैसे ही घर घर की कलह को उजागिर करती “भाई-विरोध” जिसमे एक परिवार के भाइयों के बीच मे झगड़ा हो जाता है एक आग लगाने वाली महिला द्वारा।बेटी बियोग या बेटी बेचवा में तब के समाज में व्याप्त बेमेल ब्याह को दर्शाया गया।गबरघिचोर तो अपने समय से काफी आगे का मंचन। कहने का पर्याय है भिखारी ठाकुर ने मनोरंजन के खेल खेल में समाज की कुरीतियों पर गहरा घात किया जिसका असर समाज पर होना शुरू हुआ।
मुजफ्फरपुर के एक वैवाहिक समारोह से शुरू हुआ उनका सफर संगीत नाटक अकादमी अवार्ड को लेने राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा।जहां उन्होंने भोजपुरी साहित्य और संगीत को एक नया मुकाम दिया वहीं,भोजपुरिया समाज ने भी खूब सर माथे चढ़ाया।जिसको कतिपय लोगों ने अपने लालच के लिए भी खूब भुनाया जैसे कि 1963 में आई विदेशिया नामक फ़िल्म की लोकप्रियता।1971 में भिखारी ठाकुर की मौत से भोजपुरी के इस आयाम को बहुत गहरा आघात लगा।उनके पुत्रो ने उनकी विरासत को सम्हालने की पुरी कोशिश की,पर भिखारी ठाकुर तो सदियों में एक ही पैदा होता है।
आज भी लोग उनके नामों पर विभिन्न संस्थाएँ बना अपनी रोटी सेंकने से कोई गुरेज नही कर रहे।पर तुलसीदास जैसे ही भिखारी ठाकुर तो भोजपुरिया जनमानस में बसा है, जिसका क्षय जन्मों जन्म मुमकिन नही।इस महामानव की जयंती पर मेरा कोटिशः नमन पहुंचे,भोजपुरिया समाज के पुरोधा को।
नाम बहुत सुना था, आज कुछ जानकारी भी मिली। थोड़ी और विस्तृत होती तो अच्छा लगता।
महोदय आप विजया जी के टाइम लाइन पर मेरी टिप्पणी में एक संक्षिप्त आलेख पढ़ सकते है
बहुत सुंदर लिखा आपने