आप भी ‘ओ’ हैं – जी. पी. श्रीवास्तव
अनाज की पैदावार बढ़ी या नहीं, यह तो ईश्वर जाने या महंगाई, मगर हाकिमों की पैदावार का क्या कहना. कोई ए.ओ., बी.ओ., सी.ओ. हैं तो कोई ए.बी.ओ., बी.सी.ओ., सी.डी.ओ. और न जाने कितने ‘ओ’ हैं कि अंग्रेज़ी वर्णमाला के भी होश गुम हैं कि अब ओ के साथ कौन से अक्षर जोड़े जाएँ. उस पर उसे यह भी परेशानी है कि सुनने वाले किस ‘ओ’ परिवार का कौन-सा मतलब निकालेंगे. जैसे एम.ओ. ही को ले लीजिये. इससे मेडिकल ऑफिसर भी हो सकता और म्युनिसिपल ऑफिसर, मलेरिया ऑफिसर और मारकेटिंग ऑफिसर भी और घाते में मनीआर्डर भी समझना चाहें तो मजे में समझ सकते हैं.
खैर, समझने वाले जो चाहें, समझा करें. इसकी फ़िक्र मिस्टर सी.एम. गादुर को न थी, जिन्हें लोग आसानी के मारे मिस्टर चिमगादर ही कहते थे.
वे थे तो वकील, मगर जिस दिन से वे ‘ओथ ऑफिसर’ (शपथनामा अफसर) बना दिए गए, वे अपने नाम के आगे एक ‘ओ’ नहीं डबल ‘ओ’ अर्थात ‘ओ.ओ.’ निहायत शान से लिखने लगे.
एक ‘ओ’ का नशा तो संभालना मुश्किल होता है तब भला डबल ‘ओ’ का नशा, जिसके आगे ‘डबल-एक्स’ भी पानी-पानी हो जाता है, भला कैसे संभाला जा सकता है?
इसका नशा जो चढ़ा तो हजरत की आँखें ऐसी चढ़ गईं कि यह दुनिया अछूत बनकर इनकी निगाह में रसातल से भी नीचे गिर गई.
जब दुनिया ही नहीं तब मनुष्य कहाँ? इसलिए वे अब अपने को उस जाति का समझने लगे जो मनुष्यों से पृथक कभी देवताओं की थी और आकाश में रहती थी.
इनके लिए आकाश में रहना तो असंभव था इसलिए वे अपने दिमाग को आसमान में पहुंचाकर अपनी उच्च जातीयता का परिचय देने लगे. इस उच्चता को बनाए रखने के लिए मनुष्यों के सारे गुणों से- जैसे संवेदना, सहानुभूति, आत्मीयता, मधुरता, कोमलता, मिलनसारी, हँसना-बोलना . सबसे बुरी तरह घृणा करने लगे ताकि ऐसा न हो कि भूल से भी इन्हें कोई मनुष्य समझ ले. सलाम करना तो एकदम भूल गए. मगर सलाम लेना नहीं, क्योंकि यह तो उनका जातीय अधिकार था. चेहरे पर गंभीरता की इतनी मोटी पलस्तर चढ़ा कि कोशिश करने पर शायद जानवर भी हँस दे, मगर इनके मुँह पर हँसने के लिए सिकुड़न पड़ना बिलकुल असंभव था.
इसकी ट्रेनिंग की ये सब तपस्याएँ झेल चुकने पर भी जिस किसी के पास अपनी बिरादरी का सदस्य समझकर वे बड़े उत्साह से लपकते थे, वह इन्हें मुँह नहीं लगाता था. इस तरह वे न घर के रहे न घाट के. बस सचमुच चिमगादर ही बनकर रह गए.
इस साल एक नेताजी का लड़का वकालत पास किया था. नेताजी दुनिया को चराना खूब जानते थे. अपने लड़के को तुरंत ऊपर उछाल देने के लिए उन्होंने नगर के बड़े-बड़े लोगों की चाय पार्टी कर दी, जिसमें अधिकतर अफसरान ही थे.
मिस्टर सी.एम. गादुर अपने ‘ओ ओ’ के रक्षार्थ बिन बुलाए ही फटक पड़े और लगे नेताजी से शिकायत करने, “वाह नेताजी ! जब आपने सब अफसरों को निमंत्रित किया तब आप मुझे कैसे भूल गए? शायद आप नहीं जानते कि मैं ही अकेला इस नगर का ‘ओ. ओ.’ हूँ.”
नेताजी रंग ताड़ते ही तपाक से बोले, “अरे ! वाह साहब, वह कुर्सी देखिए, मैंने ख़ास तौर से आप ही के लिए लगवा रखी है. यह और बात है कि निमंत्रण बाँटने वाले को आप न मिले हों.”
खैर, बात बन गई. मान न मान मैं तेरा मेहमान बनकर वे अपनी बिरादरी में शामिल हो गए. पार्टी में इनके साथी दो-चार वकील भी थे. मगर उनलोगों ने मेहमानों की खातिरदारी का भार ले रखा था. दौड़-दौड़कर सब मेजों पर सामग्री की कमी पूरी करते थे. मिस्टर सी.एम. गादुर अपनी उच्चता का प्रदर्शन करने के लिए उन्हें ‘ए मिस्टर’ कह कर कोई तश्तरी लाने को कहते, जैसे वे उन्हें पहचानते ही न थे.
चाय-पानी की समाप्ति पर नेताजी अपने लड़के को साथ लिए एक-एक से इस तरह मिलाने लगे, “देखो बेटा, आपका आशीर्वाद लो. आप एस. ओ. हैं- सप्लाई ऑफिसर. आप ही की कृपा से दो सौ बोरी सीमेंट नसीब हुई थी, जिससे तुम्हारा वकालतखाना बनवा सका. आपका आशीर्वाद लो. आप एफ.ओ. हैं- फ़ॉरेस्ट ऑफिसर. आप ही की कोशिशों से दस दरख़्त शीशम के मिले थे, जिनसे तुम्हारे फर्नीचर बनवाए हैं.आपका आशीर्वाद लो. आप सी. ओ. हैं – चकबंदी ऑफिसर. आपका इजलास हर वक्त गर्म रहता है. आधी रात को भी चाहो, मुकदमा करो….
मिस्टर सी. एम. गादुर बार-बार अपनी गरदन उठा-उठाकर टाई ठीक करते हुए नेताजी को घूरते ही रहे. मगर सारे मेहमानों से मिलाने पर भी उनकी नज़र इन पर न पड़ सकी. तब तो इनसे न रहा गया.कुर्सी खड़बड़ाकर इस तरह उठ खड़े हुए मानो जाने की तैयारी कर रहे हैं.
नेताजी ने चौंककर उनकी तरफ़ देखा और वहीँ से बोले, “अरे ! आप कहाँ छिपे थे? मैं आप ही को ढूंढ रहा था. देखो बेटा, आप भी ‘ओ’ हैं.”
मिस्टर सी. एम. गादुर खड़े तो थे ही, जोरों से बोल उठे ताकि सब लोग सुन सकें, “मैं खाली ‘ओ’ नहीं ‘ओ. ओ. ओ.’ हूँ. इस नगर का ‘ओनली ओथ ऑफिसर’ (एकमात्र शपथनामा हाकिम).”
कहीं से आवाज़ आई, “अख्खा , आप तीन हर्फ़ वाले हैं.” इसी के साथ एक प्रश्न भी गूँज उठा, “तीन हर्फ़ कौन?”
जबतक कुछ स्कूली लड़के हाते के बाहर रुककर यह तमाशा देख रहे थे, एकाएक चिल्ला उठे, “अरे वही –चे गैन दाल—चुगद.”
पार्टी इतने ज़ोरों से खिलखिलाकर हँस पड़ी कि मिस्टर गादुर को मुँह छिपाकर वहाँ से भागने में ही कुशलता दिखाई पड़ी.