अहा ग्राम्य जीवन – मैथिलीशरण गुप्त
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सबका मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह यहाँ है,
ऐसी सुविधा और कहाँ है ?
यहाँ शहर की बात नहीं है,
अपनी-अपनी घात नहीं है,
आडम्बर का नाम नहीं है,
अनाचार का नाम नहीं है।
यहाँ गटकटे चोर नहीं है,
तरह-तरह के शोर नहीं है,
सीधे-साधे भोले-भाले,
हैं ग्रामीण मनुष्य निराले ।
एक-दूसरे की ममता हैं,
सबमें प्रेममयी समता है,
अपना या ईश्वर का बल है,
अंत:करण अतीव सरल है ।
छोटे-से मिट्टी के घर हैं,
लिपे-पुते हैं, स्वच्छ-सुघर हैं
गोपद-चिह्नित आँगन-तट हैं,
रक्खे एक और जल-घट हैं ।
खपरैलों पर बेंले छाई,
फूली-फली हरी मन भाईं,
अतिथि कहीं जब आ जाता है,
वह आतिथ्य यहाँ पाता है ।
ठहराया जाता है ऐसे,
कोई संबंधी हो जैसे,
जगती कहीं ज्ञान की ज्योति,
शिक्षा की यदि कमी न होती
तो ये ग्राम स्वर्ग बन जाते
पूर्ण शांति रस में सन जाते।
June 17, 2020 @ 5:09 pm
मैथिली शरण गुप्त जी की रचनाओं का पुनः मूल्यांकन अनिवार्य है। इसी कविता को लीजिये। यदि शिक्षा का प्रसार होता तो इस कोविड 19 में विपरीत प्रवास के थपेड़े झेलते किसान, मजदूर, कामगर की संख्या करोड़ों नहीं होती। शिक्षित व्यक्ति मध्यम श्रेणी रोजगार में होता है या कृधि करता है।
June 17, 2020 @ 5:44 pm
जी, पूर्ण सहमति
November 7, 2020 @ 9:24 pm
और जाती व्यबश्था गाओ में जो होती है उसे कैसे भूल गए कविजी
May 28, 2021 @ 5:08 pm
कवि मैथली शरण गुप्त ने जिस ग्राम जीवन की तारीफ की है, दरअसल, अब वह ग्राम जीवन खोजे से भी नहीं मिलता है। गाँव की न राखी मिलती है न वह मोहरा-दुआरा जहाँ बच्चे खेलते-लौटते7 थे। गाँव में कई ग्रुप हो गए हैं। किसी का किसी ने जीवन क्या, मरनी-करनी में भी नहीं जाते हैं। गाँव में एक सिरे न तमाम चीजें लुप्त हो चुकी हैं। आपसी सहृदयता और सहष्णुता लुप्त हो चुकी है। अब भाईचारा और बहनापा बिल्कुल नहीं है। ईर्ष्या-वैमनस्य कूट-कूट कर भरा है। अब बारह बजे तक सब की टीबी सब की मोबाइल चलती है। अब चौपाल व उसकी नसीहतें नहीं होती हैं। अब कहने को गाँव है। लड़कियाँ शहर की किसी दीपिका पादुकोण से कम नहीं हैं। दुपट्टा गाँव से भी गायब है। सलवार और दुपट्टा नीच और गरीब लड़कियों की निशानी है। अब दीदी कहना बेज्जती समझा जाता है। शहर की राजनीति से बदतर राजनीति गाँव की राजनीति है। हर घर कुटिनीति का अखाड़ा है। अब गाँव में रहना नरक से काम नहीं है। इस समय मैथली शरण गुप्त पुनः पैदा हो जाते और कविता लिखते तो जरूर लिखते है कि आओ, भाग चलो शहर की ओर।