फूलचंद का स्कूटर- कुंदन यादव की कहानी
फूलचंद ठेकेदार दोपहर का भोजन करके सोने के बाद उठे, घड़ी की तरफ देखा. साढ़े तीन बजने वाले थे. उन्होंने जल्दी से चेहरा धोया और सुँघनी मंजन करते हुए घर से बाहर चबूतरे पर आए. मंजन करते हुए जब दाईं तरफ नज़र गई तो देखा स्कूटर नहीं था. थोड़ी देर में उनको अपनी निर्माणाधीन साइट पर जाना था . कुल्ला करके मुंह धोते हुए भीतर आए और पत्नी से पूछा राजू स्कूटर ले गया है क्या? पत्नी ने कहा नहीं वो तो ऊपर सो रहा है. चूंकि छोटा बेटा राजू स्कूटर बाइक आदि चलाना सीख ही रहा था इसलिए गाहे बगाहे वो स्कूटर लेकर गायब हो जाता. बेटी रीना टीवी देख रही थी. उन्होंने उससे भी स्कूटर की बाबत भी पूछा कि कोई मांग तो नहीं ले गया , लेकिन कोई सकारात्मक जवाब न देख वे चिंतित हो उठे. नीचे आकर कुर्ता पाजामा पहन बाहर निकले थे कि स्कूटर गली में खड़ा मिला. अगल बगल के सभी दरवाजे बंद थे और उनको साइट पर निर्माण कार्य में यथोचित प्रगति दिखाने के साथ साथ भवन स्वामी से कुछ पैसे भी लेने थे अतः वो बिना देर किए चले गए.
नगवा 1990 तक बनारस का दक्षिणी सरहदी मोहल्ला था. लोग हज़ार लड़ाई झगड़े के बावजूद परंपरा और मरजाद को लेकर व्यावहारिक थे. लोगों के आपसी संबंध ऐसे थे कि, एक दूसरे पर अपना हक़ समझते थे. कई बार ऐसा होता था कि आपसी बोलचाल बंद होने पर भी एक के अतिथि को दूसरा बीच में ही रोक कर सुख दुख बतियाने के साथ चाय नाश्ता कराने लगता. बड़े से बड़े झगड़े भी किसी शादी-ब्याह, शोक या होली आते ही बिना पंचायत सुलझ जाते. नगवा निवासी फूलचंद पिछले तीस साल से बचाऊ मिस्त्री के साथ बेलदार होते हुए सहायक मिस्त्री बन गए थे. लेकिन जब से गंगा नदी पर नया पुल बना तब से अवैध कालोनियों की बाढ़ सी आ गई और स्थानीय होने के नाते फूलचंद चिनाई का काम छोड़ खुद छोटे मोटे ठेकेदार बन गए थे.
उन्हें साइकिल से इधर उधर आने जाने में काफी वक़्त लगता था. इसके लिए ज्यादा इंतज़ार न करना पड़ा. कुछ दिनों बाद बिजली विभाग के इंजीनियर मिश्रा जी का मकान समय से पहले फूलचंद की टीम द्वारा तैयार हुआ. मिश्रा जी फूलचंद से बड़े प्रसन्न थे. इसीलिए जब गृहप्रवेश के कुछ दिन पहले मिश्राजी हिसाब किताब पूरा करने वाले ही थे, कि फूल चंद बोल पड़े. साहब, मन में एक बात है, अगर आपकी आज्ञा हो तो कहें. मिश्रा जी ने कहा हाँ हाँ बोलो. फूलचंद ने कहा , साहब इतना शानदार मकान बना है. भगवान ने सब कुछ दिया है. मोटरगाड़ी है. बंगला भी बन गया है. अब तो इस गुलामगरदा पे चारचक्का ही जमेगा. आपकी बाबा आदम के जमाने की ये स्कूटर इसकी पोर्च के नीचे खड़ा करने लायक नहीं है. आप बकाया पैसा छोड़िए इसको ही हमें दे दीजिए. आपकी हमेशा याद बनी रहेगी. मैं भी हर जगह कहूँगा कि इंजीनियर साहब की बख्शीस है. वैसे तो इंजीनियर साहब स्कूटर की स्टेपनी भी न देते लेकिन चूंकि बजाज चेतक का 1982 मॉडल स्कूटर काफी पुराना था जो फूलचंद के बकाए से बहुत ज्यादा न था. इसके सिवा अपने खिलाफ कई गुमनाम विभागीय शिकायतों के अलावा मकान बेनामी था. उनकी राज की कई बातें फूलचंद जान चुके थे अतः उन्होंने बेमन से हामी भर दी. लेकिन फूलचंद ने तुरंत स्कूटर न लेकर कहा, गृहप्रवेश वाले दिन सबके सामने दीजिएगा ताकि जमाना देखे कि साहब ने बख्शीस दी है. इंजीनियर साहब का ग़म अपनी दानवीरता के प्रचार की इस संभावना से काफी कम हो गया. बस मुसकुराते हुए बोले, हे हे हे ,अरे यार दिखाना किसको है, तुमने इतना अच्छा काम किया है तो इनाम बनता ही है; जब तुम चाहो तब ले जाना . गृहप्रवेश के दिन फूलचंद प्रीतिभोज के लिए अपने भतीजे अमरनाथ के साथ आए और भोजन आदि के बाद स्कूटर लेकर घर आ गए . एकाध हफ्ते में भतीजे ने उनको चलाना सिखा दिया. लेकिन अभी भी भीड़भाड़ वाली जगहों पर वे स्कूटर से न जाते. जैसे यदि गोदौलिया जाना हो तो स्कूटर से जंगमबाड़ी तक उसके बाद पैदल.
अचानक साइकिल से स्कूटर पर आ जाने से फूलचंद का काफी समय बचने लगा अतः दोपहर के भोजन और आराम के लिए वो घर आने जाने लगे. घर गली में था जिसके आगे एक चबूतरा था. रात में स्कूटर आँगन में खड़ा रहता, सुबह वे उसे बाहर सीढ़ियों के बीच बनी पतली ढाल से उतारते और रात को वापस आँगन में खड़ी करते. मोहल्ले में दो चार घर छोड़ कर सभी लोगों के पास साइकिल ही थी और अन्य स्कूटर और मोटर साइकिल स्वामी जहां अपने अपने काम के लिए सुबह से देर शाम तक बाहर ही रहते, वहाँ फूलचंद का स्कूटर मोहल्ले में दोपहर में भी मौजूद रहने वाला एकमात्र वाहन था. गाहे बगाहे लोग मांग कर ले जाते. फूलचंद भी बिना किसी हिचक के दे दिया करते. गली में जब कोई तिपहिया या चारपहिया आता जाता तो स्कूटर को आगे पीछे करना पड़ता. इसलिए फूलचंद हैंडल लॉक नहीं लगाते थे सिर्फ बाईं डिक्की खोलकर इंजन स्विच ऑफ कर देते थे. स्कूटर स्टैंड पर खड़ा रहता. जाम की स्थिति में कोई न कोई आगे पीछे कर देता और फिर उनके चबूतरे से लगा कर खड़ा कर देता.
कई हफ्तों तक यह व्यवस्था निर्बाध चलती आ रही थी. कभी कदा राजू स्कूटर लेकर यूनिवर्सिटी के मैदान की तरफ जाकर अपने दोस्तों को बैठकर चलाता. फूलचंद मन ही मन बेटे के स्कूटर चलाने से खुश होते लेकिन बालक की किशोरावस्था और बाहर सड़क पर यातायात और पुलिस के चक्कर से बचने के लिए उसे हमेशा मना करते . एक दिन उन्हें भदऊँ चुंगी जाकर अपने बालू गिट्टी के सप्लायर गनेश सरदार बालूवाले से हिसाब किताब करना था. दोपहर भोजन हेतु घर आकर वे राजू से बोले कि गाड़ी कहीं मत ले जाना मुझे निकलना है चार बजे. आदतन भोजन के बाद सोकर वे उठे और जैसे ही बाहर निकले , फिर स्कूटर गायब. फिर पत्नी और राजू से पूछा. जवाब मिला पता नहीं कहाँ गया. बाहर निकल कर देखा, उनके पड़ोसी लक्षमन गोधूलि बेला में लौट रहे अपने गाय भैंसों को बाड़े में अंदर करने के बाद अपनी पत्नी की साथ सानी पानी दे रहे थे. फूलचंद ने अपने चबूतरे से ही आवाज़ लगाकर पूछा, का यार देखला हमार स्कूटर के ले गयल? लक्ष्मण ने गाय और बछड़ों के साथ जीभ को लुंठित करके निकलने वाली ध्वनियों के साथ हिल्ले हिल कहा और वहीं से बोले, अरे हमही बउललवा के भेजले हई , बहनोई आयल हैन, ओनकर समान मंगावे बदे , अउतय होई. तब ले आवा चाय पियअ.
फूलचंद मन ही मन कुढ़ कर रह गए. चाय का मन नहीं था लेकिन लक्षमन के बहनोई से मिलने चले गए. चाय भी आ गई . फिर 10 मिनट और बीत गए. बाबूलाल नहीं आया. फूलचंद अभी बाहर गली की तरफ देख ही रहे थे कि लक्षमन ने कहा, अगर देर होत हव त बहनोई क बुलेट लेले जा. फूलचंद को अब बुरा लगने लगा लेकिन गुस्सा दबा के बैठे रहे. फिर उन्होंने कहा , हम घरवै हई. जब बाबूलाल आवे त कहिया बता दे हमके, और अपने घर लौट आए. लगभग पाँच बजे बाबूलाल लौटा. स्कूटर की आवाज़ सुनकर फूलचंद बाहर चबूतरे पर आ गए. अपनी खीझ को किसी तरह दबाकर बस इतना ही बोल सके, अबे कहीं जाना हो त बता दिया करो. बाबूलाल ने उनके इस कथन को कोई तवज्जो नहीं दिया बल्कि बोलने लगा, चच्चा एकर ब्रेक ठीक करा ला और गाड़ी अब सर्विसिंग मांगत हव. पिछला साकर भी बइठ गयल हव. यह सुनकर फूलचंद को बहुत गुस्सा आया लेकिन वो किसी तरह चुप रह गए.
एक दो दिन बाद फिर दोपहर के बाद उन्हें स्कूटर गायब मिला. आज कहीं जाने की जल्दी नहीं थी लेकिन अब फूलचंद को मोहल्लेवालों का ऐसा अधिकार खटकने लगा. कुछ देर बाद जब स्कूटर उनके चबूतरे के सामने रुका वो आवाज सुनते ही लपक कर बाहर आए. देखा सतनारायन का लड़का पिंटू हीरालाल के साथ स्कूटर से घरेलू गैस के दो भरे हुए सिलिन्डर उतार रहा है. उन्होंने कहा- अरे इतना वजन लादोगे तो स्कूटर बचेगा भी? सगड़ी थोड़े है? हीरालाल ने तुरंत जवाब दिया, नाही चच्चा समान लियावे बदे स्कूटर पे जादा जगह बन जाला. अभी त पिण्टुआ पैर के पास एक सिलिन्डर और आ जाई. घबड़ा मत बजाज का इंजन हव. फूलचंद अभी कुछ कह पाते तब तक वे दोनों चले गए. उन्होंने निश्चय किया की अब वे हैंडल लॉक करेंगे.
हैंडल लॉक करने के एकाध दिन तक तो सब ठीक था. लेकिन तीसरे दिन जैसे ही दोपहर में वे भोजन के लिए घर पहुंच ही रहे थे कि चार-पाँच घर पहले ही मदन गुरु की आवाज आई, अरे यार फूलचन , स्कूटरवा लॉक मत करिहा, बिटियवा का इंतहान हव दू बजे से , ओके छोड़े जाए के हव. फूलचंद ने उत्तर दिया, आपके जब ले जाए के होई त आवाज दे दीहा. हम बइटका में ही खा के आराम करीला. और अपने घर आकर स्कूटर लॉक कर दिया. भोजन के बाद वे घड़ी देखते रहे . सवा से डेढ़, फिर डेढ़ से पौने दो हो गया. मदन गुरु नहीं आए. उनके इंतज़ार में ही नीद नहीं आ रही थी. छोटी बेटी को बुलाया और कहा- जाके देख मदन चच्चा घर पे हैं? बेटी ने 5-7 मिनट बाद आकर खबर दी कि चाचा उमा दीदी को इंतहान दिलाने गए हैं. यह सुनकर जैसे फूलचंद के परों तले जमीन खिसक गई. वे समझ गए कि मदन गुरु को उनका स्कूटर देने का यह तरीका पसंद नहीं आया. शाम तक उनके मन में जद्दोजहद बनी रही. अंततः यह कहकर अपने दिल को समझाया कि उन्होंने कोई गलती नहीं की. एक आवाज़ भर लगा देने से क्या मदन छोटे हो जाते.
लेकिन गली में खड़ी स्कूटर लॉक करने के बाद उनका दोपहर के भोजन व नींद का सुख चैन छिन सा गया. कोई भी रिक्शा , सगड़ी, ऑटो, टेम्पो यदि गली से गुजरता तो ढेर सारा हॉर्न बजाते हुए आवाज़ लगाता अरे भईया ये किसका स्कूटर है और गाहे बगाहे, खाना खाते, आराम आदि करते समय उनका दरवाजा खड़का कर कोई न कोई व्यक्ति स्कूटर हटाने या किनारे करने का आदेश देता. स्कूटर किनारे कर लीजिए. कभी कदा स्कूटर गली से गुजरने वाली गाय भैंसों के झुंड के धक्के से लुढ़का मिलता और कार्बोरेटर चैंबर में ज्यादा पेट्रोल आ जाने के कारण फूलचंद को पचासों किक लगानी पड़ती. दोपहर में मांगने वालों की संख्या में थोड़ी कमी आ गई थी. फूलचंद अपने स्कूटर पर इस नियंत्रण से खुश थे, लेकिन भोजन के बाद आराम में गुजरनेवाले रिक्शा आदि के खलल से वे परेशान थे. इस बीच उन्हें विभिन्न पॉश कालोनियों जहां उन्होंने ठेके ले रखे थे, में कोठियों के बाहर लगे निर्देशों का ख्याल आया जैसे , कुत्ते से सावधान, कृपया घंटी एक बार बजाएँ, दीवार पर इश्तहार न चिपकाएँ, बाहर जाते हुए गेट बंद कर दें आदि . इसलिए उन्होंने सोचा कि हैंडल लॉक न करें बल्कि स्कूटर पर एक नोटिस चिपका दिया जाए- बिना आज्ञा स्कूटर कहीं न ले जाएँ.
जैसे ही अगले दिन जब फूलचंद स्कूटर की सीट पर हाथ से लिखा पन्ना चिपका रहे थे, मोहल्ले के दो-चार लोग वहीं खड़े थे. बैजनाथ सिंह ने फब्ती कसी- यार ई आधा अधूरा लिखके साटत हउवा. एकरे नीचे लिख द – आज्ञा से फूलचंद, और अगर मलकिन क हुकुम हो त – आज्ञा से राजू क अम्मा. माधो तिवारी ने तुरंत समर्थन किया – आउर का , जइसे सूचना बोर्ड पे लिखाला – आज्ञा से जिलाधिकारी या एसएसपी. अइसे लिखबा त पता न चली कि केकर आज्ञा हव , या केसे आज्ञा लेवे के हव. फूलचंद ने इन फब्तियों का दंश महसूस कर लिया था लेकिन खीस निपोरते हुए भीतर आ गए. शाम को जाते हुए देखा कि पर्चा फाड़ दिया गया है. अगले दिन फिर उन्होंने वैसा ही लिखकर चिपकाया . शाम को देखा किसी ने आज्ञा से लिखते हुए आगे एक भदेस गाली लिख मारी है. पत्नी ने समझाया भी कि ये सब क्या नादानी कर रहे हैं तो उनको बुरी तरह झिड़क दिया,.
एक हफ्ता भी न हुआ था कि स्कूटर फिर गायब होने लगा. अधिकतर नौजवान लड़के बिना पूछे ही ले जाते. न्यूट्रल में गियर डाल स्कूटर को डगराते गली के बाहर ले जाते और सड़क पर जाकर स्टार्ट करते. यदि फूलचंद डिकी का स्विच ऑफ करते तो किसी भी चाबी, चाकू, तीली आदि से उसे खोल लेना कठिन न था. हालत यह हो गई कि इधर फूलचंद भोजन के बाद जैसे ही झपकी लेते, उनके खर्राटों से स्कूटर ले जाने वालों को सिग्नल मिल जाता. एकाध बार ऐसा हुआ कि स्कूटर ले जाने वाला सारा तेल खत्म करके खड़ा कर गया और फूलचंद को साइकिल से पेट्रोल पम्प जाकर बड़ी मुश्किल से बोतल में दो लीटर तेल लाना पड़ा.
मोहल्ले वालों की इस हरकत से चिढ़कर फूलचंद ने अपने स्लिप की भाषा में कुछ कड़वाहट डाल दी. अगला वाक्य था – बिना पूछे स्कूटर ले जाकर अपने जाहिल होने का परिचय न दें. लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. दो-चार बार फूलचंद भोजन के बाद सोए नहीं बल्कि बैठक से गली में नज़र रखे रहे. शाम हो गई लेकिन उन दिनों स्कूटर वहीं खड़ा रहता. कोई ऑटो वगैरह गुजरता तो उसमें आने जाने वाले स्वयं ही स्कूटर को आगे पीछे कर देते. लेकिन जिस दिन वो आराम करते हुए सो जाते उस दिन स्कूटर कोई न कोई ले जाता. फूलचंद ने सोचा अब अपील की जगह चेतावनी के शब्दों में लिखा जाए .
अगले दिन भाषा और कड़ी हो गई- बिना पूछे स्कूटर ले जाने वाला हरामखोर माना जाएगा. उस दिन स्कूटर कहीं नहीं गया. फूलचंद ने झपकी लेने के बाद शाम को स्कूटर यथावत पाया तो बहुत खुश हुए. एक विजयी मुस्कान लेकर वे काम पर निकले.
लेकिन यह क्या अगले दिन फिर स्कूटर गायब . उन्हें यकीन न हुआ. वे चाह रहे थे कि स्कूटर लौटने की प्रतीक्षा करें लेकिन काम के चलते जाना पड़ा और उन्हें विश्वास था कि घर में कोई भी स्कूटर के आगमन पे नज़र नहीं रखेगा सो वे किसी साइट पे चले गए. रात में लौटने पर गली के अंधेरे में उन्हें स्कूटर वहीं अपने चबूतरे से लगा मिला. उन्हें लगा कि हरामखोर से बात बन नहीं रही . इसलिए अगले दिन पर्चे पर लिखा-“बिना पूछे किसी का सामान लेने वाले हरामी होते हैं. चुपचाप स्कूटर ले जाकर अपना हरामीपना न दिखाएँ.”
इस पर्चे को लगाकर वो पूरे इतमीनान से थे कि अब कोई स्कूटर छूएगा भी नहीं . लेकिन जिस इलाके में गाली गलौज रोज़मर्रा की आदत में शामिल हो, वहाँ क्या फर्क पड़ता. शाम को स्कूटर फिर गायब था. फूलचंद ने यह देख अपना आपा खो दिया. बाहर चबूतरे पर आकर खड़े हुए. सामने के मकान की पहली मंज़िल की बालकनी पर नंदलाल चाय पी रहे थे. उनको आवाज़ देते हुए फूलचंद ने पूछा, नंदलाल भैया स्कूटर कोई के ले जात देखला ? नंदलाल ने इतना ही कहा, नाही हमे का पता, हम त बस अउते हइ खोजवां से. फिर फूलचंद ने बाबूलाल से ताकीद की, कबे देखले हमार स्कूटर आज ? उत्तर मिला हमे का पता हम त हमेशा मांग के ले जाइला. अब फूलचंद की चिढ़ गुस्से में बदलती हुई सातवें आसमान तक जा पहुंची. वे चबूतरे पर ही बड़बड़ाने लगे. – आज हमहूँ देखब के आपन हरामीपना देखावत हव रोजाना हमें. एतनी बार कहली कि कहीं जाए के होय त बस पूछ ल कि खाली हव कि नाहीं. एतना भी नाहीं हो सकत हव लोगन से. अपने बाप क माल समझले हौवन. आज हम एहीं जोहब कि कउन एतना बड़ा हरामी हव जेके हमरे लिखले क भी कउनों फरक नाहीं पड़त हव. बतावा जियल मोहाल कय देले हउवन लोग. जे भी मिली आज त हम न छोड़ब. या त उ रही या त हम –आदि आदि
तब तक काफी लोग उनके चबूतरे के आस पास जमा हो गए. लगभग आधे घंटे तक फूलचंद यहीं बातें दुहराते रहे कि कैसे जब से उन्होंने स्कूटर लिया लोग उनको परेशान कर रहे हैं. कई लोगों को जलन हो गई है. घंटे भर बाद थोड़े ही लोग रह गए. गंगाराम ने कहा कि छोड़ा मरदे, चला पप्पुआ दफ्तर से आ गयल हव, ओकर हीरो होंडा लेले जा. लेकिन फूलचंद अडिग थे. नाहीं आज देखब कि केके एतना ढीठाइ चढ़ल हव. लगभग सवा सात बजे शाम हल्का अंधेरा छा चुका था कि गली के छोर से स्कूटर आता दिखा. हेडलाइट के प्रकाश के कारण चालक का चेहरा स्पष्ट नहीं था. फूलचंद अपने गुस्से का घनत्व बढ़ाने का प्रयत्न करने लगे.
जैसे ही स्कूटर आकर रुका , फूलचंद अपने भतीजे अमरनाथ को देखते ही चीख पड़े. मन में जो भी आया वो सब बकते हुए अपने पर्चे के निर्देशों का ज़िक्र किया और भविष्य में स्कूटर न छूने की चेतावनी देते हुए एकाध गलियाँ भी दे डालीं. अमरनाथ इस बीच स्कूटर खड़ा करके मुसकुराते हुए पान घुलाता रहा. तब तक कई लोग गली में जमा भी हो गए. जब फूलचंद कुछ शांत पड़े तो उसने नाली में पीक थूकते हुए कहा- बस हो गयल तोहार भाषण. ई नौटंकी बंद करबा कि अउर गरजे के हव ? फिर उसने जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा- देखा एनके सब लोग. सरवा मंगनी के स्कूटर पे एतना गुमान. पर्चा लगावलन कि जे एनकर स्कूटर छुई उ हरामी हव. अब बतावा, चच्चा के गाली देवे से भतीजन के बुरा लगी भला? और ओइसे दिन भर हमने के एक से एक खतरनाक गाली देईहैं, उल्टा सीधा क़हत रहलन ओकर कउनों हिसाब ना हव. और रहल बात स्कूटर छूए क. त भुला गइला इंजीनियरवा के यहाँ से के ले के आयल एके? तोहें ड्राइविंग हम सिखईली और हमरे ऊपर गुर्रात हउवा? त फ़ाइनल बात सुन ला- हमें तोहरे गरियईले से कौनों दिक्कन ना हव. चच्चा हउवा, तोहार हक हव गरियावे क. और हाँ स्कूटर बदे तू मना नाहीं कर सकतअ. तोहार ड्राइविंग गुरु होए के नाते हम जब चाहब तब ले जाब. इहै हमार गुरु दक्षिणा हव. फिर उसने लक्षमन को देखते हुए कहा, कहो चच्चा गलत कहत हइ?
लक्षमन बोले- नाही बे एकदम चऊचक जबाब देले हउवे. जब से ई स्कूटर आयल हव फूलचन क हंसी खुशी, दुआ सलाम सब हेरा गयल हव. एतना त हमने गइया नाहीं अगोरित जेतना ई इसकूटर अगोरअलन. पहिले साइकिल रहल त दुआ सलाम, हाल चाल हो जाए , अब त सरसरात भगिहैं. ज़िंदगी भर बेलदारी कइलन, अब बुढ़ौती में हमने के , तहसीलदारन मतिन परचा चफना के आज्ञा देत हउवन. सरवा मोहल्ला के भीतर कॉलोनी बनावल चाहत हैन. तू एकदम सही कहले जवान. कहो फूलचन हव कउनों जबाब?
फूलचंद ने इतना ही कहा- अब का जबाब देईं ? सही कहला तू भइया . जब से ई सरवा इसकूटर आयल हव , हंसी मज़ाक त दूर पान-बीड़ी, सुरती तक क लेन देन बंद हो गयल हव. खैर जऊन गलती भयल माफ करअ. अउर सब लोग सुन ला, कल से जेके एके ले जाए के होय ऊ ले जाए, हमरे तरफ से कउनों रोक ना हव. जब हमरे गारी क भी कउनों असर नाही हव त फ़ौजदारी थोड़े करब, कहकर हंसने लगे.
बैजनाथ सिंह ने कहा इया रजा , ई भयल न नगवा नरेश वाला ताव; और सब हंस पड़े.
May 15, 2018 @ 9:34 pm
बढ़िया लगी कहानी। ?
May 15, 2018 @ 10:04 pm
मोहल्ले और कालोनी का अंतर बताती और उसका गहराई से एहसास कराती हुई कहानी। भारतीय परंपरा में चाचा की गाली का भतीजे पर कोई असर नहीं पड़ता इस मान्यता को भी दर्शाती कहानी और बनारसी मस्ती का तो पूछिए ही मत लेखक ने सराबोर कर डाला। यादव जी को बहुत-बहुत बधाइयां बस ऐसे ही लिखते रहिए। कुंठा संपन्न हिंदी लेखकों की बढ़ती भीड़ में जिंदगी का अहसास कराने वाले लेखक के रूप में आपको जाना जाएगा।
May 15, 2018 @ 10:05 pm
बनारसी जीवन और भाषा के फ्लेवर से रची बसी यह कहानी पढ़ने का सुख प्रदान करती है, किसी वैचारिक आग्रह के बिना।
May 15, 2018 @ 10:33 pm
बनारस के जीवन में रची बसी मस्ती अल्हड़पने के सतरंगी रंग समेटे एक संदेशपरक कथा …
जब आर्थिक समृद्धि आती है तो कदाचित वैचारिक ह्रास होने लगता है और स्नेह बंधन भी घटने लगता है
May 16, 2018 @ 12:52 am
बढ़िया कहानी, और भाषा का क्या कहना मानो गाव की मिट्टी की खुश्बू घोल दी हो,
May 16, 2018 @ 6:20 am
बहुत उम्दा कहानी है कुंदन भाई।।।आप की लेखनी कंही न कंही मुंशी प्रेमचंद को याद दिलाती है।।कृपया लिखते रहिये।।
May 16, 2018 @ 11:16 am
आप सभी के वचन मेरे लिए बहुत उत्साह वर्धक हैं। बनारस का लोक मानस आधुनिक विसंगतियों से बहुत ज्यादा तनाव नहीं पालता। इसीलिए मेरी कहानी लोक मानस के बीच के जीवन से प्रसंग उठाकर आपके सामने लाने का प्रयास करती हैं। आप सब को यह प्रयास पसंद आया इसका बहुत शुक्रिया। राघवेंद्र जी को मेरी कहानी से मुंशी प्रेमचंद की याद आई, इससे बड़ा सम्मान मेरे जैसे अदने लेखक का और क्या हो सकता है। क्या कहूँ बस करबद्ध हूँ।
May 16, 2018 @ 4:03 pm
बहुत बढिया कहानी लगी. .
May 18, 2018 @ 2:16 pm
कुनदन जी की विशेषता है उनकी सहज कहन। जैसे अमर गायक मुकेश को सुनकर लगता था कि हम भी ऐसा गा सकते हैं , वैसे ही इनका लिखा पढकर लगता है कि हम भी ऐसा लिख सकते हैं। कहीं कोई प्रयास नहीं। बनारसी बनारस से निकल सकता है , पर बनारसी से बनारस कभी नहीं निकल सकता। सारी विद्वता और तमाम उपलब्धियों के साथ अंततः वे एक खाँटी बनारसी हैं और इस शानदार, बाँके तेवर की कहानी को पढ कर जो कहूगा, एक बनारसी ही दूसरे बनारसी से कह सकता है। ” जीयऽ रज्जा ।”
May 24, 2018 @ 11:23 am
कहानी की भाषा और कहन पसंद आई। सरस बनारस को कहानियों में सुरक्षित कर लेने के हकदार हो तुम और समर्थ भी। तो ऐसी और भी और कहानियां भी आनी चाहिए। बहुत बधाई।
August 29, 2018 @ 12:59 pm
एक बात तो है गाड़ी के आने से प्रणाम पाती अब बन्द हो गया है पहले पैदल जाते थे तो बात कर लेते थे , फिर साइकल आया उसमे भी हालचाल पूछ लेते थे ,फिर गाड़ी आने से केवल हाथ से ही प्रणाम हो जाता है, अब तो कार आने से पता भी नही चलता कोई अपना पहचान का भी था , इन चीजो से ही अब लोग खुद में सिमटते जा रहे
बहुत बढ़िया कहानी ***** पुरे 5 स्टार
March 26, 2019 @ 7:02 pm
आप कहानी जीवंत है,कैसे आपने फूलचंद जो कहानी का नायक हैं,उसे आम आदमी से भावनात्मक रुप से जोड़ दिया है, ये देखना अद्भुत है!
October 7, 2020 @ 8:53 pm
लाजवाब व्यंग्य रचना ।
October 7, 2020 @ 8:54 pm
लाजवाब व्यंग्य रचना ।