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14 Comments

  1. Hareesh Gupta
    May 15, 2018 @ 9:34 pm

    बढ़िया लगी कहानी। ?

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  2. Vineet Kumar Singh
    May 15, 2018 @ 10:04 pm

    मोहल्ले और कालोनी का अंतर बताती और उसका गहराई से एहसास कराती हुई कहानी। भारतीय परंपरा में चाचा की गाली का भतीजे पर कोई असर नहीं पड़ता इस मान्यता को भी दर्शाती कहानी और बनारसी मस्ती का तो पूछिए ही मत लेखक ने सराबोर कर डाला। यादव जी को बहुत-बहुत बधाइयां बस ऐसे ही लिखते रहिए। कुंठा संपन्न हिंदी लेखकों की बढ़ती भीड़ में जिंदगी का अहसास कराने वाले लेखक के रूप में आपको जाना जाएगा।

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  3. सब्य साचिन
    May 15, 2018 @ 10:05 pm

    बनारसी जीवन और भाषा के फ्लेवर से रची बसी यह कहानी पढ़ने का सुख प्रदान करती है, किसी वैचारिक आग्रह के बिना।

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  4. Raghvendra Singh
    May 15, 2018 @ 10:33 pm

    बनारस के जीवन में रची बसी मस्ती अल्हड़पने के सतरंगी रंग समेटे एक संदेशपरक कथा …
    जब आर्थिक समृद्धि आती है तो कदाचित वैचारिक ह्रास होने लगता है और स्नेह बंधन भी घटने लगता है

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  5. दिग्विजय सिंह
    May 16, 2018 @ 12:52 am

    बढ़िया कहानी, और भाषा का क्या कहना मानो गाव की मिट्टी की खुश्बू घोल दी हो,

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  6. राघवेंद्र पाल सिंह, भा.रा.से.
    May 16, 2018 @ 6:20 am

    बहुत उम्दा कहानी है कुंदन भाई।।।आप की लेखनी कंही न कंही मुंशी प्रेमचंद को याद दिलाती है।।कृपया लिखते रहिये।।

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  7. कुन्दन यादव
    May 16, 2018 @ 11:16 am

    आप सभी के वचन मेरे लिए बहुत उत्साह वर्धक हैं। बनारस का लोक मानस आधुनिक विसंगतियों से बहुत ज्यादा तनाव नहीं पालता। इसीलिए मेरी कहानी लोक मानस के बीच के जीवन से प्रसंग उठाकर आपके सामने लाने का प्रयास करती हैं। आप सब को यह प्रयास पसंद आया इसका बहुत शुक्रिया। राघवेंद्र जी को मेरी कहानी से मुंशी प्रेमचंद की याद आई, इससे बड़ा सम्मान मेरे जैसे अदने लेखक का और क्या हो सकता है। क्या कहूँ बस करबद्ध हूँ।

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  8. चंदन कुमार छविंद्र
    May 16, 2018 @ 4:03 pm

    बहुत बढिया कहानी लगी. .

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  9. Gajanan raina
    May 18, 2018 @ 2:16 pm

    कुनदन जी की विशेषता है उनकी सहज कहन। जैसे अमर गायक मुकेश को सुनकर लगता था कि हम भी ऐसा गा सकते हैं , वैसे ही इनका लिखा पढकर लगता है कि हम भी ऐसा लिख सकते हैं। कहीं कोई प्रयास नहीं। बनारसी बनारस से निकल सकता है , पर बनारसी से बनारस कभी नहीं निकल सकता। सारी विद्वता और तमाम उपलब्धियों के साथ अंततः वे एक खाँटी बनारसी हैं और इस शानदार, बाँके तेवर की कहानी को पढ कर जो कहूगा, एक बनारसी ही दूसरे बनारसी से कह सकता है। ” जीयऽ रज्जा ।”

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  10. Kanchan
    May 24, 2018 @ 11:23 am

    कहानी की भाषा और कहन पसंद आई। सरस बनारस को कहानियों में सुरक्षित कर लेने के हकदार हो तुम और समर्थ भी। तो ऐसी और भी और कहानियां भी आनी चाहिए। बहुत बधाई।

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  11. विक्की
    August 29, 2018 @ 12:59 pm

    एक बात तो है गाड़ी के आने से प्रणाम पाती अब बन्द हो गया है पहले पैदल जाते थे तो बात कर लेते थे , फिर साइकल आया उसमे भी हालचाल पूछ लेते थे ,फिर गाड़ी आने से केवल हाथ से ही प्रणाम हो जाता है, अब तो कार आने से पता भी नही चलता कोई अपना पहचान का भी था , इन चीजो से ही अब लोग खुद में सिमटते जा रहे

    बहुत बढ़िया कहानी ***** पुरे 5 स्टार

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  12. सागर तिवारी
    March 26, 2019 @ 7:02 pm

    आप कहानी जीवंत है,कैसे आपने फूलचंद जो कहानी का नायक हैं,उसे आम आदमी से भावनात्मक रुप से जोड़ दिया है, ये देखना अद्भुत है!

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  13. विजय सिंह बसिष्ठ
    October 7, 2020 @ 8:53 pm

    लाजवाब व्यंग्य रचना ।

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  14. विजय सिंह बैस
    October 7, 2020 @ 8:54 pm

    लाजवाब व्यंग्य रचना ।

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