आवभगत

बनारस शहर के दक्षिणी हिस्से में लंका से सामनेघाट होते हुए गंगा नदी के ऊपर बने पीपे के पुल वाले रास्ते में ही शिवधनी सरदार का घर था। खाते पीते परिवार के स्वामी थे । स्वयं विश्वविद्यालय में तृतीय श्रेणी कर्मचारी थे । एक बांस बल्ली की दुकान थी, जहां निर्माणाधीन मकानों के लिए किराए पर बल्ली पटरे उपलब्ध थे। इसके साथ ही दो-तीन जगह पुश्तैनी जमीन थी । अधिकतर को उन्होंने कई साल पहले बंटाई पर दे रखा था। बंटाईदार भी सालों से फसल कटने के महीने दो महीने के भीतर शिवधनी का हिस्सा पहुंचा देते थे। यद्यपि शिवधनी जानते थे कि बंटाईदार हिस्से में बेईमानी कर रहे हैं, लेकिन वो उसको परमात्मा की कृपा मान हील हुज्जत नहीं करते थे। पत्नी फसल के दिनों में ही बार-बार कहती कि जाकर देख आओ कि कितना अनाज हुआ है। कहीं बेईमानी से कम तो नहीं दे रहे हैं सब? शिवधनी भी योजना बनाते पर कभी जा न पाते।
अपने दफ्तर, सुबह-शाम मित्र-मंडली के साथ गप-शप की आदत और सबसे बढ़कर आवागमन की परेशानी। पहले घर से पैदल लंका, फिर टेम्पो से रामनगर, फिर वहाँ से बस या जीप से नारायणपुर, नारायणपुर से पुनः किसी साधन से अदलहाट और वहाँ से किसी आते-जाते से मदद मांगकर या पैदल तीन-चार किमी चलकर रुपौंधा पहुंचा जा सकता था। महज इक्कीस किलोमीटर के लिए कई बार अनेक साधन बदलने के कारण काफी वक़्त लग जाता था, जिसे वो समय की बरबादी मानते थे। शायद यही वजह है कि वो कभी फसल पक जाने के समय निरीक्षण के दौरान अपने किसी खेत पर बंटाईदार से ताकीद करने नहीं गए। ऐसा भी नहीं कि वो आने जाने में आलस करते हों, क्योंकि ऐसी ही जगहों पर बिना किसी ठोस वजह या फायदे के भी वो लगातार आते जाते थे, लेकिन फसल के लेन देन में उनका वही सिद्धान्त चलता था, जो वे सभी को गाहे बगाहे बताया करते थे,”चना चबेना गंगजल जो पुरवे करतार ; काशी कबहुँ न छाँड़िए विश्वनाथ दरबार”।
पिछले साल पहली बार ऐसा हुआ कि सालों साल से निरन्तर आने वाला बंटाई का अनाज रुपौंधा से नहीं आया। डगमगपुर, पहाड़ा, कैलहट आदि जगहों से सभी बंटाईदार देर सबेर लेन-देन करके फारिग हो चुके थे लेकिन रुपौंधा से कैलाश ने न तो कोई खबर दी और न ही खबर का जवाब दिया। चूंकि पिछले साल बारिश भी कम हुई और फसल पकने के दौरान काफी ओले भी पड़े, इसलिए शिवधनी ने अनुमान लगाया कि हो सकता है कैलाश फसल बरबाद होने के सदमे के कारण हिसाब नहीं दे गया। लेकिन इस बार तो मॉनसून किसानों पर मेहरबान था। औसत से अधिक बारिश हुई और समय पर हुई । खरीफ की फसल तो ऐसी थी कि जमीन का कोई भी टुकड़ा ऐसा न था, जो हरा भरा न हो। ऐसे में रुपौंधा की जमीन से कुछ न आना शिवधनी के लिए जहां आश्चर्य का विषय था, वहीं उनकी पत्नी के लिए रुपौंधा के बंटाईदार के लानत मलामत करने का एक मौका। वे कहती, “ हमने पहले ही कहा था कि कैलशवा के अबकी बार मत जोतने दो , लेकिन मेरी कौन सुनता है? यहाँ तो काशी नरेश के खानदान से मुक़ाबला करना जो है।” शिवधनी खीझ कर कहते ,“ अरे आ जाएगा , काहे मरी जा रही हो? इतना अनाज पिसान आया है उसको तो साफ करने रखने की ताकत नहीं है, खाली कैलाश के पीछे पड़ी रहती हो। हमको मालूम है , जब से खनमन के यहाँ से उसने रिश्ता ठुकराया है तभी से उसके साथ छत्तीस का आंकड़ा है।“
दरअसल खनमन शिवधनी की पत्नी के मायके से ताल्लुक रखते थे और कैलाश के मँझले बेटे से अपनी पुत्री की शादी की कोशिश में थे। कैलाश का पुत्र वैसे तो दसवीं में 6 साल फेल होने के बाद अदलहाट कस्बे में केबल चलाता था और नई पुरानी हिन्दी-अँग्रेजी फिल्मों की ‘पाइरेटेड’ सीडी बेचता था। लगन के दिनों में शहर में शादी –विवाह समारोह आदि में वीडियोग्राफी भी करता था। अब न जाने इस शहर की हवा का असर था या कि लगातार फिल्म देखने का या इसमें केबल टीवी का योगदान था। उसने खनमन की पुत्री जो कि बारहवीं तक पढ़ी थी, के रिश्ते को उसे काली कहकर ठुकरा दिया था। खनमन इस नकार को दहेज बढ़ाने का संकेत मानकर रकम दूनी करने के साथ दो जोड़ी भैंसें और स्कूटर को बढ़ाकर बुलेट करने पर भी राजी थे। कैलाश की भी अर्ध सहमति क्रमशः सहमति बनते हुए पहले से प्रबल होने लगी थी। लेकिन लड़का अपनी नकार पर कायम रहा। यह बाद में पता चला कि वह शोभा के बहकावे में आ गया जो कि उन दिनों बंबई से गाँव आए थे और कैलाश के मँझले बेटे को अपनी सबसे छोटी साली के लिए उपयुक्त समझने के बाद उसे बंबई के सपने दिखाने लगे थे।
लेकिन, इस रहस्योद्घाटन के बाद भी शिवधनी की पत्नी की चिढ़ कैलाश से कम न हुई। क्योंकि कैलाश से खनमन की बेटी की सिफ़ारिश उन्होंने भी की थी। उन्हें अंदाजा भी न था कि उनका बंटाईदार उनकी बात का मान न रखेगा। उनका तर्क था कि बेटे की इतनी हिम्मत जो बाप को मना कर दे। यह कैलाश का ही किया कराया है, जो उसने मेरी सिफ़ारिश भी नहीं मानी। अब कैलाश द्वारा हिसाब न किए जाने से उन्हें भरपूर मौका मिल गया था। शिवधनी जब भी घर आते या दफ्तर जा रहे होते, उनका निंदा पुराण चालू हो जाता।
उन्हीं दिनों शिवधनी के कार्यालय में कर्मचारी संघ के चुनावों की घोषणा हुई। शिवधनी कई वर्षों तक कर्मचारी संघ के पदाधिकारी रह चुके थे। स्थानीय होने के नाते कर्मचारियों के बीच उनकी अच्छी पकड़ थी। उनके गुट के समर्थन के बिना कोई भी उम्मीदवार चुनाव जीतने की सोच भी नहीं सकता था। इसी कारण आजकल उनके घर मिलने-जुलने वालों और भावी प्रत्याशियों का आना जाना बढ़ गया। कभी कभी तो इतने लोग आ जाते कि चाय पिलाते-पिलाते घर में दो भैंसों का दूध भी कम पड़ जाता। एक दिन पगहा तोड़कर भैंस के बच्चे ने सारा दूध पी लिया। शाम को जब दूध दुहने के लिए बड़ा बेटा बाल्टी,रस्सी लेकर पहुंचा तो पिन्हाने के बाद एक भी बूंद दूध नहीं। रात को बिना दूध सभी ने भोजन किया, लेकिन उसके आधे घंटे बाद जब शिवधनी दूरदर्शन पर हिन्दी समाचार देख रहे थे और उनकी पत्नी ईंट के टुकड़े से तवा चमका रही थीं, दरवाजे पर दस्तक हुई।
लुंगी को दोबारा कस कर बांधते हुए शिवधनी ने दरवाजा खोला। बाहर तीन लोग थे। उनके साथी कर्मचारी और मित्र संकठा पाँड़े- उम्र करीब 55 साल , एक तथकथित युवा नेता राजेश- उम्र करीब 45 साल और मोहल्ले के झंटू सरदार- उम्र करीब 50 खड़े थे। तीनों को उन्होंने सादर अंदर बुलाया। कहने की जरूरत नहीं कि संकठा के समर्थन के लिए शिवधनी से आग्रह करने के लिए तीनों आए थे। संकठा थे तो शिवधनी के मित्र लेकिन हमेशा विरोधी गुट से खड़े होते और चुनाव हार जाते। इसी बीच छोटा बेटा गुड़ के साथ पानी रख गया। सबने पिया। मेहमान नवाजी के निर्वाह के लिए शिवधनी ने तीनों से भोजन करने के लिए कहा। पत्नी पीछे से सुन रहीं थीं। सारी रसोई निबटा कर अभी उठी ही थीं कि ये तीनों सज्जन आ गए। भोजन के लिए मनुहार की आवाज़ आते ही जैसे उनके तन बदन में आग लग गई। मन ही मन इष्टदेव को याद किया कि भगवान कृपा करो! और कृपा हो गई। तीनों ने भोजन से साफ इंकार कर दिया। पत्नी ने राहत की सांस ली। लेकिन शिवधनी अतिथि सत्कार में इस कदर डूबे हुए थे कि संकठा से बोल पड़े,“ गुरु जी भोजन की इच्छा नहीं है तो कोई बात नहीं लेकिन चाय के लिए आप मना मत करिए” और इसी के साथ आदेशात्मक स्वर में छोटे बेटे को आवाज़ दी ‘ अबे सिंटू चाय ले आओ और बिस्कुट भी ‘। पत्नी का क्षणिक सुख फिर से संकट में पड़ गया। रात के दस बजे दूकान बंद। अगर दूध के लिए बेटे को गोदौलिया सट्टी भेजें तो घंटा भर से कम न लगेगा। पड़ोसी से कैसे मांगे? अभी कल ही सिंटू की डब्लू से मारपीट के चक्कर में उसकी मम्मी से लड़ाई हुई है। अब किस मुंह से दूध मांगे? और क्यों मांगे जिसके घर दो दो भैंसें बंधी हों, वो क्या दूध माँगेगा। अभी वे इस उधेड़बुन में ही थीं कि शिवधनी ने चाय के लिए दोबारा आवाज़ लगाई। पत्नी को यह बात खल गई कि यह जानते हुए कि आज दूध नहीं है, शिवधनी बार बार चाय के लिए क्यों ज़ोर दे रहे हैं। उन्होंने अंतिम बार मर्यादा का पालन करते हुए दरवाजे से हर संभव विनम्र आवाज से कहा कि आज शाम को भैंस लगी नहीं। कहिए तो शर्बत घोल दें। शिवधनी को यह अपमान लगा और वो आपा खो बैठे । घर के प्रबंध कौशल की कमी से होते हुए, लड़कों के पढ़ाई में ध्यान न देने आदि के विषय शामिल कर लिए गए और धीरे धीरे बात में पत्नी के मायके के कुप्रबंधन का जिक्र कर बैठे । बस अब क्या था पत्नी का गुस्सा फूट पड़ा। इस बहस को तीनों आगंतुक जितना रोकने का प्रयास करते , बहस नई दिशा में मुड़ जाती। कुछ देर बाद शिवधनी नें संपन्नता की ठसक के साथ एक निर्णयात्मक स्थापना दी, “ गुरु जी घर में कौनों चीज की कमी नहीं है, लेकिन इन काहिलों के चलते बरकत नहीं है।“
पत्नी ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया,“ बस कीजिए बहुत बोल चुके। एक एक चीज सहेज कर रखते हैं हम। आप की तरह लुटाते रहते तो न जाने क्या हाल होता इस घर का?” और इसके साथ ही उन्होंने कैलाश पुराण की व्याख्या कुछ इस तरह से की कि तीनों मेहमानों और स्वयं शिवधनी को भी यह संप्रेषित हो गया कि, कैलाश भले ही बेईमान और धूर्त है, लेकिन शिवधनी निहायत डरपोक, दब्बू और आलसी व्यक्ति हैं। बात और आगे बढ़ती लेकिन अचानक बिजली चली गई और तीनों मेहमान भी चले गए।
इसके बाद शिवधनी और उनकी पत्नी के बीच जम कर झगड़ा हुआ। एक दूसरे के खानदान से लेकर व्यक्तिगत व्यवहार तक सभी मुद्दे गिनाए गए। बड़े बेटे ने जब बीच बचाव की कोशिश की, तब उत्तेजना के मारे शिवधनी ने उसे एक अमर्यादित गाली दे दी। और यहीं वह गलती कर बैठे। अब तो पत्नी आग उगलने लगीं और उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हुआ। वह झगड़े से पीछे हट ही रहे थे कि उनकी कमजोरी देख पत्नी का जोश बढ़ गया और उन्होंने सरे आम चुनौती दे दी कि अगर हमसे मन पक गया है तो जाकर दूसरी औरत ले आओ। उन्होंने यह भी घोषणा कर दी कि कल वो मायके जा रहीं हैं। अगली सुबह वो सच में मायके चली गईं। यह बाद में पता चला कि मायके जाने की वजह शिवधनी से झगड़ा कम बल्कि लल्ला सुनार के यहाँ से पुरानी पायलें बादल कर नई लेना ज्यादा थी।
पत्नी के जाते ही शिवधनी पर काम काज का बोझ बढ़ गया। भैंसों को चारा देना, दुहना, दफ्तर के लिए तैयार होना, घर की सफाई आदि का प्रबंध करते करते सुबह के 9 बज जाते और खिचड़ी खाकर कितने दिन गुजारा करते। चौथे दिन ही वे दोपहर का भोजन दफ्तर की कैंटीन में लेने लगे। जब उनके साथी कर्मचारियों ने देखा कि वे दो-तीन दिन से लगातार कैंटीन में खा रहे हैं, तब दफ्तर में खुफुसाहट शुरू हुई। लगातार कैंटीन का भोजन अपने आप में इस बात का संकेत था कि घर से भोजन नहीं मिला। कैंटीन में वही खाता था जो या तो परिवार से दूर था या अविवाहित। तीसरे दिन संकठा पाँड़े ने उन्हें घेर लिया। शुरुआती ना नुकुर के बाद शिवधनी ने सारा आख्यान सुना दिया।
संकठा ने उन्हें साफ-साफ कहा कि कैलाश की नीयत में खोट है। या तो उसको खबर दी जाए कि यहाँ आकर हिसाब करो या फिर वहीं चलकर कड़ाई से वसूली की जाए। इस क्रम में उन्होंने रुपौंधा के आसपास के रसूखदार लोगों के नाम बताए और उनसे अपने गहरे सम्बन्धों का दावा भी कर दिया। यद्यपि शिवधनी के लिए संकठा की ऐसी डींगें नई न थीं, परंतु उन्हें यह योजना पसंद आ गई। तय हुआ कि पहले कैलाश को बुलाया जाए।
नब्बे के दशक में टेलीफोन हर जगह नहीं पहुंचा था। इसलिए कैलाश को खबर करने का मतलब था किसी को भेजना या खुद जाना। अंतर्देशीय या पोस्टकार्ड भी लिखा जा सकता था, लेकिन महज इक्कीस किलोमीटर की दूरी के लिए पत्र लिखना व्यावहारिक न था और इस बात की कोई गारंटी न थी कि पत्र का जवाब आएगा भी। एक सप्ताह बाद ही शाम को शिवधनी अपने घर के चबूतरे पर बैठे चाय पी रहे थे। बड़ा बेटा दो दिन पहले ही अपने ननिहाल से माँ को ले आया था। आखिर माँ का दिल बच्चों के खाने-पीने की दिक्कत देख पिघल गया और वे बिना मान मनौवल मायके से वापस आ गईं। झंटू पहलवान उधर से गुजरे। दुआ सलाम के बाद पूछ बैठे कि भौजी अभी आ गईं या नहीं। सकारात्मक उत्तर देने के साथ ही शिवधनी ने यह भी बताया कि अभी भी बोलचाल बंद है।
झंटू सरदार दूध के कारोबारी थे। एक बड़े तबेले के मालिक और पहलवान भी। बनारस में दूर-दूर से आने वाले बल्टहे उन्हें जानते थे और इज्ज़त करते थे। दूधियों को बनारस की आम भाषा में बल्टहा कहा जाता है। उन्होंने सुझाया कि रुपौंधा से आने वाले बल्टहों के द्वारा कैलाश को इत्तला की जाए। मौखिक फिर लिखित। इन्हें अनुमान था कि बल्टहों के माध्यम से खबर गाँव में पहुंचेगी तो कैलास खुद ब खुद हिसाब कर जाएगा। शिवधानी को यह तरकीब भा गई।
लेकिन कैलाश किसी और ही मिट्टी का बना था। उसने किसी भी संदेश पर कोई तवज्जो नहीं दी। जैसा कि मानवीय स्वभाव की कमियाँ है, शिवधनी के पूछने पर बल्टहे कैलाश के काल्पनिक उत्तर को बहुत अतिशयोक्ति से नमक मिर्च लगाकर बताते। सच कहें तो बल्टहों को मजा भी आने लगा, क्योंकि शिवधनी के घर चाय पानी का आसरा भी हो जाता था। बीस पचीस किलोमीटर साइकिल से दूध ले जाने में एक ब्रेक के तौर पर यह उनके लिए आकर्षक प्रस्ताव था। एक दिन हद हो गई जब भोनू नामक बल्टहे ने कैलाश के अनकहे शब्दों की सूचना देते हुए उसमें चुनौती का स्वर भर डाला, “ अगर अमुक अंग में दम हो तो शिवधनी यहाँ से एक दाना ले जाकर दिखाएँ।“यह चुनौती शिवधनी, झंटू सरदार, राजेश नेता आदि को बहुत नागवार गुजरी। तय हुआ कि ‘भय बिनु होई न प्रीति’।
अगली शाम ही शिवधनी के घर एक बैठक हुई। बकाया तगादे की वसूली की योजना पर बातचीत के लिए शिवधनी, झंटू सरदार, राजेश नेता के साथ संकठा भी थे। बात राजेश नेता ने शुरू की,कि पहले किसी बहाने से कैलाश को यहाँ बुलाया जाए और बंधक बनाकर उसकी जमकर पिटाई की जाए। जब तक उसके लड़के सारा अनाज या रकम नहीं पहुँचाते, तब तक उसको छोड़ा न जाए। झंटू पहलवान ने पुरजोर समर्थन किया। शिवधनी अभी कुछ कहते कि संकठा पाँड़े बोल पड़े,‘ अबे घर बुलाकर मारपीट करना कायरता है और मर्यादा के खिलाफ भी।‘ तब राजेश ने कहा कि क्या उसके गाँव जाकर पीटे? फिर यह तय हुआ कि मारपीट, थाना पुलिस आदि से नया बखेड़ा खड़ा होगा। कुछ ऐसा किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे और कैलाश डर भी जाए। बहुत देर तक बहस चलती रही। एक से एक खतरनाक हल प्रस्तुत किया गया, यहाँ तक कि खलिहान में आग लगा देने से लेकर कैलाश के परिवार पर भूत प्रेत का साया चढ़ा देने तक की योजना बनाई गई । फिर तय हुआ कि कुछ लोगों को लेकर उसके गाँव चला जाए। वहाँ के भी मानिंद और रसूखदार लोगों को बुलाकर फैसला कराया जाए। लेकिन इतने लोगों को एक साथ बुलाना कम मुश्किल काम न था। सबके आने जाने, खाने पीने का खर्च उठाने को शिवधनी हिचक रहे थे। फिर झंटू पहलवान ने एक नायाब सुझाव दिया जिसपर सभी ने हामी भर दी।
सुझाव यह था कि किसी दिन बिना बताए शाम को चलें जिससे कि कैलाश घर पर ही मिल जाए। सभी को मालूम था कि शाम के समय वह गाय भैंसों की सानी पानी के लिए घर पर ही मिलेगा। चूंकि शाम के बाद सवारियाँ नहीं मिलती इसलिए अपने साधन से ही जाया जाए। कम से कम दो मोटर साइकिलों पर 4-5 लोग चलें जिसमें कम से कम एक बंदूकधारी हो। इसके लिए झंटू के बड़े बहनोई जो कि पुलिस विभाग के रिटायर्ड हवलदार थे, उपयुक्त व्यक्ति थे। और तो और शान बढ़ाने के लिए उनके पास एक दोनाली बंदूक और एक पुरानी बुलेट मोटर साइकिल थी जिसके आगे और पीछे की नंबर प्लेटों पर पुलिस भी लिखा था। बैठक के पीछे से जैसे ही शिवधनी की पत्नी ने उनका नाम सुझाया, संकठा बोल पड़े, वाह सरदारिन क्या दिमाग लगाया है। इस तारीफ से शिवधनी की पत्नी इतनी खुश हुईं कि बिना देर किए घोषणा कर दी,“अब सब लोग यहीं खाना खा कर जाएंगे, मैंने पूड़ी का आटा सान दिया है”। दूसरा वाहन संकठा की 1978 मॉडल प्रिया स्कूटर थी। चलने का दिन अगला शनिवार की दोपहर बाद का रखा गया जिससे संकठा और शिवधनी को दफ्तर से छुट्टी न लेनी पड़े। बाकी दोनों अपनी मर्जी के मालिक थे।
शनिवार को शिवधनी के घर सबसे पहले दोपहर एक बजे के करीब बुलेट पर सवार कंधे पर दोनाली बंदूक लटकाए झंटू के बहनोई दाखिल हुए। सफ़ेद शर्ट के साथ खाकी पैंट और काले जूतों के साथ मोजा भी खाकी था, ताकि पुलिसिया रोब गालिब रहे। चाय नाश्ते के बाद थोड़ी न नुकर के साथ उन्होंने भोजन भी किया और बीच बीच में अपना बखान भी करते रहे,कि बहुत दिनों से किसी को धमकाया नहीं। फलां थाने पर फलां विधायक के भतीजे को कैसे पीटा था या फलां डकैत को कैसे काबू में किया था आदि आदि। लोग हाँ में हाँ मिलाते रहे। कुछ देर बाद सफ़ेद कुर्ते पाजामे में लक़दक़ राजेश नेता भी आ गए और हवलदार साहब को डींग हाँकते देख उन्होंने ने भी अपनी शान में कसीदे पढ़ने शुरू किए। परिणाम यह हुआ कि यात्रा शुरू करने से पहले ही दोनों में एक अनचाही दूरी बन गई। कुछ देर में झंटू पहलवान और संकठा भी आ गए। तब तक काम शुभ होने की कामना के साथ शिवधनी की पत्नी ने सभी को बड़े कटोरे में दही और ऊपर से मुट्ठी भर चीनी डालकर पेश किया। इसके बाद लोगों ने प्रस्थान किया। बुलेट पर हवलदार के साथ राजेश नेता और झंटू बैठे। स्कूटर पर संकठा और शिवधनी सवार हुए।
घर से निकलते ही पेट्रोल पम्प पर शिवधनी ने दोनों वाहन मालिकों के बहुत मना करने के बावजूद लगभग पचास किलोमीटर के अंदाजा लगा कर पाँच-पाँच लीटर पेट्रोल भरवा दिया। यद्यपि हवलदार साहब ने पेट्रोल भरने से पहले बहुत मना किया लेकिन स्कूटर में भी बराबर का पेट्रोल डाले जाने से वो कुछ उदास हो गए। उनका मानना था कि दोनों वाहनों के माइलेज में काफी अंतर है। चूंकि शिवधनी के पास न तो कोई दुपहिया थी और न ही उन्हें चलाना आता था, इसलिए उन्होंने संकठा को ही इस निर्णय का जिम्मेदार माना। यही कारण है कि पेट्रोल पम्प पर जब संकठा ने कोई मज़ाक किया तो उन्होंने कोई तवज्जो न दी। इसके बाद दोनों वाहन रुपौंधा की तरफ बढ़ चले। लंका के 2 किमी बाद ही गंगा नदी पर बना रामनगर के पीपे का पुल था। बुलेट तो रेत पर बिछी लोहे की चादरों और लकड़ी के तख्तों से होते हुए मिनटों में गंगा पार की चढ़ाई पर पहुँच गई लेकिन स्कूटर इसी पार लोहे की चादरों की लाइन में जहां से चादर गायब थी वहीं फिसलकर रेत में फंस गई। उस पार करार पर पहुँच कर बुलेट सवारों ने स्कूटर को देख मज़ाक उड़ाया। हवलदार को संतोष मिला और पेट्रोल वाले अन्याय की तपिश कुछ कम हो गई। जब तक स्कूटर सवार इस पार करार तक आते उन्होंने एक गुमटी वाले को तीन पान लगाने का आदेश दे दिया।
लगभग 10 मिनट बाद स्कूटर भी वहाँ आया। हवलदार ने शिवधनी से मुखातिब होकर स्कूटर पर फब्ती कसी। झंटू ने भी उसको सेकेंड हैंड बिकवाने का जिम्मा ले लिया। संकठा चुप ही रहे। यद्यपि बुलेट सवार पान खा चुके थे लेकिन मर्यादा स्वरूप उन्होंने स्कूटर वालों के लिए भी पान लगाने का आदेश दिया और पान के पैसे देने के लिए भी हवलदार और संकठा के बीच एक स्पर्धा हो ही रही थी कि शिवधनी ने पान वाले को बीस का नोट थमा दिया। यह तय हुआ कि अब दोनों वाहन साथ ही रहेंगे। कोई दूसरे को छोडकर आगे नहीं भागेगा और न ही रेस लगाएगा। अब राजेश नेता बुलेट से स्कूटर पर आ गए थे और दुनाली अपने कंधे पर रख लिया जिससे बुलेट सवारों को कुछ आराम मिल गया था।
रामनगर से लगभग पौन घंटे में दोनों वाहन अदलहाट बाजार पहुंचे। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। धूप कुछ कम हो गई थी। कैलाश के बहनोई की खली भूसे की दुकान बाज़ार के आखिरी छोर पर थी, जहां शाम के वक़्त अक्सर कैलाश पशुओं के चारे और खली चूनी के लिए आ जाता था। यद्यपि यह वक़्त दूध दुहने का था फिर भी ये लोग कोई चूक न हो, इसलिए एक बार दुकान पर नज़र मार लेना चाहते थे। तय हुआ कि एक वाहन दुकान के सामने से बिना रुके एक चक्कर मार कर आ जाए। चूंकि बुलेट पर सबकी नज़र पड़ जाती है और कैलाश के बहनोई को शिवधनी के अलावा झंटू ही पहचानते थे इसलिए झंटू को संकठा के साथ भेजा गया और बाकी तीनों एक चाय की दुकान पर रुक गए।
शिवधनी नें दुकान से पानी का मग लेकर पान थूकते हुए कुल्ला किया, चेहरा धोया धूल साफ की और चायवाले को पाँच चाय बनाने को कहा। तब तक स्कूटर वापिस आ गया झंटू ने कैलाश के न होने की सूचना दी। सब चाय पीने बैठे। राजेश नेता की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि लोग उन्हें नेता समझें। इसलिए उन्होंने कंधे से दुनाली उतार कर बेंच पर खड़ी करते हुए चायवाले को जो कि किशोरवय था आदेश दिया,“ अबे देख तई कड़क पत्ती धुआंधार छनाका मार के चाय बनाव तअ,अगर बढ़िया नहीं बनी तो एक पैसा नहीं मिलेगा ” चायवाले ने अपने ही तरीके से ही दोयम दर्जे की चाय बनाई। शिवधनी व संकठा ने आधी छोड़ भी दी,लेकिन राजेश नेता अपने चेतावनी की इज्ज़त का असर दिखाने के लिए बोल पड़े,‘देख अब बनी है मस्त चाय’। इसपर बाकी तीनों कुढ़कर रह गए। चाय पीकर तरोताजा होने के बाद सभी ने गोपाल ज़र्दा और भोला जाफरानी युक्त मगही पान का बीड़ा मुंह में दबाया और रुपौंधा के तरफ बढ़ चले। अभी 3-4 किमी और जाना था।
सड़क निहायत कच्ची और टूटी हुई थी इसलिए गति भी धीमी थी। गाँव के आधा किमी पहले ही चकरोड़ के बगल से शिवधनी की जमीन शुरू होती थी। कुल चौदह बीघे से थोड़ी अधिक जमीन थी। रबी की फसल के लिए जुताई भी हो चुकी थी लेकिन अभी बुवाई नहीं हुई थी। शिवधनी के इशारे पर दोनों वहाँ रुके और गाड़ी पर बैठे बैठे ही उन्होंने एक नज़र उनके खेतों को देखा। शिवधनी ने खेत की चारों सीमाओं से बाकी को अवगत कराया। खेत का आकार देख हवलदार बोल पड़े- “बताइए यह साला इतने बड़े रकबे पर ऐय्याशी कर रहा है और आप वहाँ उल्लू बने बैठें हैं.”
वैसे तो कैलाश का पुश्तैनी मकान गाँव के भीतर जाकर था लेकिन दो फ़र्लांग पहले ही उसने अपना अड़ार बना रखा था। अड़ार यानी ठीहा। इस अड़ार में एक कच्चे कमरे से लगी दो झोपड़ियाँ थीं। झोंपड़ी के बरामदे में एक खँचिया पलटी हुई थी, जिसके ऊपर एक कठौता और उसके ऊपर सिल-लोढ़ा रखा हुआ था। पहली झोंपड़ी में दो-तीन खाट और दूसरे में भूसा भरा था। बगल में ही कुआं था। कुएं के दूसरी तरफ दो बैल, एक गाय और एक भैंस बंधी थी। बीच की जगह में पुआल का एक बड़ा सा ढेर था। दोनों गाड़ियाँ यहीं रुकी । वहाँ एक 14-15 साल का बच्चा चारे की मशीन से चारा काट रहा था। स्कूटर से उतरते ही राजेश नेता नें दुनाली बंदूक को कंधे से उतारकर इस तरह हाथ में लिया की उसकी नली सामने की ओर कुछ झुकी रहे और बच्चे से पूछा,‘ अबे कैलसवा कहाँ है?’ बच्चे ने अनमनस्य भाव से बताया,दादा नहीं हैं। अबकी शिवधनी ने पूछा कि,‘कहाँ गए और कब तक आएंगे ?’ तब बच्चा जो कि शिवधनी को पहचानता था,चारे की कटाई छोड़ उनके पास आया, पाँव छुए और बोला कि ‘अभी घंटे भर पहले यहीं थे मालूम नाहीं कहाँ गए’। इतना कह कर उसने झोपड़ी से दो चारपाइयाँ निकाली और दोनों पर पुराने से गद्दे बिछा दिए। इसके बाद वह साइकिल उठाकर संभवतः घर पर बताने के लिए चला गया।
पांचों सज्जन चारपाइयों पर बैठे थे। कुछ हताश भी थे। राजेश नेता ने चुप्पी तोड़ी,‘लगता है ससुरे को हमारे आने की खबर लग गई और भाग गया। चलिए अब वापस चला जाए। बड़ा बेटा भी अब गाँव में रहता नहीं तो क्या अब पतोहू से हिसाब किया जाएगा।’ झंटू पहलवान बोले,‘अभी रुक जाते हैं। लड़कवा घर गया है चाय पानी लेने। जब आ जाए तब बिना पानी पिये चला जाएगा, ताकि कैलसवा को मालूम हो कि हम लोग गुस्से में लौटे हैं’। यह सुनते ही हवलदार साहब भड़क गए। सब आपलोगों के कारण हुआ है,‘घर से निकले नहीं कि गंगा पार होते ही पान चाहिए। फिर क्या जरूरत थी बाज़ार में चाय नाश्ता करने की? जब पता है कि रुपौंधा के बल्टहे दूध देकर बनारस से दोपहर बाद इसी रास्ते से लौट रहे होंगे तो बार बार रुकने का कोई मतलब ही नहीं था। भला कोई बीस किलोमीटर के सफर में वो भी गाड़ी से दो दो बार रुकता है? अब खोजिए कैलसवा को। हमको पूरा शक है कि किसी बल्टहे ने ही खबर की है’। हवलदार के गुस्से के का किसी ने प्रतिवाद न किया। सूरज अब डूबने ही वाला था। सब शांत बैठे थे और गाँव की तरफ देख भी रहे थे कि कौन आता है।
लगभग दस मिनट बाद पीछे से साइकिल की घंटी और एक आवाज आई,पाँय लगीं भईया। सभी ने सड़क की दूसरी तरफ देखा और स्तब्ध रह गए। साइकिल सवार कैलाश था। कंधे पर गंदा सा गमछा, आधी बांह का कुर्ता ,चारखाने की लुंगी और पैरों में बाटा की सैंडक की बहुत पुरानी कई बार मरम्मत हो चुकी चप्पल। साइकिल के हैंडिल पर एक झोला लटका हुआ था।
कैलाश ने कुएं के सहारे साइकिल खड़ी की, झोले को झोंपड़ी की खूंटी से टांगा, दो तीन तकिये उनलोगों के पास रखे,और बाल्टी उठाकर कुएं से पानी भरने लगा। इन पांचों सज्जनों में से कोई कुछ बोल पाता इससे पहले कैलाश ने बोलना जारी रखा। “भईया पानी निकाल देता हूँ, आपलोग हाथ मुंह धो लें। हमको तो तीनई बजे मालूम हो गया था कि आप लोग आ रहे हैं”। राजेश नेता टोक पड़े, गजब जासूस फिट किए हो यार’। कैलाश कहता गया, “अरे उ रमेसरा का लड़का दसासुमेध से बंधी निपटा के लौट रहा था, उसी ने बताया कि भईया लोग इधरै आ रहे हैं। हम सोचे कि अभी चले हैं तो डेढ़ दू घंटा लगेगा तब तक शाम हो जाएगी। और पहली बार पाँड़े जी, पहलवान, बहनोई और नेता जी दुआर पे आ रहे हैं त बिना जूठा गिराए जाने थोड़े देंगे। इसलिए भाग के इमिलिया चट्टी गए आ प्रधानजी के यहाँ से दू ठो देसी मुर्गा ले आए’। इस वाक्य के खत्म होने तक शिवधनी के अलावा चारों व्यक्तियों की कैलाश के प्रति अवधारणा कुछ कुछ बदलने लगी थी। ये चारों बंटाई और तगादे के प्रति तटस्थ से होने लगे थे। कैलाश बोलता रहा,‘उसके बाद अदलहाट गए थोड़ा मर-मसाला,बिलइती भिस्की और पान-सिगरेट लेकर बाजार चले ही थे कि पाँड़े जी का स्कूटर दिखा। हम हाथ भी दिए लेकिन पाँड़े जी ने अचानक वापिस घुमा लिया। तब हम जल्दी जल्दी खेत खेत होते हुए मेंड़ों के रास्ते साटकट भागे लेकिन भईया अब बुलेट और स्कूटर का साइकिल से बराबरी कैसे होगी’।
तब तक कैलाश दो बाल्टी पानी निकाल चुका था और घर से जलपान की सामग्री आ गई थी। थाली भर सूजी का गरम हलवा, एक थाली पकौड़ी, लोटे में चाय और कुछ बंधे हुए पान। राजेश और झंटू कुएं की जगत पर हाथ मुंह धो रहे थे। जलपान करते हुए इधर उधर की बातें होने लगी तभी शिवधनी थोड़े चिढ़े हुए बोले कि अरे हम लोग रुकेंगे नहीं,क्या जरूरत थी इस भाग दौड़ की। लेकिन शेष चारों ने उनकी बात पर कोई ध्यान न दिया। तब तक कैलाश ने खँचिया पर रखे कठौते और सिल बट्टे को हटा कर खँचिया से नीचे से दो मुर्गों को निकाला और उनके पैर बाँधकर झोंपड़ी के बरामदे मे सबके सामने लटका दिया। यद्यपि सूरज डूब चुका था पर अभी भी उजाला पर्याप्त था। ऐसे रंग बिरंगे देसी मुर्गों को देख संकठा बोल पड़े,’अरे भईया शहर में ई सब माल कहाँ मिली? शिवधनी फिर बोले, ई सब रहने दो एतना टाइम नहीं है हम लोगों के पास। अक्तूबर की ढलती शाम, पितृ पक्ष आरंभ होने से महज दो दिन पहले का दिन और देसी मुर्गा, बिलइती भिस्की, जूठा गिराना जैसे शब्दों का गुंफन और सबसे बढ़कर कैलाश की अतिशय विनम्रता, इन सबके मिले जुले प्रभाव के बीच किसी ने शिवधनी की बातों का समर्थन तो दूर हाँ में हाँ तक ना मिलाया। हवलदार को अपनी दुनाली गैरज़रूरी महसूस होने लगी।
कैलाश अचानक साइकिल लेकर कर कहीं लपका। झंटू ने आवाज़ दी, ‘कहाँ यार’। कैलाश ने उत्तर दिया कि पहलवान बस दो मिनट में आए। शिवधनी ने दोबारा समय न होने की बात दुहराई। अब संकठा बोल पड़े,‘अब कैलसवा एतने मन से इंतजाम किया है, त तोहें टाईम नाहीं हव। अरे भाई जब भगवान भी प्रेम और श्रद्धा के आगे कुछ नाहीं कर पाए त हमार तोहार कौन औकात?’ शिवधनी समझ गए कि देसी मुर्गे और व्हिस्की देख इन लोगों ने पाला बदल लिया है,लेकिन बहस की मुद्रा में बोले,‘अरे गुरु भगवान प्रेम के आगे बेबस होते हैं लेकिन प्रेम सच्चा होना चाहिए। ई कैलसवा जइसे मक्कार के घड़ियाली और दिखावटी प्रेम से भगवान थोड़े ही प्रसन्न होंगे’। यद्यपि संकठा और शिवधनी गहरे दोस्त थे लेकिन शिवधनी का यह उत्तर संकठा को अपने कुल,जाति और शिक्षा पर प्रश्नसूचक महसूस हुआ। रही सही कसर राजेश नेता ने पूरी कर दी,‘अरे पाँड़े जी है कोई जवाब कि घोड़ी बढ़ाया जाए’ संकठा ने इसे चुनौतीपूर्ण शास्त्रार्थ के रूप में लिया और बोले,‘देखो भाई प्रेम और श्रद्धा का कोई मुक़ाबला नहीं है। अब ई जितने रावण, बाणासुर, भस्मासुर भगवान से वरदान पाए, उ अपने तपस्या और प्रेम से ही न पाए। और क्या भगवान को पता नहीं था कि ये साले आगे जाकर नंगा नाच करेंगे। लेकिन फिर भी भगवान ने राक्षसों को वरदान देने से मना नहीं किया। और शिवधनी की ओर इशारा करते हुए बोले कि एक ठे ई हऊवन कि एनके पास टाइम नाहीं हव।‘ इस बात पर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया। शिवधनी भी निरुत्तर होकर मुसकराने लगे।
तब तक कैलाश लौट आया। साइकिल पर एक 20-22 साल का लड़का था। कैलाश ने दो तीन गमछे और लुंगी लाकर चारपाई पर रखा और बोला कि भईया आपलोग थोड़ा कपड़ा बदल कर आराम से बइठें, तब तक ई लड़का शिकार बनाने की तैयारी करता है। इसके साथ ही उसने प्याज, लहसुन और मसाले आदि से भरा झोला खाली कर दिया। हवलदार पुलिस की नौकरी के दिनों से ही मीट मुर्गा बनाने में अपना सानी नहीं रखते थे। इसलिए वे लड़के से मीट पकाने का तरीका पूछने लगे। राजेश नेता ने लोटे में पानी भरा और बिना किसी लाग लपेट के गमछा लपेट कर खेतों की ओर बढ़ गए। कैलाश ने प्याज लहसुन आदि छीलना शुरू किया कि शिवधनी पूछ बैठे, कैलाश आजकल राती के घर नाहीं जईता। कैलाश ने उत्तर दिया नहीं भईया अब यहीं रात गुजरती है। घर से खाना पानी आ जाता है। जब से नीलगाय पिछली फसल चर गईं, तब से रात में अगोरना पड़ता है।
इस बीच लड़के ने मुर्गो को शहीद करके पकाने के लिए टुकड़ों में काट लिया था लेकिन ऐन वक़्त पर हवलदार साहब ने कमान संभाली और लड़के को यह कहते हुए वापिस कर दिया कि तुम जाओ हम लोग आराम से बनाएँगे और तुम्हें रात में गाँव लौटने में देर होगी। यद्यपि लड़का लौटना नहीं चाहता था लेकिन कैलाश ने उसे भेज दिया। राजेश निबटकर लौटे और कुएं पर नहाने लगे। कैलाश ने तुरंत झोले से निकाल कर मोती साबुन की बट्टी दी। झंटू ने भी मोती साबुन देख आश्चर्य व्यक्त किया और शायद साबुन के कारण ही नहाने चले गए। इधर चूल्हे पर आग सुलगा कर हवलदार मसाला भूनने में लगे थे और उधर संकठा का इशारा पाकर कैलाश ने चारपाई पर एक तख़्ता टिकाया और उसपर ‘बैगपाइपर’ की एक बड़ी बोतल और नमकीन के पैकेट और मिक्स भूजे के ठोंगे के साथ पाँच गिलास जमा दिए। पांचों गिलास अलग-अलग तरह के थे। संकठा ने बगल में रखा दालमोट का एक बड़ा पैकेट खोलकर जलपान के लिए आई पकौड़ियों की थाली में पलट दिया और हलवे की थाली को धुलवाकर उसमें सलाद काटने लगे।
चूंकि इस दल में संकठा सबसे वरिष्ठ थे और बाकी लोग उन्हें गुरु कहकर संबोधित करते थे इसलिए मदिरा वितरण में साकी की भूमिका उनका ‘डीफैक्टो’ अधिकार था। यह एक स्वतःस्फूर्त परंपरा है कि जब कुछ लोग एक साथ पीते पिलाते हैं तो वरिष्ठ व्यक्ति ही अधिकतर पेग बनाता है। हवलदार मसाला भूनकर बर्तन ढंकने के बाद आंच धीमी कर चुके थे। राजेश और झंटू का नहाना धोना भी समाप्त हो गया था। आकाश में चाँदनी कुछ गहरी हो गई थी। तभी संकठा ने आवाज़ दी,‘का सरदार तब महफिल जमै ’? वैसे प्रश्न शिवधनी को देखते हुए था लेकिन राजेश बोल पड़े,‘त अऊर का’। बस सभी लोग चारपाइयों पर जम गए। कैलाश नीचे ही बैठा रहा। गिलास पाँच ही थे, कैलाश के लिए गिलास नहीं था। संकठा ने पूछ कैलाश तू कौने चीज में लेबा? कैलाश ने हाथ जोड़कर कहा,‘अरे भईया आप लोग लें अगर बची त हम बाद में ले लेब’। इस विनम्रता पर झंटू लगभग रीझते हुए बोले ‘अरे नाहीं यार लियाव कौनों गिलास उलास अगर होय त’। कैलाश ने पुनः मना कर दिया, नहीं आप लोग लें। यह मान मनौव्वल कुछ देर और चलती अगर शिवधनी ने इसका कुछ कठोर स्वर में पटाक्षेप न कर दिया होता, ‘अबे लियाव एक ठे गिलास, तेल लगवावत हउवन ..ड़ी के’। चूंकि गिलास उपलब्ध न था इसलिए चाय के एक जूठे कप को धोकर कैलाश ने संकठा को दे दिया। संकठा की एक आदत बाकी सभी को खटक रही थी लेकिन गुरु परंपरा का सम्मान करते हुए किसी ने आपत्ति न जताई। यह आदत कुछ ऐसी थी कि दूसरों का पेग बनाते वक़्त संकठा बोतल से व्हिस्की ऐसे डालते थे जैसे किसी को होमियोपैथी की दवा दे रहे हों,लेकिन खुद के पात्र में सहसा किसी प्रसंग को याद करते हुए दूसरों से दूनी या तिगुनी मात्रा डाल देते थे। इसके बाद यों स्वांग करते थे कि ओह गलती हो गई, ज्यादा चला आया। सब थोड़ा कुढ़ते लेकिन कोई न कोई बोल पड़ता अरे चढ़ा जा गुरु, सब भगवत कृपा हव।
इसके बाद कई दौर चले। चखना खत्म होने पर जांच के बहाने पक रहे मुर्गे के कुछ पीस निकाले गए । कैलाश के घर से चावल, रोटी, देसी घी और पत्तल इत्यादि लेकर उनका पोता आ चुका था। व्हिस्की खत्म हो चुकी थी। सुरूर में झूमते हुए शिवधनी और संकठा तरोताजा होने के लिए खेतों में चले गए। खाना एकदम तैयार था। राजेश ने उनको जाते देख आवाज़ दी, गुरु ज्यादा दूर मत जाइएगा। अंधेरा काफी है। इधरै मोर्चा ले लीजिए । खेत से आने के बाद लोटा माँजते हुए संकठा ने शिवधनी से कहा,‘एक बात हव शिवधनी ई कैलसवा भले केतनों कमीना हो लेकिन साला दिलेर है। कोई और होता तो हमारे आने की खबर पाकर मुंह न दिखाता, झूठ मूठ का बहाना करके कहीं भाग गया होता, लेकिन ई ससुरा यहीं डटा हुआ है। मरजाद भी बहुत कायदे से निभा रहा है। कुछ भी कहो है तो बेईमान लेकिन खानदानी है। आज के जुग में कउन ससुरा ऐसी आवभगत करता है। शिवधनी ने उत्तर दिया,‘गुरु हम भी इसका ऐसा रूप पहली बार देख रहे हैं’।
इसके बाद सभी ने बड़े धैर्य से देसी मुर्गे का लुत्फ लिया। खाना खत्म होने के बाद लोगों ने पान इत्यादि लिया। शिवधनी के घर के लिए एक बड़े झोले में कुछ ताज़ी सब्जियाँ कैलाश ने भर दी लेकिन कौन पकड़ेगा यह कहकर उसे लौटा दिया गया। रात के साढ़े दस बज चुके थे। इसके बाद दोनों वाहन स्टार्ट हुए। हवलदार बुलेट की किक लगाते हुए सोच रहे थे कि अब शायद शिवधनी कैलाश से कुछ तगादा करेंगे। लेकिन इसके उलट शिवधनी ने उनके पोते को जो जूठे बर्तन आदि समेत रहा था, बुलाया और एक बीस का नोट उसे देते हुए बोले, ले बे मिठाई खा लेना। संकठा ने हवलदार से आग्रह किया,- बहनोई थोड़ा धीरे ही चलिएगा आपकी बुलेट के आगे हमारी खड़खड़हिया कहाँ भाग सकेगी? हवलदार भी अपनी खुन्नस भूल कर बोले, गुरु जी आपै आगे रहँय हम लोग पीछे बने रहेंगे ।
इसके बाद दोनों वाहन बिना कहीं रुके सीधे बनारस पहुंचे। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। राजेश अपने घर के पास उतरे। हवलदार की दुनाली अब झंटू ने ले ली। कुछ और आगे झंटू और उनके बहनोई अपने घर के रास्ते की ओर अलग दिशा में मुड़ गए। शिवधनी का घर आने ही वाला था कि संकठा पाँड़े ने अचानक स्कूटर रोका और बोले,‘ कहो सरदार, का बतइबा सरदारिन के’?
शिवधनी दो पल सोच में पड़े और बोले, गुरु उ सब हम देख लेंगे लेकिन आप लोग माहौल ठंडा होने तक एकाध हफ्ता हमारे घर मत आइएगा।
संकठा ने शिवधनी को सायास उनके मकान के पाँच-सात घर आगे बढ़ाकर अकालू गुरु के मकान के सामने उतारा और तेजी से स्कूटर बढ़ा दिए।
May 5, 2018 @ 3:12 pm
पूरा आवभगत होगया की कुछ तगादा नही किंहये
बढ़िया कहानी???
अंतिम में 20 ₹ देना अच्छा लगा??
May 5, 2018 @ 3:51 pm
Mind blowing. लेखक को नमन। शब्द कम पड़ रहे हैं तारीफ में। बस इतना समझ लीजिए कि ऐसी लेखनी अरसे में कभी कभार आती है।
May 5, 2018 @ 6:21 pm
आपके शब्दों से अभिभूत हूं आनंद जी बहुत-बहुत शुक्रिया
May 5, 2018 @ 4:08 pm
बेहतरीन जैसे सब कुछ हमारे सामने ही रहा था। इन पात्रों में खुद का अक्श दिखा
May 5, 2018 @ 4:31 pm
क्या बात है I बिना रुके पढ़ता चला गया I एक एक प्रसंग दिल को छूने वाला I शानदार और गजब का प्रस्तुतीकरण I HATS OFF TO YOU SIR.
May 5, 2018 @ 4:42 pm
अच्छी कहानी। लेकिन इतने प्रयास के बाद भी तगादा न हुआ, आवाभगत का असर। सस्पेंस रह गया।
May 5, 2018 @ 5:58 pm
धन्यवाद हरीश जी अगर तगादा हो ही जाता तो फिर आवभगत किस बात की?
May 5, 2018 @ 5:23 pm
बहुत अच्छी कहानी
मुंशी जी की झलक मिलती है लेखन
बहुत अरसे बाद ऐसी कहानी पढ़ने को मिली
लेखक बधाई के पात्र हैं
May 5, 2018 @ 5:56 pm
अति सुंदर । बनारस का ठेठ अन्दाज़, गँवाई संस्कृति , छोटी छोटी चीज़ों जैसे लोटा माँजना, चाय वाले को डाँटना, बंदूक़ पकड़ने के अन्दाज़ का बयान और चरखने की लूँगी मुर्ग़ा रखने का अन्दाज़। बहुत ख़ूब सब अलटेरन साहित्य का अनूठा उदाहरण ।।लिखते रहिए बहुत ख़ूब ।।
May 5, 2018 @ 7:29 pm
कहानी दिल को छू गई कहानी।
May 6, 2018 @ 4:24 pm
कहानी ने दिल को छू लिया पढ़ते समय लगा सब कुछ सामने ही घटित हो रहा भाषा का गजब बनारसी अंदाज।
May 8, 2018 @ 2:27 am
Bahut badhiya likha janab. Padh k achcha lga.
May 14, 2018 @ 10:32 pm
Beautiful story, written in a beautiful way… pictorial description of aavbhagat a satire on the society..hats off to the author.
May 14, 2018 @ 10:42 pm
Of k baad aavbhagat h
May 18, 2018 @ 4:30 pm
अति सुन्दर कहानी सर , पढ़ कर बहुत आनंद आया, आवाभगत का रोमांचित तरीका दिल को छू लिया
March 13, 2019 @ 8:03 pm
बढ़िया आज दिखा पढ़ा और मजा ही आया
और उ देसी मुर्गा 2 ठौ मजा आ गया???