पद्मावत-जन्म खंड- भाग-2-पद्मावती और हीरामन
भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥
जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास ।
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥
अर्थ: बालिका पद्मावती धीरे-धीरे यौवन के बोझ से झुकने लगी. विधि ने उसे सभी कलाओं में श्रेष्ठ बनाया. संपूर्ण जगत उसके यौवन की सुगंध से सुरभित हो उठा और उसके सौन्दर्य से आकर्षित होकर भँवरे आसपास मंडराने लगे. उसकी वेणी (जूड़ा) नागिन के समान है, जो मलय पर्वत रुपी उसकी पीठ पर लहरा रही है. उसके माथे की चमक ऐसी है, जैसे द्वितीया का चन्द्रमा उसके मस्तक पर सुशोभित हो रहा है. उसकी भौंहें धनुष के समान हैं जो पुरुषों पर कटाक्ष के बाण चलाती हैं. आँखें ऐसे चंचलता से इधर-उधर फिरती हैं, जैसे जंगल में भटकी हिरणी रास्ता ढूंढती है. उसके नाक की कील कमल रुपी मुख पर तोते के समान शोभा दे रही है. इस पद्मिनी रूप पर संपूर्ण जगत मोहित हो गया है. उसके होंठ मणियों की तरह और दांत हीरों की तरह चमक रहे हैं. उसका ह्रदय उसके उन्नत स्तनों में उल्लास से उछल रहा है. उसकी कमर सिंह के समान और चाल हस्तिनी के समान है. देवता और मनुष्य सभी उसे देखकर सर झुकाने को विवश हो जाते हैं.
इस सृष्टि में कोई उसके समान नहीं है, इसलिए योगी, यति और सन्यासी भी उसे पाने की आशा में आकाश की ओर टकटकी लगाए तपस्या कर रहे हैं.
एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥
जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि ।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥
अर्थ: एक दिन पद्मावती ने अपने तोते हीरामन से कहा – “सुनो हीरामन, मुझे काम की पीड़ा हर दिन सताती है, जबकि मेरे पिता मेरे विवाह की बात भी नहीं कर रहे. मेरी माँ भी उनके भय से कुछ बोल नहीं पाती. कई देशों से युवक मेरा पति बनने की लालसा में आए, लेकिन मेरे पिता ने उन्हें वापस कर दिया. मेरे यौवन में गंगा के समान लहरें उठ रही हैं और दिनोंदिन कामदेव का प्रभाव बढ़ता जा रहा है.”
तोते ने कहा, “विधि का लिखा कोई मिटा नहीं सकता. तुम मुझे आज्ञा दो, मैं तुम्हारे लिए योग्य वर खोजने जाता हूँ. जब तक मैं वापस लौटूं, तुम धैर्य धारण करो.”
यह बात किसी दुष्ट ने सुन ली और जाकर राजा को बता दिया.
राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उडानू ॥
सुआ जो पढै पढाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥
मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ ।
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥
अर्थ: राजा ने जब सुना कि हीरामन पद्मावती को क्या बता रहा है, तो उसने तोते को मारने का आदेश दिया –“इस तोते को मार दो. जहाँ चाँद उगा है, वहाँ यह सूर्य की बातें करता है.” यह आदेश सुनकर तोते से खार खाने वाले उसकी ओर ऐसे दौड़े, जैसे बिल्ली तोते पर झपटती है. तब पद्मावती ने तोते को छुपा दिया और कहा- “पिता की आज्ञा शिरोधार्य है, लेकिन उनसे हाथ जोड़कर मेरी विनती कहना. यह एक पक्षी है, कोई चतुर बुद्धिमान नहीं. यह तो सिर्फ खाना और उड़ना जानता है. इसे बुद्धि नहीं. यह तो सिर्फ सुनी-सुनाई बातों को दोहरा सकता है.
इसे मोती-माणिक दो, यह उन्हें नहीं पहचानेगा, उन्हें अंगूर-अनार समझकर चोंच में भर लेगा.
वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला ? ॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा ?॥
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस ।
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥
अर्थ: तोते को मारने आने वाले पद्मावती की बात सुनकर लौट गए, लेकिन तोता डर गया था. उसने कहा- हे रानी, तुम जुग-जुग जियो. मैं अब जंगल में जाता हूँ. जब मोती की चमक एक बार चली जाती है तो वह निर्मल आभा दुबारा नहीं आती. जब मालिक ही मारना चाहे तो सेवक कब तक बच सकता है? जिस घर में काल रुपी बिल्ली का निवास हो, वहाँ पक्षी का बचना मुश्किल है. मैंने तुम्हारे राज में बहुत सुख देखे. पूछो भी तो उन सुखों का हिसाब नहीं दे सकता. जो भी इच्छा हुई खाया. अफ़सोस इसी बात का है कि तुम्हारी कोई सेवा नहीं कर पाया.
वही व्यक्ति किसी को बिना दुखी हुए मार सकता है, जिसे अपने पापों का कोई भय नहीं हो. अगर पड़ोस में बेर फल जाए तो केले का जीवन प्रसन्न कैसे हो सकता या वह प्राणी खुश कैसे रह सकता है, जिसका शत्रु उसके पड़ोस में हो.
रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया ?
हीरामन ! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा ? ॥
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई ?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥
सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥
अर्थ: पद्मावती ने द्रवित स्वर में उत्तर दिया-“ जब आत्मा चली जाय, तो शरीर कैसे जीवित रह सकता है. हे हीरामन, तुम मेरे लिए प्राणों के समान हो. तुमसे कभी मेरी सेवा करते चूक नहीं हुई. तुम्हें बिछड़ने के लिए मैं कभी नहीं कह सकती. तुम्हें मैं ह्रदय रुपी पिंजरे में डाल कर रखूंगी. मैं मनुष्य हूँ, तुम पक्षी हो. लेकिन, हमारे बीच जो प्रेम का बंधन है, उसे कोई कैसे समाप्त कर सकता है? सच्चा प्रेम शरीर के साथ विदा नहीं होता. सच्चा प्रेम वही है, जो आत्मा के साथ जाता है. प्रेम करने के बाद यह नहीं सोचना चाहिए कि इस रास्ते पर भला होगा या बुरा. जब प्रेम का बोझ कंधे पर उठा लिया तो वह ह्रदय से बंधा रहता है, अर्थात् यह बंधन टूट नहीं सकता.
पद्मावती के इन शब्दों से भी तोते के मन का खटका दूर नहीं हुआ. उसे लग रहा था कि मृत्यु कभी भी आ सकती है. जब नाव खेने वाला ही दुश्मन हो जाय तो वह कभी भी नाव डुबो सकता है.