पद्मावत-जन्म खंड- भाग-1-पद्मावती के जन्म की कहानी
चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥
भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥
सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप ।
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥
अर्थ : चंपावती के सुंदर रूप वाले शरीर में पद्मावती ने अवतार लेना चाहा. इस प्रकार इस सुंदर कथा का जन्म हुआ. यह विधि का विधान है, अर्थात जैसा होना लिखा है, उसे मिटाया नहीं जा सकता. पद्मावती जैसे दीपक से प्रकाशित होने के कारण सिंहल द्वीप का नाम संपूर्ण जगत में प्रसिद्ध हुआ. वह ज्योति पहले आकाश में निर्मित हुई और फिर अपने पिता के माथे की मणि बनी, अर्थात् अपने पिता की प्रसिद्धि का कारण हुई. तत्पश्चात वह ज्योति माता के घड़े रुपी कोख में आई, जहाँ उसने बहुत आदर पाया. जैसे-जैसे गर्भ बढ़ने लगा, दिन-प्रति-दिन माता का ह्रदय भी प्रकाशित होने लगा. जैसे झीने आँचल में दिये का प्रकाश नहीं छिपता, वैसे ही चंपावती के ह्रदय का प्रकाश भी स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था.
सोने के महल को भांति-भांति से सजाया गया और उसे चंदन से लीपा गया. शिवलोक की मणि दीपक बनकर सिंहलद्वीप में प्रज्वलित हो रही थी.
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥
इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ ।
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥
अर्थ: दस महीने पूरे हुए और वह घड़ी आई, जब पद्मावती ने अवतार लिया. ऐसा लगता है, जैसे सूर्य की किरणों से उसे गढ़ा गया है. सूर्य की किरणें भी उसके समक्ष कमतर प्रतीत होती हैं. उसके जन्म के कारण रात्रि में ही दिन का प्रकाश फ़ैल गया. स्वर्गलोक तक चारों ओर यह उजाला फ़ैल गया. पद्मावती इतना सौन्दर्य लेकर प्रकट हुई कि पूर्णिमा का चाँद भी उसके सामने नहीं ठहर सका और क्षीण होकर घटने लगा. घटते-घटते अमावस हो गयी और चंद्रमा की कला शर्मिंदा होकर दो दिनों के लिए भूमि में गड़ गई. दो दिनों बाद जब वह उठी तो दूज की नयी कला थी, जिसे विधाता ने निष्कलंक कर दिया था. कमल(पद्मावती) की गंध से समूचा संसार बिंध गया और भौंरें तथा पतंगे चारों ओर मंडराने लगे. इतनी रूपवान कन्या की तुलना किसी अन्य से नहीं हो सकती. वह देश धन्य है, जहाँ ऐसे रूपवंत का जन्म होता है.
भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
भा विहान पंडित सब आए । काढि पुरान जनम अरथाए ॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥
रामा अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग ।
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥
अर्थ: छठी रात को छठी का उत्सव धूमधाम से मनाया गया. वह पूरी रात आनंद और खेलकूद में बीती. अगली सुबह पद्मावती की कुंडली बनाने के लिए पंडित एकत्र हुए. पंडितों के अनुसार, “पद्मावती का जन्म उत्तम घड़ी में हुआ है. आकाश में प्रकाशित होने वाला चंद्रमा पृथ्वी पर उग आया है. कन्याराशि में प्रकट होने के कारण उसे पद्मावती नाम दिया गया. पारस पत्थर में सूर्य की किरणों के संघनित होने के कारण हीरे का जन्म हुआ है, उस हीरे से भी अधिक सुंदर है, पद्मावती रुपी यह नग. यह निर्मल सौन्दर्य रत्न(रत्नसेन) के ही योग्य है. सिंहलद्वीप में पद्मावती ने अवतार लिया, लेकिन इसके जीवन की समाप्ति जम्बूद्वीप (भारत) में होगी.
इसकी गति भी वैसी ही होगी जैसे रामा अर्थात् सीता की हुई, जो बत्तीस लक्षणों से युक्त होकर अयोध्या आईं, लेकिन उनके रूप पर मुग्ध होकर रावण उसी तरह पीछे पड़ा, जैसे दीपक के पीछे पतंगे लगते हैं.
कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढै बैसारी ॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
एक पदमिनी औ पंडित पढी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढी ॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढी औ लोनी ॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥
राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक ।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥
अर्थ: जन्मपत्री लिखने के बाद ज्योतिषी आशीर्वाद देकर लौट गए. जब वह बालिका (पद्मावती) पाँच वर्ष की हुई, तभी उसने पुराण और धर्मग्रन्थ पढ़ना प्रारंभ कर दिया. उम्र बढ़ने के साथ-साथ वह पंडित और गुणी होती गयी. यह चर्चा चारों ओर के राजाओं ने सुनी कि सिंहलद्वीप के राजा के यहाँ एक अवतारी कन्या ने जन्म लिया है, जो अपूर्व सौन्दर्य की पद्मिनी होने के साथ गुणी और पंडित भी है. जिसके घर लक्ष्मी का आगमन लिखा होगा, वही इस सुन्दरी को प्राप्त करेगा. सात द्वीपों के वर उससे विवाह की प्रत्याशा लिए आते हैं और ना का उत्तर सुनकर लौट जाते हैं.
राजा गंधर्वसेन गर्व से कहता है, मैं स्वर्ग के राजा इंद्र के समान हूँ. कौन मेरे समान है, जिससे मैं अपनी पुत्री का रिश्ता करूँ..
बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥
रहहिं एक सँग दोउ, पढहिं सासतर वेद ।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥
अर्थ: जब पद्मावती बारह वर्ष की हुई तो राजा को लगा कि यह विवाह योग्य हो गई है. उसने अपने सात खण्डों वाले सफ़ेद महल में पद्मावती का निवास बनाया. उसने पद्मावती के साथ रहने के लिए उसकी सखियों-सहेलियों को भी वहाँ भेजा, जो साथ में तरह-तरह की क्रीड़ा करतीं और आनंद मनाती थीं. वे सभी ऐसी नवयौवनाएँ थीं, जिन्होंने पुरुष का संसर्ग नहीं किया था. वे पद्मावती रुपी कमल के आसपास विकसित कुमुदिनियों की तरह लगती थीं. महल में पद्मावती के पास एक महापंडित तोता भी था, जिसका नाम हीरामन था. ईश्वर ने उस पक्षी को ऐसी ज्योति दी थी कि उसकी आँखों में रत्न और मुख में मोती दिखते थे. सुनहरे रंग का वह तोता अत्यंत सुंदर दिखता था.ऐसा लगता था, जैसे सोने के साथ सुहागा मिलाकर उसे बनाया गया हो.
दोनों सदा संग रहते थे और वेदशास्त्र पढ़ते थे. उनका पढ़ना ऐसा प्रभावी होता था कि ब्रह्मा भी सुनकर शीश डुलाते थे.