अहमद दादा
अहमद दादा, 65 की उम्र, 5 फुट से कुछ कम कद, ठिगना कह लीजिए, भरी हुई देह, हमेशा एक कुर्ता और एक तहमद बांधे नज़र आते। कभी-कभी मुझे लगता कि इस तहमद की वजह से ही इनका नाम अहमद पड़ा होगा। मैं बहुत बड़ा होते तक अहमद के बाद लगने वाले इस दादा को रिश्ते वाला दादा समझता रहा। काफी बड़ा होने पर मुझे पता लगा कि ये दादा रिश्ते वाला दादा ना होकर, पदवी वाला दादा है। पर दादा तो फिर गुंडों को कहा जाता है। गुंडा? ये बूढ़ा सा, स्नेहशील व्यक्ति किसी ज़माने में गुंडा रहा होगा? मुझे यकीन नहीं आता था।
ये वो दौर था जब हिन्दू-मुस्लिम अपने त्योहार मिल कर मनाया करते थे। हम होली-दीवाली भी उसी उत्साह से मनाते, जिस उत्साह से ईद-बकरीद मानते थे। ऐसा ही मेरे दोस्त टेकलाल, टेकेश, राकेश, रजनीश वगैरह भी करते। हर बार जब नागपंचमी का दिन आता, अहमद दादा के घर पूरे शहर के अखाड़े बारी-बारी ढोल-ताशों के साथ आते। अहमद दादा के घर के सामने की सड़क पर अस्थायी अखाड़ा सजता।
ट्रैफिक तब इतना होता नहीं था और ना ही इंसान इतना व्यस्त हुआ था। हर आता-जाता वहीं जम जाता और अखाड़ों के हैरतअंगेज करतबों का लुत्फ उठाने में जुट जाता। लट्ठबाजी का प्रदर्शन होता, पानी भरे पीतल के गुंड और साइकिलें दांतों में दबा कर घुमाई जातीं, भारी-भारी मुग्दल घुमा कर दिखाए जाते, पहलवानों की कुश्तियां होतीं।
अंत में सारी कवायद के हीरो के रूप में एंट्री होती अहमद दादा की। वो भी लट्ठबाजी सहित कई करतब करके दिखाते, वातावरण अहमद “वस्ताद” की जय-जयकार से गूंज उठता। तब जाकर हमें पता लगा कि अहमद दादा दरअसल अखाड़ों के माने हुए उस्ताद थे, सारे शहर के अखाड़े उनका मान-सम्मान करने वहां आते थे और रंग-गुलाल से तिलक कर, फूल मालाओं से लाद कर वापिस जाते थे।
यह जानकारी होने के बाद हम बच्चे नए सम्मान के साथ अहमद दादा को देखा करते, उनके घूमते लट्ठ को देख कर मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे। हम अक्सर सुना करते कि एक मर्तबा अहमद दादा पर किसी ने गोली चला दी, पर अहमद दादा ने वो गोली अपनी लाठी से रोक ली। हमलावर ने उसके बाद कई और गोलियां चलाई, लेकिन तब तक अहमद दादा अपनी लाठी घुमाना शुरू कर चुके थे। लट्ठ की स्पीड को भेद कर कोई गोली उन तक नहीं पहुंच पाई और लट्ठ से टकरा-टकरा कर गिरती रहीं।
कमाल की बात ये कि हम इस गपबाजी का ओरिजिनल सोर्स कभी जान ना पाए और गंभीरता से इसे सच ही समझते रहे। गाहे-बगाहे हम उनकी चिरौरियाँ करते कि हमें भी लठ्ठबाजी सीखा दें तो अनजाने दुश्मनों से हम भी मुहल्ले की रक्षा कर पाएं। वो हर बार कहते, ठीक है, जाओ सब एक-एक लट्ठ ले आओ। जब हम कहीं से बांस की कमचिल या पतला डंडा ढूंढ लाते, तो वो उसमें नुक्स निकाल कर हमें भगा दिया करते। हम फिर से अच्छी, ठोस लाठी की तलाश में लग जाते, पर कभी कामयाब नहीं हो पाए।
टेकलाल के दादा के पास एक लंबी, खूब ठोस लाठी थी, जिसने कई पागल कुत्तों की खोपड़ियां चटकाई थी। उसके दादा पागल कुत्तों के हत्यारे के रूप में प्रसिद्ध थे, कहीं भी कोई कुत्ता पागल होता तो इन्हें बुलाया जाता। टेकलाल के दादा कभी फेल नहीं हुए, वो कुत्ते की खोपड़ी पर ऐसा नपा-तुला एक ही वार करते कि कुत्ता दुबारा नहीं उठता था। उनकी इस कला को एक बार मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा है।
हमने अच्छी लाठी की तलाश में उनकी लाठी चुराने का प्लान बनाया। चूंकि लाठी काफी लंबी थी तो उसे काट कर दो बनाया जा सकता था, जो हमारे तब के कद के हिसाब से पर्याप्त होती। लेकिन कुदरत को हमारी लठ्ठबाजी मंजूर नहीं थी। टेकलाल की बहन की मुखबिरी की वजह से ये बेल मुंडेर नहीं चढ़ी, उल्टे वो लाठी हमारी खोपड़ियां तोड़ते बची, क्योंकि मुखबिरी नामजद हुई थी। टेकलाल के दादा ने बस गालियां देकर ही अपने मन को मना लिया।
वो शायद 1992 की नागपंचमी थी। अब तक हम इस दिन की महिमा को जान चुके थे। स्कूल की किताबों में सुधीर त्यागी जी की लिखी एक कविता भी पढ़ी थी…..
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली।
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।
सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
सुबह से हम सारे दोस्त, आज शाम होने वाले अखाड़े की चर्चा कर रहे थे। इंतज़ार की घड़ियां कठिन होती हैं, पर समय ने तो अपने समय से आना ही था, आया। मुहल्ले में पहले अखाड़े ने ढोल-ताशों में, अखाड़ों की विशिष्ट धुन, जिसमें मुहर्रम में शेर भी नाचा करते हैं, बजाते हुए प्रवेश किया।
अहमद दादा के घर के सामने की सड़क के एक छोर को साइकिलों से ब्लॉक कर दिया गया था और दूसरा छोर अखाड़ों के आने के लिए खुला छोड़ा गया था। जैसे ही अखाड़ा सड़क में प्रविष्ट हुआ, अहमद दादा के दोनों लड़के अपने दोस्तों के साथ, पहले से भर के रखे पानी के ड्रमों से पानी निकाल-निकाल कर सड़क धोने लगे। अहमद दादा की बेटियां, अखाड़ों के साथ आने वाले “वस्तादों” के लिए चाय वगैरह चूल्हे में चढ़ाने लगीं।
अखाड़ा अहमद दादा के घर के सामने पहुंच गया। अहमद दादा नए कुर्ते और नई तहमद में प्रभावशाली लग रहे थे, आंखों में बाँकों की पहचान सुरमा लगा हुआ था। सबसे पहले आने वाले अखाड़े के “वस्ताद” सामने आए, दोनों “वस्तादों” ने ठेठ अखाड़ों वाले अंदाज़ में एक पैर आगे करके, थोड़ा झुक के, घुटनों के पद एक-दूसरे से हाथ मिलाए, फिर गले मिले।
एक ओर अष्टनागों की पीतल की मूर्ति कुर्सी पर सजाई गई थी, दोनों “वस्तादो” ने वहां पहुंच, अष्टनागों की मूर्ति का गुलाल से अभिषेक किया, पट्ठों ने जयकारे लगाए, “वस्तादों” ने मूर्ति को प्रणाम किया, फिर अपने लिए आरक्षित कुर्सियों पर विराजमान हो पट्ठों की तरफ देखा। पट्ठे इशारा समझ अपने करतबों की तैयारी में लग गए।
फिर हमेशा की तरह सबसे पहले लट्ठबाजी के मुकाबले हुए। लाठियों के आपस में टकराने की खट्ट-खट्ट ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी। सब दम साधे इस लट्ठ युद्ध को देख रहे थे। मुझे तो कई बार ऐसा लगा जैसे लाठियों के आपस में टकराने से चिंगारियां निकली हैं, पर शायद वो मेरा भ्रम रहा हो। कई तरह की लट्ठबाजियाँ हुईं, एक की एक के साथ, एक की अनेक के साथ। हर बार लगता अब किसी का सर फूटा, अब किसी की टांग टूटी, लेकिन ऐसा कुछ ना हुआ। पट्ठे अपने फन में माहिर थे, इतने भीषण युद्ध के बाद भी किसी को खरोंच तक ना आई।
फिर बारी आई साइकिलों को दांतों में दबाकर गोल-गोल घुमाने की। पट्ठे आते जाते, अपने दांतों में साइकिल की सीट और हैंडल को जोड़ने वाले डंडे को जकड़ लेते, फिर घूमना शुरू करते, थोड़ी ही देर में उनकी स्पीड इतनी हो जाती कि अगर उनके पैरों के नीचे गेंहू डालना शुरू कर देते तो सारे गेंहू का आटा पीस जाता।
इसके बाद यही करतब पानी भरी पीतल की गुंडियों के साथ किया गया, मजाल है जो रुकते तक एक बूंद भी पानी छलक जाए, अलबत्ता रुकने की प्रक्रिया में थोड़ा पानी छलक जाता था। जब सब पट्ठे अपने करतबों से निपट चुके, तब हीरो की तरह एंट्री हुई अहमद दादा की।
अहमद दादा ने लट्ठ संभाला और धीरे-धीरे उसे अपने शरीर के चारों ओर घुमाने लगे, थोड़ी ही देर में लट्ठ की स्पीड इतनी हो गई कि मुझे यकीन हो गया कि अभी कोई मशीनगन से गोली चलाए तो एक भी गोली अहमद दादा को छू भी ना पाएगी। लट्ठ बिजली की रफ्तार से एक हाथ से दूसरे हाथ में घूम रहा था, हम मंत्रमुग्ध ये नज़ारा देख रहे थे, रोमांचित हो रहे थे।
अपने इसी घूमते सुदर्शन चक्र के साथ अहमद दादा पैरों को भी कभी फैलाते, कभी सिकोड़ लेते। अचानक उन्होंने लट्ठ घुमाते-घुमाते पैरों को अधिक से अधिक फैलाना शुरू किया। मुझे लगा ये कुछ दिन पहले आई फ़िल्म “फूल और कांटे” का प्रभाव है, उसमें हीरो अजय देवगन इसी तरह टांगे फैला कर दो बाइक में कॉलेज आता है। अहमद दादा की इस कला से प्रभावित लोगों को जैसे सांप सूंघ गया हो, हर ओर सन्नाटा, हर निगाह घूमती हुई लाठी पर, तभी एक तेज़ आवाज़ आई “कड़ाक”।
हड्डी टूटने की ये आवाज़ स्तब्ध वातावरण में ज़ोर की गूंजी, अहमद दादा के कूल्हों का जोड़ खुल चुका था। इस जोड़ में कोई प्लास्टर तो चढ़ता नहीं, बेचारे अहमद दादा उम्र भर के लिए लंगड़े हो गए। अखाड़े आने बंद हो गए। अहमद दादा लगभग 80 वर्ष की उम्र तक अपने टूटे कूल्हों के साथ जिए।
आज जब भी नागपंचमी आती है, तब मैं जरूर सोचता हूँ “क्या अब भी नागपंचमी पर ऐसा अखाड़ा कहीं होता होगा”
March 29, 2020 @ 8:21 pm
बहुत लाजवाब बहुत शानदार पढ़ते समय लगा जैसे नागपंचमी का वो दौर सामने चल रहा
March 29, 2020 @ 8:23 pm
बेहतरीन.. शब्दों की जादूगरी देखने को मिली। लेखक से आइंदा दिनों में और कहानियों की अपेक्षा है..
March 29, 2020 @ 8:28 pm
शानदार संस्मरण… वाक़ेई जैसा पहले देखा करते थे वैसा सामाजिक सामंजस्य अब दिखना मुश्किल है। अहमद दादा दिलचस्प किरदार थे।
March 29, 2020 @ 8:33 pm
धन्यवाद मित्रों, हौसला अफजाई का शुक्रिया
March 29, 2020 @ 8:35 pm
बढ़िया कहानी
March 29, 2020 @ 9:01 pm
लाजवाब प्रस्तुतिकरण
March 29, 2020 @ 9:11 pm
बहुत बेहतरीन।
March 29, 2020 @ 9:48 pm
बहुत बढ़िया संस्मरण राशिद भाई।आपकी लेखन शैली वाक़ई बहुत जबरदस्त है।आप निरंतर लिखते रहेंगे तो काफी अच्छी कहानियाँ तथा अन्य रचनाएँँ पढ़ने को मिलती रहेंगी।आपके संस्मरण से पता चला कि नागपंचमी पर ऐसे ऐसे आयोजन भी होते थे।धन्यवाद आपको।
March 29, 2020 @ 10:06 pm
वाह, गज़ब का अंदाज़े बयां. ऐसा लगा कि आँखों से देख रहे हैं ये सब
March 29, 2020 @ 10:36 pm
वाह राशिद भाई शानदार
March 29, 2020 @ 10:48 pm
वाह क्या बात है
छा गए अहमद दादा
March 30, 2020 @ 7:44 am
बहुत सुंदर राशिद भाई
March 30, 2020 @ 10:09 am
बहुत बढ़िया लिखा, राशिद भाई