सौ ग्राम खून
सर्दी की रात जल्दी होती है। और सन्नाटा भी। अगर कोहरा पड़ने लग जाए तो समझो सोने पे सुहागा।
जो की आज पड़ रहा था। मेरे लिए ये सबसे मुफीद दिन था।
बाइक स्टार्ट हुई, उसने मेरी तरफ देखा और फिर से पुछा “देख ले कर लेगा न?”
मना करने का तो सवाल ही नही उठता था, इसी दिन का तो मैं इंतज़ार कर रहा था।
“तुझे शक है? शक है तो तुझे यहाँ नही होना चाहिए था” मैंने आदतन रूखा जवाब दिया।
“शक नही है पर, ऐसी क्या दुश्मनी की तू उसको मारने……”
“धीरे बोल, धीरे बोल.. गली के मुहाने खड़े है हम” मैंने उसे घुड़का।
वो जरा सा धीमा हुआ “लेकिन ऐसी क्या दुश्मनी कि,….”
“हाँ बोल, सोच क्या रहा है.. बात पूरी पूछ फिर मैं बताता हूँ ऐसी क्या दुश्मनी”
“की तू… तू उसे मारना चाहता है।” एक कदम पीछे हट के उसने पूछा।
लेकिन वो अभी भी मेरे हाथ की रेंज में था, मेरे दायें हाथ में पिस्टल थी, और वो भी दायें हाथ की तरफ ही खड़ा था इसलिए मैंने पिस्टल बाएं हाथ में ली और सीधे हाथ का झन्नाटेदार थप्पड़ उसके कान पर रसीद दिया।
वो हकबका कर गली के दरवाजे पर आ लगा। उसका हाथ गाल सहलाने में लग गया।
“इधर आ” मैंने घुड़का।
“नही,.. मैं नही…”
“इधर आ जल्दी”
“तू ….और मारना चाहता है?”
“तू और पूछना चाहता है?” मैंने सवाल के बदले सवाल किया।
“नही” सीधा जवाब मिला।
“तो मेरा जवाब भी यही है, नही। अब तू इधर आ”
वो डरता झिझकता हुआ आया। मैंने उसे अपनी तरफ खींचा और कहा “अब ये बता कि वो सयाना मुच्छड़ कितनी देर में वहां पहुंचेगा?”
“वो तो बस पहुँचने ही वाला होगा, ठीक दस बीस पर आता है।दस बजे खाना खाने बैठता है, दस पंद्रह तक खाना खाता है… खाते ही सीधा पनवाड़ी के पास पहुँच……”
“बस बस, कितनी बार बतायेगा? ये शेड्यूल बताने के लिए नही बोला मैंने तुझे, मैंने बोला कि वो आज भी आएगा कि नही?”
“बिलकुल आयेगा, रोज़ का रूटीन है। कभी छुट्टी नही करता”
“कभी बीमार हो तो?”
“तो भी आता है। बोला तो कभी छुट्टी नही करता।”
“बहुत अच्छे। अब तूने क्या करना है?”
“जो तू बोले।” फिर एक और सीधा जवाब मिला।
“तूने यहाँ से सीधा बाज़ार जाना है, और अगर देर हो जाये तो कहना है कि……”
“साइकिल की चेन उतर गयी, मुझे सब याद है…. पर…”
“क्या पर?” मेरी भ्रकुटी टेढ़ी हुई
“मुझे तेरी फ़िक्र है, तू अभी छोटा है… और तू उसे जानता नही है कि वो कितना बड़ा घाघ आदमी है। मैं नही चाहता कि तुझे कुछ….”
“बस बस, बक*दी नही चाहियें, ड्रामा मत कर, तुझे इस काम के पैसे मिले है न? कम है तो बताइयो, वैसे जो दिया है वो भी ज्यादा ही है क्योंकि तेरी भी ज़िन्दगी से क़र्ज़ उतर जाना है। इसलिए नौटंकी नही… सीधे निकल मार्किट, आज के बाद तूने मेरी शक्ल भी नही पहचाननी है। पैसा तुझे पहले ही तेरे घर में दे दिया गया है इसलिए दुबारा ‘तू कौन मैं खामखाँ है‘ समझा?”
उसने बड़े अजीब ढंग से मेरा चेहरा देखा, मेरे चेहरे पर यूंह तो बड़ी बड़ी दाढ़ी उगी हुई थी, रंग भी सावंला होने के कारण मैं बाकियों से ज्यादा भयानक लग रहा था। फिर भी वो बड़ी देर तलक मेरा चेहरा देखता रहा, आखिर मैंने घुड़क के पुछा “क्या है बे? जा क्यों नही रहा?”
“ये.. ये जिसकी बाइक पर तू बैठा है ये अगर गड़बड़ा गया तो?” उसने आँख के इशारे से हेलमेट धारी बाइक राइडर को कहा।
“तो एक गोली इसके मत्थे में भी होगी” हेलमेट धारी ने जरा सा मुड़ के मुझे देखा फिर सर सीधा कर लिया “अब निकल यहाँ से वर्ना तुझसे ओपनिंग यहीं करता हूँ मैं।” मैंने फिर से पिस्टल सीधे हाथ में ले ली।
उसके बाद सच में वो अपनी साइकिल पर पैडल मारता नज़र आने लगा। मैंने उसकी तरफ से मुंह घुमा लिया।
“देख अज्जू,….” बात पूरी होने से पहले ही मैंने नाल उसकी पसलियों में लगा दी।
“कितनी बार बताया तुझे हराम के, नाम नही लेना है। नाम नही लेना है। एक एक से पूछताछ होगी समझा, कोई बालकनी पर खड़ा हुआ होगा तो उससे भी, कोई कमरे में बैठा टीवी देख रहा होगा तो उससे भी, नाम एक बार उछल गया तो गये सब”
“सॉरी यार,.. ” उसकी मरी हुई आवाज़ निकली, मैंने नाल वापस नीचे की तरफ कर दी। उसने चैन की सांस ली।
“जब तक ये काम पूरा नही हो जाता तब तक मैं शूटर तू ड्राईवर याद कर ले ये दो नाम समझा? या ठीक से समझाऊ?”
“नही नही, समझ गया .. पर बात तो पूरी करने दे”
“बोल”
“हमे उसके पीछे नही जाना चाहिए?”
“किसके?”
“बेवड़े के यार और किसके?”
“अब उसके पीछे क्यों?”
“क्या पता वो किसी को फ़ोन कर के सिग्नल दे रहा हो कि हम आ रहे है?”
“ऐसा है भी तो अब देर हो चुकी है, क्योंकि दस दस हो चुके है वो दस मिनट में आ जायेगा, हमे तीन मिनट पहुँचने में लगेंगे, इसलिए दोनों के पास बहुत कम टाइम है। फिर उसे सिग्नल देने के लिए यहाँ फ़ोन करने की क्या ज़रुरत थी? भूल मत की उसने तो घर ही जाना है आखिर, और घर से ही आया था तो तभी बता देता कि साहब आपका नंबर लग गया है?”
“बात तो तेरी ठीक है, तो फिर मैं चला दूँ बाइक?”
मैंने घड़ी पर नजर डाली, एक एक सेकंड गिनता मैं बोला “चला दे, पर रफ़्तार बहुत धीमी, क्योंकि कोहरा भी है।”
“ठीक है।” बाइक चल दी, मैंने शॉल में पिस्टल छुपा ली।
बाइक के पहिये के साथ साथ आज ही की चार साल पुरानी तारिख की रील मेरे ज़हन में चलने लगी।
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हम सब क्रिकेट मैच देख रहे थे, इंडिया वर्सेसपकिस्तान। भयंकर सर्दी, नये साल से जरा पहले। मैं मेरी बहन मेरे पापा और माँ। कोई दखलंदाज न करें इसलिए मैंने मोबाइल ऑफ कर दिया था। जो कि मेरी बहुत बड़ी भूल थी।
“पापा ये कब खत्म होगा?” मनाली – मेरी बहन – बोली।
“अरे बेटा, सातवी बार पूछा है तुमने, तुम्हे पता है न शाम को, अभी कई घंटे है” पापा खिलजिला के बोले।
“अरे इसे जो देखना है देखने दो न जी, वैसे भी इंडिया हार रही है” माँ बीच में बोल पड़ी
“इंडिया हारे या जीते, कोई फर्क नही पड़ता.. मैच तो हम पूरा ही देखेंगे।”
“बिलकुल सही मेरे बेटे, समझा अपनी बहन को” पापा ने हमेशा की तरह मेरा साथ दिया।
“समझाना क्या है पापा, इसे अभी बाहर किये देता हूँ कमरे से” मैं उठा
“अच्छा, हाथ तो लगा जरा एक बार फिर बताती हूँ तुझे” वो बिफरी
उधर यूनिस खान की फिफ्टी हो गयी।
धत तेररी ऐसी की तैसी…” मेरे मुंह से निकला
और अगले ही पल दरवाज़ा ऐसे खड़का जैसे तोड़ दिया जायेगा।
मैं तो अपनी जगह से नही हिला पर माँ ने उठ कर दरवाज़ा खोला। तीन आदमी झक्क सफ़ेद कपड़े पहने अन्दर घुसे।
उनके बीच जो सबसे मोटा और बड़ी मूछ वाला था वो चिल्ला के बोला “अज्जू किधर है?”
मैंने उसे गौर से देखा, वो काले जूते सफ़ेद शर्ट सफ़ेद पेंट और सोने की बड़ी मोटी जंजीर पहने था, गोगल्स उसकी शर्ट पर लटके थे, जो लगता था उसने अभी तुर्रंत ही उतारे थे। घर के तीनो लोग चौंक गये, माँ गेट के पास ही, बहन अपनी कुर्सी से उठ गयी, पापा बेड पर थे, सीधे हो कर बैठ गये। सबकी आँखे मेरी तरफ थी। सिर्फ मैं बैठा हुआ था। मैं उठा तो ‘मेहमानों‘ की नज़र भी मुझपर पड़ी। मोटा मेरे पास आया और दांत पीसता बोला “तो तू अज्जू है?”
मैंने जैसे तैसे उससे निगाह मिलाई, फिर बोला “हाँ मैं ही हूँ आप कौन?”
“हरामी के पिल्ले” उसने मेरे कान पर पूरी ताकत से थप्पड़ मारा, मैं चकरा कर गिर गया, उसने फिर मेरी शर्ट पकड़ कर मुझे सीधा किया और बोला “कितनी उम्र है बे तेरी साले”
मेरे पापा बीच में बोल पड़े “तुम हो कौन और क्यों मेरे बेटे को मारा तुमने? छोड़ो उसको।” वो पलंग से नीचे उतरने लगे कि मोटे के साथ आये खलीफा ने उनकी पसलियोंमें कट्टा लगा दिया। उनकी आँखों में गुस्सा मुझे साफ़ दिखा, पर कट्टे की वजह से खामोश हो गये।
मोटा फिर बोला “अभी इधर मैं सिर्फ इस लड़के से बात करूँगा, इसकी माँ, बहन, बाप कोई बीच में नही बोलेगा। समझा हर कोई या फिर से बोलूं?”
पापा फिर बोले “उसको छोड़ मुझसे बात कर हरामजादे”
टीवी से आवाज़ आई –‘यूनिस आउट’
और अगले ही पल मेरे पापा की पसलियों पर उस खलीफा ने कट्टे की बट मारी।
पापा दोहरे हो कर पलंग पर गिर पड़े.. मेरे तन बदन में आग लग गयी
“तेरी माँ का भोस* साले, बन्दूक का जोर दिखाता है, आ इधर मुझसे उलझ” मैंने एक लात मोटे के घुटने पर जमाई।
अगली बट मेरी माँ के सर पर पड़ी।
मेरे सारे कस बल ढीले हो गये।
“हरामी साले” मोटा फिर बोला “तुझे अगर मारना ही होता तो मुझे यहाँ तक आने की क्या ज़रुरत थी? बोल”
“तो इधर आया क्यों है तू?” जवाब कांखते कराह्रते पापा ने दिया।
“तू सुन, तेरा बेटा खुद को बहुत बड़ा धुरंधर समझता है, इसने मेरे छोटे भाई के साथ जुआ खेला……..”
मुझपर जैसे बिजली गिरी।
“……और उसे बेवक़ूफ़ बना कर दस हजार रूपए जीत लिए, हिम्मत तो देखो साले की”
“तू जुआ खेलता है बेटा” पापा ने मेरी तरफ देखा। उनकी आवाज़ में उदासी झलकी। मेरी निगाह नीची हो गयी।
“बोलता क्यों नही? ये जो कह रहे है वो सच है?” पापा फिर बोले।
मैं फिर चुप रहा।
पापा ने अपने हाथ जोड़ लिए, मेरे शरीर की हर नस उबलने लग गयी।
“भाईसाहब, अगर इसने जुआ खेला है…..”
“बिलकुल खेला है, मैं क्या झूठ बोलूँगा”
“……तो इसकी गलती के लिए मैं माफ़ी मांगता हूँ। इसने जो भी पैसा जीता है वो मैं वापस करूँगा”
पापा के हाथ जुड़े मुझसे देखे नही गये।
“पैसा तो मैं लूँगा ही,पर इसे सिखा कि किससे पंगा लेना चाहिए और किससे नही, पूरी दिल्ली में लोग मुझे जानते है। पुरानी दिल्ली की कोई इमारत ऐसी नही है जो मुझसे पूछे बगैर बिक जाये। और ये स्साला कल का छोकरा मुझे गाली देता है, सिर्फ इसके गाली देने की वजह से मैं यहाँ तक आया हूँ” फिर वो मेरी तरफ घूमा “क्या बोला था बे तू मेरे भाई को? है बे? बोल अब….” फिर वो पापा की तरफ देख कर बोला “कल तक मेरे पैसे पहुँच जाने चाहिए वर्ना तेरे बेटे के साथ साथ तेरी बेटी भी गायब हो जाएगी”
मेरा सर फिर झुक गया।
बाइक में ब्रेक लगी। और यादों में भी।झटके की वजह से मेरे हाथ से पिस्टल निकल गयी और बाइक से थोड़ी दूर जा गिरी।
“रोक क्यों दी बे?” मैं झल्लाकर बोला।
“खुद ही देख”
मैंने देखा, केसर बिलकुल बाइक के आगे खड़ी थी। केसर ही अकेली शक्सियत थी जिसने मुझसे उस दिन के बाद से बात की थी, वर्ना क्या मोहल्ला और क्या घर, मैं सबके लिए अजनबी था।
“ये क्या हाल बना लिया है तूने? और ये बाइक से क्या गिरा है?”
“तुझको क्या? तू इतनी रात गये क्यों घूम रही है यहाँ, दफा हो घर जा, तेरे अब्बू ने देख लिया तो तेरी चमड़ी……” मैं बोलते बोलते रुक गया। केसर के हाथ में मेरी पिस्टल थी!
“ये क्या है?” उसने मेरी तरफ घूर के देखा!
मैंने उसके हाथ से पिस्टल छीनी और बोला “दफा हो जा यहाँ से, और भूल जा की मैं यहाँ मिला था।”
“तो तूने वही दिन चुना, सेम डे.. अच्छा किया।” वो निश्छल मुस्कुराई!
“निकल यहाँ से तेरी माँ की…..”
“ऐ अज्जू” वो भड़की “गाली मत दिया कर, एक दिन बहुत बुरा भुगतेगा बता दे रही हूँ हाँ”
“भुगत ही रहा हूँ, अब तू सामने वाली गली से निकल जा प्लीज़”
“तेरे मुंह से प्लीज़ अच्छा नही लगता कमीने” वो फिर मुस्कुराई।
मैं ड्राईवर से बोला “तू चल, वर्ना पहली गोली मैं इसी के चटका दूंगा”
बाइक फिर चल दी।
“तुझे कसम है हर हाल में कल मिलेगा मुझसे” उसकी आवाज़ गूंजी!
मैंने मुड़ कर देखने की कोशिश न की। हम फ़तेह पुरी मस्जिद पहुँच गये। मैंने टाइम देखा ‘दो मिनट अभी भी है‘
‘अभी दो मिनट है‘
मेरे पापा ने अलमारी खोली और सौ की गड्डी मेरी तरफ उछाल दी।
“पैसे है मेरे पास” मैं दबी आवाज़ में नज़र झुका के बोला।
“ये भी रख ले, आगे जुआ खेलने के काम आएंगे” वो नफरत भरी आवाज़ में बोले।
“अरे उसकी गलती नही है, मैं जानती हूँ इस प्रॉपर्टी डीलर को। ये और इसका भाई तो सुई लगा के नशे भी करते है उसी ने इसे बहकाया…..” माँ ने बचाना चाहा पर
“तुम चुप रहो।” पापा ने माँ को घुड़क दिया!
माँ का माथा सामने से चटक गया था। बहन उनका ज़ख्म साफ़ कर रही थी। मैं भी डरता झिझकता माँ के पास पहुंचा उनको देखने लेकिन मेरी बहन बोल पड़ी “तू रहने दे, अपने हाथ दूर रख माँ से।”
“लेकिन इतना खून….”
“कितना खून? मुश्किल से सौ ग्राम ही तो बहा होगा? माँ तो तेरे लिए बाल्टी भर भी खून बहा देंगी। तू क्यों डरता है जा जुआ खेल जा के”
“सौ ग्राम खून….“ ये शब्द मेरे दिमाग से निकलने को राज़ी न हुए।
उस दिन से किसी ने मुझसे बात नहीं की!
मैंने अगले ही दिन उस प्रॉपर्टी डीलर – शंकर देव–के पैसे वापस करे। और सोच बैठा कि एक महीने के अन्दर अन्दर इससे सूद के साथ वापस लूँगा।
पर उस दिन के बाद से पापा की तबियत खराब रहने लगी। इतनी की उन्होंने दुकानदारी भी माँ के भरोसे छोड़ दी। साल भर में बहन ने अपनी मर्जी से शादी कर ली। मैं वहां भी नही गया। पिछले चार सालों में मैंने न कोई जश्न मनाया न अफ़सोस।
मैंने सुजीत से दजान बूझ कर दोस्ती की, क्योंकि वो बाइक स्टंट करता था, इसके सिवा उसे कुछ आता कहाँ था! आज मुझे उसके इसी स्टंट की ज़रुरत थीक्योंकि चांदनी चौक में मार्किट बंद होने के बाद भी ट्रक वगरह के बीच में से तेज़ रफ़्तार बाइक निकालना कोई खेल नही था।
छ: महीने पहले मुझे बिंदु मिला।
बिंदु आदतन बेवड़ा था, उसकी बीवीउसकी पीने की आदत की वजह से तीन साल के बच्चे को छोड़ कर फांसी लगा कर मर गयी थी।लेकिन उस हादसे के बाद बिंदु और ज्यादा पीने लग गया, इतनी की उसके ऊपर कर्ज दर कर्ज होता चला गया। एक दिन जब उसने अपने बेटे का मुंह देख कर/या लीवर फेल हो जाने के डर से घबराकर शराब न पीने की कसम खाई तब उसके घर भी शंकर के कदम पड़े।
शंकर लोगो को ब्याज पर रकम भी देता था। और ख़ास तौर से गरीबों को। अमूमन जो नही चुका पाते थे वो उसी के यहाँ नौकरी करते थे, इस भरोसे के साथ कि हर महीने की तनख्वाह से जिस दिन कर्ज पूरा हो गया उस दिन आजादी मिल जाएगी। पर कोई भी मरे बिना आज़ाद नही हुआ था।
मेरे सिवा इतना कुछ सिर्फ और सिर्फ केसर जानती थी। जो फराश्खाने के कसाई की लड़की थी।
और उसका इतनी रात मिलना मुझे फिक्रमंद कर रहा था।
“देख वो आ गया” सुजीतबोला।
मैंने निगाह शिकार पर गड़ा ली। एक ट्रक हमारे साथ ही खड़ा हुआ था। पान की दुकान पर हमेशा की तरह आवाजाही थी। शंकर क्रीम कलर की शाल ओढ़े था। और उसके साथ एक आदमी और था। हमारी बाइक का मुंह चांदनी चौक की तरफ था। कोई दस से बारह फुट का फासला था हम दोनों के बीच।
“ये कहाँ से आ गया?” ड्राईवर फुसफुसाया
“आने दे, साथ साथ नापेगा” मैं भी ठाने बैठा था कि आज की कल नही करूँगा।
“वैसे हमारा क्या होगा?” वो फिर फुसफुसाया
“मेरा सोच, तेरा तो अच्छा ही होगा, मेरी पिछली जेब में आज रात ग्यारह बजे के बाद की श्रमशक्ति की टिकेट है.. नई दिल्ली से। तूझे रात में भी नई दिल्ली की भतेरी ट्रेन मिल जाएगी।”
“और तेरा क्या होगा?”
“मुझे अभी यहाँ काम है। मुझे अपनी फ़िक्र नही।”
“लेकिन,,,,,”
“चुप बिलकुल,,,,,,,” वो सहम गया। शंकर के साथ वाला एक तरफ हो गया। शंकर की पीठ मेरी तरफ थी।मैं उसके घूमने का इंतज़ार कर रहा था। मैंने निशाना साधा ही था कि एक गाड़ी आई और बाइक और पान वाले के बीच में रुक गयी।
गाड़ी के शीशे खुले तो ड्राईवर को मैंने साफ़ पहचाना। वो वही शख्स था जिसने मेरे बाप की पसलियों में कट्टा मारा था …. मैं मुस्कुराया और गोली चला दी।
गोली गाड़ी का मेरी तरफ का शीशा तोड़ कर डैशबोर्ड में कहीं धस गयी। शंकर घाघ आदमी था बेवड़े ने सही कहा था, वो बिना एक पल भी ज़ाया किये गाड़ी में लपका।
गाड़ी कटरा बरियान की तरफ भागी, जिधर से हम आये थे।
हम उसके पीछे लग गये, गाड़ी नया बांस की तरफ मुड़ी, मोड़ पर पुलिस चौकी से एक हवालदार निकला पर जब तक वो समझता गाड़ी और बाइक दोनों मुड़ चुके थे.. मैंने एक और फायर किया… गाड़ी का पिछला शीशा चटक गया।
अचानक से गाड़ी में ब्रेक लगे।
बाइक पूरी रफ़्तार से गाड़ी से टकरा गयी। सुजीत का हेलमेट गाड़ी के पिछले शीशे से टकराया और शीशा चकनाचूर हॉ गया।
मैं जमीन पर गिरा।
आगे शायद रोड बंद था, उस पर किसी ने पत्थर रख दिए थे इसलिए गाड़ी फिर वापस घूमने लगी। मैं पड़ा रहा। पिस्टल अभी भी मेरे हाथो में फंसी हुई थी। मैंने लेटे लेटे ही एक फायर और झोंका।
गाड़ी का पिछला चक्का पिचक गया। मिनट में अफरा तफरी मचने लग गयी। जो रोड खाली सा था वो अचानक भरने लगा.. मैं जैसे तैसे उठा, और ये देख चौंक गया कि मेरा ड्राईवर भी उठ खड़ा हुआ था और मेरी उम्मीद के विपरीत बाइक भी चालू कर चुका था, इससे पहले की भीड़ बढ़ती, हम वहां से दौड़ चले – लाल कुआँ की तरफ।मेरे इशारे पर बाइक ‘लम्बी गली‘ में मुड़ गयी। हमारी मंजिल गारस्टीन बास्टिन रोड थी।
बाइक जिस रफ़्तार से थी उससे तीन मिनट पूरे लगे और हम गारस्टीन बास्टिन रोड पर थे।
दिल्ली की फेमस रोड।
उसने बाइक रोकी, “अब क्या?” तेरा काम तो अधूरा रह गया”
“कोई नही, अभी रात बाकि है, उसका घर कूचा संजोगी राम में है। आधे घंटे बाद उधर ही हमला करना है।” मैं इतनी निश्चिंती से बोला कि वो अवाक रह गया।
“तू पागल है क्या? अभी मरते मरते बचे है।”
“इसीलिए बचे है कि अधूरा काम पूरा कर सके, वर्ना भीड़ ही क्या कम थी वो ही हमे मार डालती”
“यार मुझे डर लग रहा है। अब लग रहा है पहले नही था।”
“देख तुझे डर लग रहा है तो टिकेट अभी भी मेरी जेब में है, तू निकल ले, मैं तो अधूरा छोड़े बगैर नही जाऊंगा।”
“तुझे छोड़ कर तो मैं भी नही जाऊंगा”
“फिर बहस कैसी, चल गाड़ी मोड़, या रुक कुछ देर बाद चलते है। कुछ खा लेते है पहले”
“खाए या ले?” वो आँख दबा कर बोला। ज़ाहिर था कि इस रोड का माहौल अपने शबाब पर था। दिल्ली की सबसे बदनाम रोड पर हम दोनों जने किसी के घर घुस के मारने की प्लानिंग कर रहे थे।
“वैसे एक बात बता” वो चाय चुसकते बोला “तुझे क्या ख़ुशी मिल जाएगी एक बाहैसियत आदमी को इस दुनिया से कम कर के?”
“देखे मेरेभाई, ख़ुशी और संतुष्टि दो बिलकुल अलग फीलिंग्स है…फिर भी खुश होने वाला संतुष्ट भी हो ये ज़रूरी नही लेकिन संतुष्ट व्यक्ति खुश न हो ये बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं संतुष्ट होना चाहता हूँ खुश नही”
“बात तो तेरी सही है,,, चले? या रुके थोड़ी देर?”
“चलते है, क्योंकि उसे संभलने का मौका नही मिलेगा…”
लेकिन तेरा घुटना….”
एक आल्टो तेज़ रफ़्तार से आ कर मेरे ठीक पीछे रुकी, इससे पहले की कोई और निकलता मैं घूमा और बाइक की आड़ में घुसा।
एक फायर सामने से भी हुआ। मैं नीचे झुक गया!इतनी जल्दी कमीना गाड़ी बदल लाया!
एक गोली और चली!
मैंने कलाबाजी खाई, सुजीत चीखा।
मैं झटके से खड़ा हुआ और गोली चला दी। शंकर के बॉडीगार्ड के माथे पर लगी। गाड़ी के अन्दर बैठे शंकर से मेरी एक पल को निगाह मिली, वो पिछली सीट से उछल कर ड्राइविंग सीट पर आ गया।
उसने इतनी तेज़ गाड़ी में रेस दी कि मैं ठुकते ठुकते बचा। लोगो का हो हल्ला भी शुरू हो गया था,
“ड्राईवर, तू ठीक है?”
“नही यारा, जांघ पर गोली लगी है शायद” वो कराहने लगा। लोग मेरी तरफ बढ़ने लगे, गोली मेरे पास दो बची थी।
“तू पीछे हट, पुलिस आने वाली होगी”
“मैं… मैं नही चला पाउँगा भाई…”
“भोस* के चलाने को किसने कहा, पीछे बैठ जल्दी”
“आह्ह्ह्ह.. ..” वो फिर कराहा। भीड़ मेरी तरफ बढ़ने लगी, चार कदम पर चौकी भी है, वहां से भी किसी भी वक़्त कोई आ सकता था।
मैंने आँखे मीची, सुजीत की कनपटी पर एक फायर हुआ। आती भीड़ ठिठकी!
मैंने बाइक गाड़ी के पीछे लगा दी, वो अजमेरी गेट रोड की तरफ भागा, मैं भी उसके पीछे लग गया।रोड तकरीबन खाली थी, वो फिर लाल कुआं की तरफ मुड़ा, वो वापस अपने इलाके में मुझे ले जा रहा था!
मैंने बाइक पूरी रफ़्तार से दौड़ा दी, ढाई मिनट में मैं उसके बराबर में बाइक चला रहा था, उसने मुझे दबाने की कोशिश की.. मैंने बाइक और तेज़ कर दी। नतीजतन बाइक गाड़ी को क्रॉस कर गयी।हाजी पतंग वाले की दुकान टापते ही मैंने बाइक फुल रेस में कर दी। गफ्फार मोबाइल तक पहुँचते ही मैंने बाइक तिरछी करी और कूद गया। दौड़ती आ रही गाड़ी बाइक को रौंद गयी। पर आल्टो शंकर के कण्ट्रोल से बाहर हो गयी, एक्सीडेंट की आवाज़ बहुत दूर तक गूंजी। मैं उठा तो मुझे लगा जैसे मेरा एक हाथ नही है। मेरा सर किसी चीज़ से टकरा कर खुल गया था, मैं फिर भी गाड़ी की तरफ दौड़ा। और भी कुछ लोग दौड़े।
मेरे पास एक गोली बची थी, जिसे मैं किसी हाल में बर्बाद नहीं कर सकता था। मेरे पहुँचते पहुँचते दो तीन लोग और पहुँच गये गाड़ी के पास।
एक लम्बी दाढ़ी वाला मुल्ला बोला “क्या हो रहा है दिल्ली में आज, लोग खुद आबादी घटाने में लगे है“
“अरे उधर तो शंकर सेठ पर किसी ने गोली चलाई थी, बच ही गया वो वर्ना आज तो काम हो गया था” दूसरा बीस बाईस साल का लड़का मुल्ला जी से बोला।
मैं उन लोगों के साथ ही खड़ा हो गया, हम तीनों ने मिल कर शंकर को बाहर निकाला। पुलिस वाले भी इधर आते दिखे।
“हुआ क्या था बेटे?” मुल्ला ने मेरी तरफ गर्दन घुमा के पूछा।
“बच गया” मैं बुदबुदाया
“वो तो अल्लाह के रहम से अच्छा हुआ, पर असल में क्या हुआ था?”
“हुआ नही था, होगा अब चचा” मेरी आवाज़ तेज़ हुई। बचने की उम्मीद खत्म हो चली थी।
लेकिन खत्म करने की उम्मीद बची थी अभी।
शंकर मेरे सामने अपना सर पकड़े मुल्ला का सहारा लिए खड़ा था, मैं मुस्कुराया और शंकर से बोला “मैंने बोला था गां* में दम हो तो रोक लियों”
“क्या?”
तब शंकर की नज़र मुझ पर पड़ी, जिससे वो पहले बच रहा था वो उसके सामने खड़ा था। मैंने हाथ सीधा किया, तमंचे ने आग उगली।
गोली माथे में लगी! भेजा खुल गया! खून बिखर गया! ‘आधा किलो तो होगा’
मुल्ले का लड़का गश खा के गिरा।
“लाहौल-विला-कूव्वत” मुल्ला के मूंह से निकला
पांडू लोग चिल्लाये।
अब सब खत्म मेरे लिए।
माँ को सुकून मिलेगा, शंकर की मौत से… बाप को चैन मिलेगा मेरी मौत से।
मैंने आँखे बंद कर लीं।
तभी किसी ने मेरा हाथ खींचा। मैंने आँखे खोली।
एक स्कूटी मेरे दरमयान खड़ी थी। “बैठ जल्दी” जनाना आवाज़ ने मुझे चेताया।
पुलिस वाले मेरे सर पर आ पहुंचे थे, मैं तुर्रंत स्कूटी पर बैठा।
स्कूटी राजधानी बन गयी। पुलिस वालों के मुंह के आगे से निकली और चांदनी चौक की तरफ दौड़ चली।
“तू यहाँ क्यों और कैसे?”
“तेरी बन्दूक देख ही समझ गयी थी तू आज काण्ड करेगा, तभी से इस रोड पर नज़र रखे थी।”
“और तेरा अब्बू?”
“कसाईखाने वापस लौटना होता तो तेरे साथ होती?”
“तू लौटी ही नही? अरे ग्यारह बज रहा होगा?”
ग्यारह नही बारह… ग्यारह पचास हुए है।
“जायेंगे कहाँ?”
“जहाँ तू कहे?”
मैंने कुछ सोचा फिर बोला “नई दिल्ली स्टेशन चल”
“वहां से कहाँ?”
“श्रम शक्ति की दो टिकेट है मेरे पास”
“कानपुर जायेंगे हम?” वो चहक उठी, मानो लन्दन जा रहे हो।
नये साल की ख़ुशी में पटाखे फूटने लगे!
दिल्ली में पले-बढ़े सिद्धार्थ अरोड़ा उर्फ़ ‘सहर’ ने अपने लेखन कैरियर की शुरूआत करने से पहले क्राइम राइटिंग के बादशाह ‘श्री सुरेंद्र मोहन पाठक’ को घोट कर पढ़ने से की। सिद्धार्थ आठवीं से पाठक साहब को पढ़ रहे हैं। फिर अचानक इनका मन साहित्य की तरफ भागा । उसके बाद से ‘गुलज़ार साहब’ को सुनने से ज्यादा पढ़ना शुरू कर दिया। अक्सर नई किताबें खरीद कर पढ़नी शुरू कर देते हैं, अगर आधी पढ़ने के बाद समझ न आए या पसंद न आए तो वहीं छोड़ कर दूसरी किताब पढ़ने लग जाते हैं। आने वाले समय में क्या बनना चाहते हैं ये बताना तो मुश्किल है पर लिखना चाहते हैं, ये पक्का है चाहें वो किसी भी श्रेणी में हो। फ़िलहाल प्राइवेट नौकरी बजा रहे हैं और सरकारी से दूरी बनाए हुए हैं। किस्से कहानियों के अलावा कुछ एक फ़िल्मी/किताबी रिव्यु भी लिखते हैं।
October 8, 2022 @ 3:20 pm
मेरा अभिजीत शर्मा है और मै कानपुर नगर उत्तर प्रदेश से हू मुझे कविता,कहानी,शायरी लिखना अच्छा लगता है