लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से 100 रुपया मासिक के करीब किराया उतर आता था। कच्चे-बच्चे अभी थे नहीं, सिर्फ दो प्राणी का खर्च था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे। पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ कभी आंख सेंकने के लिए भी न मिलते थे। इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन यकायक ढाई सौ रुपए की मांग पेश की तब उनका जी एक बार जोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। जान पड़ा कि कोई बुल्ला है जो बिलाने जा रहा है। उनकी यह दशा देखकर उनकी पत्नी ने कहा, ‘डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से मांग लूं।’ लाला झाऊलाल इस मीठी मार से तिलमिला उठे। उन्होंने किंचित रोष के साथ कहा, ‘अजी हटो! ढाई सौ रुपए के लिए भाई से भीख मांगोगी? मुझसे ले लेना।’ ‘लेकिन मुझे […]
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घुमक्कड़ को दुनिया में विचरना है, उसे अपने जीवन को नदी के प्रवाह की तरह सतत प्रवाहित रखना है, इसीलिए उसे प्रवाह में बाधा डालने वाली बातों से सावधान रहना है। ऐसी बाधक बातों में कुछ के बारे में कहा जा चुका है, लेकिन जो सबसे बड़ी बाधा तरुण के मार्ग में आती है, वह है प्रेम। प्रेम का अर्थ है स्त्री और पुरुष का पारस्परिक स्नेह, या शारीरिक और मानसिक लगाव। कहने को तो प्रेम को एक निराकार मानसिक लगाव कह दिया जाता है, लेकिन वह इतना निर्बल नहीं है। वह नदी जैसे प्रचंड प्रवाह को रोकने की भी सामर्थ्य रखता है। स्वच्छंद मनुष्य की सबसे भारी निर्बलता इसी प्रेम में निहित है। घुमक्कड़ के सारे जीवन में मनुष्यमात्र के साथ मित्रता और प्रेम व्याप्त है। इस जीवन-नियम का वह कहीं भी अपवाद नहीं मानता। स्नेह जहाँ पुरुष-पुरुष का है, वहाँ वह उसी निराकार सीमा में सीमित रह सकता […]
जून का महीना था, दोपहर का समय और धूप कड़ी थी। ड्रिल-मास्टर साहब ड्रिल करा रहे थे। मास्टर साहब ने लड़कों को एक लाइन में खड़े होकर डबलमार्च करने का आर्डर दिया। लड़कों की लाइन ने मैदान का एक चक्कर पूरा कर दूसरा आरम्भ किया था कि अनन्तराम गिर पड़ा। मास्टर साहब ने पुकारा, ‘हाल्ट!’ लड़के लाइन से बिखर गये। मास्टर साहब और दो लड़कों ने मिलकर अनन्त को उठाया और बरामदे में ले गये। मास्टर साहब ने एक लड़के को दौड़कर पानी लाने का हुक्म दिया। दो-तीन लड़के स्कूल की कापियां लेकर अनन्त को हवा करने लगे। अनन्त के मुंह पर पानी के छींटे मारे गये। उसे होश आते-आते हेडमास्टर साहब भी आ गये और अनन्तराम के सिर पर हाथ फेरकर, पुचकारकर उन्होंने उसे तसल्ली दी। स्कूल का चपरासी एक तांगा ले आया। दो लड़कों के साथ ड्रिल मास्टर अनन्तराम को उसके घर पहुंचाने गये। स्कूल-भर में अनन्तराम के […]
PC:Youtube बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता – “बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।” इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किन्तु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अन्तर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता। बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोल-भाव करने लगते। पूछते – “इछका दाम क्या है, औल इछका? औल इछका?” खिलौनेवाला बच्चों को देखता, और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता, और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब […]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भक्ति को रहस्यवाद से जोड़ा है और इसे एक प्रतिक्रियावादी दर्शन मानकर कबीर की आलोचना की है. शुक्लजी के मत की समीक्षा करने से पहले आवश्यक है कि रहस्यवाद को समझा जाय. आमतौर पर उस कथन या अनुभव को रहस्यवाद की संज्ञा दी जाती है, जिसमें अज्ञात ब्रह्म की अनुभूति शामिल है. महादेवी वर्मा ने ज्ञात अपूर्ण से अज्ञात पूर्ण के तादात्मय को रहस्यवाद की संज्ञा दी है. इस अर्थ में रहस्यवाद वस्तुतः आत्म चेतना से विश्व चेतना का एकीकरण है. मध्यकालीन यूरोप में सेन्ट थेरेसा जैसे रहस्यवादी सन्तों ने सामंती जकड़न और चर्च की अनीतियों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजाया था. कबीर के जीवन और उनके सम्पूर्ण साहित्य को देखें, तो उनकी स्थिति मध्यकालीन यूरोपीय रहस्यवादी संतों जैसी ही है. निश्चय ही यह प्रतिक्रियावाद नहीं है. रहस्यवादी अनुभूति के कारण कबीर को प्रतिक्रियावादी कहना शुक्ल जी का अन्याय ही प्रतीत होता है. […]
असाध्य वीणा अज्ञेय की एक लम्बी कविता है, लेकिन जैसी चर्चा मुक्तिबोध (अंधेरे में, चांद का मुंह टेढ़ा है) और धूमिल (पटकथा) की लम्बी कविताओं को मिली, वैसी असाध्य वीणा को नहीं मिली. यद्यपि इसका प्रकाशन इनसे पूर्व (आंगन के पार द्वार-1961) हुआ था. इसका कारण कई आलोचक असाध्य वीणा के रहस्यवाद को मानते है. असाध्य वीणा की मूलकथा बौध धर्म के एक सम्प्रदाय जेन या ध्यान संप्रदाय से ली गयी है. ताओवादियों के यहाँ भी इसकी कहानी मिलती है. यह ओकाकुरा काकुजो के The Book of Tea में The Taming of the Harp के नाम से संकलित है. आरम्भिक बौद्ध धर्म भौतिकवादी है, परन्तु महायान जेन सम्प्रदाय तक आते-आते यह काफी हद तक औपनिषदिक भाववाद के निकट पहुंच जाता है. महायान के विज्ञानवाद एवं शून्यवाद सम्प्रदाय भी क्रमशः विज्ञान और शून्य की परमता स्वीकारते हैं, जिनकी संकल्पना काफी हद तक उपनिषदों के ब्रह्म जैसी है. वस्तुतः महायान बौद्ध धर्म […]
विद्यार्थी-परीक्षा में फेल होकर रोते हैं, सर्वदयाल पास होकर रोये। जब तक पढ़ते थे, तब तक कोई चिंता नहीं थी; खाते थे; दूध पीते थे। अच्छे-अच्छे कपड़े पहनते, तड़क-भड़क से रहते थे। उनके माता-पिता इस योग्य न थे कि कालेज के खर्च सह सकें, परंतु उनके मामा एक ऊँचे पद पर नियुक्त थे। उन्होंने चार वर्ष का खर्च देना स्वीकार किया, परंतु यह भी साथ ही कह दिया- ”देखो, रूपया लहू बहाकर मिलता है। मैं वृद्ध हूँ, जान मारकर चार पैसे कमाता हूँ। लाहौर जा रहे हो, वहाँ पग-पग पर व्याधियाँ हैं, कोई चिमट न जाए। व्यसनों से बचकर ड़िग्री लेने का यत्न करो। यदि मुझे कोई ऐसा-वैसा समाचार मिला, तो खर्च भेजना बंद कर दूँगा। ” सर्वदयाल ने वृद्ध मामा की बात का पूरा-पूरा ध्यान रक्खा, और अपने आचार-विचार से न केवल उनको शिकायत का ही अवसर नहीं दिया, बल्कि उनकी आँख की पुतली बन गए। परिणाम यह हुआ […]
सद्गति प्रेमचंद की चर्चित कहानियों में से एक है. शोषक ब्राह्मणवादी व्यवस्था किस प्रकार लोगों को अपनी मानसिक गुलामी का शिकार बनाती है , इसका मार्मिक चित्रण प्रेमचंद ने सद्गति में किया है. 1981 में सत्यजित राय ने इस कहानी को आधार बना कर इसी नाम से एक फिल्म भी बनायी , जिसमें ओम पुरी और स्मिता पाटिल ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं . अगर देखना चाहें तो पूरी फिल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है. फिल्म देखने के लिए क्लिक करें . दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, ‘तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जायँ।‘ दुखी –‘ हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर ?’ झुरिया –‘ क़हीं से खटिया न मिल जायगी ? ठकुराने […]
1 “किरन! तुम्हारे कानों में क्या है?” उसके कानों से चंचल लट को हटाकर कहा – “कँगना।” “अरे! कानों में कँगना?” सचमुच दो कंगन कानों को घेरकर बैठे थे। “हाँ, तब कहाँ पहनूँ?” किरन अभी भोरी थी। दुनिया में जिसे भोरी कहते हैं, वैसी भोरी नहीं। उसे वन के फूलों का भोलापन समझो। नवीन चमन के फूलों की भंगी नहीं; विविध खाद या रस से जिनकी जीविका है, निरन्तर काट-छाँट से जिनका सौन्दर्य है, जो दो घड़ी चंचल चिकने बाल की भूषा है – दो घड़ी तुम्हारे फूलदान की शोभा। वन के फूल ऐसे नहीं। प्रकृति के हाथों से लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े हैं। चटुल दृष्टि इन्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्हें छूती नहीं। यह सरल सुन्दर सौरभमय जीवन हैं। जब जीवित रहे, तब चारों तरफ अपने प्राणधन से हरे-भरे रहे, जब समय आया, तब अपनी माँ की गोद में झड़ पड़े। आकाश स्वचछ था – नील, उदार […]
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ। सुनो बात मेरी – अनोखी हवा हूँ। बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्तमौला। नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ। जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ। न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा, न इच्छा किसी की, न आशा किसी की, न प्रेमी न दुश्मन, जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ। हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं – शहर, गाँव, बस्ती, नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर, झुलाती चली मैं। झुमाती चली मैं! हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ। चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया; गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर, उसे भी झकोरा, किया कान में ‘कू’, उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची – वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी। पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक इसी में रही मैं! खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी, […]
सतपुड़ा के घने जंगल। नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। झाड ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मीचे, घास चुप है, कास चुप है मूक शाल, पलाश चुप है। बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते, वन्य पथ को ढँक रहे-से पंक-दल मे पले पत्ते। चलो इन पर चल सको तो, दलो इनको दल सको तो, ये घिनोने, घने जंगल नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। अटपटी-उलझी लताऐं, डालियों को खींच खाऐं, पैर को पकड़ें अचानक, प्राण को कस लें कपाऐं। सांप सी काली लताऐं बला की पाली लताऐं लताओं के बने जंगल नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल। मकड़ियों के जाल मुँह पर, और सर के बाल मुँह पर मच्छरों के दंश वाले, दाग काले-लाल मुँह पर, वात- झन्झा वहन करते, चलो इतना सहन […]
हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्य है, दुर्भाग्य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्चय समझ लें कि आपका संसार के एक बहुत बड़े विद्वान से परिचय हो गया। हीरोजी को जाननेवालों में अधिकांश का मत है कि हीरोजी पहले जन्म में विक्रमादित्य के नव-रत्नों में एक अवश्य रहे होंगे और अपने किसी पाप के कारण उनको इस जन्म में हीरोजी की योनि प्राप्त हुई। अगर हीरोजी का आपसे परिचय हो जाय, तो आप यह समझ लीजिए कि उन्हें एक मनुष्य अधिक मिल गया, जो उन्हें अपने शौक में प्रसन्नतापूर्वक एक हिस्सा दे सके। हीरोजी ने दुनिया देखी है। यहाँ यह जान लेना ठीक होगा कि हीरोजी की दुनिया मौज और मस्ती की ही बनी है। शराबियों के साथ बैठकर उन्होंने शराब पीने की बाजी […]
शायद ही कोई ऐसा अभागा हो जिसने लखनऊ का नाम न सुना हो; और युक्तप्रांत में ही नहीं, बल्कि सारे हिंदुस्तान में, और मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि सारी दुनिया में लखनऊ की शोहरत है। लखनऊ के सफेदा आम, लखनऊ के खरबूजे, लखनऊ की रेवड़ियाँ – ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें लखनऊ से लौटते समय लोग सौगात की तौर पर साथ ले जाया करते हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो साथ नहीं ले जाई जा सकतीं, और उनमें लखनऊ की जिंदादिली और लखनऊ की नफासत विशेष रूप से आती हैं। ये तो वे चीजें हैं, जिन्हें देशी और परदेशी सभी जान सकते हैं, पर कुछ ऐसी भी चीजें हैं जिन्हें कुछ लखनऊवाले तक नहीं जानते, और अगर परदेसियों को इनका पता लग जाए, तो समझिए कि उन परदेसियों के भाग खुल गए। इन्हीं विशेष चीजों में आते हैं लखनऊ के ‘बाँके’। ‘बाँके’ शब्द […]
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे। गाँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं की कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं, इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हाँड़ी लिये उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी. ए. की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लालबिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था। भरा हुआ […]
प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी अपनी रचना ‘प्रेमचंद घर में’ के लिए चर्चित रही हैं , पर शायद कई लोगों को यह न पता हो कि वे अपने समय की चर्चित कथाकार भी रही हैं . प्रस्तुत है , उनकी कहानी ‘कप्तान’ ज़ोरावर सिंह की जिस दिन शादी हुई, बहू आई, उसी रोज़ ज़ोरावर सिंह की कप्तानी को जगह मिली। घर में आकर बोला ज़ोरावर अपनी बीवी से — ‘तुम बड़ी भाग्यवान हो। कल तुम आई नहीं, आज मैं कप्तान बन बैठा ।’ उसकी बीवी का नाम सुभद्रा; सुभद्रा यह सब सुन करके ख़ुश होने के बजाय चिन्तित हो गई। ज़ोरावर–तुम तो ख़ुश नहीं मालूम हो रही हो। सुभद्रा– जिसकी लोग ख़ुशी कहते हैं, उस ख़ुशी के अन्दर गम भी तो छिपा रहता है। ज़ोरावर–कैसा ग़म ! इस उमंग के दिनों में ग़म का नाम ही क्या ! बहू आई शाम को, सुबह अच्छा ओहदा ! […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…