‘एक राजा निरबंसिया थे,” मां कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पांच बच्चे अपनी मुठ्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः गौरें रखी जातीं, जिनमें से ऊपरवाली के बिन्दिया और सिन्दूर लगता, बाकी पांचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती स्थिर-सी जलती रहती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढाने की उतावली की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती। ”एक राजा निरबंसिया थे,” मां सुनाया करती थीं, ”उनके राज में बडी ख़ुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पडता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चंद्रमा-सी सुन्दर और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख-से रानी के महल […]
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शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूडा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउडर को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूंकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे , एक कमरे से दूसरे कमरे में आ – जा रहे थे। आखिर पांच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियां, मेज, तिपाइयां, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुंच गए। ड्रिंक का इन्तजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अडचन खडी हो गई, मां का क्या होगा? इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूमकर अंग्रेजी में बोले – मां का क्या होगा? श्रीमती काम करते-करते ठहर गई, और थोडी देर तक सोचने के […]
बाहर शोरगुल मचा। डोडी ने पुकारा – ”कौन है?” कोई उत्तर नहीं मिला। आवाज आई – ”हत्यारिन! तुझे कतल कर दूँगा!” स्त्री का स्वर आया – ”करके तो देख! तेरे कुनबे को डायन बनके न खा गई, निपूते!” डोडी बैठा न रह सका। बाहर आया। ”क्या करता है, क्या करता है, निहाल?” – डोडी बढक़र चिल्लाया – ”आखिर तेरी मैया है।” ”मैया है!” – कहकर निहाल हट गया। ”और तू हाथ उठाके तो देख!” स्त्री ने फुफकारा – ”कढीख़ाए! तेरी सींक पर बिल्लियाँ चलवा दूँ! समझ रखियो! मत जान रखियो! हाँ! तेरी आसरतू नहीं हूँ।” ”भाभी!” – डोडी ने कहा – ”क्या बकती है? होश में आ!” वह आगे बढा। उसने मुडक़र कहा – ”जाओ सब। तुम सब लोग जाओ!” निहाल हट गया। उसके साथ ही सब लोग इधर-उधर हो गए। डोडी निस्तब्ध, छप्पर के नीचे लगा बरैंडा पकडे खड़ा रहा। स्त्री वहीं बिफरी हुई-सी बैठी रही। उसकी आँखों में […]
महात्मा बुद्धदेव के जन्म के पूर्व ही एक और महात्मा बुद्धूदेव पैदा हो गये हैं। इनका पहला नाम कुष्मांडसेन। जन्म कपिलवस्तु नगर में नहीं, कपाल-वस्तु में हुआ था। बुद्धदेव की भांति ये ‘राज-परिवार’ में पैदा हुए थे, लेकिन इनके बाप राज नहीं चलाते थे, राजमिस्त्री का काम किया करते थे। दुनिया में सबके माता-पिता मर जाते हैं, इसलिए एक दिन इनके भी बाप मर गये और इनकी माँ भी उन्हीं के साथ जलकर सती हो गयी। अपने मां-बाप के मर जाने से कुष्मांडजी धरती पर लोट-पोट कर खूब रोए। जब रोने-कलपने से भी इनका मिजाज ठंडा नहीं हुआ, तब घर से बाहर निकलकर पागल की तरह घूमने लगे। लौटकर घर जाते तक नहीं। और अगर घर में जाते तो भी वहां खाने-पीने के लिए कुछ नहीं था। बाप तो मरने के बाद इनके लिए एक ‘करनी’ छोड़ गये थे और मां भंडार घर में एक खाली भांड़ रख गयी थी। […]
उस महाभव्य भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी-सूनी सीढियों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था। वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में जाती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह कुछ क्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है! पाँचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी-सूनी सीढियों पर यह श्लोक गाने लगता है। मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभवः श्यामास्तमालद्रुमैः – इस भवन से ठीक बारह वर्ष के […]
रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कण्टक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था? चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेह-पालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गये। ऐसा प्राय: होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे। एक पहर बीत […]
1 संसार को शान्तिमय करने के लिए रजनी देवी ने अभी अपना अधिकार पूर्णत: नहीं प्राप्त किया है। अंशुमाली अभी अपने आधे बिम्ब को प्रतीची में दिखा रहे हैं। केवल एक मनुष्य अर्बुद-गिरि-सुदृढ़ दुर्ग के नीचे एक झरने के तट पर बैठा हुआ उस अर्ध-स्वर्ण पिंड की ओर देखता है और कभी-कभी दुर्ग के ऊपर राजमहल की खिडक़ी की ओर भी देख लेता है, फिर कुछ गुनगुनाने लगता है। घण्टों उसे वैसे ही बैठे बीत गये। कोई कार्य नहीं, केवल उसे उस खिडक़ी की ओर देखना। अकस्मात् एक उजाले की प्रभा उस नीची पहाड़ी भूमि पर पड़ी और साथ ही किसी वस्तु का शब्द भी हुआ, परन्तु उस युवक का ध्यान उस ओर नहीं था। वह तो केवल उस खिडक़ी में के उस सुन्दर मुख की ओर देखने की आशा से उसी ओर देखता रहा, जिसने केवल एक बार उसे झलक दिखाकर मन्त्रमुग्ध कर दिया था। इधर उस कागज में […]
जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ. मेरे पति संसार की दृष्टि में बड़े सज्जन, बड़े शिष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य होंगे; लेकिन जिस पर गुजरती है वही जानता है. संसार को उन लोगों की प्रशंसा करने में आनंद आता है, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों, गैरों के पीछे अपना सर्वनाश किये डालते हों. जो प्राणी घरवालों के लिए मरता है, उसकी प्रशंसा संसारवाले नहीं करते. वह तो उनकी दृष्टि में स्वार्थी है, कृपण है, संकीर्ण हृदय है, आचार-भ्रष्ट है. इसी तरह जो लोग बाहरवालों के लिए मरते हैं, उनकी प्रशंसा घरवाले क्यों करने लगे? अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं. मैं परदा तो नहीं करती; लेकिन सौदे-सुलफ के लिए बाज़ार जाना बुरा मालूम होता है. और, इनका यह हाल है, कि चीज़ मँगवाओ, तो ऐसी दुकान से लायेंगे, जहाँ कोई ग्राहक भूलकर भी […]
नई कहानी आन्दोलन के दौरान साम्प्रदायिकता और विभाजन को आधार बनाकर अनेक कहानियाँ लिखी गयीं. अमृतसर आ गया (भीष्म साहनी),सिक्का बदल गया (कृष्णा सोबती),शरणदाता (अज्ञेय) जैसी कहानियों ने सांप्रदायिक हादसों और विभाजन की त्रासदी का यथार्थ और मार्मिक चित्रण किया है. मोहन राकेश की मलबे का मालिक और परमात्मा का कुत्ता जैसी कहानियाँ इसी श्रेणी में आती हैं. साढ़े सात साल के बाद वे लोग लाहौर से अमृतसर आये थे. हाकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज्यादा चाव उन घरों और बाजारों को फिर से देखने का था, जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराये हो गये थे. हर सड़क पर मुसलमानों की कोई न कोई टोली घूमती नजर आ जाती थी. उनकी आंखें इस आग्रह के साथ वहां की हर चीज को देख रही थीं, जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक खास आकर्षण का केन्द्र हो. तंग बाजारों में से गुजरते हुए […]
उन दिनों संयोग से हाकिम-जिला एक रसिक सज्जन थे. इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली थी. ईश्वर जाने दफ्तर के सूखे कामों से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था. वहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है ‘मारे काम के मरा जाता हूँ, सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती.‘ शायद शिकार और सैर भी उनके काम में शामिल है ? उन सज्जन की कीर्तियाँ मैंने देखी थीं और मन में उनका आदर करता था; लेकिन उनकी अफसरी किसी प्रकार की घनिष्ठता में बाधक थी. मुझे संकोच था कि अगर मेरी ओर से पहल हुई तो लोग यही कहेंगे कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है और मैं किसी दशा में भी यह इलजाम अपने सिर नहीं लेना चाहता. मैं तो हुक्काम की दावतों और सार्वजनिक उत्सवों में नेवता देने का भी विरोधी हूँ और जब कभी […]
अँधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुमुर-घुमुर करती हुई चक्कियाँ। नदी के दाहिने तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है। टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गाँव है। यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरकार के कीर्ति-चिह्न हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो गयीं बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ मुसलमान आये और बुंदेला राजा उठे और गिरे-कोई गाँव कोई इलाका ऐसा न था जो इन दुरवस्थाओं से पीड़ित न हो मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहरायी और इस गाँव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ। यह उसका सौभाग्य था। अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था। वह जमाना ही ऐसा था जब मनुष्यमात्र को अपने बाहुबल और पराक्रम ही का भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनाएँ पैर जमाये खड़ी […]
तीसरी कसम ….प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने जब रेणु की इस कहानी पर फिल्म बनाने का निश्चय किया तो हीरामन की भूमिका के लिए उनकी कल्पना में राज कपूर के सिवा कोई नाम नहीं था . मैं जितनी बार यह फिल्म देखता हूँ , मुझे लगता है कि जैसे कहानी लिखते वक्त रेणु जी की कल्पना में भी यही छवि थी हीरामन की … राज कपूर और वहीदा रहमान का शानदार अभिनय , बासु भट्टाचार्य का निर्देशन ,कथासूत्रों को जोड़ते शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के गीत ,शंकर जयकिशन का कर्णप्रिय संगीत ….कहीं तो कमी नहीं रखी थी शैलेन्द्र ने . लेकिन फिल्म को समीक्षकों की वाहवाही ही हासिल हुई , दर्शकों की तालियाँ नहीं….कहते हैं , फिल्म की असफलता ने शैलेन्द्र को इस कदर तोड़ दिया कि वह दुनिया ही छोड़ गए . बाद में , फिल्म को कुछ सफलता भी मिली ,लेकिन उसे देखने के लिए शैलेन्द्र मौजूद नहीं थे….खैर […]
उसने अपना सूटकेस दरवाजे के आगे रख दिया। घंटी का बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा। मकान चुप था। कोई हलचल नहीं – एक क्षण के लिये भ्रम हुआ कि घर में कोई नहीं है और वह खाली मकान के आगे खडा है। उसने रुमाल निकाल कर पसीना पौंछा, अपना एयर बैग सूटकेस पर रख दिया। दोबारा बटन दबाया और दरवाजे से कान सटा कर सुनने लगा, बरामदे के पीछे कोई खुली खिडक़ी हवा में हिचकोले खा रही थी। वह पीछे हटकर ऊपर देखने लगा। वह दुमंजिला मकान था – लेन के अन्य मकानों की तरह – काली छत, अंग्रेजी वी की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआं और बीच में सफेद पत्थर की दीवार, जिसके माथे पर मकान का नम्बर एक काली बिन्दी सा टिमक रहा था।ऊपर की खिडक़ियां बन्द थीं और पर्दे गिरे थे। कहाँ जा सकते हैं इस वक्त? वह मकान के पिछवाडे ग़या – वही लॉन, फेन्स और झाडियां थीं जो उसने दो साल पहले देखी थीं। बीच में विलो अपनी टहनियां झुकाये […]
काले सांप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल ज़हर पीने वाले की मौत रुक सकती है, किंतु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता. कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ आये तो बिना मानुस की बलि लिये लौटती नहीं. हालांकि थोड़ी ऊंचाई पर बसे हुए नयी डीह वालों को इसका कोई खौफ न था; इसी से वे बाढ़ के दिनों में, गेरू की तरह फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियां मनाते, दो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती, मुखियाजी के द्वार पर लोग-बाग इकट्ठे होते और कजली-सावन की ताल पर ढोलकें उनकने लगतीं. गांव के दुधमुंहे तक ‘ई बाढ़ी नदिया जिया ले के माने’ का गीत गाते; क्योंकि बाढ़ उनके किसी आदमी का जिया नहीं लेती थी. किंतु पिछले साल अचानक जब नदी […]
यों तो मेरी समझ में दुनिया की एक हज़ार एक बातें नहीं आती—जैसे लोग प्रात:काल उठते ही बालों पर छुरा क्यों चलाते हैं ? क्या अब पुरुषों में भी इतनी नजाकत आ गयी है कि बालों का बोझ उनसे नहीं सँभलता ? एक साथ ही सभी पढ़े-लिखे आदमियों की आँखें क्यों इतनी कमज़ोर हो गयी है ? दिमाग की कमज़ोरी ही इसका कारण है या और कुछ? लोग खिताबों के पीछे क्यों इतने हैरान होते हैं ? इत्यादि—लेकिन इस समय मुझे इन बातों से मतलब नहीं. मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ रहा है और उसका जवाब मुझे कोई नहीं देता. प्रश्न यह है कि सभ्य कौन है और असभ्य कौन ? सभ्यता के लक्षण क्या हैं ? सरसरी नजर से देखिए, तो इससे ज़्यादा आसान और कोई सवाल ही न होगा. बच्चा-बच्चा इसका समाधान कर सकता है. लेकिन जरा गौर से देखिए, तो प्रश्न इतना आसान नहीं […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…