घुमक्कड़ को दुनिया में विचरना है, उसे अपने जीवन को नदी के प्रवाह की तरह सतत प्रवाहित रखना है, इसीलिए उसे प्रवाह में बाधा डालने वाली बातों से सावधान रहना है। ऐसी बाधक बातों में कुछ के बारे में कहा जा चुका है, लेकिन जो सबसे बड़ी बाधा तरुण के मार्ग में आती है, वह […]
कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या। पूर्व और अपार समुद्र – महोदधि और रत्नाकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड‘ कहा जाय तो गलत क्यों है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी […]
अप्रैल के उत्तरार्द्ध की एक रात का पिछला पहर। खुला आकाश। वास्तव में खुला आकाश, क्योंकि आकाश के जिस अंश में धूल या धुन्ध होती है वह तो हमारे नीचे है। और धूल उसमें है भी नहीं, हलकी-सी वसन्ती धुन्ध ही है, बहुत बारीक धुनी हुई रुई की-सी: यह ऊपर आकाश नहीं, है रूपहीन आलोक-मात्र। […]
सन् 1908 ई. की बात है। दिसंबर का आखीर या जनवरी का प्रारंभ होगा। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था। दो-चार दिन पूर्व कुछ बूँदा-बाँदी हो गई थी, इसलिए शीत की भयंकरता और भी बढ़ गई थी। सायंकाल के साढ़े तीन या चार बजे होंगे। कई साथियों के साथ मैं झरबेरी के बेर तोड़-तोड़कर खा रहा था कि गाँव के पास से एक आदमी […]
“The crime novel is the great moral literature of our time.” -JEAN-PATRICK MANCHETTE
‘न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह न सही मेरे अशआर में मानी न सही’ सोचता हूँ, ग़ालिब ने शेर किन परिस्थितियों में कहा होगा। इस बेपरवाही के पीछे कितनी पीड़ा छिपी है,अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है। लगातार व्यंग्यवाणों के प्रहार से छलनी सीने से निकली यह आहत निःश्वास बेपरवाही के आवरण में छिपाये […]