‘न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
न सही मेरे अशआर में मानी न सही’
सोचता हूँ, ग़ालिब ने शेर किन परिस्थितियों में कहा होगा। इस बेपरवाही के पीछे कितनी पीड़ा छिपी है,अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है। लगातार व्यंग्यवाणों के प्रहार से छलनी सीने से निकली यह आहत निःश्वास बेपरवाही के आवरण में छिपाये नहीं छिपती।
कैसा लगा होगा सदी के महानतम शायर को, जब उनके सामने ही किसी ने उनके अशआर पर यह टिप्पणी की होगी कि-‘कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे’
ग़ालिब ही क्यों निराला का हाल भी कुछ ज़ुदा नहीं। कैसों कैसों के कैसे कैसे बोल नहीं सुने? प्रतिकार भी किया, प्रतिक्रिया भी दी। लड़े भी, हारे भी;पर हार नहीं मानी। ग़ालिब जैसी फ़क्कड़ाना तबीयत के बिरले ही होते हैं, जो निस्पृह भाव से अपनी राह चलते हैं।खुशी और ग़म से बेपरवाह;सताइश और सिले से बेपरवाह।
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