अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति की खूबियाँ कहाँ तक गिनवायी जायें। उसने हम असभ्य हिन्दुस्तानियों को क्या कुछ नहीं दिया? हमारी गँवार औरतों को अपने शरीर की रेखाओं की नुमाइश के नित नये तरीके बताये। शारीरिक सुन्दरता का प्रदर्शन करने के लिए बिना आस्तीनों के ब्लाऊज पहनने सिखाये। मिस्सी-काजल छीन कर उनके सिंगारदानों में लिपिस्टिक, रूज, […]
मान्यवर सम्पादक जी! क्षमा चाहता हूँ कि इस बार अपके दीपावली अंक के लिए लेख न भेज सका। बात यह हुई कि जब पहली बार आपका पत्र आया, जिसमें आपने लिखा था कि इस वर्ष आपने अपने कुछ पुराने लिखने वालों को एक ही विषय पर लेख लिखने के लिए राजी किया है और […]
दिसंबर की किसी सर्द रात में दो बजे दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में आईसीयू के बाहर बैठे डॉक्टर साहब मरीजों के बही खाते भर रहे थे। अभी अभी वार्ड से निरीक्षण करके लौटे थे। नर्स जनरल वार्ड की तरफ गई हुई थी। “डॉक्टर साहब। बचा लीजिये हमको।”, अचानक आईसीयू से आवाज आई। डॉक्टर साहब […]
इस बार तो गजब ही हो गया। दो दिन पहले अचानक से तुम्हारा ईमेल आया, “किताब अच्छी है। लेकिन मैं अब वापस नहीं लौट सकती।” कोई नो यू टर्न का बोर्ड लगा है क्या? खैर जाने दो। हम कर भी क्या सकते हैं। तुम तो पता नहीं किस रास्ते पर चली गयी हो। लेकिन क्या […]
लाहौर पहुँच कर सीधा मसऊद के घर पहुँचा तो वह हजरत गायब थे। मालूम हुआ कि कहीं घूमने गये हैं। खैर, वो घूमने जाएँ अथवा जहन्नुम में, घर तो उनका मौजूद ही था। सामान रख कर अत्यन्त संतोष से नहाया-धोया। कपड़े बदले और उनके नौकर से कहा…”चाय लाओ!” यह नौकर भी कोई नया जानवर ही […]
एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ साथ कुर्सियाँ डाले चुप-चाप बैठे थे। जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो बातचीत की कुछ वैसी ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती और दोस्त एक दूसरे की ख़ामोशी से लुत्फ़ उठा सकते हैं। यही हालत हमारी थी। हम दोनों अपने-अपने विचारों में डूबे थे। मिर्ज़ा साहब तो […]
जनवरी की एक सर्द सुबह थी। बर्फ़ीली हवा हड्डियों से गुजर खून जमा देने पर उतारू थी। स्टॉप पर खड़े सभी यात्री अपने-अपने तरीक़े से ठंड से बचाव किए हुए थे। वो दोनों भी गर्म कपड़ों से ख़ुद को […]
“बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें!” किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा। “नहीं, तू पानी तैयार कर- तीनों सेट मेज़ पर लगा दे, मैं आ रही हूँ। बाज़ आए तेरी बनाई चाय से। सुबह तीन-तीन बार पानी डाला तो भी इनकी काली और ज़हर की तरह कड़वी. . .। […]
(1) ‘‘कल होली है.’’ ‘‘होगी.’’ ‘‘क्या तुम न मनाओगी?’’ ‘‘नहीं.’’ ‘‘नहीं?’’ ‘‘न.’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘क्या बताऊं क्यों?’’ ‘‘आख़िर कुछ सुनूं भी तो.’’ ‘‘सुनकर क्या करोगे?’’ ‘‘जो करते बनेगा.’’ ‘‘तुमसे कुछ भी न बनेगा.’’ ‘‘तो भी.’’ ‘‘तो भी क्या कहूं? क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्यौहार वही मनाता है जो सुखी है. जिसके जीवन […]