बीच की तीन पगडंडियों को पार कर बानो आती थी। आते ही पूछती थी, “कुछ पता चला?” मेरा मन झूठ बोलने के लिए मचल उठता। सोचता, कह दूँ-“हाँ, पता चल गया..हम दिल्ली जा रहे हैं।“ लेकिन बानो झूठ ताड़ जाएगी, इसलिए आँखें मूँदे रहता। बानो मेरे माथे पर हाथ रखती। जब उसका हाथ ठंडा […]
‘रोमांस’ के लिए हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिलता। हमारे अय्याजी यद्यपि संस्कृतज्ञ थे, किन्तु इस शब्द के साथ उनका संबंध ठीक उसी तरह जुड़ गया था, जैसे मलहम के साथ पट्टी। अंग्रेजी न जानने पर भी वे रोमांस का रहस्य समझते अवश्य थे। हमारी यह धारणा और भी बलवती हो गई, जब उन्होंने […]
मैं ‘संगमहाल’ का कर्मचारी था। उन दिनों मुझे विन्ध्य शैल-माला के एक उजाड़ स्थान में सरकारी काम से जाना पड़ा। भयानक वन-खण्ड के बीच, पहाड़ी से हटकर एक छोटी-सी डाक बँगलिया थी। मैं उसी में ठहरा था। वहीं की एक पहाड़ी में एक प्रकार का रंगीन पत्थर निकला था। मैं उनकी जाँच करने और तब […]
चचा छक्कन कभी-कभार कोई काम अपने ज़िम्मे क्या ले लेते हैं, घर भर को तिगनी का नाच नचा देते हैं . ‘आ बे लौंडे, जा बे लौंडे, ये कीजो, वो दीजो’, घर बाज़ार एक हो जाता है. दूर क्यों जाओ, परसों की ही बात है, दुकान से तस्वीर का चौखटा लग कर आया. उस वक़्त […]
आपने सुना होगा कि कुछ लोग भाड़ झोंकने दिल्ली जाते हैं, कोयला ढोने कलकत्ता जाते हैं और बीड़ी बेचने बम्बई जाते हैं. मैं अपनी हजामत बनवाने लखनऊ गया था. लखनऊ पहले सिर्फ अवध की राजधानी थी, अब महात्मा बटलर की कृपा से सारे संयुक्त प्रान्त की राजधानी है. कई सुविधाओं का खयाल करते हुए यह […]
काट (दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) ‘पी सिकंदर’ के मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा, ‘रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर रहा है?)?’ – और उस की […]
रामदयाल पूरा बहुरूपिया था। भेस और आवाज बदलने में उसे कमाल हासिल था। कॉलेज मे पढ़ता था तो वहाँ उसके अभिनय की धूम मची रहती थी; अब सिनेमा की दुनिया में आ गया था तो यहाँ उसकी चर्चा थी। कॉलेज से डिग्री लेते ही उसे बम्बई की एक फ़िल्म-कम्पनी में अच्छी जगह मिल गयी थी […]
मनुष्य की चिता जल जाती है, और बुझ भी जाती है परन्तु उसकी छाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, सम्भव है, उसके बाद भी धक्-धक करती हुई जला करे। तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे, उसकी ननद ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ, व्यंग स्वर में […]
उद्यान की शैल-माला के नीचे एक हरा-भरा छोटा-सा गाँव है। वसन्त का सुन्दर समीर उसे आलिंगन करके फूलों के सौरभ से उसके झोपड़ों को भर देता है। तलहटी के हिम-शीतल झरने उसको अपने बाहुपाश में जकड़े हुए हैं। उस रमणीय प्रदेश में एक स्निग्ध-संगीत निरन्तर चला करता है, जिसके भीतर बुलबुलों का कलनाद, कम्प और […]