खूनी औरत का सात खून – चौदहवाँ परिच्छेद
दैवी विचित्रा गति:!
“कान्तं वत्ति कपोतिकाकुलतया नाथान्तकालोऽधुना
व्याधोऽधो धृतचापसजितशरः श्येनः परिभ्राम्यति ।।
इत्थ सत्यहिना स दष्ट इषुणा श्येनोऽपि तेनाहत-
स्तूर्ण तौ तु हिमालयं प्रति गतौ दैवी विचित्रा गतिः ।।”
(नीतिरत्नावली)
मेरे कान में ऐसी भनक पड़ी कि मानो मुझे कोई पुकार रहा है! ऐसा जान कर मैं उठ बैठी और आँखें मल-मल और जम्हाई ले-ले कर नींद की खुमारी दूर करने लगी। मुझे जगी हुई जान कर रामदयाल ने धीरे से मुझसे यों कहा,–“बस, खबरदार हो जाओ। थानेदार अब्दुल्ला लौट आया है और अब वह कदाचित तुमको अपने पास बुलावेगा।”
यह सुन कर मैंने उनसे पूछा,–“ओहो! यह तो खासी रात हो आई! मैं बहुत जादे सोई।”
उन्होंने कहा,–“हाँ, तुम खूब सोईं। अब रात के ग्यारह बजने का समय है! दस बजे अब्दुल्ला और हींगन लौट कर यहाँ आ गए हैं और खाना-बाना खा कर अब दोनों उसी कोठरी में बैठे हुए शराब पी रहे हैं। कदाचित अब तुम बुलाई जाओगी, क्योंकि ऐसी भनक मेरे कान में अभी पड़ी है। इसलिये अब तुम भगवती दुर्गा को स्मरण करो और खबरदार हो जाओ। हम लोगों को थानेदार ने यह हुक्म दिया है कि,–“तुम-सब अपनी कोठरी में चले जाना और बिना बुलाए न आना।”
रामदयाल की बातें सुन कर एक बेर तो मैं बहुत ही डरी और काँपने लगी, पर फिर मैंने भगवती का स्मरण करके अपने जी को पोढ़ा किया।
बस, इतने ही में हाथ में लालटेन लिये हुए वही हींगन चौकीदार मेरी कोठरी के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ और रामदयाल को विदा करके ताला खोलते-खोलते मुझसे यों कहने लगा,– “चलो, बी! तुमको थानेदार साहब बुला रहे हैं। खून तो तुमने वाकई पांच जरूर किए हैं, लेकिन कुछ पर्वा नहीं। अगर इस वक्त तुम थानेदार की और मेरी भी दिली आरजू पूरी कर दोगी, तो हमलोग चुपचाप इसी रात को तुम्हें यहाँ से भगा देंगे। फिर जहाँ तुम्हारा जी चाहे, वहाँ चली जाना; लेकिन जब तक इस खून का हंगामा न मिट ले, तबतक अपने तईं किसी पोशीदा जगह में खूब छिपाए रहना। मगर जो तुमको कोई छिपने की माकूल जगह न दिखलाई दे, तो वैसा कहो; क्योंकि वैसी हालत में खुद मैं तुम्हें अपने साथ लेकर कलकत्ता या बंबई भाग चलूँगा और फिर किसी साले के हाथ न आऊँगा। बस, तब तुम मेरी बीवी बनकर रहना और मैं तुम्हारा खाविन्द बनकर रहूँगा।”
उस निगोड़े और कलमुँहे मियाँ हींगन की ऐसी गन्दी बातें सुनकर मेरे तलुवे से चोटी तक आग सी लग गई, किन्तु बेमौका समझकर मैं उस क्रोध को मन ही मन दबा गई और स्त्रियों की स्वाभाविक माया का कुछ थोड़ा सा विस्तार करके तुरन्त यों कहने लगी,–“मियाँ जी! तुमने जो कुछ मुझसे अभी कहा है, उसे मैं मंजूर करती हूँ; पर जब कि तुम मुझे अपनी बीवी बनाया चाहते हो, तो फिर अपनी उसी बीवी को थानेदार के हाथ में क्यों देते दो?”
मेरी ऐसी विचित्र बात सुन और अपने हाथ की लालटेन से मेरे चेहरे की ओर देख कर उस कलूटे ने हँस फर यों कहा,–“आह, दिलरुबा! तो यह बात तुमने मुझसे पेश्तर क्यों न कही?”
मैं बोली,–“पहिले तुम्ही ने अपने जी की बात मुझसे कब कही थी? अस्तु, सुनो हींगन मियाँ! तुम अब मेरे जी के असली भेद को सुनो। आज यहाँ आते ही मैंने पहिले तुम्हें देखा था और तुम्हारे साथ मेरी दो चार बातें भी हुई थीं। बस, उसी समय से तुम्हारी बातें सुनकर मैं तुम पर लट्टू हो गई हूँ और खुशी से तुम्हारी बीवी बनना चाहती हूँ। इसलिये यदि तुम मुझे अब्दुल्ला के हाथ से निकाल कर कहीं लिवा ले चलो, तो मैं तुम्हारी ही होकर रहूँगी।”
यह सुनकर हींगन हाथ मलकर यों कहने लगा,–“या इलाही, तो अब मैं क्या करूँ और इस वक्त उस जालिम अब्दुल्ला के हाथ से क्योंकर तुम्हें बचाऊँ?”
मैं बोली,–“हिम्मत बांधो, जी को पोढ़ा करो, कुछ जवांमर्दी खर्च करो और अब्दुल्ला से लड़कर मुझे यहाँ से ले भगो। देखो,–सुनो, मैं जो उपाय बतलाती हूँ, उसे ध्यान से सुनो। देखो, यह तो तुम्हें मालूम ही है कि इस समय अब्दुल्ला ने तुम्हारे अलावे, बाकी के छओं चौकीदारों को अपनी कोठरी में चले जाने के लिये कहा है। इसलिये अब वे छओं चौकीदार आज रातभर कभी कोठरी से बाहर न निकलेंगे। ऐसे मौके को तुम नाहक अपने हाथ से न खोवो और अब्दुल्ला को खूब शराब पिला और उसे बेहोश करके मुझे यहाँ से कहीं दूसरी जगह ले चलो। फिर जब हमदोनों किसी अच्छी जगह पहुँच जायेंगे, तब जो कुछ तुम कहोगे उसे बिना उजुर मैं करूँगी।”
इस उपाय को सुनकर शैतान हींगन उछल पड़ा और बोला,–“बस, बस, अब तुम कोई अन्देशा न करो और बेफिक्र रहो। वाकई, बी दुलारी! तुमने तरकीब तो बड़े आला दर्जे की बतलाई! बस, अब तुम जरा न डरो और देखो कि मैं क्या करतब कर गुजरता हूँ।”
हींगन ने यह बात कही तो सही, पर उसकी बात पर मुझे कुछ भी भरोसा न हुआ; क्योंकि वह खुद भी इतनी शराब पीये हुए था कि उसके पैर ठीक तौर से धरती में नहीं पड़ते थे और, उसके मुँह से ऐसी दुर्गन्धि निकल रही थी कि जिससे मेरा सिर चक्कर खाने लग गया था। यहाँ तक कि उसके मुँह से साफ-साफ बात भी नहीं निकलती थी। यह सब था, पर फिर भी मैंने उसे इसी लिये यह चकमा दिया था कि, ‘जिसमें वह अब्दुल्ला को खूब शराब पिलाकर बेहोश कर दे; क्योंकि यदि अब्दुल्ला नशे में गाफिल हो जाये तो फिर हींगन ऐसे जानवरों को अंगूठा दिखाते मुझे तनिक भी देर न लगेगी।’
हींगन के साथ मेरी इतनी ही बात होने पाई थी कि इतने ही में हाथ में एक लालटेन लिये हुए झूमता झामता अब्दुल्ला भी वहीं पर आ पहुँचा और त्योरी बदलकर उसने हींगन से यों कहा,–“क्यों बे, उल्लू के पट्ठे! तूने इतनी देर क्यों लगाई?”
यह सुनकर हींगन कुछ बिगड़ा नहीं, वरन बड़ी आजिजी के साथ उसने अब्दुल्ला से यों कहा,– “अजी, हज़रत! यह नई औरत आपके पास चलने में ज़रा हिचकती और शरमाती थी, इसलिये मैं इसे खूब समझा-बुझा रहा था। बस, अब यह राजी हो गई है। इसे लेकर मैं आने ही वाला था कि आप खुद आ पहुँचे। चलिए, इसे मैं लिवाए चलता हूँ।”
हींगन की ऐसी बातें सुनकर अब्दुल्ला ने हँसकर उससे कहा,–वाकई, मियाँ हींगन! तुम बड़े होशियार और काबिल एतबार शख्स हो। मैं सदर में तुम्हारे लिये सिफारिश करूँगा और तुम्हें चौकीदार से जमादार बनवा दूँगा। मगर खैर, अब तुम इस माहे-लका को उस कोठरी में फौरन ले आओ।”
यों कहकर अब्दुल्ला डग मारता हुआ वहाँ से चला गया। उसके रंग-ढंग से यह मैंने जान लिया था कि यह शराब के नशे में भरपूर चूर हो रहा है!
अस्तु, उसके जाने पर हींगन ने मुझसे कहा,– “लो, अब चलो और बेफिक्र रहो; क्योंकि मैं तुम्हारी मदद पर मुस्तैद रहूँगा और अब्दुल्ला साला तुम्हारे जिस्म में उंगली भी न लगाने पाएगा। मैं तुम्हारी हिफाजत करूँगा और अगर उस बदजात ने तुम्हारे साथ कुछ ज्यादती करनी चाही, तो उसे फौरन मार डालूँगा।”
यह सुन कर घबरा कर मैंने उससे यों कहा,–“सुनो, हींगन मियाँ! खून-खराबे की कोई जरूरत नहीं है, इसलिए तुम वैसा कोई भयानक काम न कर बैठना। हाँ, यह तुम कर सकते हो कि उस (अब्दुल्ला) को खूब ढेर सी शराब पिला कर बेहोश कर दो और मुझे यहाँ से कहीं ले चलो। सुनो, भई! मेरे घर में पाँच-पाँच खून तो हो ही चुके हैं; इसलिये यहाँ अब एक खून की गिनती और बढ़े, यह मैं नहीं चाहती।”
मेरी ऐसी बात सुन कर चलते-चलते हींगन ने यों कहा, “खैर, तुम कोई अन्देशा न करो। मैं बराबर तुम्हारी मदद पर रहूँगा और जैसा मौका देखूँगा, वैसा करूँगा। तुम मुझे बिलकुल नशे में डूबा हुआ न समझना।”
मैं बोली,–“खैर, तुम जैसे हो, बहुत अच्छे हो। लेकिन इतना मैं फिर भी तुम्हें चिताए देती हूँ कि अब तुम खुद तो जरा भी शराब न पीना, मगर अब्दुल्ला को खूब पिलाना।”
इस पर वह बोला,–“अच्छा, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही किया जायेगा। तो, आओ; अब झटपट चलो।”
यों कह कर वह मुझे अपने आगे करके ले चला और उसके साथ मैं अब्दुल्ला की उसी कोठरी में पहुँची, जिसमें मैंने सबेरे उसे देखा था।
वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि एक ओर् एक स्टूल पर धरी हुई लालटेन जल रही और तख्तपोश के ऊपर बैठा हुआ अब्दुल्ला शराब पी रहा है।
मुझे देखते ही उसने हँस दिया और उसी तख्तपोश पर आकर बैठ जाने का इशारा किया। किन्तु मैं उस तख्तपोश पर न बैठ कर नीचे धरती में बिछे हुए टाट के बोरे पर बैठ गई और हँस कर यों बोली,– “जी, यहीं अच्छा है।”
इस पर जब वह बार-बार मुझसे तख्तपोश पर बैठने के लिए कहने लगा तो हींगन ने उसके प्याले में शराब डाल कर उससे यों कहा,–“खैर, जरा और ठहर जाइए क्योंकि जब यह इस कोठरी के अन्दर आ ही गई है, तो फिर तख्तपोश पर आने में कितनी देर लगेगी। आप क्या यह बात नहीं जानते कि, “नई नवेली नार जरा जियादह मिन्नतें कराती है!”
हींगन की बात पर अब्दुल्ला जरा गरम हो उठा और त्योरी बदल कर उससे बोला,–“बस, बस, चुप रहो, क्योंकि इस वक्त तुम्हारे वकालत करने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिये अब तुम फौरन यहाँ से चले जाओ और अपनी कोठरी में जाकर आराम करो।”
यह सुन कर हींगन भी झल्ला उठा और ताव-पेंच खा कर यों कहने लगा- “नहीं, मैं इस कोठरी के बाहर नहीं जाऊँगा। क्योंकि अभी तो शाम ही हुई है। इसलिये जरा दो-चार बोतलों को खाली होने दीजिए, इसके बाद मैं आप ही यहाँ से चला जाऊँगा।”
यह सुन कर अब्दुल्ला ने कहा,–“तो, लो,–यह एक बोतल शराब तुम लेते जाओ।”
हींगन बोला,–“और साथ ही, इस नाजनी को भी लेता जाऊँ? क्यों? क्योंकि बगैर इस परी के, तनहाई में शराब क्योंकर अच्छी लगेगी?”
हींगन की यह बात सुन कर अब्दुल्ला बहुत ही झल्लाया और हींगन को गालियाँ देने लगा। पर हींगन चुपचाप खड़ा-खड़ा लाल-लाल आँखों से अब्दुल्ला की ओर् घूरता रहा। अब्दुल्ला भी हींगन की तरफ भौंहें तान-तान कर गुरेर रहा और बड़ी तेजी के साथ प्याले पर प्याले खाली करता चला जा रहा था। हाँ, हींगन ने मेरी बात मान कर फिर एक घूंट शराब भी नहीं पीई थी।
यों ही तीन-चार बोतलों को बात की बात में खाली करके अब्दुल्ला ने हींगन से कहा कि,–“बस, अब तू यहाँ से जा।”
किन्तु जब वह अपनी जगह से जरा भी न टसका, तब अब्दुल्ला ने अपने हाथ के शराब वाले प्याले को उस पर खींच मारा और बड़े जोर से चिल्ला कर यों कहा,–“बस, चला जा, हरामी पिल्ले! तू फौरन इस कोठरी के बाहर निकल जा।”
प्याले की चोट तो हींगन को न लगी, क्योंकि वह जरा तिरछे होकर उस निशाने को बचा गया था; पर इस प्याले के जवाब में जो उसने जूता खेंच कर मारा, वह अब्दुल्ला के सिर पर जाकर जरूर लगा।
जूते का लगना था कि अब्दुल्ला ने म्यान से तलवार खींच ली और तख्तपोश पर उठ कर वह खड़ा हो गया। इतने ही में हींगन भी एक तलवार लेकर उस तख्तपोश पर चढ़ गया और दोनों के वार चलने लगे। यह हाल देख कर मारे डर के मैं उठ कर खड़ी तो हो गई थी, पर पैर न उठने से भाग नहीं सकी थी।
यों ही जैसे ही हींगन ने अब्दुल्ला की गर्दन पर तलवार चलाई थी कि उस (अब्दुल्ला) ने भी अपनी तलवार हींगन के कलेजे में घुसेड़ दी। बस, वे दोनों साथ ही उस तख्तपोश पर गिर गए और अब्दुल्ला का सिर मेरे पैरों से आकर टकराया!!!
यह अनोखा तमाशा देख कर मेरे तो देवता कूच कर गए और मैं चक्कर खा कर जहाँ खड़ी थी, वहीं गिर गई!
मैं कब तक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती; पर जब मुझे चेत हुआ तो मैंने क्या देखा कि, ‘मैं उसी कोठरी में पड़ी हूँ, जिसमें कि अब्दुल्ला ने मुझे बुलाया था! यह स्मरण होते ही मैं चट से उठ कर खड़ी हो गई और आगे बढ़ चली कि मेरे पैर में किसी चीज की ठोकर लगी! यह जानकर मैंने धरती की ओर देखा तो क्या देखा कि, “अब्दुल्ला का सिर मेरे पैर की ठोकर खाकर दरवाजे के चौखट तक लुढ़क गया है! यह देखकर मेरे सारे बदन के रोंगटे खड़े हो गए और बड़े जोर-जोर से कलेजा उछलने लगा। फिर मैं जहाँ की तहाँ खड़ी की खड़ी रह गई और मेरे पैरों ने चलने से जवाब दे दिया। इतने ही में मेरी नजर उस तख्तपोश की ओर गई तो मैंने क्या भयंकर दृश्य देखा कि, ‘अब्दुल्ला का बिना सिर का धड़ पड़ा हुआ है और उसके हाथ वाली तलवार हींगन के कलेजे में घुसी हुई है! हींगन भी मुँह बाए हुए मरा पड़ा है और उसके हाथ से छूट कर तलवार तख्त पर गिर गई है। सारा तख्तपोश खून से भर गया है और नीचे धरती में भी बहुत सा खून बह आया है! इतने ही में मैंने अपनी ऊनी चादर की ओर देखा तो उसमें भी खून लगा दिखाई दिया! केवल इतना ही नहीं; वरन मेरी धोती की लावन (नीचे के किनारे) में भी खून लग रहा था और मेरा पैर भी खून से रंग गया था; क्योंकि कोठरी में खून बहा था कि नहीं!
हाय, इस भयंकर दृश्य को देखकर मेरे तो होश उड़ गए और देर तक मैं उसी कोठरी में खड़ी-खड़ी पगली की तरह इधर-उधर निहारती रही। इतने ही में एकाएक न जाने मेरे मन में क्या तरंग उठी कि चट दौड़कर मैं उस कोठरी से बाहर निकल भगी। उस समय भी मुझे अब्दुल्ला के सिर को ठोकर लगी थी, क्योंकि वह लुढ़क कर दरवाजे के बीचों बीच आकर ठहर गया था।
अस्तु, फिर मैं उस खयाल को छोड़कर उस ओर लपकी, जिधर वह कोठरी थी, जिसमें कि वे छओं चौकीदार रहते थे। तो, मैं उन चौकीदारों की कोठरी की ओर क्यों चली? इसलिये कि मैं भागना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस संसार में मेरे लिये ऐसी कोई जगह न थी, जहाँ पर जाकर मैं छिप सकती और अपनी जान बचा सकती। इसीलिए मैं दौड़ी हुई उसी कोठरी के आगे जा पहुँची और खूब जोर से चिल्ला कर मैंने उन चौकीदारों को पुकारा और उन्हें बाहर बुलाया।
छओं बेचारे कोठरी के बीच में बैठे हुए आग ताप रहे थे। सो, मेरी डरावनी चिल्लाहट सुन कर वे ऐसे चिहुंक पड़े कि एक दम से सब के सब उस कोठरी के बाहर निकल आए और मुझसे सभी यों पूछने लगे कि,–“ऐं, ऐं! क्या बात है? तुम इतना शोर क्यों मचा रही हो? क्यों, बोलो, क्या बात है?”
पर उन सभों की उन सब बातों के जवाब देने की उस समय मुझे छुट्टी कहाँ थी! क्योंकि ज्यों ही वे छओं अपनी कोठरी के बाहर आए थे, त्योंही मैंने बड़ी फुर्ती के साथ उस कोठरी के भीतर घुस कर अन्दर से उसकी कुण्डी चढ़ा ली थी और एक जंगलेदार खिड़की के आगे खड़ी होकर उन छओं चौकीदारों से यों कहा था,–“भाइयों,तुम सब जरा थानेदार की कोठरी की ओर जाओ और जाकर देखो कि वहाँ कैसा खून-खराबा हुआ है!”
मेरी बात अनसुनी कर दियानत हुसैन ने जरा कड़क कर यों कहा,–“ओ औरत! तूने मेरी कोठरी के अन्दर घुस कर भीतर से कुण्डी क्यों बंद कर ली है?”
इस पर मैंने कहा,– “सुनो, मियाँजी! तुम “तू तड़ाक” तो रहने दो, और जाकर जरा यह तो देखो कि तुम्हारे थानेदार और हींगन का क्या हाल् हुआ है?”
ऐसी बात सुन कर रामदयाल ने कहा,–“क्यों, उन दोनों का क्या हाल् है?”
मैं बोली,– “वे दोनों मेरे लिये आपस में लड़ कर कट मरे हैं!”
बस, इतना सुनते ही वे छओं जोर से चीख मार उठे और तेजी के साथ अब्दुल्ला की कोठरी की ओर् दौड़े।