खूनी औरत का सात खून – आठवाँ परिच्छेद
दुर्दैव
“यदपि जन्म बभूव पयोनिधौ,
निवसनं जगतीपतिमस्तके ।
तदपि नाथ पुराकृतकर्मणा,
पतति राहुमुखे खलु चन्द्रमाः ॥”
(व्यासः)
मैं सिर झुकाए हुए यों कहने लगी,– कानपुर जिले के एक छोटे से गाँव में मेरे माता-पिता रहते थे। उस गाँव का नाम आप जानते ही हैं, इसलिये अब मैं अपने मुँह से उसका नाम नहीं लिया चाहती। हाँ, यह मुझे बतलाया गया है कि, ‘तू फलाने गाँव की रहने वाली है।’ इस बात को मैंने स्वीकार भी किया है, पर मैं अब उस दुखदाई गाँव का नाम अपने मुँह से नहीं लिया चाहती। उस गाँव के मालिक या जिमीदार कानपुर के एक बड़े प्रतिष्ठित कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और गाँव में हजार आठ सौ के लगभग आदमी बसते हैं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्री, बनिए, भुइंहार, बढ़ई, लुहार, कहार, कुनबी, नाई, बारी, घोषी, तेली, चमार, दुसाध, जुलाहे आदि सभी जाति के लोग रहते हैं और वह गाँव गंगा के किनारे ही पर बसा हुआ है। रहते तो हैं उस गाँव में प्रायः सभी जाति के लोग, पर जादे संख्या ब्राह्मणों और बनियों की है और प्राय: सभी लोग खेती-बारी का काम करते हैं।
उसी सत्यानाशी गाँव में मेरे माता-पिता भी रहते थे। यद्यपि अदालत ने मुझे यह बतलाया है कि, ‘तेरे पिता फलाने ब्राह्मण थे;’ पर मैं अभागी अब अपने मुँह से यह बात नहीं कहना चाहती कि मेरे पिता कौन ब्राह्मण थे। हाँ, पढ़नेवाले मेरी इस लिखावट से जो चाहें, सो मतलब निकाल लें। किन्तु हाँ, यह बात मैं स्वीकार करती हूँ कि उस गाँव के बाह्मणों में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की संख्या सबसे जादे है।
मेरे माता-पिता का क्या नाम था, यह बात भी अदालत को मालूम हो गई है, जिसे मैंने भी सकारा है; पर अब इस अवस्था में पड़कर मैं निगोड़ी अपने उन वैकुण्ठवासी माता-पिता के पवित्र नाम को अपने अपवित्र मुख से नहीं कहना चाहती।
मेरे पूज्य पिताजी की अवस्था मरने के पहिले पचपन वर्ष की और मेरी माता की चालीस बरस की थी और मेरी सोलह साल की है। मेरे प्यारे पिता अच्छे पण्डित थे, पर पुरोहिताई का काम छोड़कर वे खेती-बारी करते थे। मेरी माता भी पढ़ी-लिखी थीं, इसी से पिता-माता की शिक्षा पाकर मैं भी कुछ थोड़ा बहुत पढ़ लिख गई हूँ। मेरे पिता का निज का कच्चा मकान था। मकान के साथ एक छोटी सी फुलवारी भी थी, दो तीन गौ-भैंसे भी थीं और चार जोड़ी बैल और चार ही हरवाहे (बैल हाँकने और हल जोतनेवाले) भी थे। बड़े सुख-चैन के साथ मेरे माता-पिता का, और उन्हीं की बदौलत मेरा भी दिन बीतता जाता था और यदि सच पूछा जाय तो कोई भी कष्ट न था। किन्तु बैरी विधाता से हमलोगों का वह तुच्छ सुख भी न देखा गया और उस निगोड़े ने हमलोगों के सारे आनन्द पर वज्र गिरा दिया!
बात यह हुई कि कातिक की पूनो नहा कर मेरी माता पीड़ित हुईं। उन्हें बड़े वेग से ज्वर चढ़ आया और तीसरे दिन उनके गले में गिलटी निकल आई! यह देखकर मेरे पिता बहुत घबराए और तब हमलोगों ने यह जाना कि यह तो प्लेग है!
मेरे छोटे से उस गाँव में वैद्य-डाक्टर तो थे नहीं, इसलिये उधर तो पिताजी किसी बैद्य की खोज में सवेरे ही कानपुर गए और इधर दोपहर होते-होते मेरी प्यारी माता चल बसीं। उस समय गाँव की कई स्त्रियाँ आ गई थीं और उन्हीं सभों ने मेरी माता की वह अवस्था देखकर उन्हें धरती में उतार दिया था। क्योंकि उस समय मैं अपने आपे में न थी और उन स्त्रियों के रोकने पर भी बार-बार पछाड़ खा-खा कर अपनी माता के शरीर पर गिर-गिर पड़ती थी।
संझा होते-होते एक वैद्यजी को साथ लेकर पिताजी लौट आए, पर जब उन्होंने घर का हाल देखा तो वे मूर्छित होकर मेरी माता के शव पर गिर गए। फिर वैद्यजी का क्या हुआ, यह तो मुझे नहीं मालूम; पर हाँ, यह मैंने देखा कि गाँव के लोग इकट्ठे हो गए और रात के नौ बजते-बजते मेरे पिताजी मेरी माता को फूँक और नहा कर घर लौट आए। मैंने भी उस समय माता के शव के साथ गंगा किनारे जाना चाहा था, पर मुझे कई स्त्रियों ने पकड़ रक्खा था; इसलिये मैं गंगा तो न जाने पाई, पर हाँ, जब मेरे पिता घाट से लौटकर घर आ गए, तब कुएँ पर मैं नहलाई गई।
फिर, तब गाँव की स्त्रियाँ तो अपने-अपने घर गईं और हम दोनों (पिता-पुत्री) ने सारी रात रो-पीट कर गँवाई। यद्यपि मेरे पिता मुझे बहुत कुछ ढाढ़स देते और समझाते-बुझाते थे, पर जब अपनी प्यारी और सुशीला पत्नी का ध्यान उन्हें हो आता, तो वे बहुत ही बिलाप करने लगते और उनका कलपना देखकर मैं भी बहुत ही विकल होती और छाती मूड़ कूट-कूट कर बहुत ही घोर विलाप करने लग जाती थी।
खैर, किसी-किसी तरह दस दिन बीते। फिर ग्यारह, बारह और तेरह दिन भी बीते और मेरे पिता ने मेरी माता के श्राद्ध से छुट्टी पाई। किन्तु हाय, जिस दिन मेरी माता की तेरहीं हुई थी, उसी रात को मेरे पिता भी पड़े और उन्हें दूसरे ही दिन गिलटी निकल आई। यह देखकर मेरे दुख का कोई पारावार न रहा और सिवाय रोने-पीटने के और मैं कुछ भी कर-धर न सकी। उस समय तक सारे गाँव में प्लेग फूट निकला था और वे लोग जिन्हें कुछ भी समाई थी, इधर-उधर भागे जा रहे थे। एक तो वह हजार-आठ सौ आदमियों की बस्ती का छोटा सा गाँव था ही, उस पर जब लोग घर-द्वार छोड़-छोड़ कर भागने लगे, तब तो और भी उस गाँव की श्री नष्ट हो गई और जिधर देखो, उधर ही भयंकरता राक्षसी मुँह बाए घूमती हुई दिखाई देने लगी। हाय, यह सब देख-सुन कर मेरा हिया और भी फटने लगा, पर मैं लाचार थी और कुछ भी कर-धर नहीं सकती थी। मेरे घर के पास एक नाऊ (नाई) रहता था, जिसका नाम हिरवा था; उसे मैंने चार रुपए देकर यह कहा कि, ‘कानपुर से कोई अच्छे वैद्य को बुला लावे,’ पर वह चण्डाल जो वे रुपए लेकर गया, सो उस दिन लौट कर आया, जिस दिन उसकी मौत लिखी थी।
अस्तु, इसी तरह तीन दिन पीछे रात को मेरे प्यारे पिता भी कूच कर गए और मुझ निगोड़ी को एक दम से अनाथ कर गये। हाय, हाय! भला अब उस शोक—उस अपार शोक का हाल मैं क्योंकर किसी के आगे प्रगट करूँ! बस, यहाँ पर इतना ही समझ लेना चाहिए कि गाँव के बचे-खुचे लोगों में से तो उस समय कोई भी न आया। पर हाँ, मेरे यहाँ जो चार हरवाहे नौकर थे, वे ही मेरे पिता को गंगाजी उठा ले गये। यह देखकर मैं भी उनके पीछे-पीछे दौड़ी, पर जब मैं गंगा तट के पास पहुँची तो मैंने क्या देखा कि वे चारों हरवाहे लौट रहे हैं! यह देख कर मैंने उन हत्यारों से यह पूछा कि, ‘तुम सभों ने मेरे पिता को, कहाँ रक्खा है?’ इस पर उन दुष्टों ने यह जवाब दिया कि, “बस, अब उठो और चुपचाप घर लौट चलो। क्योंकि इस हाड़-तोड़ जाड़े की रात को गंगा नहाकर अपना प्राण न गँवाओ। हमलोगों ने तुम्हारे पिता को गंगा में बहा दिया है और अब घर लौटे जा रहे हैं। काल सवेरे जब खूब करारी धूप निकलेगी, तब गंगा में गोता लगा लेंगे।”
हाय। उन अभागों की यह बात सुनकर मैं पछाड़ खाकर वहीं गिर गई और मूर्छित हो गई। मैं कब तक बेसुध रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब मुझे होश हुआ तो मैंने क्या देखा कि मैं अपने घर की एक कोठरी में चारपाई पर पड़ी हुई हूँ और मेरे पास दूसरी खाट पर उसी हिरवा नाई की माँ हुलसिया पड़ी हुई नाक बजा रही है, जिसे कि मैंने कानपुर से वैद्य बुला लाने के लिए चार रुपए दिए थे।
यह सब देखकर मैं अपनी खाट पर उठकर बैठ गई और हिरवा की माँ को बार-बार पुकारने लगी। पर वह निगोड़ी सौ हांक देने पर भी तनिक न भिनकी, वरन और जोर-जोर से नाक बजाने लगी। यह देख कर मैं उठी और टिमटिमाते हुए दीए को टेम को ठीक करके फिर अपनी चारपाई पर आ बैठी। उस समय अपने माता-पिता और साथ ही अपनी घोर विपत्ति का स्मरण करके मैं खूब जोर-जोर से चिल्ला कर रोने लगी।
यों ही मैं न जाने कितनी देर तक आप ही आप रोया की, इतने ही में मैंने क्या देखा कि वही हिरवा नाई, जिसकी उम्र बीस-बाईस बरस से जादे न थी और जो दिखने में महा कुरूप था, मेरी चारपाई पर आकर बैठ गया और मेरा एक हाथ पकड़कर अपने मैले दुपट्टे से मेरा आँसू पोंछने लगा!!!
यह तमाशा देखकर एक बेर तो मैं बड़े जोर से चिहुंक उठी, पर तुरत ही उसके हाथ को झटकार और उसे अपनी चारपाई पर से ढकेलकर बड़े क्रोध से उसकी ओर निहारती हुई यों कहने लगी,– “क्यों रे, हिरवा! तूने और तैरी माँ ने बराबर मेरे यहाँ के जूठे टुकड़े खाए हैं, तब वैसी दशा में तू क्या समझकर मेरी चारपाई पर आ बैठा और क्या सोचकर तूने मेरा हाथ पकड़ा?”
मेरी ये बाते सुनकर वह खिलखिला कर हँसने लगा और यों बोला कि,–“दुलारी, तू बड़ी सुंदर है और मैं कई बरस से तेरे रूप-रंग को देख-देख कर भीतर ही भीतर भुना जा रहा हूँ। अब तक तो तेरे मां-बाप के डर से मैं अपना मन मारे बैठा रहा, पर अब मुझसे तेरे बिना छिन भर भी नहीं रहा जाता। सो, तू मेरी बात सुन और मेरे गले से लग जा। देख, जो सीधी तरह मेरी बात मान ले, तो अच्छा ही है; नहीं तो मैं जबरदस्ती तेरी इज्जत-आबरू बिगाड़ दूँगा और सारे गाँव में तेरी बदनामी का ढोल पीट कर तुझे मिट्टी में मिला दूँगा। इस समय तू अकेली है और अब तेरे सिर पर कोई भी नहीं है, इसलिये अपनी अवस्था पर अच्छी तरह विचार करके तू मेरा कहना मान ले और मेरे हिये की लगी को बुझा दे।”
उस दुरात्मा पातकी की ऐसी खोटी बातें सुनकर मेरे तलुए से चोटी तक आग सी लग गई और मारे क्रोध के मैं भभक उठी। एक तो मैं अपनी माता-विशेषकर अपने पिता के शोक में बावली हो ही रही थी, उस पर निगोड़े हिरवा की पाप-कथा सुनकर तो में और भी पागल हो उठी और झट से अपनी खाट के नीचे उतरकर खड़ी हो गई। फिर मैंने दाँत पीस कर उस दुष्ट हिरवा से यों कहा कि, “बस, अब तू चुपचाप यहाँ से अपना काला मुँह कर, नहीं तो तेरे लिये अच्छा न होगा।”
यह सुनकर वह बेहया फिर खूब ठठाकर हँसा और कहने लगा,–“अब तो मैं तभी यहाँ से जाऊँगा, जब अपना जी ठंढा कर लूँगा।”
बस, महाशय! उसके मुँह से इतना निकलना था कि मैंने उछलकर उस पातकी को धरती में पटक दिया और उसके कलेजे पर सवार होकर ऐसे जोर से उसका गला दबाया कि फिर वह जरा भी न बोल सका। यों ही देर तक मैं उसके गले को भरजोर दबाए रही। फिर मैं उसकी छाती पर से उतर कर दूर जा खड़ी हुई और उसकी ओर बिना देखे ही यों कहने लगी,–“बस, रे चण्डाल! अब तू उठ और यहाँ से भाग नहीं तो मार ही डालूँगी।” यों कहकर मैंने एक मूसल उठा लिया और जिस खाट पर उस (हिरवा) की माँ सोई हुई थी, उस खाट की ओर देखा। मैंने क्या देखा कि वह खाट खाली पड़ी हुई है और उसपर हिरवा की माँ हुलसिया नहीं है! यह देखकर मैं बड़ी सकपकाई कि वह रांड कहाँ गई? इतने में फिर मैंने हिरवा की ओर दीठ फेरी तो क्या देखा कि वह गया नहीं है, बल्कि जहाँ पड़ा था, वहीं पड़ा हुआ है। यह देखकर मैंने उससे बार-बार यों कहा कि, ‘अब तू उठ यहाँ से और चला जा,’ पर वह जहाँ का तहाँ पड़ा ही रहा। तब तो मैंने उसके पास जाकर उसके सिर में अपने पैर की दो-तीन ठोकर मारी, पर वह जरा न भिनका! यह देखकर मैं बहुत ही हैरान हुई और दीया लेकर उसका मुँह निहारने लगी। अरे रे रे! मैंने क्या देखा कि उसकी आँखों के दोनों ढेले बाहर निकल पड़े हैं, जीभ भी मुँह के बाहर आ गई है और बहुत सा फेन और खून इसके मुँह से बहा और धीरे-धीरे बह रहा है। यह देखकर मेरा सारा बदन थर्रा उठा और वह मेरे हाथ का दीया हाथ से गिरकर बुझ गया। मैं भी फिर खड़ी न रह सकी और चक्कर खाकर वहीं गिर पड़ी।
मैं कब तक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब मुझे चेत हुआ तो मैंने क्या देखा कि मेरे हाथ-पैर बँधे हुए हैं, मैं अपनी चारपाई पर डाल दी गई हूँ, हिरवा भी धरती में जहाँ का तहाँ पड़ा हुआ है और उस कोठरी में चार आदमी आकर खड़े हुए हैं, जिनमें से एक के दाहिने हाथ में तलवार और बाएँ में एक मोटा सा जलता हुआ पलीता है और बाकी के तीनों आदमियों के हाथों में खाली तलवारे हैं।
यह अजीब तमाशा देखकर मैं सन्नाटे में आ गई और बार-बार उस कोठरी के चारों ओर आँखें दौड़ाने और उन चारों आदमियों के चेहरे की तरफ टकटकी लगाकर देखने लगी। उन चारों आदमियों को मैं चीन्हती थी, क्योंकि वे सब मेरे गाँव के ही रहने वाले थे। उनमें से एक, जिसके हाथ में जलता हुआ पलीता था, वह नब्बू ज़ुलाहा था, दूसरा धाना कोइरी था, तीसरा परसा कहार था और चौथा कालू कुरमी था। यह कालू मेरे पिता के उन्हीं चारों हरवाहों में से एक था, जिसने मेरे पिता का बहुत दिनों तक नमक खाया था।
सो, यह सब अनूठा तमाशा देखकर मैं घबरा गई और मन ही मन यह सोचने लगी कि, ‘अब क्या करना चाहिए!’
बस, यहाँ तक मैं कह चुकी थी कि उन अंगरेज अफसर ने मेरा नाम लेकर मुझसे यों कहा,–“डुलारी, टुम जरा ठहर जाओ, क्योंकि डो बजा चाहटे हैं, इस वाशटे हम जरा नाशटा करने माँगटा।”
यह सुनकर मैंने ऊपर नजर उठाकर देखा, तो क्या देखा कि साहब अपनी कु्र्सी पर से उठकर एक खानसासा के साथ खाना खाने जा रहे हैं। उनके जाते ही भाईजी भी उठे और यों कहकर एक ओर चले गए कि, “मैं भी जरा जलपान कर आऊँ।”
यों कहकर भाईजी भी चले गए और वहाँ पर मेरे पास खाली बारिस्टर साहब रह गए। उन्होंने मेरी ओर जरा सा मुसकुराकर देखा और यों कहा,–“बीबी दुलारी, मैं तुम्हें इस बात का विश्वास दिलाता हूँ कि तुम जरूर छूट जाओगी।”
यह सुनकर मैंने अपनी आँखें नीची कर ली और मन ही मन प्रसन्न हो तथा ओठों के अन्दर ही अन्दर हंसकर यों कहा,– “मुझ अभागी को छुड़ा कर आप क्या कीजिएगा?”
उन्होंने कहा,–“यह पीछे सोचा जायेगा; पहिले तुम इस बला से छुटकारा तो पा लो।”
इस पर मैंने कुछ न कहा, बल्कि फिर मारे लज्जा के उनकी ओर् देख भी न सकी।
वे फिर कहने लगे,– “एक बात और है।”
मैंने देखे बिना ही उत्तर दिया,– “आज्ञा कीजिए।”
वे बोले,—“आज्ञा करना तो अब व्यर्थ है, क्योंकि वह तो मानी ही नहीं जाती! हाँ, प्रार्थना अवश्य की जा सकती है। सो भी तब, जब उसके मान लेने की आशा की जाय।”
मैं इस ढंग की उनकी बातें सुनकर मन ही मन बहुत ही सकपकाई कि वे कौन सी ऐसी बात कहना चाहते हैं, जिसके लिये इतनी भूमिका बांध रहे हैं! परन्तु मारे लाज के मेरी आँखें उनकी ओर न उठ सकीं और मैंने सिर झुकाए हुए ही यों कहा,–“आप जो कुछ कहना चाहते हों, उसे कृपाकर कहिए।”
वे बोले,–“अब मैं क्योंकर तुमसे कुछ कह सकता हूँ, जब कि तुम इतनी बड़ी हठीली हो कि अपनी “टेक” के आगे किसी के कहने-सुनने पर कुछ ध्यान ही नहीं देती।”
अब भला, उनकी ऐसी बात का मैं क्या जवाब दे सकती थी! अस्तु, मैं कुछ न कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में भाईजी आ गए और मैंने कुछ कहने-सुनने से छुट्टी पाई।
भाईजी अपनी कुर्सी पर बैठकर बारिस्टर साहब से अंगरेजी में कुछ बात चीत करने लगे, इतने ही में साहब बहादुर भी आ गए और उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठकर मुझसे यों कहा,–“डुलारी, अब टुम आगे बोलो।”
यह सुनकर मैंने कहा,—“ बहुत अच्छा; सुनिए,–यद्यपि कालू की बातों ने मेरे कलेजे को मसल डाला था, पर बहुत जल्द मैंने अपने जी को ठिकाने किया और इशारे से कालू को अपने पास बुलाया।