खूनी औरत का सात खून – चतुर्थ परिच्छेद
नई कोठरी
नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्ते$पि वशगा,
विधिर्वन्द्य: सो$पि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।
फलं कर्मायत्त यदि किममरै: किं च विधिना,
नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्य: प्रभवति ।।
(भतृहरि:)
बस, इसी तरह की बातें मैं मन ही मन सोच रही और रो रही थी इतने ही में जेलर साहब ने आकर मुझसे यों कहा,– “बेटी दुलारी, मुझे ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे खोटे दिन गए और भले दिन अब आया ही चाहते हैं। तुम पर जगदीश्वर की करुण दृष्टि पड़ी है और तुम्हारा दुर्भाग्य सौभाग्य से बदला चाहता है। मेरे इतना कहने का मतलब केवल यही है कि एक बड़े जबर्दस्त हाथ ने तुम्हें अपने साये तले ले लिया है, जिससे इस आफत से तुम्हारा बहुत जल्द छुटकारा हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। बात यह है कि भाई दयालसिंह बहुत पुराने और बड़े जबर्दस्त जासूस हैं और सरकार के यहाँ इनकी बातों का बड़ा आदर है। तब, जब कि यही दयालसिंह तुम्हें छुड़ाने के लिये उठ खड़े हुए हैं तो मैं निश्चय कह सकता हूँ कि तुम्हारा छुटकारा जरूर ही हो जायेगा। और यदि ईश्वर ने ऐसा किया तो मैं सचमुच बहुत ही प्रसन्न होऊँगा। क्योंकि मैं भी बाल बच्चे वाला हूँ और यह बात जी से चाहता हूँ कि किसी तरह तुम इस बला से बच जाओ।
मैं चुपचाप जेलर साहब की बातें सुनती रही, इतने में फिर वे यों कहने लगे,–” देखो, भाई दयालसिंह की बढ़ी-चढ़ी ताकत का एक नया तमाशा तुम देखो। मुझे अभी मजिष्टर साहब का एक हुक्मनामा मिला है, जिसमें यों लिखा है कि, दुलारी कालकोठरी से निकाली जाकर एक साफ, अच्छी और बड़ी कोठरी में रखी जाये। उसे अब बेड़ी-हथकड़ी हरगिज न पहनाई जाये और उसके बैठने के लिये कुर्सी या चौकी और सोने के लिये चारपाई दी जाये। उसके पहिरने-ओढ़ने और खाने-पीने के बारे में भाई दयालसिंह जी जैसी राय दें, वैसा ही किया जाये। हाँ, उसकी कोठरी के जंगलेदार दरवाजे में ताला जरूर लगाया जाये और पहरे का भी काफी इंतजाम रहे; पर ऐसा कभी न होने पाए कि उस कैदी औरत को कुछ भी तकलीफ हो। अगर भाई दयालसिंह उस औरत के पहिरने-ओढ़ने या खाने-पीने के लिये कुछ दान के तौर पर दें, तो वह जरूर ले लिया जाये और भाई दयालसिंह और बारिस्टर दीनानाथ जब चाहें, तब उस कैदी औरत से मिल सकें, जितनी देर तक वे चाहें, उतनी देर तक वे उस औरत के पास बेरोक-टोक रह सकें और उससे बातचीत कर सकें।‘ इत्यादि। लो, सुना तुमने? मजिष्टर साहब के हुक्म की बानगी देखी तुमने? अब यह सब देख-सुन कर तो यह बात तुम भलीभांति समझ गई होगी कि भाई दयालसिंह कोई मामूली आदमी नहीं हैं और वे बड़ी भारी ताकत रखते हैं।”
जेलर साहब यहाँ तक कह चुके थे कि इतने ही में वहाँ पर दो औरतें आ गईं। उनकी ओर देखकर उन्होंने मेरी कालकोठरी का दरवाजा खोला और मुझसे यों कहा,–“दुलारी, ये दोनों भी कैदी औरतें हैं, लेकिन जात की हिन्दू अर्थात् कहारिने हैं। आज से ये तुम्हारी टहल-चाकरी करेंगी, इसलिये इनके साथ तुम कुएँ पर जाओ। ये दोनों तुम्हें अच्छी तरह नहला-धुला कर उस कोठरी में ले आवेंगी, जिसमें कि अब से तुम्हें रहना होगा।”
यों कहकर जेलर साहब ने एक नई, मोटी और सफेद धोती उन दोनों औरतों में से एक के हाथ में दे दी और मुझे उन दोनों के साथ विदा करना चाहा। पर जरा मैं ठिठकी रही और जेलर साहब से यों कहने लगी,—“हाँ, कई दिनों से, अर्थात उस दिन से जिस दिन कि मुझे फांसी की सजा हुई थी, मैं नहाई नहीं हूँ इसलिये मैं नहाना तो अवश्य चाहती हूँ, पर मुझे अपनी टहल-चाकरी के लिये किसी टहलनी की आवश्यकता नहीं है। साथ इसके, मैं नई धोती अभी नहीं पहिरना चाहती, जिसे कि आपने अभी इस कहारी को दिया है। इसलिये इस धोती को आप वापस ले लें। हां, नहाने के लिये मुझे अवश्य हुकुम देवें।”
यह सुनकर जेलर साहब ने मेरे साथ बड़ी हुज्जत की, पर जब नई धोती पहिरने के लिये मैं ज़रा भी राजी न हुई, तो उस धोती को उन्होंने उस कहारी से ले लिया और मुझे उन दोनों के साथ नहाने के लिये विदा किया। यद्यपि मैं उन कहारियों को भी अपने साथ नहीं लिया चाहती थी, पर मेरी यह बात नहीं मानी गई और मैं इन दोनों के साथ एक ओर चली। साथ-साथ, पर जरा दूर-दूर, बन्दूक लिए हुए दो कांस्टेबल भी मेरे पीछे-पीछे चले।
मुझे वे दोनों कहारिने एक कुएँ पर ले गईं, जिसके बगल में एक जाफरी टट्टी की पर्देदार कोठरी बनी हुई थी। उसी कोठरी में ले जाकर उन दोनों ने मुझे खूब नहलाया; और जब मैं नहा चुकी तो मैंने वही कपड़ा फिर पहिर लिया, जो कैद होने पर मुझे पहिराया गया था। फिर वे दोनों मुझे जनाने कित्ते की ओर वाली उस कोठरी के पास ले आईं, जो अब मेरे रहने के लिये ठीक की गई थी। मैने उस कोठरी के पास आकर क्या देखा कि जेलर साहब वहाँ पर मौजूद हैं। मुझे देखकर जेलर साहब ने उन दोनों औरतों और कांस्टेबलों को तो वहाँ से विदा किया और मेरे साथ वे उस कोठरी के अन्दर घुसे। ओहो! उस कोठरी के अंदर घुसते ही मैंने क्या देखा कि वह छः हाथ की लंबी-चौड़ी एक चौकोर कोठरी है और उसकी पाटन भी छः हाथ के लगभग ऊँची है। उसमें केवल एक ही ओर लोहे का छड़दार मजबूत दरवाजा था। इस कोठरी में एक तरफ एक तार वाली लोहे की चारपाई बिछी हुई थी और उसपर दो अच्छे विलायती कंबल रक्खे हुए थे। एक तरफ एक चौकी के ऊपर पानी की सुराही और गिलास रक्खा हुआ था और इसी चौकी पर कई तरह के फल, मिठाइयाँ और ताजी-ताजी पूरियाँ भी रखी हुई थीं। एक तरफ दो कोरी धोतियाँ भी रक्खी हुई थीं। पलंग के अलावे, मेरे बैठने के लिये एक छोटी सी चौकी भी वहाँ पर पड़ी हुई थी और कोठरी के बाहर तीन कुर्सियाँ रक्खी हुई थीं।
अरे, मेरे ऐसी ‘खूनी औरत’ के लिये, जिसे कि फांसी की सजा का हुक्म हो चुका है, इतनी तैयारियाँ की गई हैं? क्या भाई दयालसिंह का इतना बड़ा रुतबा है कि वे एक फांसी पर चढ़ने वाली औरत के वास्ते इतना कुछ कर सकते हैं। अस्तु, बहुत देर तक मैं कुछ सोचने न पाई, क्योंकि जेलर साहब ने मुझसे यों कहा कि,– “दुलारी, तुम जल्दी खाने-पीने से छुट्टी पा लो, क्योंकि दस बज चुके हैं और ठीक ग्यारह बजे बारिष्टर साहब तथा एक और अंगरेज़ अफ़सर के साथ भाई दयालसिंह यहाँ आ जायेंगे।”
यों कहकर जेलर साहब वहाँ से जाया ही चाहते थे कि मैंने उन्हें रोका और उनसे यों कहा,– “महाशय, तनिक ठहर जाइए और मेरी एक विनती सुन लीजिए।”
यह सुन कर वे ठहर गए, तब मैं उनसे यों कहने लगी,— “महोदय, महीनों से मैं यहाँ पर हूँ, इसलिए आप इतने दिनों में मेरे स्वभाव को भली-भांति जान गए होंगे। देखिए, अपने पिता के मरने के बाद जब मैं घर से विदा हुई थी, तब दूसरे गाँव में जाने पर मुझे एक चौकीदार ने दया करके दूध पिला दिया था। इसके पीछे जब मैं कानपुर की कोतवाली में आई, तब वहाँ पर भी बराबर दूध ही पीकर अपना दिन काटती रही। फिर वहाँ से मैं इस जेल में भेजी गई और अभी तक यहीं पड़ी हुई हूँ। यहाँ भी, जिस दिन से मैं आई हूँ, बराबर दूध ही पी रही हूँ और सिवाय दूध या पानी के, अपने घर से चलने के बाद से लेकर आज तक कोई भी तीसरी चीज मैने अपने मुँह में नहीं डाली है। तो फिर यह सब जानबूझकर भी आपको आज क्या हो गया, जो आपने मेरे खाने के लिये इतनी तैयारी की? आप तो यह बात जानते ही हैं कि जेल के अन्दर आने पर जेल की रसोई खाने के लिये मुझसे बहुत कुछ कहा गया, पर जब तीन-तीन, चार-चार दिन तक केवल जल ही पीकर मैं रह गई, तब झख मार कर आपलोगों को मेरे लिये दूध की व्यवस्था करनी पड़ी। फिर यह सब जानबूझकर भी मेरे चिढ़ाने के लिये आज इतनी तैयारियाँ आपने क्यों की? क्या आपको यह विश्वास है कि जेल के अन्दर रहकर मैं इन सब सुख की चीजों को कभी छूऊँगी भी? हाँ, यह आपको अधिकार है कि मुझे चाहे जिस कोठरी में रक्खें। पर जेल के अन्दर मैं जब तक रहूँगी, तब तक उसी ढंग से रहूँगी, जिस ढंग से कि अब तक रही हूँ अर्थात् मुझे खाने के लिये कुछ न चाहिए, हाँ, पीने के लिये दूध और पानी जरूर चाहिए। दूध मैं उसी तरह मिट्टी के पुरवे (बर्तन) में पीऊँगी, जिस तरह कि अब तक पीती आ रही हूँ। मुझे पहिले की भांति नित्य कच्चा दूध मिलना और मेरे दूध में कभी भी मीठा न डालना चाहिए। पानी की एक लोहे की बाल्टी और एक टीन का गिलास मेरी कोठरी में जरूर रहना चाहिए, जैसा कि अब तक रहता आया है। इसलिये आप अपने ये सुराही, गिलास, पूरी, मिठाई और फलों को यहाँ से ले जाइए, और मेरे सोने के लिये जो चारपाई लाई गई है, उसे भी यहाँ से हटाइए। मुझे बैठने के लिये चौकी की भी आवश्यकता नहीं है और बढ़िया कंबल भी मुझे न चाहिए। बस, केवल दो मामूली कंबल बहुत हैं, जिनमें से एक को मैं धरती में बिछा लूँगी और दूसरे को ओढ़कर जाड़े की यह रात काट डालूँगी। हैं! मेरे फेर देने पर भी, फिर यहाँ पर ये दो-दो नई धोतियाँ क्यों लाकर रक्खी गई हैं! हटाइए महाशय, इन सब चीजों को यहाँ से हटाइए; क्योंकि ये सब मेरे काम में कभी भी नहीं आने की।
मेरी ऐसी और इतनी लंबी-चौड़ी बातें सुनकर जेलर साहब टुकुर-टुकुर मेरा मुँह निहारने लगे और जरा ठहरकर बोले,– “बेटी, दुलारी! तुम तो एक अनोखी लड़की हो! अरे, भाई! आज यह जो कुछ तुम्हारे लिये किया गया है, यह सब भाई दयालसिंह के हुकुम और बारिष्टर दीनानाथ के खर्च से किया गया है; और ऐसा करने की आज्ञा वे लोग आला अफसरों से ले चुके हैं। इसलिये अब तुमको यही उचित है कि तुम जादे हठ न करो और अपने सहायकों की की हुई इस सहायता को स्वीकार कर लो।”
मैं बोली, “नहीं, महाशय! यह कभी नहीं होने का; क्योंकि अभी तक इस बात का कोई निश्चय नहीं हुआ है, कि मेरा क्या परिणाम होगा। अर्थात् मैं फांसी पड़ूँगी, या इस सांसत से छुटकारा पाऊँगी। तो, जब कि अभी इसी बात का कोई निश्चय नहीं है, तब मैं अब इस चला चली की बेला इन सुख के सामानों को जेल के अन्दर कदापि ग्रहण नहीं करूँगी। इसमें और भी एक बात है, और वह यह है कि मेरे पिता को मेरे यहाँ के दुष्ट नौकरों ने केवल गंगा में बहा दिया है और उनके उत्तरकाल का कुछ भी क्रिया-कर्म नहीं हुआ है। ऐसी अवस्था में, इस जेल के अन्दर रह कर भी मैं इन सब चीज़ों को कैसे छू सकती हूँ? सुनिए महाशय, मैं जो केवल दूध पीकर अपने प्राणों की रक्षा कर रही हूँ, यह क्यों? सुनिए, इसका एक कारण है और वह यह है कि मैंने मन ही मन ऐसी प्रतिज्ञा की है और ऐसा व्रत किया है कि यदि भाग्यों से मैं इस जेल से जीती-जागती छूट गई तो घर जाकर पहिले मैं अपने पिता का विधि पूर्वक श्राद्ध करूँगी, उसके बाद अन्न खाऊँगी। किन्तु, जब तक मैं वैसा नहीं कर लेती, तब तक ब्रह्मचर्य से रहूँगी, केवल दूध पीऊँगी और धरती में सोऊँगी। इसलिये हे महाशय, आप मुझ अभागी की इस तुच्छ विनती को मान लीजिए और इस कोठरी में से इन सब चीजों को दूर हटाइए।”
मेरी ऐसी बातें सुनते-सुनते दयावान जेलर साहब की आँखों में पानी छलक आया था, इसलिये उन्होंने दूसरी ओर मुँह फेर रुमाल से अपने नैन पोंछे और मेरी ओर बिना देखे ही यों कहा,– “ठीक कह रही हो, दुलारी! तुम बहुत ही ठीक कह रही हो। वास्तव में, जो कुछ तुमने कहा, उसमें रत्तीभर का भी फरक नहीं है और सचमुच तुम्हारी सी सुशीला लड़की को ऐसा ही करना चाहिए; परन्तु मैं क्या करूँ! क्योंकि मुझे जो कुछ भाई दयालसिंहजी ने हुकुम दिया, मैने वही किया; इसलिये अब, जब तक वे मुझे दूसरी आज्ञा न देंगे, तब तक मैं केवल तुम्हारे कहने से ये सब चीजें यहाँ से नहीं हटा सकता।”
इस पर मैंने यों कहा,– “अच्छी बात है, अब जो आपके जी में आवे, सो आप कीजिए; क्योंकि इस कोठरी में अभी बहुतेरी धरती खाली बची हुई है, उसी में मैं बैठ या पड़ सकती हूँ।”
वे बोले,– “अच्छा, अब वे तीनों साहब आया ही चाहते हैं। सो, उनके आने पर उनसे मैं तुम्हारी सारी बातें समझाकर कह दूँगा और तब वे जैसा मुझे हुकुम देंगे, वैसा मैं करूँगा।”
यों कह कर और दरवाजे में ताला लगाकर जेलर साहब वहाँ से चले गये और मैं खाली धरती में बैठकर अपने फूटे कर्मों के लिये आँसू ढलकाने लगी।