खूनी औरत का सात खून – प्रथम परिच्छेद
घोर विपत्ति!
“आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त-
मम्बोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छम्॥
जन्मान्तरा S र्जितशुभाSशुभकृन्नराणां,
छायेव न त्यजति कर्मफलाSनुबन्धः॥“
(नीतिमंजरी)
दुलारी मेरा नाम है और सात-सात खून करने के अपराध में इस समय में जेलखाने में पड़ी-पड़ी सड़ रही हूं। मैं जाति की ब्राह्मणी पर कौन सी ब्राह्मणी हूँ,यह बात अब नहीं कहूँगी। मैं अभी तक कुमारी हूँ और इस समय मेरा बयस सोलह बरस के लगभग है।
कानपुर जिले के एक छोटे से गांव में मेरे माता-पिता रहते थे, पर किस गांव में वे रहते थे, इसे अब मैं नहीं बतलाना चाहती, क्योंकि जिस अवस्था में मैं हूँ, उस दशा में अपने वैकुंठ वासी माता-पिता का पवित्र नाम प्रगट करना ठीक नहीं समझती।
साढ़े तीन महीने से मैं जेल में पड़ी हूँ। जिस समय मैं अपने गाँव से चलकर एक दूसरे गाँव के थाने पर गयी थी, वह अगहन का उतरता महीना था, और अब यह फागुन मास बीत रहा है ।
मेरा नाम इस समय कई तरह से प्रसिद्ध हो रहा है। कोई मुझे “खूनी औरत” कह रहा है, कोई “सात खून” पुकार रहा है, कोई “रणचण्डी” बोल रहा है और कोई “चामुण्डा” बतला रहा है। बस, इसी तरह के मेरे अनेकों नाम अदालत और जेलखाने के लोगों की जीभों पर नाच रहे हैं और इन्हीं नामों से मैं प्रायः पुकारी भी जाने लगी हूँ।
यह सब तो है; पर ऐसा क्यों हुआ और सात-सात खून करने का अपराध मुझे क्यों लगाया गया, यही बात मैं यहाँ पर कहूंगी।
मैं अपने गाँव से चल कर दूसरे जिस गाँव के थाने पर खून की रिपोर्ट लिखवाने गई थी, उसी गाँव पर एक अंग्रेज अफसर के सामने मेरा बयान कानपुर के कोतवाल साहब ने लिखा था। फिर वहाँ से मैं पुलिस के पहरे में कानपुर लाई गई और कोतवाली की कालकोठरी में रक्खी गई। फिर कई दिनों के बाद जब मजिष्टर (मजिस्ट्रेट) साहब के सामने मेरा बयान हो गया, तब मैं जेलखाने भेज दी गई और कुछ दिनों पीछे दौरे सुपुर्द की गई। कई पेशियां दौरे में भी हुई और महीनों तक मुकदमा चलता रहा। अन्त में मुझे फांसी की आज्ञा सुनाई गई और मैं जेलखाने की कालकोठरी में पड़ी-पड़ी सड़ने लगी; पर यह बात मुझे स्मरण न रही कि किस दिन मुझे फांसी पर लटकना होगा। उस दंडाज्ञा के होने के दस-पन्द्रह दिन पीछे मैंने एक दिन जेलर साहब से यों पूछा कि, “मुझे किस दिन फांसी होगी?” इस पर हंस कर उन्होंने यह जवाब दिया कि, “अभी उसमें देर है; फांसी की तारीख पहली मई है, पर तुम्हारे किसी मददगार बैरिस्टर ने जजसाहब के फैसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील दायर की है; इसलिये अब, जबतक हाईकोर्ट का आखीर फैसला न हो लेगा, तब तक फांसी नहीं दी जायेगी।”
जेलर साहब की यह बात सुन कर मैं बहुत ही चकित हुई और उनसे यों कहने लगी कि, “क्यों साहब, मैंने तो अबतक किसी भी वकील-बारिष्टर को अपने मुकदमे फी पैरवी के लिये नहीं खड़ा किया था और अदालत के कहने पर भी वैसा कोई प्रबन्ध नहीं किया था; वैसी अवस्था में फिर मेरी ओर से किस बारिष्टर ने हाईकोर्ट में अपील दायर की है?”
यह सुन फर जेलर साहब ने कहा,–”जिस बैरिष्टर ने तुम्हारी तरफ से अपील दायर की है, वह आज दोपहर को तुमसे खुद आकर मिलेगा। बस, उसी की जबानी तुमको सारी बातें मालूम हो जायेंगी।”
यों कहकर जेलर साहब एक ओर चले गए और मैं मन ही मन यों सोचने लगी कि,–“अरे, मुझ अभागिन के लिये परमेश्वर ने किसे खड़ा किया, जो मेरे लिए आप ही आप उठ खड़ा हुआ!!!”
मज़िष्टर साहब के सामने जब मैं पहुंचाई गई थी, तब मैंने यह देखा था कि सैकड़ों वकील-मुख्तार मेरे मुकदमे का तमाशा तो खड़े देख रहे थे, पर मेरे लिये किसी माई के लाल ने भी दो बोल नहीं कहे। यहाँ तक कि हाकिम ने मुझसे यों कहा था कि, “यदि तू चाहे तो अपने पक्ष समर्थन कराने के लिये किसी वकील-मुख्तार को अपनी ओर से खड़ा कर ले।” परन्तु मैंने यों कहकर इस बात को अस्वीकार किया था कि, “नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मुझे झूठ नहीं बोलना है; और जो कुछ सच्ची बात है, उसे मैंने कह ही दिया है; ऐसी अवस्था में फिर मुझे वकील-मुख्तारों की कोई आवश्यकता नहीं है।”
यही बात जजी में भी हुई थी, अर्थात वहाँ पर भी सैकड़ों वकील-बारिष्टर मेरे मुकदमे का तमाशा तो देख रहे थे, पर मेरे पक्ष समर्थन के लिये कोई भी वीर आगे नहीं बढ़ा था। यही सब रंग-ढंग देखकर अदालत के कहने पर भी फिर मैंने किसी वकील या बैरिष्टर को अपनी ओर से नहीं खड़ा किया था। इसमें एक बात और भी थी और वह यह थी कि मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी न थी, फिर वैसी अवस्था में वकील-बारिष्टर क्यों कर किए जाते।
अस्तु इसी तरह की बातें मैं देर तक सोचती रही, इतने में एक कान्स्टेबिल मुझे नित्य की भाँति दूध दे गया, जिसे पीकर मैंने सन्तोष किया। उसी समय घड़ी ने दोपहर के बारह बजाए।
जिस तरह की कोठरी में मैं बन्द की गई थी, वह इतनी छोटी थी कि उसकी छत खड़े होने से माथे में लगती थी और उसमें हाथ-पांव फैला कर सोना कठिन था। उसके तीन ओर पक्की दीवार थी और चौथी ओर लोहे का मजबूत दरवाजा था, जिसमें तीन-तीन इंच की दूरी पर मोटे-मोटे लोहे के छड़ लगे हुए थे। मुझे जेलखाने के ढंग का एक मोटा और जनाना कपड़ा दिया गया था, जिसे मैं पहिरे हुई थी।
जेलर साहब एक बंगाली थे, उनका बयस पचास के पार था और वे मेरे साथ बड़ी भलमंसी का बर्ताव करते थे। जेल के और सिपाही भी सहूलियत से ही पेश आते थे।
मुझे कोई कष्ट न था और मैं बड़े धीरज के साथ अपना दिन बिताती थी। मुझे फांसी की टिकटी पर चढ़ने या मरने का तनिक भी डर न था क्योंकि इस शोचनीय दशा को पहुँचकर मैं अब जीना नहीं चाहती थी; पर जब जेलर साहब की बात पर मेरा ध्यान जाता तो मैं बहुत ही आश्चर्य करने लगती कि अरे, मुझ अभागिन के लिये नारायण ने किस दयावान को खड़ा किया है?