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दिव्या

लेखक: यशपाल

लोकभारती प्रकाशन

मूल्य: 125

***
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यशपाल की दिव्या को ऐतिहासिक उपन्यास माना जाता है। दिव्या और दिव्या जैसे अन्य उपन्यासों को लेकर आलोचकों में काफी चर्चा इस बात की हुई है कि उपन्यास में इतिहास का अंश कितना होना चाहिए। वस्तुतः ‘ऐतिहासिक उपन्यास’ शब्द ही अपने आप में व्याघाती है। इतिहास हमेशा तथ्यों पर आधारित होता है। इतिहासकार को यद्यपि कल्पना की जरूरत होती है, तथापि इतिहास में कल्पना की मात्रा जितनी कम रहे, इतिहास की वस्तुनिष्ठता उतनी अधिक होती है। दूसरी ओर हालांकि उपन्यास का उदय ही यथार्थवाद के दबावों में हुआ है, वह मूलतः एक साहित्यिक रचना है और साहित्यिक रचना में कल्पना का समावेश स्वाभाविक है। उपन्यासकार उपन्यास लिखता है, इतिहास नहीं। उसका मूल उद्देश्य ऐतिहासिक परम्परा में जीवन सत्य को पकड़ना होता है न कि तथ्यों एवं घटनाओं की इतिहास से संगति बिठाना। इसलिए ऐतिहासिक उपन्यास का विश्लेषण करते हुए जो तथ्यों और घटनाओं पर रखने की बजाय विशिष्ट ऐतिहासिक परिवेश और उसकी संवेदना  पर होना चाहिए। आलोचकों के अनुसार यह सही है कि उपन्यासकार इतिहासकार नहीं होता, लेकिन यदि वह ऐतिहासिक उपन्यास लिखता है तो यह उसका दायित्व है कि स्थापित ऐतिहासिक तथ्यों से कथा का विरोधाभास न हो। इतिहास जहाँ मौन है, वहाँ उपन्यासकार को अपनी कल्पना के उपयोग की पूरी छूट होती है। दिव्या की ऐतिहासिकता पर विचार इन्हीं संदर्भों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

                यशपाल के दिव्या की आसपास ही राहुल सांकृत्यायन (सिंह सेनापति), हजारी प्रसाद द्विवेदी (बाणभट्ट की आत्मकथा) के भी ऐतिहासिक उपन्यास प्रकाशित हुए है। इन दोनों ने ही अपने उपन्यासों को एक प्रामाणिक रूप देने के लिए उनके इतिहास होने का मिथ खड़ा किया है। बाणभट्ट की आत्मकथा में जहां व्योमकेश शास्त्री को ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की एक पुरानी पाण्डुलिपि मिल जाती है, वहीं ‘सिंह सेनापति’ के लेखक को खुदाई में मिले ईंटों पर एक सेनापति की जीवनी मिल जाती है, जो उनके अनुसार आज भी पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। वस्तुतः इतिहास से अभेद स्थापित करने की यह कोशिश एक औपन्यासिक शिल्प से ज्यादा कुछ नहीं है। दिव्या में ऐसी कोई कोशिश नहीं की गयी है, लेकिन तुलनात्मक रूप से देखे तो तीनों उपन्यासों का जोर ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं से ज्यादा ऐतिहासिक परिवेश को ग्रहण करने का रहा है।

                यशपाल के अनुसार उन्होंने दिव्या की रचना से पूर्व तत्कालीन इतिहास का अध्ययन-मनन किया था। इसके बावजूद कुछ ऐसी विसंगतियाँ है जो एक गम्भीर पाठक को खटकती हैं। दिव्या का कथा संसार ‘इण्डो ग्रीक शासक मिनांडर  (मिलिन्द) के बाद के मद्र गणराज्य से प्रारम्भ होता है। इतिहासकारों में मिनांडर  के शासनकाल को लेकर मतभेद है। आमतौर पर मिनांडर  का काल 166 ई. पू.- 150 ई. पू. तक का माना जाता है। इस लिहाज से दिव्या की कथा दूसरी शताब्दी ई. पूर्व के आखिरी वर्षों से प्रारम्भ होनी चाहिए। पुष्पमित्र शुंग काल इतिहास में आमतौर पर 185 ई. पू.  से 148 ई.  तक माना जाता है। यह माना जाता है कि 153 ई. पू के आस-पास पुष्यमित्र शुंग का मिनांडर या मिलिन्द के साथ संघर्ष हुआ। इस संघर्ष के नतीजों के लेकर इतिहासकारों में मतभेद है।  कुछ इतिहासकार पुष्यमित्र को विजेता घोषित करते हैं तो कुछ मिनांडर  को। नतीजा जो भी हो यह स्थापित तथ्य है कि 149 ई. पू. में पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु हो जाती है। बौद्ध ग्रंथों में मिनांडर का बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर सता त्याग का उल्लेख है, इसलिए यशपाल द्वारा इस तथ्य के उपयोग का इतिहास से कोई विरोध नहीं दिखता, लेकिन मद्र गणराज्य द्वारा केन्द्रस के आक्रमण के समय पुष्यमित्र से मदद की उम्मीद रखने को आलोचकों ने अतार्किक बताया है, क्योंकि उनके अनुसार उस समय तक पुष्यमित्र जीवित नहीं रहा था। लेकिन, अगर हम यह माने कि 153 ई. पू. के संघर्ष के तुरन्त बाद मिनांडर ने सता त्याग दी थी, तो मद्र गणराज्य के शुरूआती वर्षों में पुष्यमित्र के जीवित होने को अतार्किक नहीं माना जा सकता। वस्तुतः पूरे उपन्यास को देखें तो मिनांडर  (मिलिन्द) और पुष्यमित्र को छोड़ कर कोई ऐतिहासिक पात्र कथा में नहीं है। उपरोक्त दोनों पात्रों की भी उपन्यास में चर्चा मात्र है। कथा के विकास की दृष्टि से उनकी कोई सक्रिय भूमिका नहीं है, इसलिए यहाँ लेखक पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ का आरोप नहीं लगाया जा सकता। आलोचकों की आपत्ति यह भी है कि यशपाल ने बौद्ध मठों को समृद्ध और शक्तिशाली दिखाया है, जबकि पुष्यमित्र शुंग के काल में ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के बाद बौद्ध मठों का विध्वंस भी किया गया था। वस्तुतः आधुनिक इतिहासकार पुष्यमित्र शुंग की बौद्ध विरोधी छवि को पूरी तरह नकारते है। शुंग वंश के दौरान कई मठों और स्तूपों का पुनर्निर्माण भी कराया गया था। इसलिए तत्कालीन परिवेश में समृद्ध और शक्तिशाली मठों के चित्रण के लिए भी यशपाल को दोषी करार नहीं दिया जा सकता।

                जैसा कि पहले कहा जा चुका है उपन्यासकार इतिहास से तथ्यों और घटनाओं को नहीं बल्कि तत्कालीन संवेदना को ग्रहण करता है। स्वयं यशपाल के अनुसार, तत्कालीन परिवेश और वेशभूषा के गठन के लिए उन्होंने अजन्ता और एलोरा के गुफाओं से मदद ली है। समस्या यहीं उत्पन्न होती है। अजन्ता और एलोरा की गुफाएं गुप्तकालीन हैं, जबकि दिव्या का परिवेश ई. पू.  दूसरी शताब्दी के आखिरी वर्षों का है। 400 वर्ष किसी भी संस्कृति में परिवर्तन के लिहाज से काफी होते हैं। यशपाल की चूक यह है कि उन्होंने ने ई. पू. के वातावरण के चित्रण के लिए गुप्तकालीन स्रोतों की मदद ली। किसी भी परिवेश के गठन में भाषा की बड़ी भूमिका होती है। यशपाल ने जैसे यह मान लिया है कि प्राचीन भारत में सभी लोग संस्कृत ही बोलते थे जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था। संस्कृत नाटकों में भी आमजन प्राकृत ही बोलते है। संस्कृत सिर्फ अभिजनों की ही भाषा थी। दिव्या के अधिकांश पात्र एक जैसी तत्सम प्रधान शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं। उपन्यास की भाषा पर तत्समता इतनी हावी है कि कहीं-कहीं भाषा दुरूह हो जाती है और पाठक को शब्दकोश ढूँढने पड़ते हैं। यशपाल शब्दों के चयन में भी सावधानी नहीं बरतते। कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जो या तो उस कालखण्ड में व्यवहृत नहीं होते थे या अर्थ की दृष्टि से भ्रमोत्पादक हैं। यशपाल ने नारी वस्त्र साड़ी के लिए अन्तर्वासक  शब्द का प्रयोग किया है। अन्तर्वासक वस्तुतः बौद्धों के त्रिचीवर का एक अंग है। उसी तरह परमभट्टारक और महासामन्त जैसे शब्द गुप्तकालीन सामन्तवाद की उत्पति हैं। इन शब्दों का ई. पू. में प्रयोग अनावश्यक भ्रम उत्पन्न करता है। यशपाल ने जीयस देवी के मन्दिर में अश्व बलि का उल्लेख किया है। वस्तुतः जीयस या द्यौस यूनानी देवता है, देवी नहीं। मद्र गणराज्य में उत्सव में स्त्री और पुरूषों के एक नृत्य का चित्रण है जहाँ जोड़े नाचते हुए थककर कुंजों में आराम करने चले जाते थे। तत्कालीन परिवेश में ऐसी उन्मुक्तता भारत में तो नहीं ही थी, यूनान में भी नहीं थी। यहाँ यशपाल पर उनके समय में अंग्रेजी क्लबों में होने वाले ‘‘बॉल डान्स’’ का असर दिख पड़ता है।

                इस प्रकार तथ्यों और परिवेश के चित्रण में ऐसी कई विसगंतियाँ दिव्या में दिखाई देती हैं परन्तु इस आधार पर दिव्या को असफल कृति नहीं माना जा सकता। दिव्या में उपन्यासकार का मुख्य उद्देश्य इतिहास की परम्परा में स्त्री की सामाजिक स्थिति के विश्लेषण का रहा है और अपने इस प्रक्रम में वह पूरी तरह सफल है। दिव्या की सफलता भारतीय समाज में नारी के त्रासद स्थिति के चित्रण और उसकी स्वतंत्रता के उद्घोष में है, उसकी ऐतिहासिक तथ्यता में नहीं।

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ऋषभ तिवारी
ऋषभ तिवारी
3 years ago

बहुत सारगर्भित लेख… सर धन्यवाद

ऋषभ तिवारी
ऋषभ तिवारी
3 years ago

सारगर्भित लेख… धन्यवाद सर

साहित्य विमर्श
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धन्यवाद ?