बड़ा भाई होना कितनी बड़ी मुसीबत है, इसे वे ही समझ सकते हैं, जो सीधे दिखाई पड़ने वाले चालाक छोटे भाई-बहनों के जाल में फंसकर आये दिन उनकी शरारतों के लिए मेरी तरह खुद ही डांट खाते नजर आते हैं. घर में जिसे देखो वही दो-चार उपदेश दे जाता है और दो-चार काम सौंप जाता […]
जाड़े का दिन . अमावस्या की रात – ठंढी और काली . मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भयार्त शिशु की तरह थर-थर कांप रहा था. पुरानी और उजड़ी बांस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य ! अँधेरा और निस्तब्धता ! अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी. निस्तब्धता करुण सिसकियों […]
ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के बारे में नहीं, लक्ष्मी नाम की एक ऐसी लड़की के बारे में है जो अपनी कैद से छूटना चाहती है. इन दो नामों में ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है जैसाकि कुछ क्षण के लिए गोविन्द को हो गया था. एकदम घबराकर जब गोविन्द की आँखें […]
मई की साँझ! साढ़े छह बजे हैं। कुछ देर पहले जो धूप चारों ओर फैली पड़ी थी, अब फीकी पड़कर इमारतों की छतों पर सिमटकर आयी है, मानो निरन्तर समाप्त होते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उसने कसकर कगारों को पकड़ लिया हो। आग बरसाती हुई हवा धूप और पसीने की बदबू से […]
बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा […]
मुहल्ले में जिस दिन उसका आगमन हुआ, सबेरे तरकारी लाने के लिए बाजार जाते समय मैंने उसको देखा था। शिवनाथ बाबू के घर के सामने, सड़क की दूसरी ओर स्थित खँडहर में, नीम के पेड़ के नीचे, एक दुबला-पतला काला आदमी, गन्दी लुंगी में लिपटा चित्त्त पड़ा था, जैसे रात में आसमान से टपककर बेहोश […]
धूल में पड़े कीमती पत्थर को देख कर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई – अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया की मुँह से निकल पड़ा – अपरुप-रुप! …खेतों, मैदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता! मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गईं। मोहना ने मुस्करा […]
‘क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’ बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह में मिट्टी मल रहा था। चंपिया के सिर भी चुड़ैल मँडरा रही है… आधे-आँगन धूप […]
रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को ‘कोंचा’ की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका ‘आँचर’ भी उड़ गया। उस सँकरी पगडंडी पर, जिसके दोनों और झरबेरी के काँटेदार बाड़े […]