जमाने की प्रेम – पाठशाला जब गुलाबों के बगीचे में लगा करती थी, मेरी कविता तब बूढ़ी नदी पर बने टूटे हुए पुल पर बैठ झरबेरी के फल खाया करती थी, और अब तुम्हारे घिसे – पुराने प्रेम की महापुरानी लालटेन इसकी नई गुलेल के निशाने पर है!
मैं एक पेड़ होना चाहता हूँ जिसके नीचे मेरी बेटियाँ खेलें घर-घर जिसकी डाल पर वे और सावन दोनों झूलें झूम झूमकर मैं चिड़िया होना चाहता हूँ कि ला सकूँ दूर देश से दाने और डाल सकूँ उनके मुँह में बड़े प्रेम से बड़े जतन से मैं अपनी बेटियों के लिये बनना चाहता हूँ जादूगर […]
चित्रकार की सी सुरुचि से, जो गुड़हल के दो फूल मेरे स्याह बालों में टांक देता है, प्रेम की सुबह में ये कोमल से सुंदर मनमोहक भाव जीवन की दोपहरी में जलते तपते सूरज से किस तरह लड़ते हैं.. आश्चर्य !! गुड़हल का शिरीष हो जाना, कलाकार का सिपाही हो जाना, प्रेमी का पिता हो […]
एक मित्र मिले, बोले, “लाला, तुम किस चक्की का खाते हो? इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो। क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो। संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।” हम बोले, “रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो। इस दौड़-धूप […]
भले डांट घर में तू बीबी की खानाभले जैसे -तैसे गिरस्ती चलानाभले जा के जंगल में धूनी रमानामगर मेरे बेटे कचहरी न जानाकचहरी न जानाकचहरी न जाना कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं हैकहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं हैअहलमद से भी कोरी यारी नहीं हैतिवारी था पहले तिवारी नहीं है कचहरी की महिमा निराली है बेटेकचहरी वकीलों […]
विष्णु खरे को श्रद्धांजलि स्वरूप 1947 के बाद से इतने लोगों को इतने तरीकों से आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए तो जान लेता हूँ मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है मानता हुआ […]
महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914) में प्रकाशित यह कविता हिंदी दलित साहित्य की पहली रचना मानी जाती है. हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि। हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते, हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि। पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां, बेधरम होके रंगरेज […]
ख़ुर्शीद में जल्वा चाँद में भी । हर गुल में तेरे रुख़सार की बू । घूँघट जो खुला सखियों ने कहा । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी । दिलदार ग्वालों, बालों का । और सारे दुनियादारों का । सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा । ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी । […]
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे, थोड़े में निर्वाह यहाँ है, ऐसी सुविधा और कहाँ है ? यहाँ शहर की बात नहीं है, अपनी-अपनी घात नहीं है, आडम्बर का नाम नहीं है, अनाचार का नाम नहीं है। यहाँ गटकटे चोर नहीं है, तरह-तरह के शोर नहीं है, सीधे-साधे भोले-भाले, […]