कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियां थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादुर लोग कैद थे और बाकी कोठरियां खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यदि हमारे पाठक महाशय उन बहादुरों के नाम भूल गये हों जो इस समय मायारानी के […]
मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर लिया जिनकी बदौलत दो घण्टे पहले वह बहुत ही परेशान थी। […]
बन्दिनी! “प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ, विफलत्वमेति बहु साधनता। अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्रमपि ।।” (माघ:) मुझे चैतन्य जानकर रामदयाल ने कहा,–“ ओ कैदी औरत! अब उठ और कोठरी का दरवाजा खोल। देख तो सही, कि कितना दिन चढ़ आया है! कानपुर से कोतवाल साहब और पुलिस के बड़े साहब भी आ गए हैं […]
खून की रात ! “समागते भये धीरो धैर्येणैवात्मना नरः। आत्मानं सततं रक्षेदुपायैर्बुद्धिकल्पितैः॥” (व्यासः) वे सब तो उधर गए और इधर मैं उस कोठरी की देख-भाल करने लगी। मैंने क्या देखा कि, “उस बड़ी सी छप्परदार कोठरी में आठ खाट बराबर-बराबर बिछ रही हैं, डोरी की ‘अरगनी’ पर कपड़े-लत्ते टंग रहे हैं, कोठरी के […]
दैवी विचित्रा गति:! “कान्तं वत्ति कपोतिकाकुलतया नाथान्तकालोऽधुना व्याधोऽधो धृतचापसजितशरः श्येनः परिभ्राम्यति ।। इत्थ सत्यहिना स दष्ट इषुणा श्येनोऽपि तेनाहत- स्तूर्ण तौ तु हिमालयं प्रति गतौ दैवी विचित्रा गतिः ।।” (नीतिरत्नावली) मेरे कान में ऐसी भनक पड़ी कि मानो मुझे कोई पुकार रहा है! ऐसा जान कर मैं उठ बैठी और आँखें मल-मल और जम्हाई […]
दो सज्जन उस बदजात थानेदार के जाने पर वे दोनों चौकीदार मुझसे बातचीत करने लगे। वे दोनों बेचारे बड़े भले आदमी थे। उनमें से एक ( दियानत हुसैन ) तो मुसलमान थे और दूसरे (रामदयाल) ब्राह्मण। बातों ही बातों में उन दोनों को मैंने अपनी सारी ‘रामकहानी’ सुना दी, जिसे सुन कर वे दोनों बेचारे […]
हवालात अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा, यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा ॥ तृणेन वात्येव तयानुगम्यते, जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ॥ (श्रीहर्ष:) बाहर आने पर मैंने क्या देखा कि मेरी गाड़ी में मेरे ही दो बैल जुते हुए हैं! वे मुझे देखते ही मारे आनन्द के गर्दन हिलाने लगे। मैंने उन दोनों बैलों की पीठ थपथपाई और गाड़ी पर सवार हो […]
दुःख पर दुःख एकस्य दुखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य । तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभन्ति ।। (नीति सुधाकरे) फिर वहाँ से भागने की मैंने ठहराई। सो, चटपट एक मोटी धोती और एक रूईदार सलूका पहिर कर मैंने एक ऊनी सफेद चादर ओढ़ ली और मन ही मन भगवान और भगवती को प्रणाम करके उस […]
साया भ्रूचातुर्यात्कुष्चिताक्षाः कटाक्षाः स्निग्धा वाचो लज्जितांताश्च हासाः | लीलामंदं प्रस्थितं च स्थितं च स्त्रीणां एतद्भूषणं चायुधं च ‖ (भ्रतृहरि:) बस, इतने ही में कालू आ पहुँचा और […]