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भोजपुर की ठगी : अध्याय 17 : भोला और गूजरी

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अध्याय 17. भोला और गूजरी

हीरासिंह के मकान में बड़ी धूम-धाम से नवरात्र की सप्तमी पूजा हो गयी। उन्होंने उसी दिन ब्राहमणों को खिलाया।”हीरा सिंह बड़े पुण्यात्मा हैं।” “हीरासिंह दूसरे कर्ण हैं” हीरासिंह का नाम पृथ्वी पर अमर हो” आदि कहते हुए दल के दल ब्राहमण दक्षिणा ले-लेकर विदा होने लगे और कंगालों के शोरगुल और जय जयकार से आकाश गूँजने लगा। उसको देखकर कौन नहीं कहेगा कि हीरासिंह बड़ा धर्मात्मा और पक्का भक्त है!
परन्तु इस समय उसका बायाँ हाथ भोलाराय कहाँ है? आइये पाठक! पातालपुरी में चलिये, वहीं उसका पता मिलेगा। उस अभागे ने दिन भर कुछ नहीं खाया है न एक बूँद पानी पिया है। हीरासिंह ने उसको खिलाने के लिए बहुत कोशिश की थी परन्तु कामयाब नहीं हुआ। भोला ने भूखों रहकर मर जाने की ठान ली थी। उसको अब जीने की लालसा नहीं थी, ज़िन्दगी  भारी मालूम होती थी। तरह-तरह की भयंकर चिन्ताओं से उसका जी व्याकुल हो गया था। बड़े कष्ट से सारा दिन काटकर संध्या को उसकी आँखें एक बार लगी थीं परन्तु मानसिक चिंता सोने कब देती। तुरन्त उसकी नींद टूट गई।
“हाय क्या कर डाला” कहकर वह उठ बैठा देखा कि चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ है। उस भयंकर जगह में उस समय घने अन्धकार के सिवा और कुछ नही दिखाई देता था। भोला को ऐसा मालूम हुआ कि उस अँधेरे में, आकाश में पुच्छल तारों की तरह सैकड़ों पंजर नाच रहे हैं। भोला का विशवास था कि अपघात मृत्यु से मरनेवाला भूत होता है। अचानक कच शब्द हुआ। भोला चौंक पड़ा और जिधर शब्द हुआ था उधर ध्यान से कान लगाये रहा। उसे जान पड़ा कि कोई दबे पाँव उसकी ओर आ रहा है। बोला पंछी ने पूछा -“कौन है?”
उत्तर मिला-“मैं गूजरी हूँ।” भोला को भूत होने का संदेह हुआ।
गूजरी ने कहा-“राय जी! डरो मत मैं तुम्हारा गला घोंटना नहीं आई हूँ। मैं भूत नही हूँ। मरने से पहले तुमको एक बार देखने की इच्छा हुई इसी से तुम्हे देखने आई हूँ।”
इसके बाद ही गूजरी भोला की गोद में पहुँच गई। भोला की आँखों से आँसू की धारा बह चली। जवान होने के बाद भोला कभी नहीं रोया था, आज वह अभागा रोया।
“राय जी तुम रोते क्यों हो? तुम्हारा क्या दोष है? सब मेरे भाग्य का दोष है। सब मेरे इस पापी मन का दोष है।”
भोला की बुद्धि ठिकाने न रही। “गूजरी। मेरे पाप का प्रायश्चित नहीं, तू मुझे माफ़ कर” कहकर भोलाराय उसके पैरों में गिरकर बालक की तरह रोने लगा। इतने में इस अन्धकार पुरी में रोशनी की चमक आयी।
गूजरी-“रायजी! कोई आता है। इस वक्त मैं जाती हूँ।”
भोला – “कहाँ जायेगी?”
गूजरी-“चूल्हे में। तुमने मेरे लिए सिर छिपाने की जगह थोड़े रखी है।”
भोला – “तू बच गयी कैसे?”
गूजरी-“मुंशी हरप्रकाशलाल ने मुझे बचाया।”
भोला-“ऐ! हरप्रकाश लाल ने तुझे बचाया है?”
“क्यों चौकें क्यों?” कहकर बिना कोई उत्तर सुने ही गूजरी चली गई। वह जिस रास्ते से आई थी उसी रास्ते निकल गई और सावधानी से उसने सुरंग का मुँह बंद कर दिया। इस रास्ते को हीरासिंह के दल के मुख्य-मुख्य डाकुओं के सिवा और कोई नहीं जानता था।
दूसरी ओर एक हाथ में दीया और दूसरे हाथ में एक थाली लिए पापवतार हीरासिंह वहाँ दाखिल हुआ। उसने कहा-“क्यों रायजी! कुछ खाओगे नहीं! सारा दिन यों ही बीता, अब कुछ खाओ उठो। मेरी बात रखो, कुछ खा लो” कहकर उसके सामने मिठाई-पूरी की थाली रख दी।
भोला बिना कुछ कहे भोजन करने बैठ गया। अब उसकी चिंता मिट गई, मन का बोझ उतरा है, अब उसे खाने की रुचि हो आई।
इसी बीच में हीरासिंह एक घड़े से एक लौटा जल लेकर भोला के पास आ बैठा। बैठकर बोला – “अभी तक फतेहउल्ला का कुछ पता नहीं मिला। वह सवेरे ही गया हुआ है, अभी तक नहीं लौटा।”
भोला- “नहीं लौटा तो तुम्हारा क्या और मेरा क्या?”
हीरा- “अरे तब तो सत्यानाश ही होगा। तुम नहीं समझते हो कि क्या-क्या आफत आवेगी? हरप्रकाश क्या ऐसा-वैसा आदमी है?”
भोला-“अगर इतना ही डर है तो मुझको यह काम छोड़ देना चाहिये।”
हीरा-“यह आफत तुम्ही लाये हो। मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि हरप्रकाशलाल मामूली आदमी नहीं है।”
भोला-“हरप्रकाशलाल से तुम डरो, मैं उसको तिनके के बराबर समझता हूँ। अगर मैं आफत लाया हूँ तो मैं जरूर यह आफत मिटा दूँगा, परन्तु इसके बाद तुमसे मेरा कुछ सरोकार नहीं रहेगा, अब मैं डकुहाई नही करूँगा।”
हीरा-“अच्छा इसका विचार पीछे होगा, इस वक्त बड़ा तमाखू पिओगे?”
भोला-“क्या गाँजा? प्राण रहते अब मैंने गाँजा नहीं छूऊँगा। गाँजा ने ही मुझे चौपट किया है, मेरा दोनों लोक बिगाड़ा है।”
हीरा-“ऐ, तुम गाँजा नहीं पिओगे? अच्छा देखा जायेगा।”
भोला ने रूखाई से कहा-“सिंहजी! अब घर जाइए, रात बहुत हो गई, जाकर सोइये। आपके सिर पर चील मँडरा रही है, सोये-सोये जरा सोचिये। इस आफत के लिए आपको फ़िक्र नहीं करनी पड़ेगी। इसके लिए बेफ़िक्र रहिए। परन्तु याद रखना, भोला का प्रण कभी नहीं टूटता। अब जाइये, जी मत जलाइये।”
हीरासिंह भोलाराय का मिजाज पहचानता था। और वह कुछ न कहकर वहाँ से चला गया और पातालपुरी में गिर अँधेरा छा गया।
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