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क्राइम थ्रिलर वेब सीरीज क्या क्रिमिनल्स के लिए आइडियाज़ का खज़ाना नहीं?

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बचपन में क्राइम फिक्शन नॉवेल पढ़ते वक़्त ये बात मन में बार बार आती थी कि ‘इस तरह डकैती के आइडियाज़ लिखने वाले में क्या अनोखा दिमाग होगा, पर क्या इन्हें कोई सच में भी आजमा सकता है?’

फिर एक रोज़ पता चला था कि मशहूर पल्प फिक्शन नॉवेल राइटर, सर सुरेंद्र मोहन पाठक की एक नॉवेल पढ़कर कुछ डकैतों ने उसी तरह अपराध को अंजाम दिया’

हाल ही में अमेज़न प्राइम पर एक वेब सीरीज लांच हुई है, ब्रीथ (Breathe). यही वो सीरीज है, जिससे अभिषेक बच्चन OTT की दुनिया में अपना पहला कदम रख रहे हैं. Breathe – Into the shadows का इंतेज़ार न सिर्फ अभिषेक बच्चन के फैन्स(?) कर रहे थे बल्कि Breathe सीजन 1 के दर्शकों और प्रशंसकों की उत्सुकता भी सीजन 2 के लिए बनी हुई थी.

Breathe के पहले सीजन में आपको याद होगा कि आर. माधवन एक ऐसे पिता के रोल में थे जिसके बेटे की ‘लंग’ ट्रांसप्लांट होनी है और डोनर लिस्ट में उसका नंबर चार है. समय सिर्फ पाँच महीने बचा है. अब इस चार को एक करने के लिए आर. माधवन डोनर्स की लिस्ट निकालकर उन्हें अलग-अलग तरीके से मारने लगते हैं.

इस बार भी कहानी कुछ ऐसी ही है, शायद आपने ट्रेलर देख समझा हो कि अभिषेक बच्चन की बेटी किडनैप हो जाती है और वो उसे वापस पाने के लिए, ब्लैकमेलर के कहने पर अपराध करने शुरु कर देते हैं.

सीजन वन को अगर टेक्निकल पॉइंट्स पर तोलें तो बहुत अच्छा थ्रिलर है. यही हाल दूसरे सीजन का भी है जो इस ब्रहस्पतिवार को अमेज़न प्राइम पर रिलीज़ हुआ है. हालाँकि इस बार फेक्चुअल एरर बहुत ज्यादा हैं पर टेक्निकल पॉइंट्स के इतर, समाज को ध्यान में रखते हुए सोचिए तो ऐसी थ्रिलर सीरीज आख़िर को एक परिवार को क्या सन्देश देना चाहती हैं? क्या ऐसे-ऐसे मर्डर करने के तरीके क्रिमिनल को डराने कि बजाए उसे आइडियाज़ का ‘नया स्टॉक’ देने का काम नहीं करते?

हॉलीवुड टीवी सीरियल्स को देखकर यहाँ भारत में भी क्राइम थ्रिलर बनाने का चलन आया है. एक वक़्त बहुचर्चित हॉलीवुड सीरियल Breaking Bad को देखने के बाद वाकई मेक्सिको और एरिज़ोना के कुछ ड्रग माफ़िया ने अपने मेथेमफेटामिन (एक ड्रग) को ब्लू कलर से रंगना शूरु कर दिया था; जैसा की सीरीज में दिखाया था. यही नहीं, उस सीरीज में दिखाए गए कई केमेस्ट्री फ़ॉर्मूला बिलकुल सही थे जिनका वहाँ के बच्चों ने काफी प्रयोग किया था.

एक और बहुचर्चित हॉलीवुड सीरीज प्रिजन ब्रेक का ज़िक्र भी दर्ज करता हूँ जिसमें जेल से निकलने के लिए तरह-तरह की तरकीबें आजमाते दिखाया गया है. वहीं डेक्सटर सीरीज भी साइको किलर की कहानी है और उसमें भी एक से बढ़कर एक मर्डर करने के तरीकों को उजागर किया गया है.

अब अमेरिका जैसे देश में, जहाँ कानून तोड़ने पर तुरंत कार्यवाही और सख्त सज़ा दी जाती है, वहाँ भी इन धारावाहिकों के आने के बाद से क्राइम रेट में उछाल आता है. भारत में गर आपको याद हो, कुछ समय पहने चैन स्नैचिंग का एक गिरोह पकड़ा गया था जिसने ये कबूला था कि वो ‘धूम’ देखकर चोरी करने के लिए प्रेरित हुए थे.

बाकी सख़्ती, सज़ा, कानून हमारे यहाँ भी है, पर उसका पालन और सही समय पर सज़ा कितनों को होती है ये जगविदित है.

सख्ती और कानून ही मजबूत हों तो हों, वर्ना इन फ़िल्मकारों का भी समाज के प्रति कोई दायित्व है, ऐसा मुझे नहीं लगता।

इस बात को इस तरह सोचिए कि एक सीरीज में हमें ये दिखाया जाता है कि कैसे एक लड़की को एक्टिंग ऑडिशन के लिए रिहर्सल के नाम पर नायक आत्महत्या की चिट्ठी पढ़वा लेता है और उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग कर लेता है. अगले ही पल वो एक प्लास्टिक से उसका मुँह बांधकर उसका दम घोट देता है. आप ये सीरीज देख रहे हैं पर आप समझदार हैं, आप इसे सिर्फ थ्रिलर-फिल्म की तरह लेंगे. वहीँ साथ वाले कमरे में आपकी अगली पीढ़ी भी यही सीरीज, यही सीन देख रही होगी, अब क्या आपको पूरा भरोसा है कि जो नज़रिया आपका है, वही आपकी औलाद का भी होगा?

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Gurpreet Singh

ये बिज़नैस है बबुआ..OTT पर कुछ नया परोसने की होड़ है और कुछ नया बहुचर्चित तब बनता है जब वो कंट्रोल़वर्शियल हो
तो ऐस में समाज के प्रति दायित्व बैक बर्नर पर चला जाता है

Hitesh Rohilla

Nice assessment..
I liked it and would like to see more from the writer. Thanks to the Sahitya Vimarsh too to bring it to readers.

हरीश गुप्ता

फिल्मों का समाज पर असर जैसे मुद्दों पर चर्चा पहले भी होती रही है। OTT प्लेटफॉर्म्स तक लोगों की पहुंच बढ़ने से अब ऐसे सवाल उठते ही रहेंगे। इसपर अंकुश लगना टेढ़ी खीर है। पर फिर भी निर्माता निर्देशक इत्यादि की सोशल ज़िम्मेदारी तो बनती ही है कि क्राइम को ग्लोरीफाई न करें, आजकल का दौर तो इसे ग्लोरीफाई ही कर रहा।