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निस्तार

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“असतो माँ सद्गमय , तमसो माँ ज्योतिर्गमय मृत्योर माँ अमृतगमय…..!!”
धुनकी अपने पोपले मुँह से कुछ भूले -बिसरे , आधे-पूरे मंत्रों और भजनों को गाये जा रही थी।
आज वो बहुत खुश थी। हो भी क्यों न? आज उसके सभी अपने उससे मिलने जो आ रहे थे।
बरसो से मन में ठान रखा था ।  “एकादशी निस्तार (त्याग) जब भी करूँगी , धूम-धाम से करूँगी।…सभी सगे-सम्बन्धियों को  बुलवाऊंगी!!”
बेटों ने तो कहा था:- ” पंडित जी से पूजा करा के ले-दे के निपटा लो।….खर्चा कम बैठेगा !”
पर वो न मानी। तब से अब जाकर वो दिन आया है। उसमें भी जब शारीरिक क्षमता जवाब दे गई तब। अभी तो 8 रोज पहले अच्छी-खासी चल-फिर रही थी। अचानक क्या हो गया उसे उठा-बैठा भी न जा रहा। सबको लगा उनकी यह इच्छा अधूरी न रह जाये। तब जाकर सभी बेटों ने हामी भरी। सभी को उसने कहलवाया था अपने यह आने को।
“छुटकी, गदली, भोलुआ, तुलिया ,मंझरी सब आएगी … कितना अच्छा लगेगा ना बरसो बाद हम सब भाई -बहन एक साथ बैठेंगे बाते करेंगे !! हंसी -ठिठोली…..मैं तो बड़ी बहन होने के नाते छोटी बहनों के यहाँ नहीं जा सकती …रिवाज जो है हमारे पुराने समाज का और मैं भी तो पुरानी ही हूं, पर वो सब तो आ ही सकते है …आने दो फिर जम कर कहकहे लगाएँगे l एक ओर हमारे भाई -बहन और दूसरी ओर  हमारे बच्चे और सगे -संबंधी …..अपना अतीत और अपना भविष्य आज एक ही साथ देख कर आँखें जुड़ाऊंगी! अपनी आत्मा तृप्त कर लूँगी …!!”
सोच -सोच कर  वजह -बेवजह मुसकुरा  कर अपनी  बची हुई दो -तीन दांते दिखा ही देती थी।
दिन के ग्यारह बजने  वाले थे। सभी पूजा की तैयारियाँ कर रहे थे। धुनकी को अपनी पीठ में दर्द महसूस हुआ। उसने अपनी बेटी नंदिनी को आवाज लगाई, जो अपने पोते को खाना खिला रही थी।
“नंदा !!….. कहाँ गई?…..जरा मेरी पीठ तो दबा …इतना दर्द है कि साँस नहीं ली जा रही है हाय य !…हाय य असतो माँ सद्गमय …।”
नंदिनी आ कर हल्के-हल्के हाथों से उसके पीठ को दबाने लगी। सोचते-सोचते उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। जब आँख खुली तो पाँच बजने वाले थेl आस-पास सरसरी निगाहें दौड़ाई, आँगन में हो रही आहटों को समझने की कोशिश की। सभी बहुओं के रिश्तेदार लगभग आ ही चुके थे। उसकी ननदें आ चुकी थीं, पर वो नहीं दिखे-सुने, जिन्हें बेसब्री से उसकी आँखें ढूंढ रही थी। तभी किसी ने उसके पांव छू प्रणाम किया। ध्यान से देखा, तो वो छुटकी का लल्ला था। खुशी और आशीर्वाद की मुद्रा में पूछा:- “कौन -कौन आये हैं …..?”
वहीं पास खड़ी छोटी बहू ने जवाब दिया: –“हम सभी देवरानी-जेठानियों की माँ-भाभी, बहनें भी आ चुकी हैं, पर ना आये, तो वो आपके मायके वाले !!..…हाँ! ये छोटी मौसी का बेटा आया, तो बस अब मौसी के आने की तो आस ही छोड़ दो ……!”
छोटी बहू ने तो सामान्य लहजे में ही कही थी ये बात, पर धुनकी के कलेजे में जहरीले तीर के जैसे चुभ गई। वो भावहीन, निःशब्द हो गयी। अंदर-अंदर कुछ टटोलती से घंटों चुप रही।
धुंधलका हो चुका था, तभी कोई स्त्री बड़ी उतावली हो उसके पास आई, पैर छूए, गले मिलने को हुई, पर मिल ना सकी, क्योंकि धुनकी बैठने में भी असमर्थ थी। उसकी ये हालत देख स्त्री की आँखों में आँसू आ गए। रुंधे गले से बोली: -“दीदी !!”
ध्यान से देखा, तो वो उसकी ही बहन मंझरी थी। मंझली बेटी होने के नाते माता-पिता ने उसका नाम मंझरी रख दिया था।
प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी सीने में। ऐसा लगा जैसे बहू की मारे तीर किसी ने निकाल फेंका हो। दोनों बहनों ने खूब गप्पें की; भूली-बिसरी यादें ताजा हो गईं। दोनों बहनों ने एक दूसरे को दिलासा दिया कि:-“सभी गिले-शिकवे भूल कर भाई-बहनें आयेंगी …सभी को बता दिया है मेरे जीने की अब उम्मीद नहीं …..बस आखिरी बार मिल ले सब भाई -बहन …!”
पूजा का समय हो चुका था। पूजा धुनकी ने ही गछा था, तो कंबल और तकिये का सहारा दे कर उसे ही बैठाया गया। पंडित जी के अनुसार इस पूजा में साक्ष्य बनने के लिए भाई या बहन जमाई (छोटी बहन का पति) को बैठना चाहिए, पर उनके ना होने पर ज्येष्ठ पुत्र बैठ सकता है। कितनी मिन्नतों के बाद बड़े बेटे ने पूजा में बैठने के लिए हामी भरी। शारीरिक रूप से अक्षम धुनकी ने बड़ी हिम्मत कर के गिरते-पड़ते-ऊंघते पूजा खत्म किया। पूजा खत्म होते ही बड़े बेटे ने, जो उसकी सभी क्रियाओं को असहिष्णु नजरों से देख रहा था, जहरीले शब्दों के बाण बरसाने शुरू कर दिए: -“जब तुम पूजा में बैठ भी नहीं सकती थी, तो पूजा करवाई ही क्यों थी? सो कर …गिर कर नहीं की जाती पूजा ……हाथ जोड़कर बैठना पड़ता है भगवान के सामने !… क्यों नहीं आये तुम्हारे भाई -बहन तुमसे मिलने?… हमेशा उनके लिए ही मरती हो…ये ताम-झाम, ये खर्चे उन्हीं के लिए करवाए ना, सब हुए  बेकार !!  भाइयों को तो फर्क नहीं पड़ता, पर मुझ पर बहुत जिम्मेदारी है। मेरे बड़े-बड़े बच्चों की पढ़ाई के खर्चे हैं…घर बनाना है …साल भर बाद लड़की ब्याहनी है, और ऊपर से तुम डगमगाई हो.. उसके आगे का खर्चा …मुझे तो फर्क पड़ता है ना …?”
“चुप हो जा बेटा गुस्सा मत कर …!!” लोगों ने समझाना शुरू किया। धुनकी को फिर अपने भाई-बहनों की याद आई। सुबह होने वाली थी, पर किसी की कोई खबर नहीं थी।
“भले ही बड़कू के शब्द जहरीले हैं,… दुखदाई हैं, पर हैं तो सत्य ही …!  ये तो मेरा बेटा है …मैं माँ हूँ इसकी!… मैंने इसे जन्म दिया …पाला-पोसा, जीवन का हर मर्म समझाया! ….इसकी पारिवारिक जिम्मेदारी के आगे मुझ बेकार पड़ी बुढ़िया का क्या …मैं तो कूड़ा समान ही हूँ, मेरी भावनाओं का क्या?…और वो सब….. वो सब तो मेरे छोटे भाई-बहन हैं, मैं तो उन सब की माँ भी नहीं हूँ … हाँ उन्हें अपने बच्चों के जैसा दुलार दिया, बुजुर्ग के जैसी उनकी रक्षक बनी, गुरु की तरह उन्हें ज्ञान दिया, दोस्त बन कर उनके साथ खेली और बहन बन कर अपनेपन से बांधे रखा;…. तो क्या हुआ? ये सब तो मेरी सोच है और मुझ तक ही सीमित रहे तो अच्छा है।”
मंझरी ने टोका-“दीदी सच में कोई ना आया, मैं भी तो इसी आस में आई थी कि बिछड़े भाई-बहनों से मिल पाऊँगी …..!”
“तू नहीं समझती मंझरी!….मेरे बड़कू के जैसे ही उन सब का भी भरा -पूरा परिवार है, उनके प्रति जिम्मेदारी है। किसी के पास इतना समय या पैसा कहाँ होगा?”
“जो काम के लोग होते तो मिलने भी आते। मुझ बेकार पड़ी बूढ़ी के लिए कोई अपना समय क्यों गँवाए।..…और वो भी तो उम्र के इस पड़ाव पर आ कर तन-मन और धन से अपने बच्चों पर आश्रित होंगे। कोई उन्हें ले के आये तभी तो आ पायेंगे।” इन्हीं शब्दों के साथ उसने खुद को तसल्ली दी। ना चाहते  हुए भी उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे।
“ना आये तो क्या हुआ?…. जहाँ हैं, जिस हाल में हैं खुश रहें, अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ देखें, भगवान उन्हें हर आफत से बचाये, ..…मेरा क्या है …. पागल हूँ मैं तो, बस यूँ ही कुछ भी सोचती रहती हूँ!!”
अपने गिरते आँसुओं के साथ उसने सब से मिलने की उम्मीदों का भी निस्तार कर दिया। आँखें फिर से अपनी धुन में खो गई– “त्वमेव माता च पिता त्वमेव …त्वमेव बन्धुः च सखा ……!!”

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