जमाने की
प्रेम – पाठशाला जब
गुलाबों के बगीचे में लगा करती थी,
मेरी कविता तब
बूढ़ी नदी पर बने
टूटे हुए पुल पर बैठ
झरबेरी के फल खाया करती थी,
और अब तुम्हारे
घिसे – पुराने प्रेम की
महापुरानी लालटेन
इसकी नई गुलेल के निशाने पर है!
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