डोमकच
सालों बाद मुझे एक शादी में सम्मिलित होने का अवसर मिला। अपने गांव, अपने रीति रिवाजों से परिपूर्ण शादियों का अलग ही मजा है। सारे रिश्तेदार-नातेदारों से मिलने का और ढ़ोल थापों पर गीत-गवनई के सगल का अलग ही आनंद है। उसपर ये शादी हमारे रिश्ते के लड़के का था,ये जानते ही मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। लड़के की शादी यानी बारात प्रस्थान के बाद रात में जलुआ( जैसा कि हमारे गृहजिले में बोला जाता है) या डोमकच का खेल होना। डोमकच का नाम याद आते ही बचपन में उनींदी आंखों से देखे गए आधे-अधूरे दृश्य याद आ गये। दिल को तसल्ली मिला कि चलो इस बार तो पूरा ही देख लेंगे।
बारात के विदा होने के कुछ वक्त पहले मैने सबसे पूछा कि “तब रात के जलुआ के तैयारी भ गइल?” (रात में होनेवाले जलुआ की तैयारी हो गयी?) कुछ नवयुवतियों ने बड़े विस्मय से मुझे देखा लगा जैसे इन्हें कुछ पता ही न हो। तभी एक बूढ़ी काकी ने उत्तर दिया “कहाँ मइंया,अब त सब मेहरारुयो बरात जाए लगली स,अब जलुआ कंहाँ होखेला (अब तो औरतें भी बारात जाने लगी हैं अब जलुआ कहाँ होता है)।
जलुआ या डोमकच मुख्यतः एक संगीत आधारित नाट्य है जो कि बारात प्रस्थान के बाद वर के घर में रात को खेला जाता है। यह वस्तुतः एक समाजिक स्वांग है जो कि पुरातन जमाने मे डोम-डोमिन के द्वारा खेला जाता है, उन्ही डोम-डोमिन के नाम पर इसका नाम डोमकच पड़ा। डोमकच का प्रसंग हमें भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जाने वाले “भिखारी ठाकुर” के गीतों में भी मिलता है।
“अनारकली डोमिन के डोम कहाँ गइले,डोम कहाँ गइले की कहवाँ रमइले।डोम गइले कलकतवा उन्हवे रमइले।”
पहले के गांवों में जब बहुत सामंजस्य रहता था तो गांव के लगभग सारे मर्द बारात चले जाते थे और इस तरह पूरे गांव में सिर्फ औरतें रह जाती थी। शादी-ब्याह के घरों में धन-धान्य और गहने-जवाहरात की अधिकता रहती थी, तब पूरे गांव की औरतें इकट्ठी होकर उस विवाह वाले घर में ये नाट्य खेलती थीं ताकि पूरी रात जग सकें। इन्हीं वजहों से कई जगह इसे रतजगा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से एक अकेली “अबला” कही जाने वाली औरतें इकट्ठी होकर “सबला”हो जाती थी और पूरी रात जागकर अपने घर अपने गांव की रक्षा करती थीं।
डोमकच का यह नाट्य कई दृश्यों में बँटा होता था। इसमें “जलुआ” नामक पात्र का विवाह होता था जो कि स्वनिर्मित गुड्डा रहता था जिसे लकड़ी,पुआल या पुराने कपड़ो से मूर्त रूप दिया जाता था,उसकी आंखों को काजल से बनाया जाता था और रंग बिरंगे परिधानों से सजाया जाता था। कहते थे कि जिस विवाह में जलुआ जितना सुंदर बनता था दुल्हन उतनी ही सुन्दर आती थी, खैर इसकी सच्चाई तो अतीत ही जाने।
जलुआ में विवाह के बाद कि वंश परम्परा का स्वांग भी स्त्रियों द्वारा डॉक्टर, नर्स, प्रसूता आदि के रूप में खूब दिखाया जाता था। एक तरह से जलुआ के माध्यम से पुरानी पीढ़ी अपनी नई पीढ़ी को यौन शिक्षा भी देती थी। नवयुवतियों को वैवाहिक संस्कार का प्रारंभिक ज्ञान भी जलुआ के माध्यम से ही मिलता था। इस नाट्य की एक खासियत यह भी है कि इसमें सभी पात्रों का अभिनय महिलाएं ही करती थी, यहाँ तक की पुरुषों का अभिनय भी। सिर्फ स्त्रियों के होने से उनके व्यवहार में स्वच्छंदता और उन्मुक्तता भी आ जाती थी जिससे उनके अंदर दबी अवसाद और कुंठाएँ भी बाहर निकल आती थी। कई बार तो ये हास्य परिहास अश्लीलता के स्तर पर भी आ जाती थी।
इस रात तो महिलायें इतनी सशक्त हो जाती थी कि की कई बार तो किन्हीं कारणों से बारात नहीं जाने वाले पुरुषों को भी अपने अभिनय से परेशान कर देती थी और वो बेचारे बन रह जाते थे।
ऐसा ही एक क़िस्सा मेरी अइया यानी दादी सुनाती थी जो कि उन्होंने अपनी सास से सुनी थी। मेरे दादा जी की शादी में दो पुरुष बारात में देर से आने की वजह से शामिल नही हो पाए थे। जब रात हुई तो बिचारे वही बैठका में सो गये। रात के आधी पहर में घर की कुछ औरतों ने डकैतों का भेष बनाकर उनसे सब कुछ लूट लिया और मुंह पर रंग लगाकर उन्हें काला बिल्ला बना दिया। उन विचारों को तो महिलाओं के अभिनय का इल्म तब हुआ जब सुबह में उनकी लूटी चीजों के बदले में दुल्हन को 5 बनारसी साड़ी देने की शर्त मनवाई गई।
इसी प्रकार मेरे चाचा की शादी में द्वार पर सो रहे हमारे मैनेजर गोसाइं बाबा को कोड़े मारने के चक्कर में मेरी बड़ी चाची कुएं में गिर गई थी और मज़े की बात की गिरने के बावजूद कुंडे से लटकी मेरी चाची निकलने के बजाए वही से चिल्ला रही थी कि गोसाईं बाबा को छोड़ना नही। आजतक शादियों में ये किस्से याद किये जाते हैं।
ये सब तो मेरे लिए खैर सुनी सुनाई बातें हैं लेकिन मुझे याद है बड़े भैया की शादी में हमारे गांव की नाईन ने जब “काली मां” का स्वांग रचा था। लंबे खुले बाल, सिंदूर से लीपा चेहरा, काजल से चौड़ी की गई आंखें और लपलपाती लाल रंगी जीभ, गहरी काली रात में बहुत ही भयंकर लग रही थी। उसे देख बच्चों की तो छोड़ो बड़ों की घिग्घी बांध गयी थी। कई बुजुर्गों ने तो उसे देवी का प्रकोप मान कर उनके आगे चिरोरियां करने लगी थी फिर भी “शिवबच्चन बो” तब मानी जब अम्मा से चार मन धान मनवा लिया।
कह सकते हैं कि जलुआ के बहाने उस रात ऊंच नीच का भेदभाव खत्म हो जाता था, तब वो सिर्फ औरतें होती थीं, न उच्च न नीच, न जमींदारिन न रैयती। सब एक। यहाँ तक कि जो महिलाएं जलुआ में शरीक होती थी वो सभी यथाशक्ति अपने घर से बायने में अनाज लेकर आती थी और उन्हीं अनाजों का प्रसाद बनता था जो कि दुल्हन परिछन के बाद बटता था। यानी सम भावना-सम समाज।
पर दुख इस बात का है कि अब ये परम्परा भी विलुप्ति के कगार पर है। कारण अनेक हैं, पर उनमें से मुख्य हैं आपसी सामंजस्य का अभाव। दूसरे अब औरतों के भी बारात जाने की परिपाटी शुरू हो गई है। नई पीढ़ी में तो बहुतों ने शायद इसका नाम भी न सुना हो। हमारे गांव जैसे इक्का दुक्का गांवों में भी ये अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है तो भी सिर्फ जलुआ करने वाली टोलियों के भरोसे। अब तो ये टोलियां भी जीविका के लिये दूसरे शहरों में पलायन के कारण टूट रही हैं और दूर कहीं नेपथ्य से इसके सिसकते गीत सुनाई दे रहे हैं-
” सैयां गइले कलकतवा रतिया निंदियो न पड़ी”
NUTAN SINGH
September 28, 2020 @ 11:34 pm
Domkach ki aadhi-adhoori yaaden hi bachi hain ab hamaare man me bhi. Domkach hasya- manorajan ki har seema paar karta hua purna rupen stree-ladkiyon dwara abhineet viluptpraya lok paramparaa.Ab to shaadiyon me naate-rishtedaaron ka aana bhi ain- mauke pe hota hai aur upasthiti darz karaa k log waapas bhi ho lete hain.
To ab na wo log rahe na parampara jiwit bach pai .
Ab to shaadiyan bhi event management wale karaate hain.