चचा छक्कन ने केले ख़रीदे
एक बात मैं शुरु में ही कह दूँ. इस घटना का वर्णन करने से मेरी इच्छा यह हरगिज़ नहीं है कि इससे चचा छक्कन के स्वभाव के जिस अंग पर प्रकाश पड़ता है, उसके संबंध में आप कोई स्थाई राय निर्धारित कर लें. सच तो यह है कि चचा छक्कन से संबंधित इस प्रकार की घटना मुझे सिर्फ़ यही एक मालूम है. न इससे पहले कोई ऐसी घटना मेरी नज़र से गुजरी और न बाद में. बल्कि ईमान की पूछिए तो इसके विपरीत बहुत – सी घटनाएँ मेरे देखने में आ चुकी हैं. कई बार मैं खुद देख चुका हूँ कि शाम के वक्त चचा छक्कन बाज़ार से कचौरियाँ या गँड़ेरियाँ या चिलगोज़े और मूंगफलियाँ एक बड़े-से रुमाल में बांध कर घर पर सबके लिए ले आए हैं. और फिर क्या बड़ा और क्या छोटा, सबमें बराबर – बराबर बाँटकर खाते-खिलाते रहे हैं. पर उस रोज़ अल्लाह जाने क्या बात हुई कि….! पर इसका विस्तृत वर्णन तो मुझे यहाँ करना है.
उस रोज़ तीसरे पहर के वक्त इत्तफ़ाक से चचा छक्कन और बिंदो के सिवाय कोई भी घर में मौजूद न था. मीर मुंशी साहब की पत्नी को बुखार आ रहा था. चची दोपहर के खाने से निवृत होकर उनके यहाँ चली गई थीं. बिन्नो को घर छोड़े जा रही थीं कि चचा ने कहा – बीमार को देखने जा रही हो तो शाम के पहले भला क्या लौटना होगा. बच्ची पीछे घबराएगी. साथ ले जाओ, वहाँ बच्चों में खेलकर बहली रहेगी. चची बड़बड़ाती हुई बिन्नो को साथ ले गईं. नौकर चची को मीर मुंशी साहब के घर तक पहुँचाने भर जा रहा था, मगर बिन्नो साथ कर दी गई तो बच्ची के लिए उसे भी वहाँ ठहरना पड़ा.
लल्लू के मदरसे का डी. ए. वी. स्कूल से क्रिकेट का मैच था. वह सुबह से उधर गया हुआ था. मोदे की राय में लल्लू अपनी टीम का सबसे अच्छा खिलाड़ी है. अपनी इस राय की बदौलत उसे अक्सर क्रिकेट मैचों का दर्शक बनने का मौका मिल जाता है. इसलिए साधारण नियमानुसार आज भी वह लल्लू की अरदली में था. दो बजे से सिनेमा का मैटिनी शो था. दद्दू चचा से इज़ाज़त लेकर तमाशा देखने जा रहा था. छुट्टन को पता लगा कि दद्दू तमाशे में जा रहा है, तो ऐन वक्त पर वह मचल गया और साथ जाने की जिद करने लगा. चचा ने उसकी पढ़ाई – लिखाई के विषय में चची का हवाला दे देकर एक छोटा किंतु विचारपूर्ण भाषण देते हुए उसे भी अनुमति दे दी. बात असल यह है कि चची कहीं मिलने के लिए गई हों तो बाकी लोगों को बाहर जाने के लिए इज़ाज़त लेना कठिन नहीं होता. ऐसे सुवर्ण अवसरों पर चचा पूर्ण एकांत पसंद करते हैं. जिन कार्यों की ओर बहुत समय से ध्यान देने का अवसर नहीं मिला होता, ऐसे समय चचा ढूँढ- ढूँढ कर उनकी ओर ध्यान देते हैं.
आज उनकी क्रियाशील बुद्धि ने चची की अनुपस्थिति में घर के तमाम पीतल के बरतन आँगन में जमा कर लिए थे. बिंदो को बाज़ार भेजकर दो पैसे की इमली मँगाई थी. आँगन में मोढ़ा डालकर बैठ गए थे. पाँव मोढ़े के ऊपर रखे हुए थे. हुक्के का नैचा मुँह से लगा हुआ था. व्यक्तिगत निगरानी में पीतल के बरतनों की सफ़ाई की व्यवस्था हो रही थी.
“अरे अहमक , अब दूसरा बरतन क्या होगा ? जो बरतन साफ करने हैं , उन्हीं में से किसी एक में इमली भिगो डाल. और क्या, यों…….. बस यही पीतल का लोटा काम दे जायेगा. साफ़ तो इसे करना ही है, एक दूसरा बरतन लाकर उसे ख़राब करने से क्या लाभ? ऐसी बातें तुम लोगों को खुद क्यों नहीं सूझ जाया करतीं?”
बिंदो ने आज्ञा-पालन में कुछ कहे बिना इमली लोटे में भिगो दी. चचा में अभिमान से संतोष का प्रदर्शन किया – कैसी बताई तरकीब ? ज़रुरत भी पूरी हो गई और अपना- यानी काम भी एक हद तक हो गया. ले अब बावर्चीखाने में जाकर बरतन माँजने की थोड़ी-सी राख ले आ. किस बरतन में लाएगा भला?
बिंदो ने बड़ी बुद्धिमता से सभी बरतनों पर दृष्टि डाली और उनमें से एक थाली उठाकर चचा की ओर देखने लगा. चचा भी इस काम के लिए शायद थाली की ही तज़वीज करना चाहते थे. राय देने का मौका न मिल सका. पूछने लगे- “क्यों भला?”
बिंदो बोला- “ चूल्हे से उठाकर इसमें आसानी से राख रख सकूंगा.”
“अहमक कहीं का, इसके अलावा राख खुले बरतन में होगी तो उठ-उठाकर बरतन माँजने में आसानी होगी.”
बिंदो अभी बावर्चीखाने से राख ला भी न पाया था कि दरवाज़े पर एक फलवाले ने आवाज़ लगाईं. कलकतिया केले बेचने आया था. उसकी आवाज़ सुनकर कुछ देर तक तो चचा खामोश बैठे हुक्का पीते रहे. कश अलबत्ता ज़ल्दी-ज़ल्दी लगा रहे थे. मालूम होता था , दिमाग में किसी किस्म की कशमकश जारी है. जब आवाज़ से मालूम हुआ कि फलवाला वापस जा रहा है, तो जैसे बेबस से हो गए. बिंदो को आवाज़ दी- “ ज़रा जाकर देखियो तो केले किस हिसाब से देता है.”
बिंदो ने वापस आकर बताया- “छह आने दर्ज़न.”
“छह आने दर्ज़न, तो क्या मतलब हुआ, चौबीस पैसे के बारह – बारह दूनी चौबीस, यानी दो पैसे का एक, ऊँहूँ , महंगे हैं. जाकर कह, तीन के दो देता हो तो दे जाए.”
दो मिनट बाद बिंदो ने आकर बताया कि वह मान गया और कितने केले लेने हैं, पूछ रहा है.
फलवाला इस आसानी से सहमत हो गया तो चचा की नियत में खोट आ गयी. “यानी तीन पैसे के दो? क्या ख़याल है, महंगे नहीं इस भाव पर?”
बिंदो बोला- “ अब तो उससे भाव का फैसला हो गया.”
“ तो किसी अदालत का फैसला है कि इतने ही भाव पर केले लिए जाएँ ? हम तो तीन आने दर्ज़न लेंगे, देता है दे, नहीं देता है न दे . वह अपने घर खुश, हम अपने घर खुश.”
बिंदो असमंजस की दशा में खड़ा रहा था. चचा बोले- “ अब जाकर कह भी तो सही, मान जाएगा.”
बिंदो जाने से कतरा रहा था. बोला- “आप खुद कह दीजिये.”
चचा ने जवाब में आँखें फाड़कर बिंदो को घूरा. वह बेचारा डर गया, मगर वहीँ खड़ा रहा. चचा को उसका असमंजस में पड़ना किसी हद तक उचित मालूम हुआ. उसे तर्क का रास्ता समझाने लगे-“ तू जाकर यूं कह, मियां ने तीन आने के दर्ज़न ही कहे थे, मैंने आकर गलत भाव कह दिया. तीन आने दर्ज़न देने हों तो दे जा.”
बिंदो दिल कड़ा करके चला गया. चचा जानते थे, भाव ठहराकर उससे मुकर जाने पर केले वाला शोर मचाएगा. बाहर निकलना युक्तिपूर्ण न मालूम होता था. दबे पांव अंदर गए और कमरे की जो खिड़की ड्योढ़ी में खुलती थी, उसका पट ज़रा-सा खोलकर बाहर झाँकने लगे. फलवाला गरम हो रहा था, “ आप ही तो भाव ठहराया और अब आप ही जबान से फिर रहे. बहाना नौकर की भूल का, जैसे हम समझ नहीं सकते. या बेईमानी तेरा ही आसरा.”
बिंदो गरीब चुप करके खड़ा था. फलवाला बकता-झकता खोंचा उठा चलने लगा. बिंदो भी अंदर आने को मुड़ गया. वह दरवाज़े तक पहुंचने न पाया था कि फलवाला रुक गया. खोंचा उतारकर बोला- “कितने लेने हैं?”
बिंदो अंदर आया तो चचा मोढ़े पर बैठे जैसे किसी विचार में तल्लीन हुक्का पी रहे थे. चौंक कर बोले- “मान गया? हम कहते थे न मान जाएगा. हम तो इन लोगों की नस-नस से वाकिफ़ हैं. तो कै केले लेने मुनासिब होंगे.” चचा ने उँगलियों के पोरों पर गिन-गिनकर हिसाब लगाया- हम आप, छुट्टन की माँ, लल्लू ,दद्दू ,बिन्नो और छुट्टन. गोया छह, छह दूनी क्या हुआ? खुदा तेरा भला करे, बारह. यानी एक दर्ज़न. फी आदमी दो केले बहुत होंगे. फल से पेट तो भरा नहीं जाता. मुँह का स्वाद बदला जाता है. पर देखिओ, दो-तीन गुच्छे लेकर अंदर आना, हम आप उसमें से अच्छे-अच्छे केले छांट लेंगे.
फलवाले ने शिकायत की सदा लगाते हुए केलों के गुच्छे अंदर भेज दिए. चचा ने केलों को दबा-दबाकर देखा, उनकी चित्तियों का अध्ययन किया और दर्ज़न भर अलग कर लिए. केले वाला बाकी केले लेकर बड़बड़ाता हुआ विदा हो गया. चचा ने बिंदो की ओर रुख किया-“ ले, इन्हें खाने की डलिया में हिफाज़त से रख दे. रात के खाने पर लाकर रखना और ज़ल्दी से आकर बरतन माँजने के लिए राख ला. बड़ा समय इस सौदे में नष्ट हो गया.”
बिंदो केले अंदर रख आया और बावर्चीखाने से राख लाकर बरतन मांजने लगा. “यूं……ज़रा जोर से. हाँ, ताकि बरतन पर रगड़ पड़े. इस तरह पीतल के बरतन साफ करने के लिए ज़रूरत इस बात की होती है कि इमली के प्रयोग से पहले बरतनों को एक बार खूब अच्छी तरह माँजकर साफ़ कर लिया जाए. ऐसे सब बरतनों की सफ़ाई के लिए इमली निहायत लाज़वाब नुस्खा है. गिरह में बांध रख. किसी रोज़ काम आएगा. और पीतल ही का क्या ज़िक्र? धातु के सभी सामान इमली से दमक उठते हैं. अभी-अभी तू आप देखियो कि इन काले-काले बरतनों की सूरत क्या निकल आती है. हाँ, और वह, मैंने कहा, केले एहतियात से रख दिए हैं न? ……यूं बस मंज गया. अब रगड़ उस पर इमली. इस तरह. देख, मैल किस तरह कटता है, कैसी चमक आती जा रही है. यह इमली सचमुच बड़ी चीज़ है. मगर बिंदो, मेरे भाई, जरा उठियो तो. उन केलों में से जो दो हमारे हिस्से के हैं, हमें ला दीजियो. हम तो अभी ही खाए लेते हैं, बाकी लोग जब आएंगे, अपना-अपना हिस्सा खाते रहेंगे.
बिंदो ने उठकर दो केले ला दिए. चचा ने मोढ़े पर उंकड़ू बैठे-बैठे पैंतरा बदला और केलों को थोड़ा-थोड़ा छीलना और मजे से खाना शुरू किया. “……..अच्छे हैं केले…….बस यूं ही जरा जोर से हाथ …..इस तरह….! छुट्टन की अम्मां देखेंगी तो समझेंगी, आज ही नए बरतन खरीद लिए हैं. और फिर लुत्फ़ यह कि खर्च कुछ नहीं. हर्र लगे न फिटकिरी, रंग चोखा आए. आखिर कितने की आ गई इमली? न, न खुद ही कहो, कितने की आई इमली? दो पैसे की न ? तू आप खरीद लाया था. और फिर जो कुछ किया, तूने अपने हाथ से किया है. यह तो हुआ नहीं, तुझसे आँख बचाकर हमने बीच में कुछ मिला दिया हो. बस, यह जितनी भी करामात है सिर्फ इमली की. महज़ इमली की. और वह मैंने कहा , अब कै केले बाकी रह गए हैं ? दस? हूँ . खूब चीज़ है न इमली? एक टके के खर्चे में कायापलट हो जाती है. मगर बिंदो, इन दस केलों का हिसाब बैठेगा किस तरह? यानी हम शरीक न हों ,तब तो हर-एक को दो-दो केले मिल जाएंगे. लेकिन हमारे साझे के बिना शायद दूसरों का जी भी खाने को न चाहे. क्यों? छुट्टन की अम्मां तो हमारे बगैर नज़र उठाकर भी न देखना चाहेंगी. तूने खुद देखा होगा, कई बार ऐसा हो चुका है. और बच्चों में भी दूसरे हज़ार ऐब हों पर इतनी खूबी ज़रूर है कि वे लालची और स्वार्थी नहीं हैं. सबने मिलकर शरीक होने के लिए हमसे अनुरोध शुरू किया तो बड़ी मुश्किल होगी. बराबर-बराबर बांटने के लिए काटने ही पड़ेंगे और कलकतिया केले की बिसात ही भला क्या होती है? काटने में सबकी मिट्टी पलीद होगी. टेढ़ी बात है. मगर हम कहते है कि समझो फी आदमी एक-एक का हिसाब रख दिया जाय तो? दो-दो न सही, एक-एक ही हो, मगर खाएँ तो सब हंसी-ख़ुशी से , मिल-जुलकर, ठीक है ना? गोया छह रख छोड़ने ज़रूरी हैं. तो इस सूरत में कै केले ज़रुरत से ज्यादा हुए? चार ना ? हूँ! तो मेरे ख़याल से वे चारों ज्यादा केले ले आना. बाकी के छह तो अपने ठीक हिसाब के मुताबिक बंट जाएँगे.”
बिंदो उठकर चार केले ले आया. चचा ने इत्मीनान से उन्हें बारी-बारी खाना शुरू कर दिया.
“हाँ , तो तू भी कायल हुआ न इमली की करामात का ? असंख्य लाभों की चीज़ है. मगर क्या कीजिये, इस ज़माने में देश की चीज़ों की ओर कोई ध्यान नहीं देता. यही इमली अगर विलायत से डिब्बों में बंद होकर आती तो जनाब लोग इस पर टूट पड़ते. हर घर में इसका एक डिब्बा मौजूद रहता. इसमें और भी बहुतेरे गुण हैं. यानी सिरदर्द की शिकायत के लिए इससे अच्छी चीज़ सुनने में नहीं आई. और यह भी नहीं कि कड़वी-कसैली हो या बुरे स्वाद की हो या दुर्गंधपूर्ण हो. शरबत बनाइये, खट्टा-मीठा, ऐसा स्वादिष्ट होता है कि क्या कहिये. इमली का शरबत तो शायद तूने भी पिया हो. कैसा सुस्वादु होता है. गर्मियों में तो अमृत है. और फिर मज़ा यह कि लाभदायक भी बेहद. जैसा स्वाद वैसा ही गुण. मितली को भी रोकता है. मितली नहीं जानता? अरे अहमक, कै की शिकायत. इसके अतिरिक्त पित्त के लिए भी लाभकारी है. पित्त भी एक चीज़ होती है, फिर कभी समझायेंगे. तो अब छह ही बाकी रह गए हैं ना ? कुछ नहीं बस ठीक है. बस ठीक है. सबके हिस्से में एक-एक आ जाएगा. हमें हमारे हिस्से का मिल जाएगा, दूसरों को अपने-अपने हिस्से का . काट-छांट का तो झगड़ा ख़त्म हुआ. अपने-अपने हिस्से का केला लें और जो जी चाहे करें. जी चाहे आज खाएँ, आज जी न चाहे, कल खाएँ. और क्या, होना भी यूं ही चाहिये. इच्छा के बिना कोई चीज़ खाई जाए तो शरीर का अंश नहीं बनने पाती यानी अकारथ चली जाती है. कोई चीज़ आदमी खाए उसी वक्त, जब उसके खाने का जी चाहे. छुट्टन की अम्मां की हमेशा यही कैफ़ियत है. जी चाहे तो चीज़ें खाती हैं, न चाहे तो कभी हाथ नहीं लगातीं. हमारा अपना भी यही हाल है. ये फुटकर चीज़ें खाने को कभी-कदास ही जी चाहता है. होना भी ऐसा ही चाहिए. अब ये ही केले हैं, बीसियों मर्तबा दुकानों पर रखे देखे , कभी रूचि नहीं हुई. आज जी चाहा तो खाने बैठ गये. अब फिर न जाने कब जी चाहे. हमारी तो कुछ ऐसी ही तबीयत है. न जाने शाम को जब तक सब आयें, रूचि रहे या न रहे. निश्चय से कहा जा सकता है? दिल ही तो है. मुमकिन है उस वक्त केले के नाम से ही घृणा हो. तो ऐसी सूरत में हम जाएँ. हम तो बाकी छह केलों में से अपने हिस्से का एक केला अभी खा लेते हैं. क्यों? और क्या? अपनी-अपनी तबीयत अपनी-अपनी भूख. जब जिसका जी चाहे खाए. उसमें तकल्लुफ़ क्या? ऐसे मामलों में बेतकल्लुफ़ी ही अच्छी है. जौक साहब ने फरमाया है:
ऐ जौक तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर, आराम से वे हैं जो तकल्लुफ़ नहीं करते.
तो जरा उठियो मेरे भाई. बस मेरे ही हिस्से का केला लाना. बाकी के सब वहीँ अच्छी तरह रखे रहें.”
बिंदो ने आज्ञा का पुनः पालन किया. चचा केला छीलकर खाने लगे.
“देख, क्या सूरत निकल आई बरतनों की? सुभान अल्लाह ! यह इमली का नुस्खा मिला ही ऐसा है. अब इन्हें देखकर कोई कह सकता है कि पुराने बरतन हैं? जो देखेगा यही समझेगा, अभी-अभी बाज़ार से मंगवाकर रखे हैं. दूसरों की क्या बात, हमारी गैरहाजिरी में यूं साफ किये गए होते तो वापस आकर हम खुद न पहचान सकते. छुट्टन की अम्माँ भी देखेंगी तो एक बार ज़रूर चौंक पड़ेंगी. तुझसे पूछें तो यह कह दीजियो , मियाँ सारी दोपहर बैठ कर साफ़ कराते रहे हैं. जो पूछे,यही कहियो, मियाँ ने एक नुस्खा बनाकर उससे साफ़ कराएँ हैं. बच्चों से भी जिक्र न कीजियो, वर्ना निकल जाएगी बात. कब तक आएँगे बच्चे? लल्लू का मैच तो शायद शाम से पहले ख़त्म न हो. उसके खाने-पीने का इंतजाम टीम वालों ने कर ही दिया होगा. वर्ना, खाली पेट क्रिकेट किससे खेला जाता है. कोई इंतजाम न हो तो वहीँ खाना मंगा सकता था. खूब तर माल उड़ाया होगा आज. मेवे-मिठाई से ठसाठस पेट भर लिया होगा. चलो, क्या हर्ज़ है, यह उमर खाने-पीने की है. और फिर घर के दूसरे लोग बढ़िया-बढ़िया चीज़ें खाएं तो वह बेचारा क्यों पीछे रहे? दद्दू और छुट्टन तो टिकट के दाम के साथ खाने-पीने के लिए भी पैसे लेकर गए हैं. और क्या? वहीँ किसी दुकान पर मेवा-मिठाई उड़ा रहे होंगे. खुदा खैर करे, गरिष्ठ चीज़ें खा-खाकर कहीं बदहजमी न कर जाएँ. साथ कोई रोक-टोक करने वाला नहीं है. तकलीफ़ होती है. बिन्नो तो माँ के साथ है. वह ख़याल रखेगी कि कहीं ज्यादा न खा जाएँ . मगर मैं कहता हूँ कि केले हमने आज बड़े बेमौके लिए. उस वक्त ख़याल ही न आया कि आज तो वे सब बड़ी-बड़ी नियामतें उड़ा रहे होंगे. केलों को कौन पूछने लगा? और तूने भी याद न दिलाया, वर्ना क्यों लेते इतने बहुत-से केले? बेकार नष्ट हो जाएंगे. पर अब खरीद जो लिए. किसी न किसी तरह ठिकाने तो लगाने ही पड़ेंगे, फेंके तो नहीं जा सकते. फिर ले आ यहीं, मजबूरी में मैं ही ख़त्म कर डालूँ .”
January 6, 2018 @ 5:08 am
हा हा हा बढिया कहानी है। कुछ इसी तरह की अौर कहानी पोस्ट करें गुरु जी
January 6, 2018 @ 6:15 am
इम्तियाज अली की यह कहानी बहुत सारे पाठकों की पसंद है।चचा ने अपने जिह्वालोलुप को किस तरह तर्कों से अलंकृत कर मज़बूरी की संज्ञा प्रदान की है वह काफी हास्यास्पद है।इंटरनेट के दौर में भी यह एक दुर्लभ कहानी है।हास्य से भरपूर पठनीय कथा।उपलब्ध करवाने के लिए शुक्रिया
April 8, 2018 @ 2:23 pm
४० साल से ये कहानी जेहन में ताज़ा है।
बस एक तकलीफ है.. चचा अगर २ केले बिंदु को दे देते?
April 15, 2019 @ 10:25 am
❤❤???
July 13, 2019 @ 8:22 am
Chacha ki niyat me khot kab aur kyu aayi
April 29, 2020 @ 1:18 pm
चचा छक्कि िे के ले खरीर्दे भाषा – “िाक” से सम्बस्तिर् पााँच मुहावरों से वाक्य – निमातण (सनचत्र)
October 27, 2020 @ 4:46 pm
Hindiबिनदो कौन था ?
March 15, 2022 @ 6:14 pm
Maine ye kahani school ki Hindi book mein bohot saal pehle padi thi. Iska Nas mujhe itne saal yaad tha. Aaj pta nhi kyu dimag mein aaya ki internet mein search karun. Acha lga padh ke.