शहर में प्लेग था। लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। बीमारी भी ऐसी थी–बीमार पड़ते ही लाश निकलते देर न लगती। सब लोग शहर छोड़-छोड़कर बाहर जंगलों में या झोपड़े बनाकर रहने के लिए भागने लगे। न चाहते हुए भी मुझे शहर छोड़ना पड़ा। मुझे यहाँ से भागना अच्छा न लगता था। घर में मैंने सब […]
1 आधी रात के समय नवयुवक एकनाथ ने बहुत धीरे से अपने मकान का दरवाजा खोला और बाहर निकल आया। गली, बाजार, गाँव – सब सुनसान और अंधकारमय थे। एकनाथ ने एक क्षण के लिए ठहरकर अपने घर की तरफ देखा, अपने बूढ़े बाबा और निर्बल दादी का खयाल किया, अपने मित्र – बन्धुओं के […]
घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खण्डहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रहा होता। दुनिया बड़ी विचित्र, पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता […]
पूत-सलिला भागीरथी के तट पर चन्द्रालोक में महाराज चक्रवर्ती अशोक टहल रहे हैं। थोड़ी दूर पर एक युवक खड़ा है। सुधाकर की किरणों के साथ नेत्र-ताराओं को मिलाकर स्थिर दृष्टि से महाराज ने कहा-विजयकेतु, क्या यह बात सच है कि जैन लोगों ने हमारे बौद्ध-धर्माचार्य होने का जनसाधारण में प्रवाद फैलाकर उन्हें हमारे विरुद्ध उत्तेजित […]
–लाल हिन्द, कामरेड!–एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द–कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी हद तक यह सत्य भी है कि कामरेड की ‘रेड’ से सरकार तक चौंक जाती है। इनकी ‘रेड’ भी […]
बाबू कुन्दनलाल कचहरी से लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नीजी एक कुँजड़िन से कुछ साग-भाजी ले रही हैं। कुँजड़िन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं। इस पर कई मिनट तक विवाद होता रहा। आखिर कुँजड़िन डेढ़ ही पैसे पर राजी हो गई। अब तराजू और बाट का प्रश्न छिड़ा। दोनों […]
वह दूर से दिखाई देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी। फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। निःसन्देह, वह मिस पाल ही थी। यह तो खैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में रहती हैं, पर इस तरह अचानक उनसे भेंट हो जाएगी, यह नहीं सोचा था। […]
चाहे धूल-भरा अन्धड़ हो, चाहे ताज़ा-ताज़ा, साफ़ आसमान, गांव की तरफ़ नज़र उठती, तो वह ज़रूर उस बूढ़े पीपल से टकराती, जो दक्खिन को जानेवाले छोर पर खड़ा जाने कब से आसमान को निहार रहा है। हां, जब आसमान घिरा होता, ऊदे-ऊदे बादल झुककर गांव की बंसवारियों को दुलराने लगते, तो वह पहले से कहीं […]
भुवाली की एक छोटी सी कॉटेज में लेटा-लेटा मैं सामने के पहाड़ देखता हूँ। पानी भरे, सूखे-सूखे बादलों के घेरे देखता हूँ। बिना आँखों के भटक-भटक जाती धुन्ध के निष्फल प्रयास देखता हूँ। और फिर लेटे-लेटे अपने तन का पतझार देखता हूँ। सामने पहाड़ के रूखे हरियाले में रामगढ़ जाती हुई पगडंडी मेरी बाँह पर […]